एक विस्मृत कार्टूनकार : मोहनलाल महतो ‘वियोगी’ (1901-1990)
- प्रभात कुमार
शोध सार : यह लेख कार्टूनिस्ट मोहनलाल महतो ‘वियोगी’ (1901-1990) का एक परिचयात्मक रेखाचित्र है, जो इतिहास में तो भुला दिया है लेकिन अभिलेखागारों में आज भी मौजूद है। इस लेख का आरंभ एक संक्षित जीवनीपरक टिप्पणी से होता है। इसके उपरांत इसमें उनकी कार्टून संबंधी रियाज़तों को खंगाला गया है। इससे कार्टूनकार और उनके संपादकों के बीच संबंध की झलक तो मिलती ही है साथ ही उनकी कलात्मक थाती की सांस्कृतिक जड़ों की पड़ताल भी करता है। लेख गाँधीवादी राष्ट्रवाद के उफान भरे दौर में उपनिवेश विरोधी और सुधारवादी राजनीति के साथ रस्साकशी करने वाले राजनीतिक कार्टूनों पर दृष्टिपात करता है। यह लेख कार्टून रचयिता के दृष्टिकोण से राष्ट्रवादी राजनीति की विसंगति को रेखांकित करता है और प्रकारांतर से उनके राजनीतिक मतों और दृष्टिकोणों को पुनर्निर्मित करता है।
भारत में कार्टून का विकास डेढ़ शताब्दी से भी कम समय का है, जो विविध पत्रकारिता संबंधी उत्पादन मसलन फ़िल्म और फ़ैशन से लेकर राजनीति तक का अब एक अनिवार्य हिस्सा है। औपनिवेशिक हिंदुस्तान में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में एक साहित्यिक-कलात्मक विधा के रूप में कार्टून का सूत्रपात हुआ और लोकप्रियता मिली। इसकी पहले-पहल शुरुआत अंग्रेज़ी भाषा की व्यंग्य पत्रिकाओं के माध्यम से हुई। पहले पंच, जो कि लंदन से प्रकाशित होती थी और बाद में अंग्रेजों द्वारा भारत में प्रकाशित व्यंग्य पत्रिकाओं के जरिए कार्टून ने हिंदुस्तान में दस्तक दिया। बहुत जल्द कार्टून भारतीयों द्वारा निकाले जाने वाली न केवल अंग्रेज़ी बल्कि देशी भाषाओं की पत्रिकाओं की व्यंग्यात्मक व ग़ैर-व्यंग्यात्मक पत्रिकाओं के भी अहम हिस्से बन गए। कार्टून बीसवीं शताब्दी के पहले दशक से भारतीय भाषाओं की अधिकांश साहित्यिक-राजनीतिक पत्रिकाओं में नियमित रूप से दिखने लगे, और उनके लिए पृष्ठों के भीतर एक जगह तय रहने लगी।[1]
हालिया वर्षों में विद्वानों का ध्यान औपनिवेशिक भारत में कार्टून उत्पादन के इतिहास और संस्कृति की तरफ़ गया है। (देखें, हार्डर और मित्तल, 2013)। भले ही मौजूदा अध्ययनों ने कार्टून के इतिहास को खंगालना शुरू किया है (खंडूरी 2014, देवादावसोन 2014, सुंदर्सन 2017, कुमार, 2020), लेकिन सिवाय शंकर पिल्लई, गगनेन्द्रनाथ टैगोर, आर.के. लक्ष्मण आदि जैसे प्रसिद्ध कार्टूनकारों के, औपनिवेशिक हिंदुस्तान के कार्टूनकारों के बारे में आश्चर्यजनक रूप से बहुत कम जानकारी मिलती है। यदि मोटामोटी बीसवीं शताब्दी की शुरुआत से देशीभाषाओं की सभी मुख्य पत्रिकाओं में कार्टून प्रकाशित हो रहे थे (ज़ाहिर है इनमें हिंदी पत्रिकाएं भी थीं, जिससे मेरा इत्तेफाक़ ज़्यादा है) तो इसका आशय है कि कार्टूनकार भी बड़ी संख्या में सक्रिय होंगे। मिसाल के लिए, यदि हम बीसवीं शताब्दी के दूसरे और तीसरे दशक के बीच प्रकाशित होने वाली हिंदी की मुख्य मासिक और साप्ताहिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होने कार्टूनों के नीचे छपे दस्तखत को देखें तो हम आसानी से जान सकते हैं कि आधे दर्जन से ज़्यादा कार्टूनकार नियमित रूप से छप रहे थे।[2] जिनमें डी. एन. वर्मा, शिक्षार्थी, बक्शी, गोस्वामी, एम. के. वर्मा, हाकिम मोहम्मद खान, मोहनलाल महतो गयावाल, रामेश्वर प्रसाद वर्मा आदि बहुउल्लेखित नाम हैं। परंतु हम उनके प्रथमाक्षरों या नामों के आगे उनके बारे में बहुत थोड़ा जानते हैं। यह छोटा पर्चा ऐसे ही एक कार्टूनकार का परिचयात्मक रेखाचित्र प्रस्तुत करता है जो इतिहास में भुला दिया गया है लेकिन अभिलेखागारों में मौजूद है। बीसवीं शताब्दी के दूसरे और तीसरे दशक में प्रकाशित होने वाली हिंदी पत्रिकाओं में उनके हस्ताक्षर मौजूद हैं। उनका नाम है मोहनलाल महतो ‘वियोगी’(1901-1990), जो अपना पूरा नाम पंडित मोहनलाल महतो गयावाल या पंडित/श्री मोहनलाल महतो लिखते थे।