- विभव यादव
शोध सार : जब हम भक्ति आन्दोलन के अखिल भारतीय स्वरूप को देखते हैं तो पाते हैं कि यह आंदोलन न होकर एक भारतीय जनचेतना का विस्तार था, जो उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूर्व से लेकर पश्चिम तक सभी जगह दिखाई पड़ता है। इस अखिल भारतीय विस्तार के पीछे का एक मुख्य कारण कीर्तन-गायन भी था, जो नवधा भक्ति का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। भक्तिकाल में कीर्तन की परम्परा हमें ब्रजभाषा और ब्रजबुली साहित्य दोनों जगह दिखाई देती है और आज के समय में भी यह परम्परा यथावत बनी हुई है। यह परम्परा भक्ति को
सहज, लोकग्राह्य ही
नहीं
बनाती
अपितु
उसका
जन-जन
तक
विस्तार
करती
है।
इस
शोध
आलेख
के
माध्यम
से
हम
ब्रजभाषा
और
ब्रजबुली
साहित्य
में
कीर्तन
परम्परा
के
विस्तार
को
और
दोनों
भाषाओँ
के
बीच
के
अंतर
को
समझने
का
प्रयास
करेंगे
और
कृष्ण
भक्ति
के
माध्यम
से
कैसे
बंग
संस्कृति
और
ब्रज
संस्कृति
का
मिलन
हुआ
और
अलग
भाषाएँ
और
अलग
संस्कृति
होने
के
बावजूद
भी
कैसे
पूरा
उत्तर
और
उत्तर-पूर्व
भारत
एक
स्वर
में
कृष्ण-लीला
में
लीन
हो
गया?
इस
आलेख
में
इन
महत्त्वपूर्ण
विषयों
पर
विचार
किया
जायेगा।
बीज शब्द : नवधा भक्ति,
ब्रजबुलि
साहित्य,
कीर्तन,
रास,
स्मरण,
धर्म,
संस्कृति, गौड़ीय वैष्णव,
चैतन्य
सम्प्रदाय, समसामयिक, अष्टछाप, भक्ति,
लोकजागरण
इत्यादि।
मूल आलेख : भक्ति आंदोलन
एक
आंदोलन
न
होकर
भारतीय
जनचेतना
का
विस्तार
था।
वह
चाहे
दक्षिण
भारत
के
नयनार-अलवार
भक्त
हों;
महाराष्ट्र
के
ज्ञानदेव,
नामदेव,
तुकाराम
हों;
पूर्व
भारत
के
जयदेव-शंकरदेव
चैतन्य
हों
या
हिंदी
प्रदेश
के
कबीर,
सूर,
मीरा,
जायसी,
तुलसी
हों।
इन
सबने
धर्म
को
एक
अलग
भावभूमि
से
देखा।
इन
भक्त
कवियों
के
राष्ट्रीय
महत्त्व
को
समझने
की
आवश्यकता
है
कि
किस
तरह
उन्होंने
एक
नई
मूल्य
व्यवस्था
प्रस्तावित
की
और
देश
में
सांस्कृतिक
पुनर्जीवन
लाने
का
काम
किया।
सातवीं
शताब्दी
में
दक्षिण
भारत
से
शुरू
हुआ
यह
आंदोलन
जब
चौदहवीं-पंद्रहवीं
शताब्दी
में
यह
उत्तर
भारत
में
पहुंच
रहा
था,
तब
यह
कुछ
ही
दशकों
में
बिजली
के
कौंध
के
समान
पूरे
उत्तर
और
उत्तर-पूर्व
भारत
में
फैल
गया।
इतने
कम
समय
में
इतने
बड़े
भू-भाग
में
भक्ति
चेतना
के
विस्तार
का
सबसे
मुख्य
कारण
‘कीर्तन-गायन’
था।
‘भागवत
पुराण’
