शोध आलेख : आपातकाल की तिक्तता को अभिव्यक्त करते नाटक / प्रदीप कुमार सिंह

आपातकाल की तिक्तता को अभिव्यक्त करते नाटक
- प्रदीप कुमार सिंह

शोध सार : 26 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक घोषित आपातकाल भारतीय इतिहास का वह अध्याय है जो राजनीतिक अव्यवस्था को परिलक्षित करता है। जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री ने संविधान के भाग 18 के अनुच्छेदों का प्रयोग कर भारतीय आवाम पर आरोपित किया था। देश में आपातकाल लागू होने से सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं व्यवस्थागत कई विसंगतियाँ उत्पन्न हुई थीं। आपातकाल ने जिस तरह भारतीय समाज एवं राजनीति को प्रभावित किया, उससे कहीं अधिक साहित्य को, इसीलिए सत्ता का यह निर्णय नाटककारों के लिए वृहद् पृष्ठभूमि निर्मित करता है। परिणामस्वरूप आपातकाल और उसके तत्काल बाद कई ऐसे नाटक प्रकाश में आए जो जनता के स्वर को आवाज़ देते हुए सरकार की विफलताओं पर मजबूती से सवाल करते हुए, आपातकालिक प्रेस-सेंसरशिप एवं साहित्य जगत पर लगे प्रतिबंध पर रोष भी अभिव्यक्त करते हैं। जहाँ आपातकाल की मूल समस्याओं को नए ढंग से जानने और समझने के लिए सामग्री के साथ-साथ उन संदर्भों को भी उजागर किया गया, जिससे हमारा समाज अनभिज्ञ था।

बीज शब्द : आपातकाल, लोकतंत्र, काला अध्याय, अभिव्यक्ति, स्वतंत्रता, मानव मूल्य।

मूल आलेख : सामाजिक नवजागरण में नाटकों ने प्राचीनकाल से अब तक नुक्कड़ नाटक आदि के माध्यम से अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है, ऐसे में आपातकाल जैसी बड़ी ऐतिहासिक घटना जिसने तत्कालीन जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया था उससे भला यह विधा कैसे अछूती रह सकती थी। हिन्दी नाटकों ने अपने कथ्य में आपातकाल के भयपूर्ण वातावरण, सत्ता की मनमानी तथा भारतीय जनमानस के आक्रोश को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया। जिसका जीवंत उदाहरण लक्ष्मीकांत वर्मा द्वारा रचित ‘रोशनी एक नदी है’ (1974) नाटक है जो आपातकाल पूर्व के राजनीतिक परिवेश और प्रधानमंत्री द्वारा निर्मित ‘गरीबी हटाओ’ के नारे में आम आदमी के छले जाने की व्यथा को प्रस्तुत करता है, “गरीबी हटाओ- जैसे गरीबी कोई फाइल है। दस्तखत करो, हटाओ। ...आइए आगे आइए... गरीबी हटाइए। लेकिन गरीबी गरीब नहीं हटा सकता, इसलिए हमें अमीरों की ज़रूरत है। चोर-बाज़ारियों की ज़रूरत है।”1 प्रधानमंत्री जब चुनाव लड़ने के लिए आई थीं तो उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था। जिससे आम जनता को यह विश्‍वास हो गया था कि वह निश्‍चित रूप से लोगों की गरीबी दूर करेंगी और राजनीतिक रूप से सही मायनों में आम जनता का भला होगा। ‘गरीबी हटाओ’ नारे के चंगुल में फँसकर आम जनता ने भारी बहुमत से उन्हें विजयी बनाया था, लेकिन जब वह सत्ता में आईं तो उन्होंने अपने वादे के अनुकूल गरीबी न हटाकर आपातकाल में गरीबों को ही हटाने का प्रबंध कर दिया था। जिससे आम जनमानस इस बात को समझ गया था कि ये वादे और नारे सिर्फ कोरे थे, जिसे प्रधानमंत्री ने सत्ता में आने के लिए उछाला था जो मात्र पोस्टरों तक ही सीमित होकर रह गए थे और आपातकालीन सत्ताशाही एवं ब्यूरोक्रेसी के पाटों के बीच पिसने के लिए आम-जनता को छोड़ दिया गया था।