[3] हालाँकि बीसवीं शताब्दी के साहित्यिक इतिहास में उनका नाम हिंदी के लेखक और कवि के रूप दर्ज है, लिहाज़ा उन्हें अब एक कार्टूनकार के रूप में याद नहीं किया जाता। हम यहाँ उनका एक संक्षिप्त जीवन परिचय तो देंगे ही उसके बाद एक कार्टूनकार के रूप में उनके अवदान की चर्चा करेंगे। साथ ही हम कार्टूनकार और उनके संपादकों के बीच रिश्ते पर ध्यान केंद्रित करेंगे और उनकी कलात्मक थाती की सांस्कृतिक जड़ों की पड़ताल करेंगे। कहने की ज़रूरत नहीं, इस पर्चे में उनके सभी उपलब्ध कार्टूनों पर चर्चा करना व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है। हम गाँधी प्रेरित राष्ट्रवाद के उच्च ज्वार के दौरान उपनिवेशवाद विरोधी और सुधारवादी राजनीति से संबंधित उनके राजनीतिक कार्टूनों पर विशेषतौर पर ध्यान केंद्रित करेंगे। इससे हमें कार्टूनकार के नजरिए से राष्ट्रवादी राजनीति की विसंगति देखने को तो मिलगी ही और साथ ही उनके राजनीतिक मतों और दृष्टियों को पुन:व्याख्यायित करने में हमें मदद मिलेगी।
जीवन परिचय -
मोहनलाल का जन्म शिक्षा में पिछड़े लेकिन धनी और ज़मींदार पुरोहित समाज के एक रूढ़िवादी गयावाल ब्राह्मण परिवार में हुआ, जिसका संबंध हिंदुओं के मृत्यु समारोह से था। उनके पिता गयावाल परिवार के मुखिया थे, हिंदुओं के प्रसिद्ध तीर्थ गया में अपने कस्बे के दबंग थे। जब वे बहुत छोटे थे उनकी माँ का देहांत हो गया था। बिना माँ के इस कदकाठी के कमज़ोर बच्चे को अपने दबंग बाप का स्नेह कभी नहीं मिला। गयावाल परिवार के एक असामान्य बच्चे, मोहनलाल ने कुश्ती और अन्य मर्दाने शौकों की जगह पढ़ने और कला को तरजीह दी। उन्होंने चित्रकला अपनी सौतेली माँ से सीखी, जो साहित्यिक-कलात्मक रुचियों वाली एक मराठी औरत थी और गयावाल परिवार की अन्य औरतों की तरह पर्दा नहीं करती थीं। मोहनलाल अपने एक संस्मरण में हमें बताते हैं कि वे अपने पिता से कभी तालमेल नहीं बिठा सके। या यूँ कहें कि वे गयावाल परिवार के आर्थिक और सामाजिक जीवन की पहचान बन चुकी लंपट धृष्टता और हिंसा की संस्कृति के साथ खड़े नहीं हो सके। घर में ही फ़ारसी, हिंदी और अंग्रेज़ी में आरंभिक शिक्षा के बाद, उन्होंने कस्बे के प्रसिद्ध पंडित विद्वान से कुछ सालों तक संस्कृत सीखी। वे अध्ययन के लिए रवींद्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन में भी गए जहाँ उन्होंने बंगाली सीखी और बंगाली साहित्यिक परंपरा का स्वाध्याय किया। बाद में बैरिस्टर और राष्ट्रवादी इतिहासकार काशी प्रसाद जयसवाल के साथ क़रीबी बौद्धिक संगति में पालि सीखी और बौद्ध साहित्य पढ़ा, और पटना कॉलेज के उद्भट विद्वान तथा प्रोफेसर पंडित रामावतार शर्मा के साथ भारतीय दर्शन से राब्ता हुआ। रामवृक्ष बेनीपुरी, शिवपूजन सहाय, रामधारी सिंह दिनकर, गंगाशरण सिंह, राहुल सांकृत्यायन जैसे बिहार के हिंदी विद्वानों की युवक मंडली के वे हिस्सा रहे। इनमें से अधिकांश कट्टर समाजवादी विचारों वाले उप-निवेशवाद विरोधी राष्ट्रवादी युवा थे। कार्टूनों और बच्चों के साहित्य में हाथ आजमाने के साथ-साथ बीसवीं शताब्दी के दूसरे और चौथे दशक के बीच उन्होंने रूमानी कविताएं और प्रगतिशील समाजवादी विचारों वाली कहानियाँ लिखीं। मसलन, एक तारा, छायावादी कविताओं का संग्रह है, जो हिंदी साहित्य के मानक इतिहास-पुस्तकों में दर्ज है। (वियोगी 1927)। ऐसे ही उनके कहानियों का संग्रह रजकण 1930 के आसपास प्रकाशित हुआ। शीर्षक कहानी एक ललित निबंध है जिसमें आभूषण की जगह धूल की महिमा का बखान है। इस संग्रह की कहानियों के विषय ग्रामीण जीवन से संबंधित विभिन्न मुद्दे हैं। ग़रीबी, जाति-वर्गगत शोषण, शिशु मृत्यु, बचपन और बांझपन, चरम मौसमी परिघटनाओं के सामाजिक निहितार्थ, बीमारी और दुर्घटना, प्रेम, बलिदान, खदान-मज़दूर की दयनीय स्थित और नीची जाति के साथ-साथ उच्च जाति से ताल्लुक़ रखने वाले नायक द्वारा किया गया विद्रोह इन कहानियों के मुख्य विषय हैं। जाहिर है, कहानियां शीर्षक के अनुकूल प्रगतिशील साहित्यिक सौन्दर्यशास्त्र से जुड़ी लेखकीय प्रतिबद्धता, एजेंडे और भावनाओं के सवालों को सामने लाती हैं। (वियोगी, 1930?)।
