- रश्मि पाल एवं दीपक
शोध सार : श्याम बेनेगल भारतीय समानांतर सिनेमा के एक प्रमुख फिल्मकार, ने मुख्यधारा बॉलीवुड में प्रचलित लिंग और नारीत्व के चित्रण को लगातार चुनौती दी है। उनके सिनेमा, विशेष रूप से 1970 के दशक से लेकर 2000 के शुरुआती वर्षों तक, पारंपरिक लिंग रूढ़ियों से परे जाकर महिलाओं के संघर्ष, साहस और स्वायत्तता को चित्रित करते हैं। बेनेगल ने महिलाओं को केवल यथार्थवादी दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि एक ऐसी सशक्त और आत्मनिर्भर छवि के रूप में प्रस्तुत किया है, जो समाज के पारंपरिक और पितृसत्तात्मक बंधनों से बाहर निकलने की कोशिश करती है। यह अध्ययन श्याम बेनेगल की फिल्मों का आलोचनात्मक नारीवादी दृष्टिकोण से विश्लेषण करता है, जिसमें अंकुर (1974), भूमिका (1977), मंडी (1983), और जुबैदा (2001) जैसी महत्वपूर्ण फ़िल्में शामिल हैं। इन फिल्मों के माध्यम से बेनेगल ने महिलाओं के आंतरिक संघर्षों, उनकी सामाजिक परिस्थितियों और उनके साथ होने वाले उत्पीड़न के विभिन्न रूपों को उकेरा है। अंकुर और भूमिका में महिलाओं के मानसिक और सामाजिक संघर्षों को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि वे अपनी स्वायत्तता की खोज में निरंतर संघर्षरत रहती हैं। वहीं मंडी में बेनेगल ने समाज में महिलाओं के शोषण और यौनिकता के आर्थिक और सामाजिक आयामों को गहरे रूप से उजागर किया है। जुबैदा में तो उन्होंने वर्ग, लिंग और व्यक्तिगत इच्छाओं के जटिल संबंधों का चित्रण किया है, जो एक महिला की आत्म-निर्णय की इच्छा और उसके आस-पास के सामाजिक दबावों के बीच की अंतर्विरोधी स्थिति को दर्शाता है। इस अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि श्याम बेनेगल की फिल्मों ने भारतीय सिनेमा में नारीवादी विमर्श को समृद्ध किया है और उनके माध्यम से बेनेगल ने लिंग आधारित परंपरागत रुढ़िवादी आख्यानों को चुनौती देते हुए महिला पात्रों को अधिक स्वतंत्र और सशक्त रूप में प्रस्तुत किया है। इस शोध का उद्देश्य न केवल श्याम बेनेगल के योगदान को रेखांकित करना है, बल्कि यह भी दिखाना है कि उनका सिनेमा भारतीय समाज में महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण को किस प्रकार बदलने में सहायक रहा है, और कैसे उन्होंने महिला स्वायत्तता और लिंग आधारित उत्पीड़न के मुद्दों को अपनी फिल्मों के माध्यम से उजागर किया।
बीज शब्द : भारतीय सिनेमा, नारीवादी विमर्श, पुरुषवादी दृष्टिकोण, अंत:क्रियात्मक (Intersectional) सिद्धांत, समानांतर सिनेमा।
मूल आलेख : सिनेमा ऐतिहासिक रूप से समाज का दर्पण होने के साथ-साथ सांस्कृतिक मानकों को सुदृढ़ करने का माध्यम भी रहा है, विशेष रूप से लैंगिकता के संदर्भ में। फ़िल्में अपनी कथा संरचना, पात्रों के चित्रण और दृश्यात्मक सौंदर्यशास्त्र के माध्यम से समाज में स्त्रीत्व और पुरुषत्व की धारणाओं को आकार देने और सुदृढ़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। भारत में, जहाँ सिनेमा एक प्रमुख सांस्कृतिक शक्ति के रूप में कार्य करता है, वहाँ लैंगिक चित्रण सामाजिक मानकों को परिभाषित करने और बनाए रखने में विशेष रूप से प्रभावी रहा है। मुख्यधारा के बॉलीवुड में अधिकांश नारी पात्रों को सद्गुणी, त्यागमयी और आज्ञाकारी के रूप में तथा पुरुष पात्रों को अति-पौरुषेय, प्रभुत्वशाली और रक्षक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, लंबे समय तक लैंगिक द्वैत को स्थापित करता रहा है (Virdi, 2003)। सिनेमा में महिलाओं को प्रायः ऐसी भूमिकाओं तक सीमित रखा गया है, जो उनकी पवित्रता, सौंदर्य, यौनिकता और विनम्रता को प्रमुखता देती हैं, जबकि पुरुष पात्रों को संरक्षक, आक्रामक या उद्धारक के रूप में दर्शाया गया है। ये लिंग आधारित चित्रण पितृसत्तात्मक मूल्यों को सामान्यीकृत करने का कार्य करते हैं और स्त्रीत्व के बहुआयामी या प्रतिरोधात्मक भूमिका को सीमित कर देते हैं।