अमृत नाहटा द्वारा लिखित नाटक ‘किस्सा कुर्सी का’ (1978) अपने प्रकाशन काल में ही सरकार द्वारा जब्त हो जाने के कारण विशेष रूप से चर्चित रहा था। यह नाटक जनतंत्र की उपेक्षा कर स्वार्थ पूर्ति एवं भाई-भतीजावाद के राजनीतिक दाँव-पेंच का पर्दाफाश करता है। नाटककार के अनुसार बतौर प्राइम मिनिस्टर उन्होंने सरकारी साधनों को देश के हित में महत्त्वपूर्ण न मानकर निज स्वार्थ को ही सब कुछ समझ लिया था, “हमारी पार्टी का एक ही सिंगल पाइंट प्रोग्राम था। सत्ता-पावर-कुर्सी। हमारी एक ही घोषणा है- गरीबी हटाओ... पॉलिटिक्स एक खेल है, एक नशा है, एक जादू है तो एक बिजनेस भी है। पैसा जमा करो, चुनाव जीतो और पैसा बनाओ।”2 इस पैसा बनाने और चुनाव जीतने की प्रक्रिया के बीच अपनी कुर्सी एवं सत्ता को बनाए रखने के लिए नाटक के पात्र ‘प्रेसीडेंट गंगाराम’ जो कि तत्कालीन प्रधानमंत्री का प्रतीक है नाटक में, आपातकाल की घोषणा करते हैं, “देश के सामने एक बहुत बड़ा संकट है। यह एक बहुत बड़ी साजिश है। फासिस्ट ताकतें सर उठा रही हैं। देश में मारकाट, खून-खच्चर होने का ख़तरा पैदा हो गया है। प्रजातंत्र का गला घोंटा जा रहा है। विदेशी ताकतें हमारे देश को कुचल देना चाहती हैं। मैं यही नहीं होने दूँगा। इस देश में जनता का राज्य चलेगा, मेरा राज्य चलेगा। इसीलिए मैं देश में इमरजेंसी की घोषणा करता हूँ।”3 नाटक सत्ता की अमानुषिकता के सामने जनता के असहाय हो जाने का वर्णन करता है जहाँ आपातकाल लागू कर तत्कालीन प्रधानमंत्री ने जनतंत्र का नाटक करते हुए अपनी कुर्सी को बचाने का प्रयास किया था। तत्कालीन सरकार में जो मंत्री थे वे सभी अपना हित साधने और कुर्सी बचाने के लिए सरकार के पक्ष में खड़े हो गए थे। आम जनता की समझ में जब धीरे-धीरे यह बात आने लगी कि आपातकाल आम लोगों की सुरक्षा के लिए नहीं, बल्कि अपनी सत्ता और कुर्सी को बचाने के लिए लगाया गया है। अतः इसमें देश और जनता का नहीं बल्कि स्वयं प्रधानमंत्री और उनकी सरकार में रहने वाले मंत्रियों का लाभ है। आपातकाल लगाकर सरकार ने आम जनता के हितों की रक्षा एवं लोकतंत्र को बचाने का प्रयास करने की बात कही थी, जबकि वास्तविकता यह थी कि वह स्वयं की कुर्सी बचाकर रखना चाहती थीं। इसीलिए आपातकाल के विरोध में एक लफ़्ज भी कहना देश या सत्ता के प्रति विश्‍वासघाती हो जाने का प्रतीक बन गया था नाटक इस बात की ओर भी संकेत करता है।