में
जिस
‘नवधा
भक्ति’
का
वर्णन
हुआ
है,
उसमें
सबसे
अधिक
प्रसिद्ध
भक्ति
के
अभिव्यक्ति
का
मार्ग
“श्रवण-कीर्तन”
ही
है।
इसी
को
आधार
बनाकर
ब्रज
तथा
ब्रजबुलि
साहित्य
के
भक्त
कवि
भक्ति
चेतना
का
विस्तार
अखिल
भारतीय
स्तर
पर
कर
रहे
थे।
इन
सभी
भक्त
कवियों
की
रचनाओं
की
सबसे
बड़ी
विशेषता
इनकी
‘गीतात्मकता’
है,
यही
गीतात्मकता
उनके
‘कीर्तन-गायन’
के
माध्यम
से
व्यक्त
हुई
है।
‘कीर्तन’ को
सौंदर्य
और
रसमयी
बताते
हुए
आचार्य
रामचंद
शुक्ल
कहते
हैं कि “कीर्तन भगवान के अनन्त सौंदर्य, अनन्त शक्ति और अखंड शील की सर्वसाधारण के बीच रसमयी घोषणा है।”(1)
कीर्तन को भगवान
की
लीला
से
जोड़ते
हुए
मैनेजर
पांडेय लिखते हैं
कि “कीर्तन नवधा भक्ति में एक साधन माना गया है। कीर्तन गेय पदों में भगवान की लीला और गुणों का गान ही है और इसका मुख्य लक्ष्य भावोद्रेक या रास प्रतीति है।” (2)
संकीर्तन के महत्त्व
को
बताते
हुए
‘कविराज
गोस्वामी’
जी
बताते
हैं
कि
कलियुग
में
संकीर्तन
को
ही
परम
उपाय
माना
गया
है-
“हर्षे
प्रभु
कहे
शुभ
स्वरूप
राम
राम।
नाम संकीर्तन
कलौ
परम
उपाया।।”
(3)
कीर्तन परंपरा’ की
शुरुआत
सर्वप्रथम
ब्रजबुलि
साहित्य
में
उमापति
ओझा
और
बाद
में
‘विद्यापति’
के
पदों
में
देखने
को
मिलती
है,
आगे
चलकर
यह
परम्परा
बांग्ला
कवि
‘चंडीदास’
की
रचना
‘श्री
कृष्ण
कीर्तन’
में
मिलती
है,
जिसका
विस्तार
असमिया
महाकवि
शंकरदेव
द्वारा
ब्रजबुलि
में
रचित
‘कीर्तनघोषा’
में
देखने
को
मिलता
है।
उसके
बाद
चैतन्य
महाप्रभु
ने
वृंदावन
की
स्थापना
करने
के
उपरांत
ब्रजबुलि
साहित्य
में
कीर्तन
परम्परा
को
व्यापक
बनाया।
चैतन्य
महाप्रभु
के
समानान्तर
ही
ब्रज
क्षेत्र
में
बल्लभाचार्य
ने
‘श्री
नाथ
मंदिर’
की
स्थापना
की,
जिसका
मुख्य
उद्देश्य
ही
था
कि
‘कीर्तन
परंपरा
के
माध्यम
से
कृष्ण
भक्ति
की
चेतना
को
जन-जन
तक
पहुंचाना।
बल्लभाचार्य
के
पुत्र
श्री
बिठ्ठलनाथ
जी
ने
इसके
लिए
“अष्टछाप”
की
स्थापना
की।
इन
आठों
कवियों
ने
ब्रज
साहित्य
की
कीर्तन
परम्परा
को
समृद्ध
किया,
जो
आज
तक
प्रासंगिक
है।
इनमें
सबसे
प्रमुख
कीर्तनकार
सूरदास’
थे।
इनके
‘सूरसागर’
ग्रंथ
में
कीर्तन
के
विभिन्न
पद
संकलित
हैं।
इस
प्रकार
भक्तिकाल
में
“कीर्तन”
के
द्वारा
ब्रजभाषा
और
ब्रजबुलि
साहित्य-संस्कृति
का
मिलन
हुआ
था
या
यों
कहें
कि
ब्रज
संस्कृति
और