तकरीबन पचास के दशक में जातक युग में भारत पर उनके ऐतिहासिक शोध प्रकाशित हुए (वियोगी 1958), पश्चिमीकृत सांस्कृतिक-नैतिक लोकाचारों के बढ़ते प्रभाव और भारत में भारतीयता के पारंपरिक गुणों के क्षरण पर क्षोभ करता एक उपन्यास प्रकाशित हुआ (वियोगी, 1957) और मध्यकालीन हिंदी महाकाव्य पृथ्वीराजरासो पर आधारित भारत के सांस्कृतिक इतिहास पर एक महाकाव्यात्मक लंबी कविता आर्यावर्त नाम से प्रकाशित हुई। उनके परवर्ती गद्य रचनाओं की फेहरिस्त लंबी है। वे उन दुर्लभ गयावालों में थे जो भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस में सक्रिय थे और बिहार के समाजवादी बौद्धिकों और राजनीतिक नेताओं के क़रीबी थे। स्वतंत्रता के बाद, वे बिहार के हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बने और बिहार की कॉंग्रेस सरकार द्वारा विधानसभा परिषद के सदस्य के लिए भी नामांकित किये गए।
स्वतंत्र कार्टूनकार -
पिछली शताब्दी के पहले दशक में कार्टून बनाने और छपने की रियाजात के बारे में हम बहुत थोड़ा ही जानते हैं। मसलन, हमें सरस्वती संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी के बारे में यह जानते हैं कि वे कार्टून की संकल्पना विस्तृत ब्योरों के साथ लिखकर अपने प्रेस के अनुबंधित कलाकारों को देते थे। संपादक माँग के अनुसार कलाकार कार्टून बनाता था (सिंह 1951)। यह परंपरा बाद के दशकों में भी जारी रही, किन्तु साथ ही साथ तीसरे दशक से कार्टूनकार ख़ुद ही कार्टून बनाकर अपनी इच्छानुसार पत्रिका या संपादक को अपनी कला का नमूना भेजने लगे। मोहनलाल के उपलब्ध पत्रों से पता चलता है कि वह एक स्वतंत्र कार्टूनकार थे जो बाद में हिंदी पत्रिकाओं में कहानी, कविता, आलोचना, आदि भी लिखने लगे थे। उनके लिए, कार्टून बनाना हिंदी के खाली भंडार भरने के व्यापक राष्ट्रवादी परियोजना का हिस्सा था। वह ऐसे कलाकार नहीं थे जो किसी विशेष पत्रिका की संपादकीय टीम में कलाकारी करने, चित्र या कार्टून बनाने के लिए नियुक्त किये गए थे। उन्होंने संपादक की माँग पर कभी कार्टून नहीं बनाए। अलबत्ता, उन्होंने अपना कार्टून स्केच बनाकर इच्छुक संपादकों को प्रकाशित करने के लिए कहा। सकारात्मक उत्तर मिलने पर वे उन्हें अपनी टिप्पणी के साथ प्रकाशित करने के लिए भेजते। कम से कम उनके शुरुआती करियर को देखते हुए ऐसा ही लगता है। हालाँकि, उन्हें अपने कार्टून के लिए मिलने वाले पारिश्रमिक के बारे में हमें ठीक-ठीक नहीं पता। अपने वरिष्ठ मित्र और संपादक शिवपूजन सहाय को लिखे उनके पत्रों से जो पता चलता है वह है कि उन्हें अपने कार्टूनों के लिए पैसे मिलते थे जो उन्हें वैल्यू पेएबल पोस्ट (वीपीपी) से भेजे जाते थे। गंगा के संपादक शिवपूजन सहाय को लिखे एक लंबे पत्र से एक अंश ग़ौरतलब है। (शिवपूजन सहाय पेपर्स):
शिवपूजन भैया,
स्नेहालिंगन। [...] सेवा में दो व्यंग्य-चित्र जाते हैं। पहला है सनातन धर्म पर। पंडा जी और मठाधीश जी सनातन धर्म के उद्धार के लिए भीख माँग रहे हैं। भीख मांगने का ठाट देखने योग्य है। बीच में सनातन धर्म खड़ा है। इस चित्र के नीचे मैंने अपना नाम दिया है जिसे भी दे देना, कहीं ऐसा न हो कि ब्लॉक बनाने में यह निकल जाए [...] आशा है .. गंगा के लिए रख लोगे, कहानी भी भेजता हूँ।”...