मणि मधुकर का नाटक ‘बुलबुल सराय’ (1978) आपातकाल का वर्णन इस प्रकार करता है, “यह बुलबुल सराय है, जिसमें बंद हर पात्र असहाय है। शोषण की चक्की में पिसता है। चुप रहने में ही भला है। ...क्षमा करें दर्शक। ऐसे समय में जब विपत्ति को संपत्ति में बदला जा सकता है और आपातकाल के बाद स्वर्णकाल की तूती बजाई जा सकती है।..... हम बरसों से खजूर में अटके हैं। कुछ लोग गलतफहमी के मारे अड़े हैं। उन्हें पता नहीं कि वे खड़े हैं या पड़े हैं। ... आपातकाल के ओर-छोर पर कितना शोर है। अगर कोई आगे बढ़ता है तो समझ लो सूली पर चढ़ता है।”4 उक्त कथन आपातकाल में आम जनमानस के असहाय हो जाने का बोध कराता है, जिसमें जन-जीवन एकदम थम-सा गया था और ऐसा लगता था जैसे सभी के अस्तित्व पर एक साथ कुठाराघात कर दिया गया हो। इनका दूसरा नाटक ‘दुलारीबाई’ (1981) आपातकाल की समाप्ति के उपरांत सत्ता में आई जनता पार्टी के विश्‍वास-विरोधी आचरण पर तीखा व्यंग्य करता है, “कैसी चल रही है आजकल देवताओं में खींचतान, सत्ता हथियाने की होड़। देखो विष्णु जनता पार्टी के नेता हो गए। शिवशंकर सफेद कांग्रेसी और ब्रह्माजी एक इंडिपेंडेंस की हैसियत से दोनों की बखिया उधेड़ रहे हैं।”5 यहाँ देवताओं के प्रतीकों द्वारा जनता पार्टी में कुर्सी की सत्ता को लेकर मची प्रतिद्वंद्विता को देखा जा सकता है। आपातकाल के बाद की स्थिति पूर्ण रूप से सत्ता के संघर्ष, अशांति एवं असंतोष का परिणाम साबित हुई। सन् 1977 ई. में कांग्रेस की हार के बाद ऐसा प्रतीत होने लगा था कि इंदिरा गाँधी का राजनीतिक अस्तित्व ही खत्म हो गया है। परंतु राजनीति का भी अपना स्वभाव होता है और सत्ताधारी अपनी सत्ता को बचाने के लिए हर संभव प्रयास करता है, अपनी गलतियों से सबक लेते हुए वह ‘साम-दाम-दंड-भेद’ जैसी नीतियों को अपनाने से भी बाज नहीं आता है। 24 मार्च, 1977 को कांग्रेस का शासन पहली बार ‘जनता पार्टी’ के हाथों में था। परंतु जनता पार्टी के भीतर व्याप्त विभिन्न वैचारिक मत, राजनीतिक गठजोड़, कुर्सी या पद प्राप्ति की लालसा, साथ ही केंद्रीय सत्ता और प्रांतीय सत्ता में समय-समय पर होने वाले परिवर्तनों आदि ने जनता पार्टी में विखंडन की स्थिति उत्पन्न कर दी थी। इस संदर्भ में मीना अग्रवाल लिखती हैं, “जनता पार्टी की केंद्रीय सरकार का शासनकाल मुश्किल से दो-ढाई साल तक ही रहा और फिर वह अपनी ही मौत मर गया। मज़ेदार बात यह है कि जनता पार्टी की सरकार के खिलाफ वातावरण उत्कर्ष पर था, पर न तो उसे जन आक्रोश का कभी मुकाबला करना पड़ा और न ही किसी विरोधी पार्टी का सक्रिय विरोध, कांग्रेस पार्टी का भी नहीं। आपसी फूट, विवाद और कलह सरकार को ले डूबे।”6 कांग्रेस के 25 वर्षों के शासनकाल और 21 माह के आपातकाल में व्याप्त बेरोजगारी, महँगाई और भ्रष्टाचार आदि के समाप्त होने की जो आशाएँ भारतीय जनमानस ने जनता पार्टी से लगाई थी, वह मात्र डेढ़-दो साल में ही धराशायी हो गई। जिसे राजेश शर्मा अपने नाटक ‘आवश्यकता एक कुर्सी की’ (1980) में जनता पार्टी की कुछ न करने की नीतियों का पर्दाफाश करते हैं नाटककार के अनुसार, “कांग्रेस के पश्चात् जनता पार्टी की रंग-बिरंगी टोपियाँ भी कुर्सी पाने में ही संलग्न थी और उन्होंने भी जनहित की ही उपेक्षा की, उन्होंने केवल सत्ता प्राप्त करने के लिए ही गठबंधन किया, वे सिर्फ आज़ादी-आज़ादी, बस आज़ादी चाहते थे ...कुछ न करने की आज़ादी।”7 और ये आज़ादी जनता को नित नए तरीकों से मूढ़ बनाने के अलावा और कुछ भी नहीं है नाटककार की नज़र में।