हालाँकि, भारतीय सिनेमा एकरूपता नहीं है, प्रचलित लैंगिक धारणाओं को चुनौती देने के लिए कई वैकल्पिक फिल्मी आंदोलनों का उदय हुआ है। 1970 के दशक में उभरने वाली भारतीय नव तरंग अथवा समानांतर सिनेमा ने मुख्यधारा की पारंपरिक कथा संरचना का प्रतिरोध करने के लिए एक महत्वपूर्ण मंच प्रदान करता है, जो सामाजिक यथार्थ, लिंग, राजनीति और हाशिए पर मौजूद वर्गों की आवाज़ को केंद्र में रखता है (Chakravarty, 1993)। इस आंदोलन से जुड़े फिल्मकारों में श्याम बेनेगल एक प्रमुख व्यक्तित्व के रूप में उभरते हैं, जिन्होंने अपने सिनेमा में लिंग, वर्ग और जाति के प्रश्नों को निरंतर संबोधित किया। उनकी फ़िल्में मुख्यधारा बॉलीवुड के पारंपरिक स्त्री-अवधारणाओं को तोड़ते हुए महिलाओं के ऐसे चित्रण प्रस्तुत करती हैं, जो पितृसत्तात्मक ढाँचों के भीतर उनकी स्वायत्तता, संघर्ष और प्रतिरोध की जटिलताओं को उजागर करती हैं।
भारतीय सिनेमा खासतौर पर बॉलीवुड को ऐतिहासिक रूप से पितृसत्तात्मक लैंगिक मानदंडों को सुदृढ़ करने के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा है। महिलाओं को अक्सर गौण भूमिकाओं में प्रस्तुत किया जाता रहा है जिन्हें मुख्यत: रोमांटिक रुचियों, माताओं या कामवासना की वस्तुओं के रूप में सीमित किया गया । जैसा कि विर्दी (2003) का मानना है कि बॉलीवुड की प्रमुख कथाएँ आदर्श महिला के रूप में आत्म-त्यागी महिला की छवि को स्थापित करती हैं, जबकि पुरुष को अति-पौरुषिक नायक के रूप में प्रशंसा की जाती है। "अच्छी महिला" को अक्सर पारंपरिक मूल्यों, मान्यताओं के पालनकर्त्ता के रूप चित्रित किया जाता है, जबकि जो महिलाएँ सामाजिक मानदंडों को चुनौती देती हैं, उन्हें अक्सर कथा संरचना में दंडित किया जाता है।
इसी प्रकार, ड्वायर (2000) यह विश्लेषण करती हैं कि भारतीय फिल्मों में महिलाओं की भूमिका को किस प्रकार रूढ़िवादी नैतिक कोड्स द्वारा निर्धारित किया जाता है जिसके आधार पर महिलाओं के शारीरिक भावभंगिमा, इच्छाओं और स्वायत्तता को तय किया जाता है। वह आगे बताती है कि व्यावसायिक सिनेमा अक्सर पुरुषवादी दृष्टिकोण को सुदृढ़ करता है, जिसमें महिलाओं को मुख्य भूमिका के रूप में नहीं, बल्कि सह भूमिका या गौण भूमिका, विषयों के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। मुलवी (1975) सिनेमा में पुरुषवादी दृष्टिकोण को समझने के लिए एक सैद्धांतिक आधार प्रदान करते हैं जिसके माध्यम से वह
मुख्यधारा की सिनेमाई संस्कृति में लैंगिक आधारित व्यक्तित्व निर्माण के समझने पर बल देते हैं। यह ढांचा विशेष रूप से बेनेगल की फिल्मों में पारंपरिक चित्रणों को समझने के लिए उपयोगी है ।
भारतीय समानांतर सिनेमा 1970 के दशक में व्यावसायिक बॉलीवुड के प्रतिरोध के रूप में उभरा। समानांतर सिनेमा ने महिलाओं सहित हाशिए के वर्गों के मुद्दे, समस्याओं को अपेक्षाकृत अधिक वास्तविक, मुखर और सजीव रूप से चित्रित किया। वसुतेवन (2011) जैसे विद्वान मानते हैं कि समानांतर सिनेमा के विकास ने प्रचलित सिनेमा के संरचनाबद्ध रूपों को चुनौती देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, साथ सामाजिक अन्याय, जाति भेदभाव, और लिंग उत्पीड़न जैसे समस्याओं को प्रमुखता दी। चक्रवर्ती (1993) का मानना है कि समानांतर सिनेमा ने बॉलीवुड को मनोरंजन के माध्यम के बरक्स एक ऐसे सिनेमा के रूप में प्रस्तुत