बंग
संस्कृति
का
मिलन
हुआ
था।
इस
प्रकार
हम
देखते
हैं
कि
“कीर्तन”
के
माध्यम
से
सम्पूर्ण
उत्तर
भारत
में
भक्ति
की
लहर
जन-जन
तक
पहुंचती
है।
भक्ति
चेतना
का
इतने
व्यापक
स्तर
पर
प्रवाह
बिना
कीर्तन
पद्धति
के
सम्भव
नहीं
था।
16वीं
शताब्दी
से
लेकर
18वीं
शताब्दी
तक
का
काल
मुख्य
रूप
से
ब्रजभाषा
साहित्य
का
काल
है।
इस
प्रकार
से
इन
शताब्दियों
का
हिंदी
साहित्य
का
इतिहास
प्रधानतया
ब्रजभाषा
साहित्य
का
इतिहास
है।
प्राचीन
ब्रजभाषा
के
लिए
“पिंगल”
शब्द
का
प्रयोग
होता
रहा
है।
शूरसेन
प्रदेश-
ब्रजमण्डल
के
शौरसेनी
अपभ्रंश
से
पिंगल
या
ब्रजभाषा
उत्पन्न
हुई
है।
यह
काव्य
भाषा
नौवीं
शताब्दी
से
लेकर
12वीं
शताब्दी
तक
पश्चिम,
गुजरात,
पंजाब,
राजस्थान
से
लेकर
पूर्व
में
असम
बंगाल
और
मिथिला
तक
प्रचलित
थी।
एक
प्रकार
से
उत्तर
भारत
की
यह
राष्ट्रभाषा
सी
हो
गई
थी।
अवहट्ट
के
मुख्यतः
दो
भेद
थे-
पूर्वी
अवहट्ट
और
पश्चिमी
अवहट्ट।
पूर्वी
अवहट्ट
की
रचनाएं
मिथिला,
नेपाल,
आसाम,
बंगाल
तथा
उड़ीसा
में
मिलती
है।
जिसकी
प्रमुख
रचनाएं
कीर्तिलता,
वर्ण
रत्नाकर,
उक्ति
व्यक्ति
प्रकरण
इत्यादि
हैं।
जबकि
पश्चिमी
अवहट्ठ
की
प्रमुख
रचनाएं
संदेश
रासक,
प्राकृत
पैंगलम,
रणमल्ल
छंद,
पृथ्वीराज
रासो
इत्यादि
हैं।
पूर्वाचल
में
जिस
समय
मागधी
प्रसूत
बोलियों-मगही,
मैथिली,
असमीया,
बंगला
और
उड़िया
का
स्वतंत्र
विकास
हो
रहा
था,
उसी
समय
उसके
समानांतर
ही
सर्वभारतीय
शौरसेनी
के
मागधी
रूप
से
प्रभावित
ब्रजावली
का।
यही
कारण
है
कि
एक
ही
कवि
अपनी
कुछ
रचनाएँ
सर्वभारतीय
काव्य
भाषा
का
अंगरूप
ब्रजावली
कविता
में
करता
है
और
कुछ
रचनाएँ
असमीया,
बांग्ला,
ओड़िया
आदि
प्रादेशिक
भाषा
में।
ब्रजावली
के
कवियों
के
पूर्व
उमापति,
विद्यापति
का
काव्यादर्श
भी
यही
है।
वे
एक
ओर
सर्वभारतीय
भाषा
अपभ्रंश-अवहट्ट
में
रचना
करते
हैं
और
दूसरी
ओर
क्षेत्रीय
भाषा
मैथिली
में।
ब्रजबुली,
मगही,
मैथिली,
असमीया,
बंगला,
उड़िया
आदि
किसी
भाषा
विशेष
की
संपति
नहीं
वस्तुतः
वह
समस्त
उत्तर
भारत
की
सम्मिलित
निधि
और
तद्युगीन
एक
सर्वमान्य
काव्यभाषा
है।
यदि
प्रादेशिक
प्रवृत्तियां
बलवती
नहीं
होतीं
और
पराधीनता
के
दिनों
में
हम
पर
उर्दू
और
पुनः
अंग्रेजी
राजभाषा
के
रूप
में
थोपी
नहीं
जाती
तो
शायद
तथाकथित
अहिंदी
भाषी
प्रान्तों
में
कम-से-कम
पूर्वांचल
में
आज