डॉ. विनय का ‘पहला विद्रोही’ (1979) शीर्षक नाटक ‘महाभारत’ के मिथक के माध्यम से तत्कालीन प्रधानमंत्री के पुत्र का राजनीति में हस्तक्षेप तथा जनता में व्याप्त असंतोष की व्यथा को अभिव्यक्त करता है, जहाँ आपातकाल के दौर में संजय गाँधी की नीतियों का विरोध करना दंडनीय अपराध एवं देशद्रोह माना जाता था, “जनता आज्ञापालक पशु की तरह जी रही थी। राज्य जब जिसको चाहे इच्छानुसार प्रयोग करे। नरबलि के रूप में मार कर, कारागार में डालकर या किसी भी तरह।”8 नाटककार के मतानुसार आपातकालीन सत्ता एक षड्यंत्र थी, जिसके द्वारा राजनीति आम जनमानस का अस्तित्व धीरे-धीरे समाप्त कर रही थी। मुद्राराक्षस का ‘आला अफसर’ (1979) नाटक आपातकाल के अंतर्गत नगर सौंदर्यीकरण के नाम पर शहर से झुग्गी-झोपड़ियों के हटाए जाने का चित्रण करता है-

“साफ करो, साफ करो, झुग्गियाँ साफ करो।
देखो वो उस तरफ, मैली-सी बुढ़िया और
दुबले-से बच्चे लिए, अंधा एक बैठा है,
उसको कहीं कस्बे से बाहर खदेड़ कर।
झुग्गियाँ साफ करो।”9

इसके अतिरिक्त नाटक आपातकाल में व्यवस्था द्वारा की जाने वाली कार्य पद्धति के पक्ष में खड़े होने की बात भी करता है-

“हाकिम अगाड़ी है, सिपाही पिछाड़ी है।
दाएँ है पत्रकार, बाएँ बुद्धिजीवी है-
हट मैं जाऊँगा,
मैं तुझसे ज्यादा ज़ोर से गाऊँगा।
मैंने इमरजेंसी में बहुत गाया था
और आज भी गा ही रहा हूँ।”10