तुम्हारा सेवक
मोहन
चित्र 1 : सनातनधर्म के संरक्षक! (गंगा, मार्च 1931)
मासिक पत्रिका गंगा के मार्च 1931 के अंक से पता चलता है कि चित्र प्रकाशन के लिए स्वीकार कर लिए गए थे। यही कार्टून संपादित अनुशीर्षक के साथ छपा जो कार्टूनकार मोहनलाल के विवरण को कम शब्दों में व्यक्त करता है। (देखें, चित्र 1 : सनातनधर्म के संरक्षक!) सनातन धर्म एक वृद्ध दुर्बल हिन्दू किसान मुखिया जैसा दिखता है जो लंपट और क्रूर ज़मींदार तथा भ्रष्ट पुजारी के समान दिखने वाले पंडा और मठाधीश हैं के बीच सहम हुआ खड़ा है। उनके बैठने के अंदाज़ में विलासता झलक रही है और सनातन धर्म के जीर्णोद्धार के लिए धन इकट्ठा कर रहे हैं। ठीक इसी प्रकार, एक अन्य लिखे पत्र में मोहनलाल अपने संपादक को कुछ इस तरह अपने एक कार्टून का विवरण देते हैं:
चित्र 2 : शिवपूजन सहाय को लिखा गया मोहनलाल का पत्र (शिवपूजन सहाय पेपर्स)
“...इस व्यंग्यचित्र में मैंने यह दिखलाने का प्रयास किया है कि हिन्दू जनतारूपी गऊ रात दिन तीर्थेशों के द्वारा किस प्रकार चूसी जाती है। गऊ की आँखों की ओर देखने से तुम्हें यह मालूम होगा कि अब जनता का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ है। वह अपने को चूसने देना नहीं चाहती।”...
यह कार्टून भी संपादित अनुशीर्षक के साथ गंगा के उसी अंक में छपा था। (देखें चित्र 3)
चित्र 3: दुग्ध-पान या रक्त-पान (गंगा, मार्च 1931)
उपर्युक्त दोनों कार्टूनों की तरह ही उनके अधिकांश कार्टून हिन्दू उपासकों के शोषण और ‘सनातन’ धर्म की दयनीय दशा के लिए ज़िम्मेदार, शक्तिशाली धार्मिक प्रतिष्ठानों का प्रबंधन करने वाले पुरोहित वर्ग (परंपरागत ब्राह्मण) पर करारा प्रहार करते हैं। यह महज़ संयोग नहीं, बल्कि इसे मोहनलाल की सचेत राजनीतिक अभिव्यक्ति की तरह परख सकते हैं। अपने समुदाय गयावाल ब्राह्मण पुजारियों द्वारा गया जैसे पवित्र तीर्थ में हिन्दू तीर्थ यात्रियों के साथ अक्सरहाँ की जाने वाली बदसलूकी की आलोचना इन कार्टूनों में बखूबी पढ़ा जा सकता है।
कार्टून का बहु-साँस्कृतिक वृत्तान्त -
जैसा कि हमने ऊपर कहा है, एक कला रूप के तौर पर यूरोप से इतर भारत और अन्य देशों में कार्टून का परिचय उन्नीसवीं शताब्दी में लंदन से निकलने वाली व्यंग्य पत्रिका पंच के माध्यम से हुआ। भारतीय कार्टूनकारों ने एक साथ अनेकों देशी साहित्यिक और दृश्य संसाधनों तथा चित्रण-निरूपण की थातियों का इस्तेमाल करते हुए इस कला का विकास किया (देखें, कुमार 2013, 2020)। सामान्यतौर पर मोहनलाल ने भी भ्रष्ट सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों की आलोचना करने वाली निरूपण के पारंपरिक भारतीय भाषाई व दृश्य रियाजतों का उर्वरता पूर्वक इस्तेमाल किया। साथ ही साथ उन्होंने लोकप्रिय राष्ट्रवाद की नई सामाजिक भाषा को भी अपनी निरूपण शैली में समावेशित किया। मसलन, एक तरफ उन्होंने धनी, थुलथुल, ऐय्याश, लालची, बेईमान, बेवकूफ़ ब्राह्मण पुजारियों की खिल्ली उड़ाने और आलोचना करने की पूर्व-आधुनिक परंपरा, जो संस्कृत, पालि और मौखिक-लोक साहित्य और प्रदर्शन परंपराओं में विस्तृत रूप से मौजूद है (देखें, नॉवेतज़्के 2011, सिगेल 1987) का इस्तेमाल किया। दूसरी तरफ़, उन्होंने राष्ट्रवाद और समाजवाद की आधुनिक राजनीतिक शब्दावली का उपयोग किया। यहाँ ग़ौरतलब है शोषक बनाम शोषित, ऐतिहासिक बदलाव से बेखबर भ्रष्ट अभिजन बनाम साधु सचेत अवाम की शब्दावली। ‘जागरूक और क्रोधित हिन्दू जनता’, ‘पंडे लोगों को चूस रहे हैं’ जैसे पदों का प्रयोग। वैसे ही दंभी स्थानीय भू-स्वामी- साहूकार के रूप में एक पंडे की देह-भाषा के चित्रण आदि में नए उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवादी-समाजवादी सरोकारों को पहचाना जा सकता है। निरूपण की ऐसी रणनीतियों ने पारंपरिकता और धार्मिकता के दायरों और संकल्पनाओं को नये मायनों से नवाजा, उनका राजनीतिक तथा आधुनिक पुनर्लेखन किया।
