शोध आलेख : हिमालय क्षेत्र की नदियों का विभिन्न लोकगीतों में वर्णन / नवनीत

हिमालय क्षेत्र की नदियों का विभिन्न लोकगीतों में वर्णन
- नवनीत

शोध सार : हिमालय का निचला पर्वतीय और मैदानी क्षेत्र प्राचीन काल से ही विभिन्न लोकसमाजों का आवास रहा हैं। यहाँ से बहने वाली नदियाँ यहाँ पर रहने वाले इन समाजों के लिए भौतिक आवश्यकताओं हेतु जीवन रेखा बन कर बहती रहती हैं। फलस्वरूप यहाँ की हिमालयी नदियों का इन क्षेत्रों के लोकजीवन से प्रत्यक्ष और परोक्ष सम्बन्ध बना रहा हैं। इस प्रकार यहाँ के वासियों ने इन नदियों का अपने लोकगीतों में विभिन्न प्रकार से वर्णन किया हैं। नेपाल से बहने वाली कोसी नदी को नेपाल के 'चाड़' क्षेत्र के लोकगीतों में चित्रित किया गया हैं। इसके बाद भारत में बिहार के मिथिलांचल में यमुना का वर्णन, बिहार के 'चम्पारण' वाले भाग में यमुना-गंगा का वर्णन अक्सर मिलता हैं। ऐसे ही भारत के विभिन्न क्षेत्रों में रह रही जनजातियों में से बिहार में रहने वाली जनजातियों ने 'करमा' गीत-नृत्य में गंगा का उल्लेख किया हैं। उत्तराखंड के गढ़वाली लोकगीतों में गंगा को दैवीय रूप में इंगित किया गया हैं। वहीं उत्तराखण्ड के कुमाऊनी लोकगीतों में भी गंगा, पनार और काली नदी का चित्रण हुआ हैं। जो कि हिमालय से निकलने वाली छोटी-छोटी नदियाँ हैं। इसके अतिरिक्त गंगा की सहायक नदी धौली गंगा के चारों ओर की प्रकृति का सुंदर वर्णन भी उत्तराखण्ड के गढ़वाली लोकगीतों में मिलता हैं। इसी भांति हिमांचल प्रदेश के लोकगीतों में 'रावी' नदी का चित्रण 'सांय-सांय मत कर राविये' लोकगीत में बडे़ मार्मिक तरीके से किया गया हैं।

बीज शब्द : उद्भव, रीति, अश्विन-कार्तिक, कामना, उत्सव, सांय-सांय, जिज्ञासा, सहज, राग-रागनियां, सामान्य, जातीय चेतना, लय, जन, स्पन्दन,सर-सराहट, परोक्ष।

मूल आलेख : हिमालय पर्वत भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग पश्चिम से पूर्व जम्मु कश्मीर से असम-अरूणांचल प्रदेश तक फैला हैं। इसके निचले भाग और मैदानी क्षेत्र में विभिन्न जातियाँ, जनजातियां और लोकसमाज अपनी-अपनी भौगोलिक सीमाओं के अंतर्गत एक राज्य अथवा देश विशेष में निवास करती हैं। हिमालय से बहुत सी नदियाँ निकलती हैं, जो कि इन पर्वतीय भागों और मैदानी क्षेत्रों से प्रवाहित होती हैं।

हिमालयी क्षेत्र भारत और उसके अन्य पड़ोसी देशों की सीमाओं में फैला हुआ हैं। अतः इन क्षेत्रों में रहने वाली जातियों एवं लोक-समाजों का प्राचीन काल से ही इन हिमालयी नदियों के साथ आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि सम्बन्ध रहे हैं। यहाँ तक कि भारत और नेपाल जैसे देशों में बहने वाली अधिकांश नदियों का उद्गम श्रोत हिमालय से ही हैं। यहाँ के लोकसमाज द्वारा अपने लोकगीतों में इन नदियों का अक्सर वर्णन विभिन्न रूपों में प्राप्त होता हैं।

यदि लोकगीत के स्वरूप पर संक्षिप्त रूप से विचार करें तो लोकगीत एक सामान्य जन में प्रचलित जनसमूह द्वारा सृजित गीत हैं, जो पीढ़ी दर पीढी़ मौखिक माध्यम से कुछ परिवर्तन के साथ निरंतर आगे प्रसारित होते हैं। ये वे गीत होते हैं जिनका कोई शास्त्रीय एवं काव्यगत कला पक्ष निश्चित नहीं होता।