किया जहाँ महिलाओं के दैनिक अनुभवों संघर्षों को साझा किया जाता है। इनके अनुसार बेनेगल, गोविंद निहलानी, और मृणाल सेन जैसे फिल्मकारों ने ऐसी कथाएँ रची जहाँ महिला पात्र सिर्फ रोमांटिक सामग्री के रूप में नहीं, बल्कि उनके पास अपनी इच्छाएँ, संघर्ष और आकांक्षाएँ होती हैं। इस तरह समानांतर सिनेमा ने नारीवादी व्याख्याओं के लिए नई संभावनाएँ खोलीं, जो महिलाओं को जटिल सोचने वाली व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत करती हैं, न कि केवल सद्गुण, कर्तव्यपरायण और यौनिकता के प्रतीक के रूप में। भारतीय समानांतर सिनेमा के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों द्वारा व्यक्त किए गए विचार उसके महत्व को दर्शाते है। इस क्रम में गोपालन (1997) और भी अधिक गहरे रूप से भारतीय समानांतर सिनेमा में महिलाओं की भूमिका को विश्लेषित करती हैं और बताती हैं कि कैसे ये फ़िल्में पितृसत्तात्मक संरचनाओं की पड़ताल करती हैं। वह रेखांकित करती हैं कि बॉलीवुड जहाँ महिलाओं की स्वायत्तता अक्सर मेलोड्रामैटिक धारा के माध्यम से सीमित कर दी जाती है वहीं समानांतर सिनेमा महिलाओं की पहचान को अधिक सूक्ष्म और मार्मिक चित्रण के लिए एक जगह प्रदान करता है। इस प्रकार का दृष्टिकोण बेनेगल की फिल्मों के सामाजिक यथार्थवाद, लिंग और राजनीति के अंतर्द्वंद्व को समझने में सहायक होता है।
नारीवादी सिनेमा सिद्धांत और बेनेगल की फिल्म में महिला
नारीवादी सिनेमा सिद्धांत दृश्यात्मक संस्कृति में लैंगिक निर्मिती और संबंधित विवादों को समझने के लिए महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। लौरा मुलवी (1975) का पुरुषवादी दृष्टिकोण सिद्धांत भारतीय सिनेमा को लैंगिक नजरिए से समझने में सहायक होता है, जो यह बताता है कि कैसे पुरुषवादी दृष्टिकोण से महिलाओं को सिनेमाई तकनीकी के माध्यम से एक वस्तु रूप से प्रस्तुत किया जाता है। हालाँकि कुछ विद्वानों; जिसमें मुख्यत: राजाध्याक्षा और विलेमें (1999) का तर्क है कि कुछ फिल्मकार पुरुष वर्चश्व मानसिकता को तोड़ते हुए महिला दृष्टिकोण को फिल्मों में प्रमुख स्थान प्रदान करते हैं। श्याम बेनेगल की फिल्में इस संदर्भ में विशेष महत्व रखती हैं। जिसके सन्दर्भ में विभिन्न विद्वानों ने अपने मत व्यक्त किए हैं ।
सेन
(2010) का मानना है कि श्याम बेनेगल की फ़िल्में जाति और पितृसत्तात्मक संरचनाओं, मान्यताओं को चुनौती देती हैं, खासतौर पर दलित महिला के मौन प्रतिरोध के माध्यम से उच्च जातीय उत्पीड़न के खिलाफ प्रतिरोध प्रकट करती है। श्याम बेनेगल की फ़िल्में मुख्यधारा के बॉलीवुड की नायिकाओं की तरह निष्क्रिय पीडिता के रूप में नहीं बल्कि प्रतिरोध की एक सक्रिय भूमिका के रूप में प्रदर्शित करती है, भले ही वह अपनी सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति के दायरे तक सीमित हो। श्याम बेनेगल के फिल्मों के संदर्भ में लिखने वाले मज़ुमदार (2007) का मानना है कि बेनेगल की फ़िल्में पितृसत्तात्मक विवाह और पुरुष प्रधान फिल्म उद्योग दोनों की आलोचना करती है, जिससे यह नारीवादी विमर्श के लिए एक महत्वपूर्ण अध्याय बन जाती है। घोष (2016) का कहना है कि “बेनेगल के फिल्म जटिल महिला सरोकार पितृसत्तात्मक नैतिक पुलिसिंग की दिखावट को उजागर करते हैं, जो उनके फिल्म में नारीवादी स्पष्टता को दर्शाते हैं ।” गेहलावत (2015) कहना है कि फिल्म यह आलोचना करती है कि कैसे पितृसत्तात्मक संरचनाएँ सामाजिक वर्गों के बीच भी बनी रहती हैं, जिससे यह समकालीन नारीवादी बहसों में विशेष और लिंग उत्पीड़न पर प्रासंगिक हो जाती है। विद्वान मोहनती (2003) पश्चिमी नारीवाद की आलोचना करते