टहनी पर टँगा चाँद
- हेमंत कुमार
वे मझ नवम्बर के मझौले दिन थे जब घर से निकलने का सुभीता बैठ रहा था। रात का कद दिन से दो अंगुल बेसी जरूर था पर दोनों का जोड़पा बेमेल न था। टिकट पक्के, मन कच्चा। एक तो पवन-पथ से पहली यात्रा तो दिल डगुपचु-डगुपचु ,दूसरा दूसरे कोतिक (झंझट) भी कम न थे। कनाडा में अज्ञात हमलावरों ने खालिस्तानी निज्जर का स्थान ' खाली' कर दिया था। चरमपंथी और कनाडा सरकार उन 'अज्ञातों' के ज्ञात होने का दावा कर रही थी। नवम्बर की जीवनी में इंदिरा गाँधी की हत्या और सिख विरोधी दंगे भी लिखे हैं । चुनांचे एसजेफ विमानों में यात्रा न करने की चेतावनी दे रहा था। मीडिया आए दिन बम की धमकियों के चलते रद्द उड़ानों और उससे होनेवाले नुकसान के आँकड़े अतिशयोक्ति अलंकार के साथ पेश कर रहा था जिससे भयानक रस का संचार हो रहा था। समाचारवाचक इतने उछलकूदयुक्त अभिनय के साथ समाचार सुनाते कि लगता अभी इनके मुखमंडल से बम फटेगा और बचाव के लिए ये खुद टीवी के डिब्बे से बाहर कूद पड़ेंगे।
खैर, निकले। रात जयपुर में जिस ठौर गुजारना तय हुआ, उसके प्रबंधक ने परिचय जाना। आदमी को तो कौन पहचानता है? पहचानते हैं पद को, व्यवसाय को, जाति को, धर्म को, संगठन को, क्षेत्र को। हम उनके 'वह' लगते हैं। वे हमारे 'ये' लगते हैं। यहाँ 'वे', 'हम', 'ये' आदमी नहीं होते। होते हैं पद, व्यवसाय, रुतबे। हमने भी अपना रोजगार बताया। तो जैसा होना था हमें पहचान लिया गया।
"अरे! साहब के लिए ये 'एसी वाले' दो रूम खोल देना। चद्दर बदल देना।" पद-परिचय देकर हम अजनबी से साहब हो गए। आदमी हम अजनबी वाले वक्त भी थे और साहब वाले समय भी, पर आदमी को पहचाने कौन ! बाद में पता चला कि 'नोन एसी रूम' भी उतने ही साफ, वैसी ही सुविधा-युक्त थे। 'एसी' के नाम पर कुछ पैसों की 'तेसी' की गई थी बस! मतलब परिचय और सम्मान की शक्ल में कुशल व्यावसायिकता हो सकती है। हालांकि 'ऐसी' की दर भी बहुत ऊँची न थी, हाँ शीत में उसकी दरकार न थी।
कोई डेढ़ पहर रात तक नगर-शोभा निरख, जगह भर की आधुनिकता पेट में डाल, लौट आए। सबेरे सांगानेर हवाई अड्डे पहुँचे। भरपूर चहल-पहल। टीवी के बनाए माहौल का असर वहाँ न दिखा। 'बम' शायद टीवी चेनल के स्टूडियो में ही रह गए। समय था तो लोगों की भरपूर आवाजाही के बीच हम टहलने लगे। अधिकतर भारतीय यात्री हलचल भरे थे। भरेपूरे 'लगेज', बच्चों और खानेपीने की चीजों को संभालते हुए। जो कुछ विदेशी थे वे बर्तन में भरे पानी की तरह 'थिर' थे। एक विदेशी जोड़ा तो इन सब से बेपरवाह किताब पढ़ने में लीन था, हालांकि वहाँ भी कुछ स्वदेशी आँखें उनके अनावृत्त पैरों के पैराग्राफ पढ़ने की लिए रह-रह कर पहुँच जाती थीं। इसी बीच हमारे एक साथी ने रसद सामग्री जमा कर ली। हमें हिदायत मिली थी कि किसी-किसी नए यात्री के कानों में रन वे पर दौड़कर उड़ान भरते विमान की आवाज़ चढ़ जाती है , जो यात्री के उतरने के बाद भी कानों में बैठी रहती है। गर टेक ऑफ़ के दौरान जीभ और दाँत व्यस्त रहें, ध्यान बँटा रहे तो यह आवाज़ कानों में जाकर वैसे ही लौट आती है जैसे सुरसा के मुख-मुआयना के बाद हनुमानजी।