हिंदी
को
प्रचारित
नहीं
करना
पड़ता।
बंगाली
एवं
उड़िया
की
जगह
वैष्णवों
की
ब्रजबुलि
अब
तक
यह
सब
कर
चुकी
होती।
कुछ लोगों ने
ब्रजबुलि
को
ब्रज
की
बोली
अर्थात
ब्रज
की
भाषा
मान
लिया
है।
संभवत
इस
अनुमान
का
आधार
यह
है
कि
ब्रजबुलि
के
बहुत
से
शब्दों
का
बांग्ला
की
अपेक्षा
हिंदी
से
अधिक
साम्य
है
तथा
ब्रजबुलि
शब्द
में
ब्रज
शब्द
का
प्रयोग
हुआ
है,
लेकिन
ब्रजबुलि
और
ब्रजभाषा
की
भाषागत
प्रवृत्तियों
पर
विचार
करें
तो
यह
धारणा
भ्रांत
सिद्ध
होगी।
लेकिन
यह
बात
कहना
ठीक
होगा
कि
भाषा
तत्त्व
की
दृष्टि
से
ब्रजबुलि
और
ब्रजभाषा
का
संबंध
है।
ब्रजभाषा
के
शब्दों
में
ब्रजबुली
में
पाए
जाने
के
कई
कारण
बताए
जाते
हैं।
गौड़ीय
वैष्णव
की
एक
वृहद
शाखा
ब्रजमंडल
में
जाकर
बस
गई,
इस
प्रकार
से
दोनों
का
संबंध
स्थापित
हुआ।
ब्रज
बोली
में
ब्रजभाषा
के
कुछ
प्रादेशिक
शब्द
इसलिए
गए
कि
उसमें
भाषा
का
माधुर्य
बढ़ता
था,
जैसे
बंशी
के
स्थान
पर
बांसुरिया
आदि
शब्द।
सुकुमार सेन
का
कहना
है
कि “ब्रजबुलि किसी प्रदत विशेष की संपत्ति नहीं वरन् वह आर्य भाषा की सर्वसाधारण संपत्ति है और इस दृष्टि से वह कनिष्ठतम सर्व भारतीय आर्य भाषा है। सर्व भारतीय आर्य भाषा होने के कारण समसामयिक रूप से ब्रजबुलि का प्रचार तिरुहित नेपाल, मारग तथा उड़ीसा में हुआ।” (4)
भक्ति आंदोलन ने
जब
कुछ
संस्कृतज्ञों
को
भी
लिबरल
बनाया,
भागवत
पुराण
से
संदर्भ
लेते
हुए
संस्कृत
में
भी
राधा-कृष्ण
के
प्रेम
पर
कृतियां
आने
लगी।
जयदेव
का
‘गीत
गोविंद’
संस्कृत
में
है।
विद्यापति
ने
मैथिली
तथा
अवहट्ट
के
अलावा
संस्कृत
में
भी
लिखा
है।
श्री
चैतन्य
की
गौड़ीय
भक्ति
की
कई
रचनाएं
ब्रजबुलि
और
ब्रजभाषा
के
अलावा
संस्कृत
में
भी
लिखी
गई
थी।
असम में भक्त
कवि
शंकरदेव
ने
अपनी
साहित्यिक
रचनाओं
का
कलाओं
से
संबंध
स्थापित
किया।
शंकरदेव
ने
धार्मिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक-आर्थिक
दृष्टि
से
विपन्न
और
विकृत
मध्यकाल
में
वैभवपूर्ण
हिंदू
मध्यकाल
के
स्वप्न
को
यथार्थ
बनाने
की
दृष्टि
से
साहित्य
रचा।
परिणामतः
उनके
साहित्य
में
युग
का
अन्यापदेशन
अथवा
मिथकीकरण
और
पौराणिक
युग
का
मध्यकालीनीकरण
पूर्ववर्ती
युग
का
अवतार
या
आविर्भाव
और
स्वयुग
के
आधार
का
स्वर
प्रमुख
हो
गया
है।
इसको
ध्यान
में
रखे
बिना
न
तो
शंकरदेव
को
ठीक
से
समझा
जा
सकता