वे सहज-सरल,संगीत की राग-रागनियों से निबद्ध और लयात्मक रूप से पद्य रूप में संचारित होते हैं। अधिकांश लोकगीतों की पृष्ठभूमि आदिवासी, ग्रामीण एवं कस्बाई क्षेत्र होती हैं। भले महानगरीय एवं शहरी जीवन में भी कतिपय विशेष स्थानों एवं आयोजन में इसकी झलक मिलती रहती हैं।

नेपाली भाषा के लोकगीतों में बहुधा गंडक, भेरी, कोसी जैसी नदीयों का वर्णन मिलता हैं जो कि इसके हिमालय क्षेत्र से निकलती हैं। क्योंकि ये नदियाँ इस क्षेत्र के बड़े भू-भाग में फैली हैं। साथ ही यहाँ का लोक समाज इन नदियों से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जुडा़ हैं। अंत: इनका विस्तृत वर्णन इस भाषा के विभिन्न लोकगीतों में सामाजिक और सांस्कृतिक रूप में आता हैं।

इस संबंध में लेखक गोपाल अश्क लिखते हैं-“नेपाल की नदियों का मूल्य और मान्यता हिमालय की ऊंचाई की तरह हैं, जिसे छूकर मन प्रफुल्लित हो जाता हैं। नेपाल में अधिकांश धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियां किसी न किसी नदी के किनारे संपन्न की जाती हैं”1

गण्डक नदी की बहती हुई गति को इंगित करते हुए एक लोक दोहारी शैली के गीत में इस नदी के किनारों पर निवास करने वालों और भ्रमण करने वालों की जीवन शैली को चित्रित करते हुए गीत में वर्णित भी हैं-

"हे...नाचुम जेल गईन छा, नाचिन छा
गाईन छा, नाचिन छा,
कस्लाई केथा,कतिन जील बचिन छा
सलल बग्यो गण्डकी
आज संगई भोलीथ कहां हो कहां
येस्ती छहो हमरो जिंदगी।"2

(चलो गायें और नाचें। चलो गायें और नाचें। कैसे हो? कितने हो? क्या हो? चलो बातें करते हैं। देखो गण्डकी नदी भी सर-सराहट के साथ बह रही हैं। आज सब एक साथ में सब भूल जाते हैं कि हम कहां हैं? कहां नही हैं ? आज हमारी जिंदगी यहीं हैं।)

इस प्रकार से गण्डकी नदी का यहाँ के लोकजीवन से कितना गहरा संबंध हैं यह भी इसी तरह के गीतों से ज्ञात किया जा सकता हैं।

ऐसे ही एक अन्य लोकगीत में 'भेरी' नदी और उसके पडा़व में आने वाले प्रमूख स्थलों उरलादाई और करनाली का जिक्र भी 'सलल बगेको भेरी नदी' में मिलता हैं-

"सलल बगेको भेरी नदी
उरलादाई,करनाली मां भेट
मई बुझना सकि ना जिंदगी मां
के हजूर पीरति को खेल।"3

नेपाल में 'कोसी' नदी हिमालय से निकलकर भारत के बिहार राज्य में प्रवेश करती हैं। हिमालय के गोसा इथान शिखर के उत्तर से निकलकर यह नदी नेपाल के हरकपुर क्षेत्र से होती हुई चतरा के तराई क्षेत्र में प्रवेश करती हैं। वहॉं से आगे बढ़ती हुई भारतीय सीमा को पार करके भीमनगर में आती हैं।

कोसी नदी का वर्णन नेपाल के 'चाड़' क्षेत्र के लोकगीत में मिलता हैं। इस गीत में कोसी के किनारे बने मैदानी क्षेत्र के लोग नई फसल के अवसर पर पूजा कर रहे हैं। अपने विभिन्न कार्य-कलापों के साथ रात्री के समय राम और कृष्ण के भजन करते हुए गाते हैं। वो कोसी नदी के किनारे पूजा अर्चना करते हैं। उसकी रेत में खेलते हैं-

"कोसीको किनारैमा फसले पूजलाई
रगतले बालुवा भिजाई
हो, हो राम रसै मुरली,
गोकुलमा कृष्णोले बजाई"4

इसी प्रकार मिथिलांचल क्षेत्र में 'यमुना' नदी बहती हैं। ये नदी नेपाल के जनकपुर के पास से बहती हुई बिहार (मधुबनी) के पास से गुजरती हैं।