हैं क्योंकि “यह अक्सर उपनिवेशोत्तर समाजों में महिलाओं के संघर्ष और अनुभव की जा रही विशिष्ट समस्याओं की अनदेखी करता है।” बेनेगल का कार्य उपनिवेशोत्तर नारीवादी दृष्टिकोणों के साथ मेल खाता है जो यह दर्शाता है कि भारत में महिलाओं का उत्पीड़न विभिन्न आयामों के माध्यम से होता है। श्याम बेनेगल का सिनेमाई योगदान भारतीय सिनेमा के लैंगिक विमर्श में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, क्योंकि यह विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमियों से आने वाली महिलाओं के अनुभवों को गहराई से दर्शाती है। मुख्यधारा बॉलीवुड में जहाँ महिला पात्रों को प्रायः पुरुष नायकों के सहायक या गौण भूमिकाओं तक सीमित कर दिया जाता है वहीं बेनेगल की फ़िल्में महिलाओं को अपने कथानक के केंद्र में स्थापित करती हैं। उनकी नायिकाएँ आदर्शीकृत या काल्पनिक स्त्री छवि तक सीमित नहीं होतीं, बल्कि जटिल व्यक्तित्व वाली ऐसी महिलाएँ होती हैं, जो दमन, स्वायत्तता और प्रतिरोध की वास्तविकताओं से जूझती हैं।
बेनेगल की फ़िल्में लिंग, वर्ग और जाति के अंतर्संबंधों की आलोचनात्मक पड़ताल करती हैं और यह दर्शाती हैं कि पितृसत्तात्मक संरचनाएँ विभिन्न सामाजिक संदर्भों में किस प्रकार कार्य करती हैं। उनकी सिनेमाई दृष्टि महिलाओं को मात्र उत्पीड़न की शिकार पीड़िता के रूप में चित्रित नहीं करती, बल्कि उन्हें ऐसे स्वायत्त और जुझारू व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत करती है, जो सत्ता संबंधों को पुनर्परिभाषित करते हैं, अधीनता का प्रतिरोध करते हैं और समाज द्वारा निर्धारित रुढ़िवादी मान्यताओं, मिथकों, परंपराओं को चुनौती देने के विभिन्न मार्ग तलाशते हैं। इस प्रकार, बेनेगल का सिनेमाई सामाजिक संरचना, विमर्श अपने आपको मुख्यधारा के भारतीय सिनेमा के बरक्श खड़ा करता है।
बेनेगल की फ़िल्म विश्लेषण के अध्ययन के लिए नारीवादी दृष्टिकोण के साथ अन्त: क्रियात्मकता के सिद्धांत का उपयोग किया गया है। अन्त: क्रियात्मकता का सिद्धांत यह समझने में सहायक होता है कि कैसे उत्पीड़न के कई रूप—जैसे लिंग, जाति और वर्ग—परस्पर जुड़कर हाशिए पर स्थित व्यक्तियों के जीवन अनुभवों को आकार देते हैं (किम्बर्ले क्रेंशॉ, 1989)। मुख्यधारा नारीवादी विमर्श में अक्सर लिंग उत्पीड़न पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, लेकिन जैसा कि क्रेंशॉ ने कहा, महिलाओं के अनुभवों को केवल लिंग के दृष्टिकोण से नहीं समझा जा सकता, क्योंकि वे अन्य संरचनात्मक असमानताओं जैसे जाति, वर्ग और आर्थिक स्थिति से भी प्रभावित होते हैं। यह ढांचा बेनेगल की फिल्मों का विश्लेषण करते समय विशेष रूप से प्रासंगिक है, जो अक्सर महिलाओं को जटिल शक्ति संरचनाओं के माध्यम से नेविगेट करते हुए दिखाती हैं। मुख्यधारा बॉलीवुड के विपरीत, जो अक्सर जाति को नज़रअंदाज़ करता है, बेनेगल की फिल्में जाति को उनके नारीवादी विमर्श में समाहित करती हैं, जिससे यह अधिक सामाजिक रूप से सजीव होती हैं। फिल्में पितृसत्तात्मक समाज द्वारा लगाए गए नैतिक द्वैतों को चुनौती देती हैं, यह दिखाते हुए कि कैसे हाशिए पर स्थित महिलाएं- विशेष रूप से सेक्स कार्य करने वाली महिलाएं-सामाजिक सम्मान और आर्थिक सुरक्षा से व्यवस्थित रूप से बाहर कर दी जाती हैं। इन फिल्मों पर अंतःक्रियात्मकता लागू करने से यह अध्ययन यह उजागर करता है कि कैसे बेनेगल की सिनेमा उत्पीड़न की एक जटिल समझ प्रस्तुत करता है, जो केवल लिंग पर केंद्रित नहीं है।
आलोचनात्मक विश्लेषण की आवश्यकता