शरद जोशी का ‘अंधों का हाथी’ (1980) नाटक में आपातकाल की सशक्त अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। नाटककार के शब्दों में, “इस नाटक के प्रणयन के समय आपातकाल का डिक्टेटरी माहौल मेरे मन पर हावी था।”11 इसीलिए नाटक में ‘हाथी’ प्रधानमंत्री की राजनीतिक विशालता, सर्वग्रस्तता एवं जनता के साथ हुए छलावे का प्रतीक बन गया है। जगन्नाथ प्रसाद दास का ‘सबसे नीचे का आदमी’ (1981) नाटक उस आदमी की पीड़ा का वर्णन करता है, जिसके विकास का दावा बड़े पैमाने पर आपातकाल में लागू सरकारी योजनाओं के तहत किया गया था। इस नाटक की अगली कड़ी के रूप में हम विभुकुमार के ‘तालों में बंद प्रजातंत्र’ (1981) नाटक को देख सकते हैं जो मुख्य रूप से यह दर्शाता है कि आपातकाल में जीवित आदमी भी कैसे ‘मृत’ समान हो गया था और व्यवस्था कैसे आम आदमी की मानसिक हत्या कर रही थी, “यह भी एक किस्म की आत्महत्या है। तुम इसे क्या जिन्दा रहना समझते हो? हम लोग घुट-घुटकर मरने के लिए ही जिन्दा हैं। मुझे तो लगता है कि पूरा-का-पूरा देश जैसे एक बोगदे में बंद हो गया है जहाँ न हवा है, न रोशनी और न पानी। बस इंतजार है मृत्यु का।”12 आपातकाल के समय व्यक्ति-तंत्र प्रभावी होने के कारण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ह्रास और लोकतांत्रिक मूल्यों के हनन की स्थिति खड़ी हो गई थी। जिसके अंतर्गत प्रेस का गला घोंटकर, हज़ारों लाखों को बिना अभियोग चलाए ही हिरासत में ले लिया गयाथा और विपक्ष को खामोश करने के लिए अनेक पूर्णतः गैर-कानूनी और अवांछनीय कदम उठाए गए थे। जिससे अकथनीय व्यथा-कथाएँ देश का हिस्सा बनी। नाटककार ने अलग-अलग संदर्भों के माध्यम से इसे परिभाषित करने का प्रयास किया है।

कुसुम कुमार अपने नाटक ‘दिल्ली ऊँचा सुनती है’ (1982) के माध्यम से आपातकाल की समाप्ति के बाद जनता पार्टी के शासनकाल एवं उनकी नीतियों पर दृष्टिपात करतेहैं, जिसमें सरकारी विभागों की भ्रष्टता एवं निर्ममता निहित है। जे. जे. हरिजीत द्वारा रचित ‘खामोश इमरजेंसी जारी है’ (1982) नाटक अपनी मूक अभिव्यक्ति में आपातकालीन दहशत को पूरी तन्मयता के साथ प्रस्तुत करता है। आपातकाल ने देश की जनता को वाणीहीन कर, सत्ता के हाथों की कठपुतली बना दिया था। प्रस्तुत नाटक इसका दस्तावेजी विवरण प्रस्तुत करता है। इन्द्रजीत भाटिया का ‘अग्निखंड’ (1982) आपातकाल में व्याप्त जन-आक्रोश को व्यक्त करता है जिसमें सरकार द्वारा जनता से किए गए झूठे वायदों का काला सच नाटककार ने प्रस्तुत किया है। नाटककार के शब्दों में, “आज आदर्शों की टोपियाँ फट चुकी हैं, दिमाग और वाणियाँ बिक चुकी हैं तथा कलम और श्रम गिरवी रखे जा चुके हैं और यही है हमारी विडंबना के मूल कारण।”13 जिसे आपातकाल में जनता के भीतर व्याप्त आक्रोश का मूल भी माना जा सकता है। आपातकाल में सामाजिक रूप से अनेक विकट परिस्थितियाँ लोगों के समक्ष आ खड़ी हुई थीं। लोग सरकार द्वारा आपातकाल लगाए जाने के वास्तविक कारण से अनभिज्ञ होने के बावजूद यह जानते थे कि “श्रीमती गाँधी ने कानूनी उपचार और अपील के अधिकार का उपयोग न कर इसके बदले असामान्य, अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक रास्ता अख्तियार कर देश पर आपातकाल थोप दिया है।”14 जिस वजह से लगभग सभी के मन में बहुत आक्रोश था। दबे स्वर में, चारदिवारी के अंदर ही सही प्रधामनंत्री और उनकी सरकार की आलोचना लोगों ने शुरू कर दी थी। कांग्रेस सरकार के काम करने के तरीके और उसके व्यवहार से लोग अंदर ही अंदर खफ़ा हो रहे थे, जिससे प्रधानमंत्री की अलग छवि जनता के मन में व्याप्त होने लगी थी। आपातकाल के समय अनेक विकटताएँ लोगों के सामने थीं जिसका सामना जनता ही नहीं प्रशासनिक लोग जैसे-पार्टी कार्यकर्ता, नेता, मंत्री और मुख्यमंत्री सभी कर रहे थे। लेकिन किसी की हिम्मत नहीं थी कि कोई इसके विरोध में खड़ा हो आवाज़ उठा सके। इसीलिए तत्कालीन प्रधानमंत्री की नकारात्मक छवि धीरे-धीरे लोगों के मन में व्याप्त होती चली गई, जिसके परिणामस्वरूप आम जनता उनकी अवहेलना करने लगी। हालांकि यह आलोचना प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष अधिक थी क्योंकि प्रत्यक्ष रूप से सरकार और आपातकाल का विरोध करने का साहस किसी में न था, जिसे नाटककार ने अपने नाटक के माध्यम से रेखांकित करने का प्रयास किया है।