चित्र 4 : प्रभु-भक्ति (माधुरी, जुलाई 1926)
चित्र 5 : संपादकावतार (माधुरी, फ़रवरी 1926)
राजनीतिक और साहित्यिक सत्ता से जुड़े स्पष्ट आधुनिक राजनीतिक विषयों पर बने कार्टून में देशज और विदेशज लेन-देन बखूबी दिखते है। मसलन, चित्र 4 और 5 को देखें। प्रभुभक्ति रामायण के प्रसंग पर आधारित है जिसे समकालीन औपनिवेशिक राजनीति के संदर्भ में पुनर्चित्रित किया गया है। प्रभु राम के अनन्य सेवक और भक्त हनुमान की तर्ज पर भारतीय अभिजातों ने अपने गौरांग प्रभुओं के सामने अपना सीन खोलकर दिखा दिया कि उनके हृदय में सिर्फ़ और सिर्फ़ बर्तानियों का वास है। वैसे ही संपादकावतार में पौराणिक पटकथा का सहारा लेकर संपादकों को चार हाथों वाले प्रभु विष्णु की तरह शक्तिशाली दिखाया गया है जिसके चारों हाथों में धन, संपादकीय कैंची, पेन और पेपर है। उसके विराटरूप से चकित और कृपादृष्टि को आतुर अधम याचक ब्राह्मण तपस्वी यानि लेखक है।
गाँधी, भारतीय राष्ट्रवादी और साम्राज्य पर कार्टून -
मोहनलाल ने साहित्यिक, और धार्मिक से लेकर सामाजिक और राजनीतिक सभी तरह के सामयिक विषयों पर कार्टून बनाए हैं। कहना न होगा, उन्होंने कार्टून बनाकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद और हिंदुस्तान के शोषण पर धावा बोला, मसलन देखें चित्र 6 । अधनंगे और कृशकाय आदमी के रूप में एक भारतीय है जो ब्राह्मण गरीब/भिखारी जैसा दिख रहा है, वह भारत के नक़्शे पर खड़ा है, उसने विशालकाय युद्धपोत लिए हुए एक भीमकाय युरोपियन का बोझ अपने कंधों पर उठाया हुआ है। शीर्षक से अनुमान लगाना कठिन नहीं कि भारतीय और कुछ नहीं बल्कि शिकारियों यानि ब्रिटिश साम्राज्यवाद और उनकी सैन्य मुहिमों के शिकार हैं। यकीनन, साम्राज्य पीठ पर सवार होकर और अपने उपनिवेश के लोगों और भौतिक संसाधनों का शोषण करके ही ख़ुद को बचाता है। तगड़ा राजनीतिक संदेश देने से इतर, यह कार्टून भारत के चित्रण में भी नवाचारी है। ज़ाहिर है कि भारतीय पत्र-पत्रिका के पाठकों के लिए देश का नक्सा अब इतनी जानी-पहचानी सी चीज हो चुकी थी कि इसके इसका छोटा आकार कोई पाठकीय अभिग्रहण में बाधा नहीं हुआ होगा। मगर यहाँ जो बात थोड़ी अलग है और चकित करती है वह यह है कि, भारत माता का चित्रण न तो भव्य है और न ही यह देवी की तरह प्रतिष्ठित है। यह एक ऐसा पटा-कुचला हुआ भू-दृश्य है जो साम्राज्यवाद के बोझ तले पिसते हुए अपने लाल को थामे हुए है। भारत माता का समतल और पिसा हुआ मानचित्रण मोहनलाल का कलात्मक नवाचार मालूम होता है। उन्होंने अपने अनेकों कार्टून में उपयोग किया है ऐसा ही एक चित्र 7 है।
चित्र 6 : शिकार और शिकारी (माधुरी, मार्च 1926)
चित्र 7: स्वराज पार्टी और हिन्दू-मुस्लिम पैक्ट (प्रभा, अप्रैल 1924)
मोहनलाल के राजनीतिक कार्टून न सिर्फ ब्रिटिश उपनिवेशवाद और इसके भारतीय वफ़ादारों पर हल्ला बोला जैसा कि उपरोक्त चित्र 6 और 4 में देखा गया, बल्कि उन्होंने हिन्दुस्तानी राष्ट्रवादियों को भी आड़े हाथों लिया ख़ासकर उन लोगों को जो कथिततौर पर समझौतावादी थे और विदेशी सरकार के विरोध में पर्याप्त रूप से उग्र नहीं थी। यक़ीनन, वे बहुत थोड़े राजनीतिक लाभों के लिए औपनिवेशिक राजनीतिक संस्थानों के अंदर काम कर रहे थे। कार्टूनकार की नज़र में वे सत्ता और धन के भूखे थे। एक लड़ाके राष्ट्रवादी के रूप में उन्होंने संविधानवादी, स्वराजवादियों साथ ही साथ भ्रष्ट काँग्रेसियों के नये रंगरूटों की निंदा की।