है
और
न
सूर
अथवा
तुलसी
को।
रामविलास शर्मा पूर्वी
भारत
के
संदर्भ
में
लिखते
हैं,
“कौन-सा कोना बचा था भारत का जहां नवजागरण का प्रकाश न फैला हो ? ‘द्वारभंगा, मिथिला, गौड़, कामरूप एवं कलिंग (उड़ीसा) शास्त्रीय संगीत एवं नृत्य के प्रमुख केंद्र थे। गौड़ और मगध के जरिए नेपाल, कश्मीर एवं गांधार को भी बंगाल के “संगीत वाद्य एवं नृत्य की प्रेरणा मिली।‘ (दर्शना झवेरी) निस्संदेह संगीत के सहयोग से वैष्णव मत का प्रसार हुआ और वैष्णव मत की प्रेरणा से मणिपुर जैसे आर्यतर भाषा क्षेत्र में इस कला का विकास और प्रचार हुआ।“
(5)
शंकरदेव के जीवन
और
उनकी
कृष्ण
भक्ति
का
असमिया
संस्कृति
पर
असर
पड़ा।
इस
क्षेत्र
में
लोकप्रिय
शक्तिपीठ
होने
के
बावजूद
माना
जाता
है
कि
उनके
कीर्तन-स्मरण
के
वजह
से
असम
ने
एक
नए
युग
में
प्रवेश
किया।
समाज
में
जाति
भेदभाव
मिटने
लगा,
अंधविश्वासों
और
चमत्कारों
का
प्रभाव
घटा।
उनके
द्वारा
प्रवर्तित
धार्मिक
पंथ
‘एक-शरण-नाम’
धर्म
में
एक
ईश्वर
कृष्ण
की
उपासना,
सत्संग
और
कीर्तन
की
महत्ता
है।
इस
धार्मिक
पंथ
ने
ब्रह्मपुत्र
घाटी
में
एक
सामाजिक-सांस्कृतिक
क्रांति
ला
दी।
इस
तरह
भक्ति
आंदोलन
का
दक्षिण
भारत
और
महाराष्ट्र
की
तरह
पूर्व
भारत
के
लोगों
पर
असर
पड़ा।
वे
हिंसा
और
कर्म
कांड
से
बाहर
लाकर
हिन्दू
आस्था
को
संगीत,
नृत्य,
चित्र,
नाट्य,
बरगीत
जैसी
कलाओं,
भजनों
और
कीर्तनों
की
एक
खुली
सांस्कृतिक
जमीन
से
जोड़ना
चाहते
है।
“यदि
अभिलाष
करा
सर्वजन
अपोन
मोक्ष
कारण
गोविन्द गोविन्द
बलिया
बेकते
करियो
हरिकीर्तन”
(6)
शंकरदेव ने अपना
पहला
गीत
बदरिकाश्रम
में
और
वह
भी
ब्रजावली
में
लिखा
था।
शंकरदेव
की
तमाम
रचनाओं
में
संगीत
अंतर्निहित
है
क्योंकि
उनका
लक्ष्य
श्रवण
तथा
कीर्तन
के
माध्यम
से
भक्ति
सम्प्रदाय
के
अनुयायियों
के
बीच
उपदेशों
तथा
शिक्षाओं
का
प्रसार
करना
ही
था।
उनके
सभी
गीतों-कीर्तनों
की
भाषा
भी
ब्रजावली
ही
है।
ये
दोनों
बातें
ऐसा
सोचने
को
विवश
करती
हैं
कि
शंकरदेव
के
गीतों
की
परंपरा
मध्यदेश
अथवा
ब्रजमंडल
के
गीतों
में
ही
खोजी
जा
सकती
है।
इस
संबंध
में
अभी
पर्याप्त
अनुसंधान
की
आवश्यकता
बनी
है।
भजन और कीर्तन
को
चैतन्य
सम्प्रदाय
में
अत्यधिक
महत्व
दिया
गया।
‘नाम-कीर्तन’
ने
बंगाल
को
युगों
तक
के
लिए
पागल
ही
बना
दिया।
सामूहिक
भजन-कीर्तन
की
छह
रीति