तय वक्त पर विमान उड़ा। रन-वे पर दौड़कर ज्यों ही विमान ने टेक ऑफ़ किया एक भय मिश्रित रोमांच का गोला पेट में लुढ़कता हुआ कलेजे की ओर बढ़ा, पर शीघ्र ही पिघलकर रगों में फैल गया। नीचे खिलौनों में तब्दील होती महानगर की इमारतें, हथेली की लकीरों सी खिंची सड़कें, किसी जादू से पल-पल में बोनी होती जा रही अरावली की पहाड़ियाँ, फिर जमीन का गूगल मेप सा नज़र आना, ऊपर नीले आसमान में बादलों के टुकड़े, उनसे छनकर- छूकर आती पीलिए के मरीज सी निस्तेज धूप के बीच खयाल कौंधा धरती से इतनी दूर हवा के कंधों पर लहराता विमान इन पहाड़ियों पर गिर पड़े तो क्या बचे! मन ने कहा , " गरुड़पुराण!" इतनी ऊँचाई से गिरने पर इसके सिवा क्या बच सकता है। फिर मन किया कि इन पहाड़ियों पर तो न गिरे। बेहतर तो गिरे ही न। गर गिरना जरूरी हो तो वहाँ गिरे जहाँ टेंट के गद्दे इक्ठ्ठे हों या किसी पार्क की मखमली दूब पर। यह भी न हो तो किसी खेत की उजली नरम रेत पर। पर गिरे ही क्यों! रोज तो इतने विमान उड़ते हैं दुनिया भर में और ठीक ठिकाने पहुँचते भी हैं।
जैसे आसमान की ओर उठती चीज को गुरुत्वाकर्षण खींचता है अपनी ओर। उसी तरह मुझे घरत्वाकर्षण खींच रहा है। घर , गृहस्वामिनी, माँ, बेटी की आवाज़, आँखें, बातें, हठ, हिदायतें, साथ न ला पाने की विवशता। कितनी ही चीजें! एक अनजानी डोर होती है जो घर आपके दिल से बाँध देता है, जो आपको उड़ने की आजादी तो देती है पर किसी 'और कक्षा' में स्थापित होकर वहीं का हो जाने की अनुमति नहीं देती।
दो घंटे तक हवा के पंखों पर सवार रहना था, बीस मिनट पहले ही पहाड़ कंधे उचकाने लगे। बीच-बीच हरित-नील जल भराव - 'समिट-समिट जल भरेउ तलावा।' पहाड़ की देह नापती घुमावदार राहें। ऐसे ही पहाड़ से उतरती - बलखाती एक नदी का दरसाव हुआ। मुझे मेरे अँचल में गाए जानेवाले एक होली गीत की याद हो आई -
"ऐहे… थोड़ी रे थोड़ी लुळ ज्या रे म्हारै,
कड़्याँ से लिपट ज्या,
म्हार बादिलै भंवर की,
पाल्योड़ी कमेड़ण!
थोड़ी नीची लुळ ज्या ये॥"
नायक कहता है मेरी पालतू फाख्ता चिरैया (नायिका) ! तू अलग खड़ी न रह। यह होली का पर्व है। कोई बुरा न मानेगा। तु जरा झुककर मेरी कमर से लिपट जा। कैसा संकोच! तू जानती है तुम्हारा नायक कितना हठी है! जरा सी झुक जा ना! पहाड़ से लिपटी नदी ही जैसे वह नायिका हो। अचानक एक झटके के साथ विमान रन-वे पर था। व्यास की गोद में स्थित भुंतर हवाई अड्डा! बाहर निकले। तो यह है हिमालय!