भारतीय सिनेमा के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किए हैं। सिनेमा में लैंगिक दृष्टिकोण को समझने के लिए आवश्यकता है कि समाज के आधे हिस्से के प्रतिभागिता की भूमिका, स्थिति को समझा जाए। भारतीय सिनेमा में महिलाओं के ऐतिहासिक रूप से अपर्याप्त एवं विकृत चित्रण को देखते हुए उन्हें बॉलीवुड का बाजारतंत्र अक्सर व्यापक दर्शकों की रूचि के अनुरूप लैंगिक रूढ़ियों को बनाए रखने का कार्य करता है। ऐसी स्थिति में श्याम बेनेगल के फिल्मों की आलोचनात्मक अध्ययन की आवश्यकता महसूस हुई, जिससे यह समझा जा सके कि उनकी फ़िल्में नारीवादी विमर्श में किस प्रकार योगदान देती हैं। श्याम बेनेगल की फ़िल्मों के आलोचनात्मक विश्लेषण के माध्यम से यह शोध भारतीय नारीवादी सिनेमा के व्यापक विमर्श में योगदान की उम्मीद करता है। इसका उद्देश्य यह उजागर करना है कि किस प्रकार वैकल्पिक सिनेमाई आख्यान पारंपरिक सामाजिक धारणाओं को चुनौती देते हैं और समाज में लैंगिक समझ को नया रूप देने में सहायक हो सकते हैं।
शोध के लिए श्याम बेनेगल की महिला पात्र कथा केन्द्रित फिल्मों का चयन किया गया है जो लैंगिक मुद्दों को ग्रामीण, शहरी, कुलीन परिस्थितियों को संदर्भित करती है। इन मानकों को ध्यान में रखते हुए श्याम बेनेगल की अंकुर, भूमिका, मंडी और जुबैदा फिल्मों को चयनित किया गया है। फिल्म में महिला पात्रों की परंपरागत रूप से प्रचलित लैंगिक रूढ़ियों, मान्यताओं और पितृसत्तात्मक संरचनाओं के प्रति प्रतिरोध की भूमिका का विश्लेषण किया गया है। इसके अतिरिक्त, यह उनके सिनेमा में लिंग, जाति, वर्ग और सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों के साथ अंतर्संबंधों की भी पड़ताल करता है। नारीवादी और अंतःक्रियात्मक
(intersectional) सिद्धांतों को लागू करते हुए, यह शोध इस बात को रेखांकित करना चाहता है कि बेनेगल का सिनेमा भारतीय फ़िल्म निर्माण में लिंग संबंधी विमर्श को किस प्रकार आकार देता है और प्रभावित करता है। इस अध्ययन में थीमैटिक सामग्री विश्लेषण का प्रयोग किया गया है ताकि यह जाँचा जा सके कि बेनेगल की फिल्मों में लिंग और महिला चरित्र किस प्रकार निर्मित होते हैं ।
विश्लेषण और चर्चा :
श्याम बेनेगल की फिल्में मुख्यधारा के बॉलीवुड में महिलाओं के चित्रण बरक्स एक प्रतिरोध की शैली का चित्रण करती हैं जो महिला स्वायत्तता, प्रतिरोध और उत्पीड़न के जटिलता को प्रकट करता है। उनका सिनेमा नारीवादी सिनेमा सिद्धांत, अंतःक्रियात्मकता और उपनिवेशोत्तर नारीवाद के सिद्धांतों से मेल खाता है, जो पितृसत्तात्मक संरचनाओं की आलोचना करता है और जाति, वर्ग और लिंग के अंतर्संबंध की पड़ताल करता है। इस खंड में शोध के लिए चयनित फिल्मों अंकुर
(1974), भूमिका (1977), मंडी
(1983), और ज़ुबैदा
(2001) का थीम आधारित
विश्लेषण किया गया है।
अंकुर में महिला और पितृसत्ता
श्याम बेनेगल की अंकुर
(1974) फ़िल्म जाति और लिंग उत्पीड़न के अंतर्संबंध को उजागर करता है, जिसमें महिला पात्र लक्ष्मी (शबाना आज़मी) एक दलित महिला होती है जिसका शोषण उच्च जाति के सूर्या (अनंत नाग) ज़मींदार द्वारा किया जाता है। फिल्म में लक्ष्मी की भूमिका लैंगिक रूप से महिला और जाति श्रेणीक्रम में निम्न तबके के होने के दोहरे शोषण को व्यक्त करती है। इस संदर्भ में चक्रवर्ती (1993) का मानना है कि भारतीय सिनेमा ने ऐतिहासिक रूप से निम्न जाति की महिलाओं के अनुभवों, संघर्षो को नज़रअंदाज़ किया, जिससे उच्च जातीय आधारित पितृसत्तात्मक मान्यताओं, प्रथाओं को मजबूती प्राप्त होती रही है। बेनेगल अपनी फिल्मों के माध्यम इस परम्परा को तोड़ते हैं और लक्ष्मी के संघर्षों को प्रमुखता देते हुए जाति-आधारित पितृसत्तात्मक संरचनात्मक को उत्पीड़न के रूप में चित्रित करते हैं (Dwyer, 2005)।