दूसरे
सम्प्रदायों
ने
भी
ग्रहण
की।
चैतन्य
ने
हरिबोल
के
नारों
से
जनता
के
अन्तस्
को
शुद्ध,
निर्भीक
और
सशक्त
बनाया-
“The
spiritual importance in which the ‘kirtan’ is held would appear from the words
of the mahaprabhu chaitanya himself who laid down the thesis: the name of Hari,
the name of Hari, the name of hari alone – there is no other path, no other way
in the age of kali.” (7)
चैतन्य महाप्रभु भी
उत्तर
भारत
की
यात्रा
पर
गए
थे
और
वृंदावन
की
गलियों
में
घूमकर
कृष्ण-प्रेम
का
गहरा
अनुभव
किया
था।
उन्होंने
विधि-विधान
की
जगह
नाम
संकीर्तन
की
परंपरा
शुरू
की-
‘हरे
कृष्ण-हरे
कृष्ण,
कृष्ण-कृष्ण
हरे-हरे।’
(8)
यह ध्वनि आज
भी
लोकप्रिय
है।
चैतन्य
महाप्रभु
ने
मुख्यतः
जयदेव,
विद्यापति,
चंडीदास
और
शंकरदेव
की
साहित्यिक
परंपराओं
को
भक्ति
की
भूमि
पर
एक
व्यापक
आंदोलनात्मक
रूप
दिया
था।
इसका
सामाजिक
असर
व्यापक
था।
इस
संप्रदाय
का
ब्रजभाषा
काव्य
भी
विपुल
है,
जिसमें
असमिया
या
बांग्ला
के
मिश्रण
से
व्रजबुलि-रूप
सामने
आता
इस
काव्य
में
ब्रज
क्षेत्र
की
लोक
संस्कृति
के
साथ
पूर्वी
भारत
की
कृष्ण
भक्ति
का
मधुर
शृंगारिक
रूप
व्यक्त
हुआ
है।
यह
नव-वैष्णव
आंदोलन
का
असर
है,
जिसने
राधा
के
प्रेम
को
अंतर-भाषाई
आध्यात्मिक
स्वीकृति
दी।
इसका
असर
अष्टछाप
के
कवियों
पर
पड़ा।
महाप्रभु वल्लभाचार्य ने
गोवर्धन
में
श्रीनाथजी
के
मंदिर
को
पूरा
होने
पर
मंदिर
में
कीर्तन
की
व्यवस्था
की।
भगवान
की
विग्रह
के
सम्मुख
विकसित
रूप
से
कीर्तन
करने
वाले
गायकों
को
रखा
जो
पद
की
रचना
करते
और
उसी
का
गान
करते
हैं।
ब्रज
भाषा
के
विकास
और
उत्कर्ष-साधन
में
कृष्ण
भक्तों
का
बहुत
बड़ा
हाथ
है।
वल्लभाचार्य
और
विठ्ठलनाथ
के
शिष्यों
ने
कृष्ण
भक्ति
में
विभोर
हो,
ऐसे
पदों
की
रचना
की
और
ब्रज
भाषा
साहित्य
प्रकारान्तर
से
समृद्ध
हुआ।
इन
भक्तों
के
गीता
में
अपूर्व
माधुरी
और
काव्य
तत्व
है।
इन
सभी
गुणों
के
कारण
ब्रजभाषा
का
व्यापक
प्रभाव
पड़ा
है,
महाप्रभु
वल्लभाचार्य
ने
पुष्टिमार्ग
का
प्रवर्तन
किया।
कृष्ण
भक्त
का
प्रचार
महाप्रभु
के
नाम
के
साथ
जुड़ा
हुआ
है
उन्होंने
भगवान
की
लीला
को
ही
आश्रय
किया
और
भगवान
के
साथ-साथ
भक्तों
के
निकट
संबंध
की
भावना
की
पुष्टि
की।
वल्लभाचार्य
का
प्रभाव
ब्रज,
राजस्थान,
गुजरात
तक
बढ़ा।