वहाँ से बस अड्डे तक आए। बस में बैठे। मेरी बगल में एक नौजवान बैठा है। हिमाचली है रमेश। जिला तो कोई और है पर कुल्लू में एक दुकान में काम करता है। पढ़ा लिखा है। बड़ा भाई चंडीगढ़ विश्वविद्यालय में पढ़ाता है संविदा पर। उदास हँसी हँसकर कहता है 'मेरी ही किस्मत खराब है। हर बार कट ऑफ़ के नजदीक जाकर रह जाता हूँ।' उसके होठों की हँसी और आँखों में घुली गहरी उदासी पढ़कर में झूठी दिलासा देता हूँ - 'इस बार हो जाएगा आपका भी। पक्का हो जाएगा।' मेरी नौकरी के बारे में वह पहले जान चुका है। नौकरी लगे आदमी का आश्वासन उसकी आँखों में उम्मीद की लौ जगाता है। वह और खुलता है। स्थानीय देवता का चित्र दिखाता है मोबाइल में। बड़ी सी काष्ठ प्रतिमा जिसे कई तरह के रंगों से रंगा गया है। लिखा है - 'अठ्ठारह काटुंगों के राजा हडगणजी।' काटुंग क्या होते हैं? वह नहीं जानता। फिर कहता है कि आपके राजस्थान से एक घुमक्कड़ साधु आए थे कुछ बरस पहले हमारे गाँव। कह रहे थे यहाँ के देवता का एक मंदिर हमारे राजस्थान में भी है। आपको पता है कहाँ है वह मंदिर?
मुझे भी नहीं पता। दर्शनीय स्थल के नाम पर वह बिजली महादेव बताता है। गंतव्य आने पर आँखों ही आँखों में अभिवादन के साथ उतर पड़ते हैं।
चाय-वाय पीने का मन है। एक ठौर तलाशते हैं पर सामिष- निरामिष के द्वन्द्व में 'वाय' को छोड़कर बस अड्डे के ठीये पर सिर्फ़ चाय पीते हैं। मनाली के लिए बस पकड़ते हैं। बस में मैं फिर किसी रमेश की तलाश में हूँ पर नहीं मिलता। मिलती हैं कुछ ग्रामीण औरतें। कोई संवाद नहीं बनता। हिमाचल मुझे मेरे तीन दोस्त लाए हैं। दो मेरे साथ हैं। तीसरे हैं निर्मल वर्मा। 'परिंदे' कहानी में कुमाऊं रेजिमेंट का अफसर गिरीश नेगी प्रेयसी लतिका के बालों में लाल बुरांश के फूल लगाता है , मुझे उन फूलों से मिलना है। बुरांश के दरख्तों से भी। मैं बस की खिड़की से बराबर बाहर झाँक रहा हूँ। बाहर सेब के बागान हैं। एक ओर व्यास की क्षीण धारा है। दूसरी ओर गाँव, कस्बे, बागान और इंसान। बर्फ देखने की बड़ी चाह है मन में। सुदूर सामने की पहाड़ियों में एक चोटी पर ऊपर से नीचे एक लम्बी सफेद पट्टी दिखाई पड़ती है। बर्फ होगी वह। थोड़ी देर बाद लगा बर्फ ही नहीं कोई बड़ा झरना भी है। करीब आधा-पौन घंटे बाद उस पहाड़ी के नजदीक पहुँचकर मन फक्क से रह गया। जिसे बर्फ समझ रहे थे, जो दूर से दूधिया झरना नज़र आता था, वह क्या था पता है? वह हिमालय दहन से उठता धुआँ था! आग लगी थी या लगाई गई थी यह तो नहीं पता पर बहुत दूर तक पहाड़ का जिस्म झुलसा पड़ा था। कितने दरख़्त, कितने जिनावर, कितने परिंदे, कीड़े-मकोड़े जले होंगे। हिमालय की बर्फीली चमड़ी उधेड़ दी गई है। जंगल जल रहे हैं। उदास व्यास बेहद दुबली हो रही है। बरखा बहुत कम हुई है इस बार। कारोबार भी चौथाई रह गया है।