इस नदी पर मैथली लोकगीत में एक प्रकार के जट-जटिन संवाद गीत रचा गया हैं। यह गीत अश्विन-कार्तिक के महीने चॉंदनी रात को गाया जाता हैं।

गीत में लड़के 'जट' का अभिनय करते हैं और लड़कियॉं जटिन का। इस प्रकार के गीतों में कहीं-कहीं यमुना नदी की चर्चा की जाती हैं।

'चल रे जटा यमुने के किनारे' गीत के माध्यम से यमुना के किनारे लगने वाले घर,हाट-बाजारों का वर्णन किया जाता हैं-

"चल-चल रे जटा यमुने के किनारे
पान खइह रे जहा पिक ने रइह रे जटा
चल-चल रे जटिन यमुने के किनारे
टिकवा विकाइछइ लहरदार रे जटिन

×××

कंठा बिकाइछइ लहरदार रे जटिन।"5

(हे जट यमुना के किनारे घूमने चलो। वहां तुम पान खाना और पीक मारते रहना। चलो जटिन यमुना के किनारे घूमने चलें। वहॉं बहुत किमती मॉंग टिक्का बिकता हैं।××× वहां बहुत सुंदर कंठा बिकता हैं।)

मिथिलांचल और बिहार क्षेत्र में कोसी नदी का अपना बडा़ विस्तृत प्रभाव हैं। इस क्षेत्र की कोसी नदी के प्रति अपनी आस्था को व्यक्त करता लोकगीत 'कोसी के लोकगीत' नदी के माता स्वरूप का अहसास दिलाता उसकी आरम्भिक यात्रा से उसकी कोमल और भयावहता की स्थिति तक पहुंचने भावों को स्पष्ट करता हैं-

"सगर परबत से नाम्हल कोसिका माता,
भोटी मुख कयेले पयाम
आगू-आगू कोयला वीर धसना
नाम्ही-नाम्ही आछर लिखले गंगा माता,

×××

गहिरी से नदिया देखहूँ भेयाउन
तहॉं देल झौआ लगाय
रोहुआक मूरा चढी हेरये कोसिका
केति दूर आबैय छे बलान।"6


बिहार के चम्पारण जिले में,उत्तराखंड के नैनीताल में, उधमसिंह जिले में तथा नेपाल के सीमावर्ती और तराई क्षेत्रों में 'थारू' जनजाति का निवास स्थान हैं। इनके लोकगीतों में भी अक्सर गंगा-यमुना नदियों का वर्णन मिलता हैं।

बिहार के 'थरूहट' लोकगीत में एक स्त्री अपनी देवी विसर्जन की चिंता को लेकर एक गीत में कहती हैं-

"गंगा रे जमुनी देवी मोरे पडी़ गइले-वलुरेत
पानी बिनु मरल पियासे,
काली के रथ आवे झॉंप-झॉंपुहुर,दुरुगा के रथ
आवे खेह उड़िआइल।
दुरगा के के रथ आवे पानी के पिआसल,
आगे माई हुरियन कुइयॉं कोड़ावे
कुइयॉं के पनिया निरमल काया,
सरवर गइले बढि़याई।
गंगा रे जमुनी देवी मोर,उछिलत अइले,
काया मोर गइले ठंडाई।"7

(स्त्री कह रही हैं, कि मेरी देवी गंगा और यमुना के तट में प्यासी हैं। नदी में पानी कम हैं। काली मॉं के रथ पर पर्दा पडा़ हैं। दुर्गा मॉं का रथ धूल उडा़ता हुआ दौड़े आ रहा हैं। इसीलिए वो कुछ देख नही पा रही हैं। उनका रथ प्यासा हैं। वो कुआं खोदती हैं। किंतु फिर मॉं गंगा और यमुना उमड़ती हुई वहॉं आ गई। इससे मेरी काया धन्य हुई।)

मध्य भारत और उड़िसा में 'गोंड' जैसी जनजातियॉं रहती हैं इन्ही जनजातियों में गंगा नदी पर भी कुछ निवास करती हैं और गंगा के किनारे बसी हैं। उन्होंने भी अपने लोकगीत में गंगा जैसी हिमालयी नदी का वर्णन किया हैं। इसमें प्रमुखतः 'करमा' गीत-नृत्य में गंगा नदी का चित्रण हैं। यह गीत उड़िसा,बिहार,मध्यप्रदेश और गोंड जैसी आदिवासी जनजातियों में गाया जाता हैं।