चित्र 8 : शीर्षक रहित (गंगा, नवंबर-दिसंबर 1934)
चित्र 7 में स्वराज पार्टी की आलोचना है, जिसने विधान मण्डल में राष्ट्रवादी राजनीतिक विचार को ले जाने के बहाने औपनिवेशिक राजनीतिक संस्थान में भागीदारी करने की इच्छा प्रकट की। ऐसे कार्टून स्वराज पार्टी को कुछ इस तरह पेश करते हैं जैसे कि ये उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रवाद के दायित्व के लिए जरूरी स्वार्थ हीन समर्पण के आदर्शों से भटक गए हैं। कार्टून विशेष तौर पर रेखांकित करते हैं कि स्वराज पार्टी के नेता या कॉंग्रेसकर्मी, जो सामान्यतौर पर औपनिवेशिक सत्ता निकायों में भागीदारी के पक्षकार थे, वे दरअसल सत्ता का आनंद और साथ ही मुद्रा-संबंधी लाभों के लिए कड़ी मशक़्क़त कर रहे थे। कार्टून इस तथ्य की निंदा करते हैं कि जी तोड़ मशक़्क़त करने और उपनिवेश-विरोधी भारतीय राष्ट्रवाद (के उठते ज्वार) को कुचलने के बाद भी अंत में जो सामने निकलकर आया वह है ‘नाकारा’ हिन्दू-मुस्लिम पैक्ट और पैसे के लोभ हेतु परिषदों के अंदर प्रवेश।[4] वैसे ही, चित्र 8 कॉंग्रेस कार्यकर्त्ता के पतन और अनियंत्रित वित्तीय भ्रष्टाचार की निंदा करता है। जहाँ एक सामान्य कॉंग्रेस कार्यकर्त्ता 1919 में पूरे देश में राष्ट्रवादी संदेश प्रसारित करने वाला अथक परिश्रमी भद्र मनुष्य होना चाहता था और स्व-बलिदानी गाँधीवादी की तरह उपनिवेश-विरोधी गतिविधियों के लिए खतरा मोल लेने, औपनिवेशिक सरकार द्वारा जेल भेजे जाने की ख़्वाहिश रखता था, वह 1934 में ज़बर्दस्त अवसरवादी हो चुका है। अब वह एक सुस्त कॉंग्रेस नेता है जो राष्ट्रवादी पुनर्निर्माण कार्यक्रमों के लिए इकट्ठे कोश से संपत्ति संचित कर रहा है।
चित्र 9 : कमाने और खाने वाले (गंगा, नवंबर-दिसंबर 1934)
चित्र 10 : महात्मा गाँधी (गंगा, नवंबर-दिसंबर 1934)
चुनांचे, ऐसा प्रकट होता है कि मोहनलाल अपने कुछ (सवर्ण) राष्ट्रवादी और समाजवादी साथियों की तरह ही गाँधी के धार्मिक-सामाजिक दृष्टिकोण के प्रति आलोचनात्मक थे। ख़ासकर ग्रामीण सुधार व पुनर्निर्माण के गाँधीवादी कार्यक्रम और ‘हरिजन सेवक संघ’ की मोहनलाल ने बिल्कुल ही कद्र नहीं की। उन्होंने न केवल इन कार्यक्रमों को साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष से विचलन की तरह देखा, बल्कि उन्होंने यह भी माना कि ऐसे कार्यक्रमों के कारण साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन-प्रदर्शन शुरू करने के बजाय स्थानीय नेता भ्रष्टाचार और सुस्ती के दलदल में फंसे हुए थे। मसलन उपर्युक्त चित्र 9 देखें। इसमें गाँधी को वैष्णव भक्त के रूप में दिखाया गया है जो अछूत के ‘धार्मिक’ प्रश्न पर हर्षोन्माद के साथ कुछ ऐसे तल्लीन है जैसे स्वतंत्रता के राजनीतिक सवाल और उपनिवेश विरोधी प्रदर्शन की परवाह ही न हो। शीर्षक में प्रयुक्त बृजभाषा भी प्रतीकात्मक रूप से मानीखेज है। गाँधी मध्यकलीन भक्ति काव्य की भाषा में गा रहे हैं।
मोहनलाल न सिर्फ गाँधी के सामाजिक कार्यक्रम को लेकर संशयी थे बल्कि वे हिन्दू-मुस्लिम एकता की संभावना को लेकर भी उत्साही नहीं थे जैसा कि गाँधी और काँग्रेस दोनों द्वारा जताया जाता था। अपनी समझदारी के अनुसार कार्टूनकार ने ऐसे एजेंडों के लागू किये जाने में अंतर्निहित समस्याओं को कुछ यूं रेखांकित किया। यहाँ दो मिसालें पर्याप्त होंगी, चित्र 11 और 12 देखें.