खैर! मनाली पहुँचे। बस अड्डे पर गरीब औरतें छाछ बेच रही हैं। दस -पंद्रह उन्हीं जैसे लोग छाछ खरीद रहे हैं। दिन का भोजन कर हम आवास स्थली के लिए ऑटो लेते हैं। डेढ़-दो किलोमीटर चलकर ड्राइवर एक घर की तरफ इशारा करता है - " यह घर देख रहे हो। यह कंगना रानोट का घर है।" इससे तनिक आगे ही वह जगह आ गई जहाँ हमें अगले दो दिन रहना था। जगह स्वर्गिक थी। एक परिसर में दो-दो , तीन-तीन कमरों के पाँच कोटेज। सामने हिमालय की उपत्यका, उसके पार पर्वत शृंखला। बीच में ऊँचाई से हरी मखमली रुमाल सा नज़र आता नव किशोर देवदारों का अनुप्रास। कहीं- कहीं पंक्तिबद्ध देवदार व चीड़ वनों का यमक। नीची निगाह से ताको तो कोटेज के पाँव छूते सेब के बगीचे से गुजरती आड़ी-तिरछी दो-तीन पगडंडियाँ! आस-पास खिलते खूब बड़े-बड़े निर्गंध पर मोहक गुलाब, गुलदाउदी और गुलहजारे के फूल। घाटी के ऊपर देर तक उड़ता एक सघन साँवला काग। मैं थोड़ा बाहर निकला पश्चिम को। तंग सड़क से गुजरती तेज रफ्तार ट्यूरिस्ट गाड़ियों की आवाजाही ने ज्यादा चलने न दिया। फिर लौटा बाजार की ओर तो सड़क किनारे की नन्ही गुमटी के बाहर दो-चार जने लोहे की कुर्सियों पर बैठे दिखे। मन किया दो बात करें। तभी उनकी बात कान पड़ी - 'मटन बन रहा है।' मैंने चाल तेज की लेकिन मसालों की तेज गंध नथुनों में घुस गई। रात तक मन उन्हीं मसालों में सीझता रहा। जब टहलकर लौटा तो मेरे मित्रद्वय आराम करने का संतोष पा चुके थे।
साँझ हो रही थी। हम तीनों पश्चिम की पगडण्डी उतर रहे थे। मनाली के चकाचौंध भरे होटलों से अलग स्थानीय निवासियों के साधारण घरों के पास से गुजरती पगडण्डी से एक-आध घर ठेठ हिमाचली ठाठ का दिख जाता। काठ का घर! एक जगह व्यास का पानी कहकहे लगाता चट्टानी पथ पर बच्चे की तरह कूद रहा था। जब माल रोड पर पहुँचे तो खूब चहल-पहल मचलती मिली। एक 60-70 स्कूली बच्चों का दल माल रोड को मालामाल किए था। लड़के थे कि ब्ल्यूटूथ से कनेक्टेड स्पीकर में हरियाणवी गाने पर नाच रहे थे। उमंग भरी किशोर लड़कियाँ अपनी सुदरतम पोशाकों में सजी संकोच और उन्मुक्तता की रस्सी पर झूल रही थीं। शिक्षिकाएँ सेल्फी में व्यस्त थीं, शिक्षक दो आगे , दो पीछे, दो बीच में चलते व्यवस्था बना रहे थे। पूछा तो मालूम हुआ जयपुर की किसी स्कूल का दल है।
वहाँ से ऑटो लेकर जब हिडिंबा मंदिर पहुँचे तो रात देवदार के दरख्तों पर उतरने लगी थी। नीम अँधेरा-नीम उजाला। उजाले में पीला, लाल और साँवला रंग घुलमिल गया था। कुछ देवदार के पेड़ इतने मोटे, इतने उदग्र , इतने विशाल थे कि अज्ञेय की 'असाध्य वीणा' कविता के किरीटी तरु का भ्रम होता था - 'जिसके कंधों पर बादल सोते थे/ जड़ों पर फन टिका नाग वासुकि सोता था।' ललाते अँधेरे में मंदिर की घंटा ध्वनि , दर्शनार्थियों की कतारबद्ध भीड़, भीमकाय सैनिकों से विशाल वृक्ष, पैगोडा शैली के त्रिस्तरीय छत वाले , अद्भुत काष्ठ शिल्पयुक्त स्तंभों, काष्ठ भित्तियों, जिसकी बाहरी दीवारों पर बाहरसिंगों, मेंढ़ों व दूसरे जानवरों के सींगों समेत जड़े असली मुख जिनकी हड्डियाँ जगह-जगह से भुरभुरा गई हैं। मंदिर के अंदर भी मंद दीपालोक! बाहर भी कोई कृत्रिम रोशनी न दिखी। जैसे सातवीं-आठवीं सदी में… किसी तंत्र साधना केंद्र पर पहुँच गए हैं।