लक्ष्मी के प्रतिरोध को दर्शाना निम्न जाति के महिलाओं द्वारा उच्च जातीय पुरुषवाद के शोषण को बर्दास्त करने की परंपरा को चुनौती देता है। फ़िल्म में लक्ष्मी स्पष्ट विद्रोह में भाग नहीं लेती, अपने अवैध बच्चे को पालने और अपनी गरिमा बनाए रखने का निर्णय एक प्रकार का प्रतिरोध होता है। यह स्पिवक (1988) के तर्क से मेल खाता है, जिसमें उन्होंने कहा है कि उपनिवेशी महिलाएँ प्रतिरोध करती हैं, जो पश्चिमी नारीवादी एजेंसी के मानकों से मेल नहीं खाती। इसके अतिरिक्त, अंकुर पितृसत्तात्मक पाखंड की आलोचना करता है: जबकि सूर्या विवाहेत्तर संबंधों में लिप्त रहता है और उसे कोई परिणाम नहीं भुगतना पड़ता, लक्ष्मी को सामाजिक अपमान, तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। इस संदर्भ में
मुलवी
(1975) के पुरुषवादी दृष्टिकोण (male gaze) का सिद्धांत पुष्ट
होता है, जिसमें महिलाओं के शरीर पितृसत्तात्मक नियंत्रण के स्थल होते हैं, जबकि पुरुष स्वछन्द रूप से यौन आनंद लेते हैं।
इसके अतिरिक्त अंकुर बॉलीवुड के सामंती ज़मींदारों के आदर्श चित्रण को विखंडित करता है । यह दर्शाते हुए कि शक्ति असंतुलन किस प्रकार यौन शोषण का आधार बनाता हैं (Gehlawat, 2015)। फिल्म का सामाजिक यथार्थवाद विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि यह जाति-आधारित लिंग उत्पीड़न का एक दुर्लभ ऑन-स्क्रीन चित्रण प्रस्तुत करता है, जो बेनेगल की नारीवादी और अंतःक्रियात्मक कहानी कहने की प्रतिबद्धता को मजबूत करता है।
‘भूमिका’ में महिला इच्छाएँ और स्वायत्तता
‘भूमिका’
(1977) महिला इच्छाओं और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की जटिल खोज की पड़ताल करती है, जो पारंपरिक भारतीय सिनेमा में महिलाओं के चित्रण से अलग है। उषा (स्मिता पाटिल), एक अभिनेत्री जो कई रिश्तों के बीच से गुजरती है, उस “महिला आत्म-खोज” का प्रतीक है जिसे सेन (2010) ने गहरे पितृसत्तात्मक समाज में वर्णित किया है। बॉलीवुड की सामान्य नायिका, जो या तो सामाजिक आदर्शों के अनुसार ढलती है या नष्ट हो जाती है; के विपरीत उषा स्वतंत्र रूप से परिवर्तन की तलाश करती है, महिला होने की पारंपरिक अवधारणाओं का विरोध करती है।
भूमिका फिल्म में बेनेगल उषा के चित्रण के माध्यम से प्रचलित पुरुषवादी दृष्टिकोण को विखंडित करते हैं, क्योंकि इसमें महिला व्यक्तित्व को मुख्य भूमिका में जगह प्रदान की जाती है (मुलवी, 1975)। स्त्री को केवल इच्छा पूर्ति की वस्तु के रूप में प्रस्तुत करने के बजाय फिल्म उसकी शारीरिक, मानसिक प्रताड़नाओं, निराशाओं और आकांक्षाओं की पड़ताल करती है (विर्दी, 2003)। यह मुख्यधारा हिंदी सिनेमा की उस प्रवृत्ति का विरोध करता है, जहाँ महिलाओं को केवल भोक्ता, उत्पीड़न को सहने वाली वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जाता है (गोपालन, 1997)। इसके अतिरिक्त उषा की आर्थिक स्वतंत्रता पारंपरिक नारीवादी आख्यानों को जटिल बनाती है, क्योंकि वह वित्तीय सफलता के बावजूद पितृसत्तात्मक रिश्तों में फंसी रहती है । यह संदर्भ मोहनती (2003) के नव-उदारवादी नारीवाद की आलोचना को पुष्टि करता है, जो मानता है कि केवल आर्थिक सशक्तिकरण महिलाओं की मुक्ति के लिए पर्याप्त नहीं है।
फिल्म “अच्छी महिला” और “बुरी महिला” के द्वंद की आलोचना करती है, जो भारतीय सिनेमा में प्रचलित है। जबकि उषा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का पीछा करती है, उसे न तो राक्षसी बना दिया जाता है और न ही आदर्श रूप से प्रस्तुत किया जाता है। इसके बजाय, उसे विरोधाभासों और जटिलताओं के साथ चित्रित किया जाता है, जो वास्तविक महिलाओं के संघर्षों को दर्शाता है जो पितृसत्तात्मक बाधाओं से जूझती हैं (चक्रवर्ती, 1993)। भूमिका के माध्यम से, बेनेगल प्रमुख सिनेमाई चित्रणों को चुनौती देते हैं और महिला नायक की नारीवादी पुनःकल्पना प्रस्तुत करते हैं।