'करमा' गीत में गंगा के वर्णन में एक केवट के साहसी लड़के की बहादुरी चित्रित की गई हैं। इस गीत में ('केवटा छोकड़वा बडा़ बा हड़मुड़वा'-केवट का लड़का बडा़ हिम्मती हैं) गंगा मॉं से कामना की जाती हैं कि वे अपना पानी मटमैला न करें ताकि वे लोग लड़के को पानी के भीतर देख सकें-

"केवटका छोकड़वा बडा़ वा हड़मुड़वा
बूड़ि-बूड़ि ना
देहवा मारअ्ला मछरिया,बूड़ि-बूड़ि ना।
अपने के मारइ केवटा सिधरों सेउरिया
गुरुजि के ना-
मारइ मंड़र घरियरवा, गुरुजि के ना।
किया गंड़्ग माई तोहार ओहरल कररवा
किया हो पनियां तोहार भइनअ् भौंडरवा
किया हो गंड़्गा जी पनियां तोहरा ना।"8

(केवट का छोरा बड़ा हिम्मत वाला हैं। वह इस पानी में डूब कर पानी के भीतर से मछलियॉं मार रहा हैं। वह अपने गुरू के लिए मगरमच्छ और घड़ियाल मार कर लाता हैं। हे गंगा मॉं तुम्हारा पानी मटमैला हुआ हैं। तुम थोडा़ धीरे-धीरे बहो ताकि पानी साफ हो जाए। तुम ही बताओ गंगा जी पानी के भीतर केवट का लड़का कैसा हैं।)

गढ़वाली लोकभाषा के लोकगीतों में गंगा नदी को विभिन्न प्रकार से वर्णित किया गया हैं। गंगा का जन्म वर्णन, उसके उद्भव की कथा, उसके महात्म्य और उसकी विस्तृत सुंदरता को गढ़वाली लोकगीत में बताया गया हैं-

"गंगा माई गाडू रिंग्या ओद,
गंगा माई इनी मातमी माई
त्वैन उत्पइ लिने हिमालै का गोद

×××

विष्णु चरण से छूटी शिव जटा समाई

×××

शिव जटा छुटे मृत्यु मंडल आई।
सोहन सी जटा माता मोती भरी ले बॉंही।

×××

चॉंदी सी चलक सुहाग सी स्वाणी
भगतूं का खातिर माता मृत्यु मंडल मा आई।"9

(हे गंगा माता नदियों में बनने वाले गोल भंवर, तू ऐसी महात्म्यमई और लोक-कल्यांणकारी हैं कि तूने हिमालय की गोद से जन्म लिया। ××× वहां से तू विष्णु के पैरों से छूट कर अपने अनियंत्रित वेग के साथ शिव की जटा में समाई। ××× फिर वहां से इस पृथ्वी (मृत्यु मंडल) में उतरी। माता तेरी सोने की जटाएं हैं और मोतियों से तेरी भुजाएं भरी हैं। ×××तुम चाँदी की तरह चमकती हो और सुहागिनों सी सुंदर हो। ×××माता तुम इस पृथ्वी के लोगों और यहाँ के भक्तजनों के लिए इस धरती में उतरी हो)

उत्तराखंड की कुमाऊनी लोकभाषा के लोकगीतों में भी विभिन्न नदियों का वर्णन मिलता हैं। इन गीतों में सरयू,गंगा और पनार नदी का वर्णन मिलता हैं। माता पार्वती के श्रृंगार वर्णन को लेकर इन नदियों को इस प्रकार चित्रित किया गया हैं-

"आहा वार ऐगे सर गंगा
पार बै पनार न्यौल्या
भुली जूंला दन्त पारी
नी भूला अन्वार न्यौला।"10

(इस तरफ सरयू, गंगा बह रही हैं। उस तरफ पनार नदी। पर तुम्हारी सुंदर दॉंतों की पंक्तियों को मैं विस्मृत भी कर लूं पर तुम्हारी मुख आभा कैसे करके भूलूं।)

इसी तरह इस क्षेत्र में बहने वाली 'काली' नदी का वर्णन भी मिलता हैं। जिसमें युवक-युवतियां नित्य-गीत करती हुई उत्सव मना रही हैं और गा रही हैं-

"सिलगडी़ का पाला चला हो गंवरा
गिल खेलन्या गडो़ न भूली गंवरा
काली ज्यू को तल्ला गंवरा
काठ को कलेजा मेरो गंवरा।"11