हिडिंबा की कथा तो महाभारत से जुड़ी है। उस काल का काम्यक वन अब कैलंग है। यहीं की थी हिडिंबा। भीम से ब्याह हुआ तो घटोत्कच जन्मा। घटोत्कच के बर्बरीक! अचानक मुझे रमेश याद आया जो आज भुंतर से कुल्लू तक साथ आया था। वह यहाँ होता तो मैं कहता कि मैंने तुम्हारे देवता का मंदिर खोज लिया है। हिडिंबा का पोता ही तो बर्बरीक खाटूश्याम है! तुम्हारे देवता का राजस्थान में मंदिर! ठीक ही तो कहा था रमते जोगी ने।
दरख्तों के सायों तले रात का रंग गाढ़ा होने लगा तो मंदिर परिसर से बाहर निकले। एक कोने में दो याक खड़े थे। पर्यटक हिमाचली वेश में उन पर बैठकर फोटो खिंचा रहे थे। मालरोड पहुँच कर खयाल आया कि कल के लिए टेक्सी करनी है। टिकट से लेकर कोटेज और खाने तक का प्रबंधन रजनीश जी देख रहे थे। उनकी दाढ़ी और बोलचाल का लहजा देख एक टेक्सी वाला बोला , 'आप तो हुकुम लोग हो साब! मैं हाजिर हो जाऊँगा।'
बात न बनी तो दूसरे गाड़ीवाले को सौ रुपये पेशगी दे पक्का किया। रात में यह आशंका करवट लेती रही कि सुबह गाड़ी न आई तो! कोई और चार-पाँच सौ ज्यादा देनेवाला मिल जाए तो क्या वह इसलिए न जाएगा कि हमसे सौ रुपये एडवांस ले रखे हैं। मगर पहाड़ का आदमी भी पहाड़ सा अडिग। भोर में ठीक छह बजे फोन किया तो बोला मेरी गाड़ी दस मिनट से इंतज़ार कर रही है आपका।
यह है पवन पच्चीसेक साल का। दस मिनट बाद गाड़ी रोककर बोला - "रोहतांग के लिए गर्म कपड़े ले लो साहब किराये पर। ऊपर बहुत ठंड है।" यही बात उसने रात को भी कही थी। हम डेढ़ स्याने थे। अभी सर्दी ठीक से शुरू भी तो नहीं हुई थी। एहतियातन कोट, टोपी, जर्सी, शॉल वगैरह ले ही लिया है साथ। रोहतांग पहुँचते दोपहर हो ही जानी है। कमीशन का चक्कर होगा। "चलो, हैं हमारे पास।"
पहाड़ के घुमावदार रास्तों पर चल पड़ा पवन। पहाड़ियाँ , घाटियाँ, देवदार और चीड़ के वन, व्यास की धारा निगाहों से लिपटती चली। इसी बीच पवन ने अपना ड्राइविंग कौशल दिखाना शुरू कर दिया। नागिन सी बलखाती सड़क पर एक हाथ से ड्राइविंग और दूसरे हाथ से मोबाइल पर बतलावण। इच्छा हुई टोक दूँ पर साथ में मित्र राजपाल जी हैं। उनके एक किस्से ने कुछ कहने न दिया।
किस्सा ये कि जैसलमेर घूमने गए नौजवानों के एक दल ने गर्मी से निजाते पाने को गाड़ी रुकवाई। दुकान पर जा कोकाकोला पिया। आकर ड्राइवर को साहबी रोब से कहा, "चलो।" गाड़ी चार कदम चलकर रेतीली राह में अटक गई। साहब को उतरकर धक्का लगाना पड़ा। खर्रर करती गाड़ी के टायरों से फर्रर उड़ती रेत ने साहबों को अखाड़े में कुस्ती खेलकर आए पहलवानों में बदल दिया। दस कदम चलकर फिर वही समस्या! सूँटे की चपेट में आए डाल टूटे दरखत की तरह बदहाल साहबों ने पूछा,
"गाड़ी को क्या हो गया?"