मंड़ी में नैतिक नियंत्रण और महिला एकजुटता
मंडी
(1983) सेक्स कार्यकर्ताओं के नैतिक नियन्त्रण का तीव्र आलोचना प्रस्तुत करती है। फ़िल्म वेश्यावृत्ति के प्रति समाज के नजरिए को प्रस्तुत करते हुए वेश्याओं के जीवन संघर्ष, उत्पीड़न एवं उनकी चुनौतियों को दर्शाती है। फिल्म वेश्यालय को एक महिला मित्रता के स्थान के रूप में प्रस्तुत करती है, जहाँ महिलाएँ समाज की निंदा के बावजूद समर्थन और स्वायत्तता प्राप्त करती हैं (घोष, 2016)। इस तरह यह संदर्भ अंतःक्रियात्मक नारीवादी दृष्टिकोणों की पुष्टि करता है कि लैंगिक उत्पीड़न अक्सर वर्ग-आधारित हाशिए की स्थितियों से जुड़ा होता है (क्रेंशॉ, 1989)।
रुक्मिणी बाई (शबाना आज़मी) “सम्मानित” और “पतन” महिलाओं के पितृसत्तात्मक द्वन्द को तोड़ती हैं, यह प्रदर्शित करते हुए कि सेक्स कार्य महिला स्वायत्तता को नकारता नहीं है (गोपालन, 1997)। फिल्म में सेक्स वर्कर के रूप में महिलाओं का चित्रण अपनी स्वतंत्र पहचान के लिए निरंतर संघर्ष करने वाले व्यक्तित्व के रूप में दर्शाया गया है न कि दु:खी पीड़िता के रूप में, जो बॉलीवुड की प्रचलित संस्कृति को चुनौती देता है। यह संस्कृति वेश्या महिलाओं को दुर्भाग्यपूर्ण पात्रों के रूप में प्रस्तुत करती है (ड्वायर, 2005)। इसके अतिरिक्त फ़िल्म मंडी राज्य की भूमिका पर भी सवाल खड़ा करती है, जो नैतिक पुलिसिंग को बढ़ावा देता है । फिल्म यह खुलासा करती है किस तरह से राज्य एजेंसीज के अधिकारी ‘समाज कल्याण’ के बहाने महिलाओं के शरीर को नियंत्रित करने की कोशिश करते है। फ़िल्म पुरुषों के दोहरे चरित्र को प्रकट करती है जहाँ एक तरफ पुरुष अपनी काम इच्छाओं की पूर्ति के लिए वेश्यालयों में जाते हैं वहीं दूसरी तरफ नैतिक आधार उसे बंद कराने के लिए अभियान भी चलाते है। यह पितृसत्तात्मक समाज में महिला यौनिकता के साथ विरोधाभासी संबंध को उजागर करता है जिसे यक्तिगत तौर पर चाहना और सार्वजनिक रूप से निंदा करने वाला माना जाता है (सेन, 2010)।
मंडी फ़िल्म वेश्यावृत्ति के प्रति समाज में प्रचलित अमानवीय कार्य की धारणा अथवा अस्वीकार की मान्यता चुनौती देते हुए वेश्याओं के हक़ अधिकार और सम्मानजनक जीवन जीने की वकालत करती है (घोष, 2016)।
ज़ुबैदा में ऐतिहासिक नारीवाद
ज़ुबैदा
(2001) सामंती पितृसत्ता पर सवाल खड़ा करती है। फिल्म यह दर्शाती है कि कैसे लैंगिक उत्पीड़न उच्च सामाजिक वर्गों में भी कार्य करता है। शीर्षक पात्र (करिश्मा कपूर) प्रेम और स्वतंत्रता की तलाश करती है, लेकिन अंततः सामाजिक अपेक्षाएं बाधा निर्मित करती है। जैसा कि वसुतेवन (2011) का मानना है कि भारतीय सिनेमा अक्सर शाही महिलाओं को परंपरा के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करता है, न कि परिवर्तन के सक्रिय एजेंटों के रूप में। ज़ुबैदा इस मान्यता को तोड़ते हुए नायिका को एक ऐसी रूप में चित्रित करती है जो स्वतंत्रता चाहती है, लेकिन फिर भी ऐतिहासिक प्रतिबंधों से बंधी रहती है।