चित्र 11: मेल कैसे हो? (प्रभा, अक्टूबर 1924)
मोहनलाल का विश्वास था कि गौ-हत्या, शुद्धि आदि को लेकर हुए सार्वजनिक विवाद ने दोनों समुदायों के बीच एक गहरी दरार ड़ाल दी है और आपसी संशय का एक वातावरण तैयार कर दिया है। एकता का लक्ष्य तब तक केवल एक राजनीतिक शब्दाडंबर ही बना रहेगा जब तक अवाम के स्तर पर इन मुद्दों पर बात नहीं की जाती या इनका कोई समाधान प्रस्तुत नहीं किया जाता। चित्र 10 से विशेषतौर इस तथ्य की ओर ध्यान ले जाता है कि हिन्दू (ब्राहमण रूप में मौजूद) और मुस्लिम (कसाई रूप में मौजूद) एक दूसरे के खंज़र (गौ-वध और शुद्धि नामधारी) से घायल हैं। वे आकाश की ओर देख रहे हैं। शायद वे एक दूसरे के नज़दीक आने के अनिच्छुक हैं। हालाँकि हिन्दू(कॉंग्रेस) नेता आलिंगन में भरने के लिए दोनों समुदायों को धकेल रहे हैं। मोहन लाल अपने गहरे हिंदूवादी संदेह को सूक्ष्मता से रेखांकित करने में चूकते नहीं कि एकता का प्रयास मुख्यतः हिन्दूओं द्वारा ली गई पहलकदमी है, न कि मुस्लिम नेताओं की। चित्र 10 से साफ़ पता चलता है कि एक हिन्दू नेता, जिसका हुलिया बंगाली नेता चितरंजन दास जैसा है मुस्लिम को एकता की तरफ़ धकेल रहा है।
चित्र 12 : हिन्दू मुस्लिम ऐक्य और मुस्लिम नेता (प्रभा, सितंबर 1924)
हिंदुवादी संदेह और साफ़ ढंग से कार्टून हिन्दू मुस्लिम ऐक्य और मुस्लिम नेता में अभिव्यक्त हुआ है। बकौल कार्टूनिस्ट हिन्दू-मुस्लिम एकता की असफलता और सांप्रदायिक दुश्मनी और दंगों के पीछे के कारण यह हैं कि मुस्लिम नेता निष्ठावान और निष्पक्ष नहीं थे। चित्र 12 खिलाफत आंदोलन (तुर्की टोपी से संकेतित) व भारतीय मुस्लिम नेतृत्व की बेशर्मी को उजागर करने की कोशिश करता है, क्योंकि उनके पीठ पीछे ही मुस्लिम दंगाइयों द्वारा हिंदू मारे जा रहे थे लेकिन उन्होंने अपने कान बंद कर लिया था। दंगे के बाद वे एकता के लिए जोर-शोर से आवाज़ उठा रहे हैं। संक्षेप में, कार्टूनकार को सांप्रदायिक सौहार्द पर बोलने वाले मुस्लिम नेताओं की मंशा को लेकर शंकालु रहा।
निष्कर्ष : कार्टूनकार मोहनलाल के बीसवीं शताब्दी के दूसरे और तीसरे दशक के दौरान बनाए कार्टूनों के जरिए हमने उनके कलात्मक कार्यों पर एक नज़र डालने की कोशिश की है, जो आंशिक तौर पर ही सही लेकिन उनके सांस्कृतिक और राजनीतिक विचारों की झलक दिखाता है। यह कहना जायज होगा कि उनकी साँस्कृतिक और राजनीतिक संकल्पना स्पष्टतः उपनिवेश-विरोधी और जुझारू असहयोगवादी थी। उनका राष्ट्रवाद सवर्ण हिन्दू परिप्रेक्ष्य से युक्त था। अपने समय की चित्रण-निरूपण की परिपाटियों का अनुसरण और पुष्टि करते हुए उन्होंने भारतीय हिन्दू समुदायिक देह की कल्पना एक ब्राह्मण देह की तरह की। मोहनलाल का राष्ट्रवाद मुस्लिमों, उनकी राजनीतिक निष्ठा और साझे राष्ट्रवाद के प्रति प्रतिबद्धता को लेकर शंकाग्रस्त था। इससे कहीं आगे वह गाँधीवादी राजनीति को लेकर भी संदेह की नज़र से देखते थे, जिसने हिन्दू धार्मिक व्यवस्था में ‘अछूतों’ के सामाजिक उत्थान और धार्मिक बराबरी जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से सामाजिक-धार्मिक सुधार के लिए प्रयास किया और उच्च जाति हिंदुओं पर आत्म शुद्धि का दबाव डाला (नागराज 2010)। आधुनिक शिक्षित सवर्ण नजरिए से उन्होंने धर्म और राजनीति दोनों को परखा। इसलिए वे धार्मिक सुधार या आधुनिकीकरण के पक्षधर थे और परंपरावादी धार्मिक अभिजात के आलोचक। इसलिए उन्होंने गाँधीवादी सामाजिक सुधार कार्यक्रमों को राजनीतिक संघर्ष के मार्ग से कमतर या विचलन माना। इसका अर्थ यह नहीं है कि वे किसी तरह के जातिगत भेदभाव के पक्षधर थे। उनकी कहानियों में, जिसका पहले उल्लेख किया जा चुका है, ग्रामीण समाज की क्रूरताओं की परिघटनाओं को