"आ कोकाकोला माँगे सा।" ड्राइवर ने जवाब दिया। 'मोरल' यह कि ड्राइवर का माथा खराब किया तो वह आपकी 'गाथा' खराब कर देगा। कलेजा हनुमान चालीसा पढ़ने को हुआ -" संकट ते हनुमान छुड़ावे…।"
मैंने कहा, 'कोई हिमाचली गीत लगाओ ना।" फोन काटकर उसने गीत लगा दिया -
"राझूँ फूलमू! कानो रे झुमके छन-छन कर दे
लूकी तू छूपियो
बनी तू ठनियो।"
'फूल सी नाजुक प्रिये! चुनरी में लुकते-छिपते तुम्हारे के कानों झुमके छन-छन कर रहे हैं।' पवन अर्थ समझाने लगा। राजपाल जी ने मौन संकेत किया, 'ड्राइवर से ज्यादा बात न करो। अर्थ अनर्थ में बदलते देर न लगेगी।
सोलंग घाटी में कृसांगी व्यास की करधनी की तरह कसी लोह-रज्जू पर लटूम-झूम जब वापस फिरे तो पवन आ वीडियो कॉल करने लगा। ठीक पिछली सीट पर बैठे होने से स्क्रीन पर उसके बीवी-बच्चे की हल्की झलक पड़ी। वह अनुराग में घुल-घुलकर बतिया रहा है। मुझे लगा यह पर्वत पुत्र पवन नहीं, 'निर्मल कथा' का 'नेगी' है, गिरीश नेगी। अभी बुरूँश के लाल फूल तोड़कर स्क्रीन ओट में खड़ी लतिका के जूड़े में खौंस देगा और नज़र की तरह उतार लेगा उसकी सारी उदासी - लूकी तू छुपिये/ बनी तू ठनिए।"
उसका फोन बैलेंस खत्म हो गया, साथ ही रिचार्ज भी। चलो नेठाई हुई। उसने रिचार्ज का आग्रह किया पर हमने नेटवर्क न होने का बहाना कर दिया। अतृप्त अनुराग उसकी आँखों और मूछों में फुरककर रह गया।
आगे जब उसने गाड़ी रोकी तो कहा , "नाश्ता, चा-पानी करना हो कर लीजिए। आगे कुछ न मिलेगा।"
हमने गाड़ी के कोकाकोला मागने का इंतजार किए बिना पवन को 'चा-पानी' में शरीक किया। सड़क की बायीं तथा चंद्रा नदी के दायी करवट बना वह रेस्त्रां रंग-बिरंगी झंडियों से सजा था। झंडियों पर भोटिया लिपि में मने मंत्र अंकित था। रस्सियों पर बँधी झंडियाँ तेज हवा की ताल पर जैसे गा रही थीं - ऊँ मणि पद्महे हुँम्।' रेस्त्रां के बिहारी कामगारों ने बताया कि रेस्त्रां मालिक लाहुल के कोई बौद्ध हैं जो महीने-बीस दिन में आकर संभाल जाते हैं।
आगे राह और रम्य , और दुर्गम, और उतुंग है। सुदूर पीर पंजाल की पर्वत श्रेणियाँ कंधों पर बर्फ का धवल दुपट्टा डाले, सिर पर स्वच्छ नीले आसमान की फर-फर करती ओढ़नी ओढ़े हैं। सड़क के पास की चट्टानों फर बहते- बहते सहसा जमे- अधजमे झरने काँच से चमक रहे हैं। कहीं चट्टानों पर स्फटिक के झूमर की तरह जमा पानी लटक रहा है तो कहीं नमक की डलियों सा बिखरा है। रोहतांग के पास गाड़ियों की लम्बी कतार। पर्यटकों की फौज। रंगीन आँखों पर काले चश्में , होठों पर सेल्फी वाली मुस्कान। एक नन्हा बौद्ध गोम्पा है जो इतनी भीड़ में भी अकेला है। रोहतांग झील अधजगी है। आधी बर्फ बन नींद में सोई है, आधी पानी का पाणिग्रहण किए जग रही है। कुछ पर्यटक ऊँचे मोटरसाइकिलनुमा वाहनों को दौड़ाने के कर्कश शोर से उस नींद में खलल डाल रहे हैं। हवा बेहद तेज है। जरा सी ढील दो तो शॉल -चद्दर को छीन-झपटकर उड़ा ले जानेवाली! धूप है पर