वल्लभ
संप्रदाय
के
भक्त
कवियों
ने
ब्रजभाषा
साहित्य
को
विशेषता
प्रदान
की।
वल्लभाचार्य
के
प्रिय
शिष्य
और
वात्सल्य
सम्राट
सूरदास
ब्रजभाषा
और
कृष्ण
भक्ति
धारा
के
सबसे
बड़े
कवि
हैं।
सूरदास
लोकप्रिय
इसलिए
हुए
कि
वे
कीर्तनकार
थे
और
उनके
पदों
में
कथाएं
हैं।
उन्होंने
मानव
जीवन
और
प्रेम
की
महत्ता
का
जो
गान
किया,
वह
महाकाव्य
न
होकर
भी
‘महाकाव्यात्मक
विजन’
वाला
है।
“मिलिबौ
नैनन,
ही
को
नीको
नन्द कौ
लाल
हमारौ
जीवन,
और
जगत
सब
फिकौं”
(9)
भक्ति आंदोलन का
स्थापत्य,
मूर्ति,
संगीत
और
नृत्य
कलाओं
के
विकास
में
महत्वपूर्ण
योगदान
है
क्योंकि
भक्त
कवियों
की
साहित्यिक
कल्पनाशीलता
ने
सौंदर्यबोध
के
नए
द्वार
खोल
दिये
थे।
ज्ञानेश्वर,
चैतन्य,
तुकाराम,
नरसिंह
मेहता,
कबीर,
सूर,
तुलसी,
मीरा
जैसे
महान
भक्त
कवियों
की
संगीत
(कीर्तन)
से
भरी
भावपूर्ण
काव्यात्मक
वाणी
हिंसक
कट्टरवादी
माहौल
में
समाज
को
बदल
न
पाई
हो,
लेकिन
इसने
यह
जरूर
बता
दिया
कि
धर्म
वस्तुतः
क्या
है
और
मानव
भविष्य
किसमें
सुरक्षित
है।
सूरदास
ने
सूर-सागर
में
कीर्तन
काव्य
के
रूप
के
अंतर्गत
ही
प्रायः
बिलावलराग
में
अवतारों
का
गुणगान
किया
है।
सूरसागर
में
मत्स्य,
कच्छप,
वाराह,
नृसिह,
वामन,
परशुराम,
कृष्ण,
बुद्ध
और
कल्कि
अवतारों
का
उल्लेख
हुआ
है
:
मच्छ, कच्छ, बाराह,
बहुरि
नरसिंह
रूप
धरि
।
वामन, बहुरी परसुराम,
पुनि
राम
रूप
करि
।।
वासुदेव सोई, भयौ,
बुद्ध
भयो
पुनि
सोइ
।
सोई कल्की होई
है,
और
न
द्वितिया
कोइ
।।
(10)
वल्लभ (ब्रज) और
चैतन्य
(ब्रजबुलि)
दोनों
की
भक्ति
का
आधार
कृष्ण
से
प्रेम
है,
लेकिन
प्रेम
के
स्वरूप
को
लेकर
दोनों
के
मत
अलग
हैं।
वल्लभाचार्य
शास्त्रीय
प्रकृति
के
होने
की
वजह
से
एक
बिंदु
पर
मर्यादा
से
बंध
जाते
हैं।
वे
कृष्ण
को
‘परिवार’
की
परंपरागत
धारणा
से
बाहर
लाकर
प्रेयसी
राधा
से
जोड़ना
नहीं
चाहते,
क्योंकि
विशिष्टवर्गी
संरक्षणशील
हिंदुओं
को
यह
स्वीकार
करने
में
दिक्कत
होती।
वे
कृष्ण
की
आनंदमय
बाल
लीला
और
किशोर-यौवन
वय
में
दानवों
तथा
कंस
के
वध
से
संबंधित
लोकमंगलकारी
लीलाओं
पर
जोर
देते
थे।
विशेष
स्थितियों
में
ही
उन्हें
‘रस
क्रीड़ा’
स्वीकार
थी।
इसलिए
दीनता
के
भजन
सुनकर
उन्होंने
सूरदास
से
कहा
था
“सूर
हवे
के
ऐसी
घिघियात
काहे
को
हो,
कछु हरि
जस
लीला
वर्णन
करो”
(11)
अर्थात कृष्ण का
यश
गाओ!