साहसिक ढंग से दर्ज करती हैं, लेकिन वर्ण-जाति की शब्दावली में नहीं वर्ग की भाषा में। ग़ौरतलब यह भी है कि अपने कई मित्रों और समकालीनों के बरक्स बीसवीं शताब्दी के दूसरे और तीसरे दशक के दौरान ‘स्त्रियों के सवाल और पितृसत्तात्मक दमन’ को लेकर सीधे-सीधे मोहनलाल ने न ही लिखा न ही कार्टून बनाए। उनकी कहानियों में स्त्री चरित्र वंचित/ बेऔलाद माता-पिता या पीड़ित माँ के रूप में आती हैं। नवजात मृत्युदर और बचपन की समस्याएं उनकी अनेकों कहानियों में देखने को मिलती हैं। बहरहाल, बीसवीं शताब्दी के दूसरे और तीसरे दशक के कार्टूनकार मोहनलाल के विचारों पर उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रवाद और उसके विभिन्न राजनीतिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों आदि का व्यापक असर है जो बाद के दशकों में नया और रूढ़िवादी वैचारिक-सांस्कृतिक मोड़ भी लेता है, जिसका विस्तार से ज़िक्र यहाँ मुमकिन नहीं है। उनके संपूर्ण रचनाकर्म पर टिप्पणी करना इस छोटे निबंध में की सीमा से परे है। साहित्यिक, पत्रकारी और ऐतिहासिक लेखन के साथ-साथ उनके उपलब्ध चिट्ठी-पतरी आदि को साथ रखकर उन्हें बीसवीं सदी के छः दशकों के बदलते ऐतिहासिक संदर्भों में पढ़ने के बाद ही उनकी विस्तृत बौद्धिक जीवनी लिखी जा सकती है।[5]
संदर्भ:
[1] 1920 के दशक के पहले हिन्दी पत्रिकाओं में छिटपुट ढंग से कार्टून छपते रहे थे। मसलन, 1890 के दशक में राधाचरण गोस्वामी की पत्रिका भारतेन्दु में कार्टून कभी कभार छपे। अमृतलाल चक्रवर्ती अपने संस्मरण में बताते हैं कि उनकी पत्रिका हिन्दी-बंगवासी में कॉन्ग्रेसी नेताओं पर कार्टून के जरिए हमला किया जाता था, अमृतलाल चक्रवर्ती, ‘आत्म-संस्मरण-10’, विशाल भारत, दिसंबर 1935. सरस्वती के शुरुआती सालों (1902-1903) में तो साहिय-विषयक कार्टून छापे गए थे। ज्यादा जानकारी के लिए देखें प्रभात कुमार (2020)।
[2] हमने सरस्वती (इलाहाबाद, 1900), प्रभा (कानपुर, 1920), चाँद (इलाहाबाद, 1922), मतवाला (कलकत्ता, 1923), माधुरी (लखनऊ, 1924), हिन्दू पञ्च (कलकत्ता, 1926), विशाल भारत (कलकत्ता, 1926), सुधा (लखनऊ, 1927), गंगा (भागलपुर, 1930) के उपलब्ध अंकों के सर्वेक्षण के आधार पर उपरोक्त बात कही है।
[3] निम्न जीवनी विवरण परिमलेंदु (2007) और विभाकर (2018) से लिया है। गयावाल जाति के तत्कालीन आर्थिक-सांस्कृतिक जीवन के नृशास्त्रीय अध्ययन के लिए देखें प्रसाद (1952)।
[4] बंगाल के राष्ट्रवादी नेता चित्तरंजन दास ने 1923 के पैक्ट में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह बंगाल में हिंदू और मुस्लिम राजनेताओं के बीच स्थानीय निकायों में सत्ता में हिस्सेदारी के संबंध में था जो समुदाय के आधार पर तय अलग निर्वाचन क्षेत्र के फार्मूले पर बना हुआ एक समझौता था। समझौते के अनुसार, बहुसंख्यकों/मुसलमानों को 60% और अल्पसंख्यक/हिंदुओं को 40% सीटें मिलतीं। इससे 16 जिलों में मुस्लिम नेता और 9 जिलों में हिंदू नेता सत्ता में आ सकते थे। हिंदू नेताओं द्वारा कांग्रेस के अंदर और बाहर तीव्र विरोध के कारण यह समझौता कभी लागू नहीं हुआ। (रे 1983, 310-316)
[5] दिलचस्प है कि उनकी परवर्ती रचनाओं, जैसे नव युग : नया मानव (1957), में आधुनिकता, स्त्री स्वाधीनता आदि को लेकर काफी संदेह और रूढ़िवादी रुझान दिखाई पड़ते हैं।
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प्रभात कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डिवेलपिंग सोसाईटीज (सीएसडीएस)
29 राजपुर रोड, दिल्ली-110054, prabhat@csds.in
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र विजय मीरचंदानी
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