ठंड इतनी कड़ाके की है कि हाथ, नाक, मुँह की संज्ञा जाती रही है। इस पर लघुशंका का वेग! किसी चट्टान की ओट न लो तो हवा के धक्के से गिर ही जाओ। पवन ठीक कहता था, किराये के कपड़े व्यर्थ न जाते। यहाँ भी चाय की संजीवन बूँटी मिल ही गई। सोयी झील की हिमानी काया को छुआ, कहीं काँच सी तिड़कती हुई, कहीं हर थपकी को कुनमुना कर सह जाती हुई। झील के बीचोंबीच बैठी मझौले आकार की भूरी चिरैया इस हलचल से चंचल हो फुर्र से उड़ी।
हम हिमालय से उसके गाढ़े के दिनों में मिले हैं। इस बरस बारिश नहीं तो बर्फ की जमा पूँजी भी नाम भर को। बुरूँश पर फूल नहीं। बागीचों से छीनकर सेब सितम्बर में ही महानगरों में भेज दिए गए हैं। लौटती बेर राह में रुक चंद्रभागा की हरित-नील जलराशि को छुआ। तट पर धारा के तराशे पत्थरों ने साथ चलने की जिद्द की, जिसे शहरी संकोच ने झिड़क दिया।
रात के पहले पहर मनाली के बाजार में घूमते, देवी दुर्गा के काष्ठ मंदिर का शिल्प निहारते, सड़के से विग्रह को प्रणाम करते, सैलानियों के सैलाब में से अचानक आ मिले जयपुर और नागौर के बीआरओ जवानों से बतियाते वक्त का परिंदा फुदककर हाथों से उड़ गया। मगर साथ लगी रही ऊनी कपड़ों के दाम सुनते ही 'बहुत सस्ते हैं ' की क्रय कुशलता जानकर भी हमें न ठगनेवाली उन हिमाचली माँ-बेटी की ठगौरी मुस्कान। साथ लगा रहा सड़क किनारे कपड़ा बिछाकर सेर-दो सेर फलों की दुकान लगाए बैठी बुढ़िया माई से खरीदे गोल्डन एपल और लाल खिरमा फलों का स्वाद। साथ लगी रही लौटती राह सिर्फ़ दस रुपये में लौंग की खुशबू वाली लजीज चाय। छूट गया कुछ - कोटेज के पास के देवदार से झरे कठगुलाब, चंद्रा तट के सुडोल-गोल पत्थर और मनाली के उस उद्यान के कतार बद्ध देवदार के दरख्त की टहनी में टँगा चाँद। उस वक्त अगर कोई देवदार को हिला देता तो जैसे चाँदनी बरस पड़ती, जिसमें डूब जाता दुर्गा मंदिर से हिडिंबा मंदिर तक का समूचा शहर… दरख़्त…पहाड़…मनाली-मानुस और मन…। अगर में रोहतांग झील की भूरी चिरैया होता तो चुपके उड़ चौंच से उमेठ लाता देवदार की वह चाँद टँगी टहनी, जैसे तोड़ा जाता है शहद टपकाता मधुमक्खी का छत्ता…जिसमें भीगकर शायद बुझ जाती हिमालय की वनखंडी में लगी भीषण आग!
मानाली से कुल्लु लौटते हुए हरियाणा रोड़वेज में सुनी रागनी भीतर कसकती रही -चरखा परै हटालै री मेरी सुरत राम में लागी…..मैंने अपनी चाह हटा ली।
वापसी तो गमन का दोहरान भर थी। हाँ, खराब मौसम में बीस मिनट तक हिचकोले खाते, अब गिरा-तब गिरा करते हुए विमान की जयपुर लेंडिंग आउट ऑफ कॉर्स थी। उस वक्त भी बस वाली रागिनी ने तसल्ली दी - माँटी में माँटी मिलै, पाणी में पाणी…सुण अभिमानी…!
हेमंत कुमार
सहायक आचार्य (हिंदी) श्री कल्याण राजकीय कन्या महाविद्यालय, सीकर
hemamtk058@gmail.com, 9414483959
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र विजय मीरचंदानी
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