ज़ुबैदा का दुखद अंत मोहनती (2003) के पश्चिमी नारीवादी विमर्शों को ख़ारिज करता है, जो यह मानते हैं कि प्रिविलेज उत्पीड़न को नकारता है। जुबैदा उच्च जाति के बावजूद अपने जीवन पर नियंत्रण नहीं रख पाती, यह दिखाते हुए कि लिंग आधारित उत्पीड़न आर्थिक वर्गों से परे होता है (गेहलावत, 2015)। इसके अतिरिक्त, फिल्म बॉलीवुड की उस प्रवृत्ति को चुनौती देती है जो सामंती जीवन को रोमांटिक बनाती है और उन कठोर पितृसत्तात्मक संरचनाओं को उजागर करती है जो उच्च परिवारों में महिलाओं की भूमिकाओं को निर्धारित करती हैं (ड्वायर, 2005)। ऐतिहासिक नारीवादी दृष्टिकोण के अनुसार ज़ुबैदा जहाँ विभिन्न सामाजिक वर्गों में महिलाओं पर लगाए गए विभिन्न तरह के प्रतिबंधों को प्रकट करती है, वहीं संदर्भ विशेषानुसार स्वायत्तता के लिए सार्वभौमिक संघर्ष का जिक्र करती है।
बेनेगल की फिल्में पितृसत्तात्मक संरचनाओं की क्रांतिकारी आलोचना प्रस्तुत करती हैं, नारीवादी आख्यानों के माध्यम से जो जाति, वर्ग और ऐतिहासिक उत्पीड़न को समाविष्ट करती हैं। नारीवादी फिल्म सिद्धांत, अंतःक्रियात्मकता और उपनिवेशोत्तर नारीवाद के माध्यम से यह विश्लेषण दिखाता है कि कैसे उनका सिनेमा प्रमुख लिंग चित्रणों को विघटित करता है, नैतिक पाखंडों को चुनौती देता है और महिला व्यक्तित्व को पुनः प्राप्त करता है। उनका कार्य भारतीय सिनेमा में नारीवादी विचारधारा का आधारशिला बना हुआ है, यह प्रमाणित करता है कि सामाजिक रूप से जागरूक फिल्म निर्माण न केवल आलोचना बल्कि प्रतिरोध के रूप में कार्य कर सकता है।
निष्कर्ष : श्याम बेनेगल की फिल्में भारतीय सिनेमा में एक अग्रणी शक्ति के रूप में खड़ी हैं, जो मुख्यधारा बॉलीवुड के पारंपरिक लैंगिक चित्रणों के खिलाफ एक प्रगतिशील प्रतिवादी आख्यान प्रस्तुत करती हैं। फिल्म उद्योग जो पारंपरिक रूप से पुरुष-प्रधान आख्यानों से प्रभावित है जहाँ महिलाओं की भूमिकाओं को अक्सर निष्क्रिय या गौण पात्रों तक सीमित कर दिया जाता है, बेनेगल का कार्य इन रूढ़ियों को तोड़ता है, महिलाओं के दृष्टिकोण को केंद्रीय स्थान देकर और उन्हें जटिल, बहुआयामी व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत करता है। महिलाएँ अब सिर्फ हाशिए पर नहीं हैं बल्कि उनके पास स्वायत्त व्यक्तित्व और एजेंसी है, जिससे वे अपनी कहानियों में सक्रिय भागीदार बनती हैं। उनके आख्यान पितृसत्तात्मक नैतिकता के पाखंड को उजागर करते हैं, विशेष रूप से यह दिखाते हुए कि यह महिलाओं की यौनिकता, स्वायत्तता और जीवन चुनावों को कैसे नियंत्रित करता है।
बेनेगल का कार्य अंतःक्रियात्मक उत्पीड़न को भी प्रमुखता देता है, उनकी फिल्में यह दर्शाती हैं कि महिलाओं के अनुभवों को अकेले लैंगिक दृष्टिकोण से नहीं समझा जा सकता, बल्कि उन्हें बड़े सामाजिक-राजनीतिक और ऐतिहासिक संदर्भों में रखा जाना चाहिए। बेनेगल के नारीवादी और अंतःक्रियात्मक ढाँचे न केवल भारतीय समाज में महिलाओं के संघर्षों में अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं, बल्कि उनका कार्य समकालीन लिंग और एजेंसी के विमर्शों के लिए भी अत्यधिक प्रासंगिक बनाता है। पारंपरिक लिंग भूमिकाओं को चुनौती देकर और महिला पात्रों के अधिक सूक्ष्म चित्रण प्रदान करके, बेनेगल की फिल्में भारतीय सिनेमा में लिंग के अधिक समावेशी और विविधतापूर्ण समझ में योगदान देती हैं। श्याम बेनेगल की फिल्में भारतीय सिनेमा में लिंग प्रतिनिधित्व पर चर्चा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनी रहती हैं, जो पितृसत्तात्मक मानदंडों की कठोर आलोचना प्रस्तुत करती हैं और महिलाओं की आवाज़ को मुख्यधारा से बाहर किए जाने का विरोध करती हैं। उनका कार्य आगे के अध्ययन के लिए एक समृद्ध क्षेत्र प्रदान करता है और समकालीन सिनेमा में लिंग, जाति और वर्ग के अंतर्संलन पर विचार करने के लिए प्रेरणा बनता है।
संदर्भ सूची
:
पीएचडी शोध-छात्रा, शिक्षा संकाय (दिल्ली विश्वविद्यालय)
दीपक
पीएचडी शोध-छात्र, शिक्षा संकाय (दिल्ली विश्वविद्यालय)
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