(सिलीगड़ी के किनारे गवरा खेलने-कूदने नाचने का मैदान हैं। तू हिसालू फल का लाल दाना हैं और मैं उड़ रहा एक पक्षी। काली नदी के निचले मैदानी क्षेत्रों में तो शेर जा रहा हैं और तेरा हृदय भी शेर के जैसा लकड़ी या काठ का हैं।)

इन्ही गीतों में कहीं-कहीं इन नदियों के किनारे फैले प्राकृतिक सौंदर्य का भी चित्रण होता हैं। एक गढ़वाली लोकगीत में 'धौली गंगा' जो कि गंगा की एक सहायक नदी हैं उसके दोनो तटों की तरफ विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ और बेल-बूटे फैले हैं। उन्हीं में एक खास किस्म के फूल का चित्रण करते हुए लोकगीत में धौली गंगा के किनारे उगने वाले उस फूल के प्रति जिज्ञासा और महत्व स्थापित करने का प्रयास किया गया हैं जो अत्यधिक सुगंधित हैं-

"धौली गंगा का किनारा यो फूल के को?
अनमन भांति को यो फूल के को?
सैरो बोण मोयेणे यो फूल के को?
पैरी धौली घुमैली यो फूल के को?

×××

देवता सरीख्या यो फूल के को?
टोपी मा धर लेणू यो फूल के को?"12

(धौली गंगा के किनारे यह खिला हुआ फूल कौन सी जाति का हैं। इसका क्या नाम हैं? ये फुल अनमने तरीके से इस नदी के किनारों पर खिला हैं किसका हैं? इसकी खुशबू से सारा धौली गंगा का वन प्रांत खिल उठा हैं। यह फूल किसका हैं? इसकी खुशबू में सारी धौली गंगा का क्षेत्र घुल गया हैं, और हर तरफ इसकी खुशबू फैली हैं। पर इस फूल का नाम हैं क्या? यह फूल साक्षात देवता के समान हैं। इस फूल को सर के ऊपर टोपी में धारण करना चाहिए। क्योंकि यह एक अद्भुत फूल हैं।)

ऐसे ही हिमांचल प्रदेश के लोकगीत में भी हिमालयी नदियों में से एक नदी 'रावी' का वर्णन मिलता हैं। लोकगीत 'सांय-सांय मत कर राविये' में रावी नदी का चित्रण बड़े सौंदर्यपूर्ण तरीके से किया गया हैं। रावी नदी का मानवीकरण करते हुए एक प्रेमिका अपने प्रेयसी को याद करती हैं। वह अपने प्रेमी के उपेक्षा भाव को बडे़ मार्मिक तरीके से कहती हैं-

"सांय-सांय मत कर राविये!
मिन्जो तेरा डर लगदा।
चम्बे रे गले दीए लड़ीए!
मिन्जो तेरा डर लगदा।
टेड़ी-मेढी़ चाल तेरी, सौ-सौ नखरे
छन्दे तेरे राविए! ओ। छन्दे तेरे राविए
कर न तू नखखरे।
तेरे कंढे बौहणे दा, दिल मेरा करदा।
मिंजो तेरा डर लगदा।
मिंजो तेरा डर लगदा।
रुक-रुक पाणियां, तू गल कैं नी लांदा
दिंदा नी स्नेहा कोई, कजो पखलान्दा।
बिसरी कैंह परीत मेरी, कैं नी करदा।
मिंजो तेरा डर लगदा।"13

(हे रावी तू सांय-सांय की आवाज मत कर। मुझे तुझसे डर लग रहा हैं। चम्बा की गले की माला के जैसे लगने वाली मुझे तुझसे डर लग रहा हैं। मैं तुझसे प्रार्थना करती हूं कि तेरी टेढ़ी-मेढ़ी चाल से डर लगता हैं तू ऐसा ना कर। तेरे सौ-सौ नखरे हैं तू ऐसी हरकतें मत कर। तेरे किनारों पर बैठने का मेरा बहुत मन करता हैं, पर तुझसे बहुत डर लगता हैं। ऐ बहते हुए पानी तू रुक तो सही। तुझसे कुछ बातें करनी हैं। तू उसका कोई संदेश क्यों नही देती हैं? वो मुझसे अनजान क्यों बन रहा हैं? उसने मुझे क्यों भुला दिया हैं? तू बता वो मुझे याद क्यों नही करता?)