राजकुमार भ्रमर के नाटक ‘भस्मासुर’(1983) में आपातकालोत्तर राजनीति का वास्तविक स्वरूप देखा जा सकता है, जिसमें नाटककार जनतापार्टी के नेताओं पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैं, “ये वे नेता हैं जो इमरजेंसी से पहले बंद रहे, इमरजेंसी के बाद रहे और इन दिनों खुले घूम रहे हैं। ...देश को बचाने के लिए उसकी सरकार को गिरा दिया। ये अपनी साधना-तपस्या में इतने एकनिष्ठ हैं कि जब इन्हें किसी को गिराना हो तो खुद कितना गिरें, इसकी रंचमात्र भी चिंता नहीं करते। ये खुद भी तब तक गिरते चले जाते हैं, जब तक दूसरा न गिर जाए।”15 कथन में जनता पार्टी के नेताओं की सिद्धांत विहीन राजनीति एवं अवसरवादिता को स्पष्ट देखा जा सकता है। डॉ. अज्ञात अपने ‘वह देश जहाँ भूख नहीं लगती’ (1984) शीर्षकनाटक में लोकतंत्र के क्षय की उद्दघोषणा करते हैं जिसमें आपातकालीन नौकरशाही, युवा वर्ग में व्याप्त असंतोष एवं राजनीतिक आचार-विचार का वास्तविक सच देखने को मिलता है। माधवी मिश्रा के ‘विकास’ (1984) नामक नाटक में प्रधानमंत्री द्वारा आपातकाल लागू करने के पीछे के कारणों में देश में चारों तरफ व्याप्त हत्या, लूट-पाट, हड़ताल, अनुशासनहीनता, विदेशी एजेंसियों से प्राप्त धन को प्रमुख मानते हुए उसका स्वागत आदि प्रमुख हैं, “हमारी प्रधानमंत्री ने आपातकालीन घोषणा कर दी है। मेरा मन उनकी दूरदर्शिता से प्रभावित हो उठा है। ...हम सभी इस घोषणा का स्वागत करते हैं।”16 नाटक अपने कथानक में एक ओर आपातकाल के लागू होने का समर्थन करता है तो वहीं दूसरी ओर सरकार द्वारा जनहित के लिए उठाए गए कदमों एवं कार्य प्रणालियों पर प्रश्नचिह्न भी लगाता है। भगवानदास सफाडिया के ‘खुजराहों का पागल’ (1985) नाटक में जनता पार्टी की असफल नीतियों का खुलासा किया गया है। शिवशंकर मिश्र का ‘अनुशासन पर्व’ (1989) नाटक अपने कथ्य में आपात स्थिति का समर्थन करता है। नाटककार के शब्दों में कहें तो, “आपातकाल स्थिति कोई हौवा नहीं, आँधी या तूफान नहीं, जो पूरे समाज में उथल-पुथल मचा दे, यह तो वस्तुतः एक सुव्यवस्थित जीवन-प्रणाली की प्रशिक्षण अवधि है।”17 अर्थात् ऐसा पहली बार हुआ था जब देश में सभी वर्ग के लोग अंत: प्रेरणा से आत्मकल्याण तथा राष्ट्र-कल्याण की भावना की ओर ग्रसित हो एक साथ मंच पर आए थे।