उनके
कृष्ण
का
यश
गाने
का
तात्पर्य
राधा-कृष्ण
के
प्रेम
या
विरह
का
वर्णन
करना
नहीं
है।
श्री
चैतन्य
अपनी
स्वच्छंद
प्रकृति
की
वजह
से
राधा
के
बिना
कृष्ण
की,
कल्पना
नहीं
कर
सकते
थे।
वे
खुद
अपने
को
बाहर
से
राधा
और
भीतर
से
कृष्ण
के
रूप
में
देखते
थे।
रागानुगा
भक्ति
की
ऊंचाई
पर
कृष्ण
खुद
राधा
बन
जाते
हैं
स्वयं
कृष्ण-कृष्ण
कहने
लगते
हैं।
वल्लभ
और
चैतन्य
की
भक्ति
में
यह
फर्क
महत्वपूर्ण
है।
चैतन्य
की
भक्ति
का
सूरदास
सहित
आम
भक्तों
पर
ऐसा
प्रभाव
पड़ा
कि
वे
राधा
के
बिना
कृष्ण
की
कल्पना
करने
के
लिए
तैयार
नहीं
होते।
ब्रजभाषा
और
ब्रजबुलि
साहित्य
में
कीर्तन
परम्परा
का
व्यापक
प्रभाव
देखने
को
मिलता
है।
कीर्तन
परंपरा
समान
होते
हुए
भी
ब्रजभाषा
और
ब्रजबुलि
साहित्य
में
कीर्तन
की
शैली
और
ढंग
में
भिन्नता
है।
निष्कर्ष : भक्ति के
अखिल
भारतीय
विस्तार
का
मुख्य
कारण
उसकी
गीतात्मकता
थी,
जो
कीर्तन
के
माध्यम
से
अभिव्यक्त
हुई।
कीर्तन
परम्परा
की
शुरुआत
ब्रजबुली
साहित्य
से
शुरू
होकर
ब्रजभाषा
साहित्य
तक
आई
है।
समकालीन
दौर
में
यह
परम्परा
इस्कॉन
संगठन
के
माध्यम
से
विश्व
स्तर
पर
प्रचलित
है।
कीर्तन
ब्रजभाषा
और
ब्रजबुली
साहित्य
के
बीच
की
कड़ी
के
रूप
में
दिखाई
पड़ती
है
और
यह
परम्परा
भक्तिकाल
के
दौरान
हताश
हुई
जनता
के
बीच
एक
भक्ति
रूपी
उत्साह
और
उम्मीद
को
जगाती
है।
ब्रजबुली
साहित्य
में
कृष्ण
की
कल्पना
बिना
राधा
के
नहीं
की
जा
सकती
और
यहाँ
कृष्ण
की
लीलाओं
का
वर्णन
बिना
किसी
मर्यादा
में
बंधे
किया
गया
है
जबकि
ब्रजभाषा
साहित्य
में
मुख्यत:
कृष्ण
को
आदर्श
के
रूप
में
वर्णित
किया
जाता
है।
इन
सभी
साहित्यिक
अंतरों
के
अलावा
भाषाई
स्तर
पर
ब्रजभाषा
और
ब्रजबुली
भाषा
अलग
होकर
भी
उनकी
भाषाई
साम्यता
दिखाई
पड़ती
है।
संदर्भ :
- रामचंद्र शुक्ल, सूरदास, प्रकाशन संस्थान, सन 2015, पृष्ठ संख्या 74
- मैनेजर पाण्डेय, भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, वाणी प्रकाशन, सन 1993, पृष्ठ संख्या 274
- कृष्णदास कविराज, चैतन्य चरितामृत, भक्ति वेदांत बुक ट्रस्ट, सन 1985 पृष्ठ संख्या 178
- डॉ सुकुमार सेन, ब्रजबुली साहित्य का इतिहास, कलकत्ता विश्वविद्यालय प्रेस, सन 1935 पृष्ठ संख्या 108
- डॉ रामविलास शर्मा, भारतीय साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, सन 1996, पृष्ठ संख्या 88
- श्रीमंत शंकर देव, कीर्तनघोषा, भुवन बानी ट्रस्ट, सन 1986, पृष्ठ संख्या 27
- KANNAI LAL DUTTA, THE BENGAL VAISHNAVISM AND MODERN LIFE,
SHREEBHUMI PUBLISHING COMPANY, 1963, PAGE NO. 246
- कृष्णदास कविराज, चैतन्य चरितामृत, भक्ति वेदांत बुक ट्रस्ट, सन 1985, पृष्ठ संख्या 75
- सं नन्ददुलारे वाजपेयी, सूरसागर, नागरी प्रचारिणी सभा, सन 1959 , पृष्ठ संख्या – 369
- गाल्वानो डेल्ला बोल्पे, 'क्रिटीक आफ टेस्ट', लंदन, 1978, पृ. 25
- बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्ण प्रकाशन, सन 1996, पृष्ठ संख्या 121
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