निष्कर्ष : हिमालयी क्षेत्रों में बहने वाली नदियों के किनारे प्राचीन काल से ही लोक-समाज पनपता रहा हैं। इन समाजों ने अपनी-अपनी संस्कृतियों, रीतियों,परंपराओं और परिपाटियों के आधार पर इस प्रकार की नदियों का वर्णन अपनी लोकभाषा में लोकगीतों के माध्यम से किया हैं। इस तरह इस प्रकार के लोकगीतों में प्राप्त नदियों के विविध वर्णनों से हमें ज्ञांत होता हैं कि प्राचीन समय में इन नदियों से इन समाजों का कितना गहरा संबंध था। इसके अतिरिक्त इन गीतों के माध्यम से हमें हिमालय क्षेत्र में नदी से संबंधीत विलुप्तप्राय परंपराओं, उनकी संरचनाओं और विविध विषयों के अलिखित-अज्ञांत इतिहास के संदर्भ में भी नए अनुभवों और स्थितियों का पता चलता हैं।

संदर्भ :
  1. डॉ. अल्का यतीन्द्र यादव(संपादक), नदी संवाद: जलधारा एवं जलस्रोतों पर अंतर्राष्ट्रीय विमर्श, वन एलाइन पब्लिकेशन,सदतपुर,उत्तर-पूर्व दिल्ली, सं.-2025, पृ.-306
  2. लोकगीत-सलल बग्यो गण्डकि, श्रोत/लिंक https://youtu.be/442EsJ5hJeo?si=5W-xKbf5zS4iZ6aI
  3. लोकगीत-सलल बगेको भेरी नदी, श्रोत/लिंक-https://youtu.be/v3XQT7o8VLA?si=1ufM1JWXYtHlawm8
  4. आ.डी. और एल.एल. (लेखक/संकलनकर्ता), नेपालका विभिन्न जाति लोकगीत एवं परिचय (नेपाल की विभिन्न जाति और लोकगीत एवं परिचय), जगदम्बा प्रकाशन श्रीदरबार टोल, ललितपुर-नेपाल, सं. मार्गशीर्ष- 2023 साल,पृ. 83
  5. रामइकबाल सिंह 'राकेश' (लेखक/संकलनकर्ता), मैथली लोकगीत, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग-उत्तरप्रदेश, सं. 2012, पृ. 397
  6. गजेन्द्र ठाकुर (सम्पादक), (विदेह-सदेह)प्रथम मैथली पाक्षिक पत्रिका, अंक-1-350,सं.-2022,पृ.-576
  7. सिपाही सिंह 'श्रीमंत' (लेखक/संकलनर्ता), थरूहट के लोकगीत (भोजपुरी भाषा के लोकगीतों का संकलन), श्रीमंत प्रकाशन पो.-मटियारी, गोपालगंज (मढोरा),सं.-2002,पृ.-240
  8. डॉ.अर्जुनदास केशरी (लेखक/संकलनकर्ता), करमा (आदिवासी लोकगीतों का संग्रह), लोकरुचि प्रकाशन सिनेमारोड़, रौबर्ट्जगंज-मिर्जापुर,सं.-1981,पृ.-32
  9. गोविंद चातक (लेखक/संकलनकर्ता), गढ़वाली लोकगीत, जुगलकिशोर एण्ड कम्पनी, राजपुर रोड़-देहरादून,सं.-1956,पृ.-26
  10. डॉ.इला शाह,(लेखक/संकलनकर्ता), कुमाऊॅंनी लोकगीतों का समाजशाष्त्रीय अध्ययन,अंकित प्रकाशन, हल्द्वानी-उत्तराखण्ड,सं.-2008,पृ.-62
  11. डॉ.इला शाह (लेखक/संकलनकर्ता), कुमाऊॅंनी लोकगीतों का समाजशाष्त्रीय अध्ययन,अंकित प्रकाशन, हल्द्वानी-उत्तराखण्ड,सं.-2008,पृ.-61
  12. गोविंद चातक (लेखक/संकलनकर्ता), गढ़वाली लोकगीत, जुगलकिशोर एण्ड कम्पनी, राजपुर रोड़-देहरादून,सं.-1956,पृ.-29
  13. गौतम शर्मा 'व्यथित', (लेखक/संकलनकर्ता), हिंमांचल के लोकगीत, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत, सं.-2014,पृ.-185-186

नवनीत
बी.जी.आर परिसर,पौडी़ हे.न.ब.ग., केंद्रीय विश्वविद्यालय,श्रीनगर (हिंदी विभाग)

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  विजय मीरचंदानी

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