इसके अतिरिक्त अस्सी-नब्बे की राजनीति और सत्ता के प्रतिरोध को आधार बनाकर कई नाटक लिखे गए, जिनमें नाटककारों ने राजनीति और सत्ता के वास्तविक फलक, भ्रष्टाचार एवं विसंगतियों को चित्रित किया है। इन नाटकों में लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों को अपने देशकाल एवं वातावरण से जोड़कर नाटककारों ने उनकी पुनः स्थापना करने की माँग की है इसीलिए यह नाटक आपातकालीन मूल्यों एवं विचारधाराओं का शाब्दिक वर्णन जान पड़ते हैं। इन वर्णनों में आपातकाल में होने वाली विसंगतियों, विद्रुपताओं और असामाजिक तथा अन्यायिक प्रतिक्रियाओं को स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता है। जिससे यह ज्ञात होता है कि अपने राजनीतिक स्वार्थ को साधने हेतु आनन-फानन में तत्कालीन सरकार ने देश पर आपातकाल लगाया था। इस आपातकाल में देश की नीतियाँ तथा स्थितियाँ बहुत विकृत हुईं और लोगों को अनेक तरह से कष्टों को सहन करना पड़ा।

संदर्भ :
  1. लक्ष्मीकांत वर्मा, रोशनी एक नदी है, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1974, पृष्ठ संख्या-42-43
  2. अमृतनाहटा, किस्सा कुर्सी का, राजपाल एण्ड सन्ज़, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1978,पृष्ठ संख्या-25
  3. वही, पृष्ठ संख्या-132
  4. मणि मधुकर,बुलबुल सराय, सन्मार्ग प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1978, पृष्ठ संख्या-34
  5. मणि मधुकर,दुलारीबाई, लिपि प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1981, पृष्ठ संख्या-10
  6. मीना अग्रवाल,जीवनी इंदिरा गाँधी, फ्यूजन बुक्स प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण, 2019, पृष्ठ संख्या-45
  7. राजेश शर्मा, आवश्यकता एक कुर्सी की, पांडुलिपि प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण,1980, पृष्ठ संख्या-50
  8. विनय, पहला विद्रोह, सन्मार्ग प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1979, पृष्ठ संख्या-22
  9. मुद्राराक्षस, आला अफसर, अक्षर प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1979, पृष्ठ संख्या-33
  10. वही, पृष्ठ संख्या-33
  11. शरद जोशी, अंधों का हाथी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1980, पृष्ठ संख्या-10
  12. विभुकुमार, तालों में बंद प्रजातंत्र, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1981, पृष्ठ संख्या-42
  13. इन्द्रजीत भाटिया,अग्निखंड, पांडुलिपि प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1982, (भूमिकासे)
  14. रामचंद्र गुहा (लेखक),भारतनेहरू के बाद, सुशांत झा (अनुवाद), पेंगुइन बुक्स, गुड़गाँव(हरियाणा), प्रथम संस्करण, 2011, पृष्ठ संख्या-132
  15. राजकुमार भ्रमर,भस्मासुर, पराग प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण,1983, पृष्ठ संख्या-50
  16. माधवी मिश्रा, विकास, सीमा प्रकाशन, लखनऊ(उ.प्र.), प्रथम संस्करण, 1984, पृष्ठ संख्या-83
  17. शिवशंकर मिश्र, अनुशासन पर्व, शरद प्रकाशन, लखनऊ(उ.प्र.), प्रथम संस्करण, 1989, पृष्ठ संख्या-124

प्रदीप कुमार सिंह
असिस्टेंट प्रोफेसर, गार्गी महाविद्यालय, दिल्ली विश्‍वविद्यालय
ps440440@gmail.com, 7503935817

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( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
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Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
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