शोध आलेख : आषाढ़ का एक दिन : स्त्री चरित्रों का मनोवैज्ञानिक विवेचन / नितिन नारंग

आषाढ़ का एक दिन : स्त्री चरित्रों का मनोवैज्ञानिक विवेचन
- नितिन नारंग


शोध सार : लेखक द्वारा गढ़े गए किरदारों को देखा जाए तो अमूमन वे हमें अपने जैसे या फिर जाने-पहचाने से दिखने लगते हैं। वे लेखक के रचनात्मक आग्रह की उपज होते हुए भी अपना स्वायत्त अस्तित्व रखते हैं। अतः बौद्धिक धरातल पर साहित्यिक चरित्रों के मनोवैज्ञानिक विवेचन का अपना महत्व है। नाटककार मोहन राकेश कृतआषाढ़ का एक दिनके प्रमुख स्त्री चरित्र हैंमल्लिका और अंबिका। साधारण से प्रतीत होने वाले इन स्त्री चरित्रों का असाधारण जीवट इन्हें मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचारोत्तेजक बना देता है। इनका व्यक्तिव भावुक या रूमानी नहीं बल्कि बेहद उन्मुक्त और नैसर्गिक है। इसी के चलते मल्लिका और अंबिका समसामयिक स्त्री चेतना के संदर्भ में भी प्रासंगिक प्रतीत होते हैं।


बीज शब्द : आषाढ़ का एक दिन, मनोविज्ञान, मोहन राकेश, मल्लिका, अंबिका, ज़िंदादिली, वरण की स्वतंत्रता, स्त्री प्रश्न, समानुभूति, सरोकार, अवचेतन इत्यादि।


मूल आलेख :  कथाकृति में घटना या क्रियाकलाप जितनी ही अहमियत किरदारों की होती है। कथानक में क्रियाशील इन चरित्रों के बिना उसका विन्यास या विकास असंभव है। इन्हें हम अपना प्रतिबिंब कह सकते हैं। मगर ये दर्पण में दिखने वाले प्रतिबिंबों जैसे नहीं होते।  आत्माभिव्यक्ति लेखक द्वारा रचे गए पात्रों की बुनियाद है। लेकिन ये चरित्र रचनाकार के यंत्र या कठपुतली नहीं होते। लेखक की महत्वाकांक्षा में युग-चेतना का समावेश साहित्यिक चरित्रों को स्वायत्त अस्तित्व प्रदान करता है। अतः साहित्य के चरित्र अपनी ही तरह की सजीव आकृति कहे जा सकते हैं। यह तथ्य मोहन राकेश कृतआषाढ़ का एक दिनके प्रमुख स्त्री चरित्रों अर्थात मल्लिका और अंबिका में बखूबी प्रतिबिंबित होता है। मल्लिका और अंबिका का मनोवैज्ञानिक विवेचन नाटक में स्थापित इनके स्त्रीत्व को देखने-समझने की माँग करता है।


नाटककार कोमेघदूतपढ़ते हुए महसूस होता रहा कि विरही यक्ष में उसे रचने वाले कालिदास की कसक बयान हुई है।1 अपनी इस धारणा को राकेश नेआषाढ़ का एक दिनमें रचनात्मक विस्तार देना चाहा है। दोनों कृतियों का कथानक आषाढ़ माह के पहले दिन से शुरू होता है। लेकिनआषाढ़ का एक दिनके आगाज़ से ही कथानक कालिदास की बजाय किसी दूसरी दिशा में बढ़ने लगता है।  कालिदास की प्रिया मल्लिका ही एक ऐसा किरदार है, जो किआषाढ़ का एक दिनमें शुरू से लेकर अंत तक निरंतर बना रहता है। इसी के संवाद से यह नाटक शुरू होता है। रचना के आखिरी पड़ाव पर कालिदास का नाम दो बार पुकारा गया है। यह पुकार मल्लिका की है। यही नाटक का अंतिम संवाद है। मल्लिका का ज़िंदादिल, अदम्य और गतिशील व्यक्तित्व इस नाट्य-रचना की उपलब्यि है। बेबाकी और शिद्दत से जीना, उफ़ करना, उसका ऐसा स्वभाव रचना में अहम भूमिका निभाता है। मल्लिका को अपनी हर कृति में देखता रहा कालिदास राजकवि हो गया। उसने राजकन्या से विवाह किया और राजपाट भी भोगा। लेकिन कालिदास की कविता को समर्पित मल्लिका के हिस्से आएप्रियंगुमंजरी का अपमानजनक प्रस्ताव और अंबिका की कटूक्तियाँ। वह विलोम के संग घर बसा लेती है।मेघदूत’, ‘रघुवंश’, ‘शाकुंतलम्आदि की प्रतिलिपि हासिल करने के लिए मल्लिका धन जोड़ती थी। उसने संतान को भी जन्म दिया। पर बसी-बसायी गृहस्थी में वह खुद को वारांगणा महसूस करती रही। यही उसका यथार्थ है। जो कि अंततः उसके द्वारा अपनी देह से सटी बच्ची को चूमने में बेहद मार्मिक हो चला है। आदर्शवादी दृष्टिकोण से देखा जाए तो उसकी नियति भावुक कर देती है। लेकिन भावुक नज़रिए से मल्लिका की शख्सियत के प्रति न्याय हो सकेगा।


मल्लिका के चरित्रांकन का यह एक दिलचस्प पहलू है कि इस किरदार को भावुक होकर देखने से यह भी सीधा-सादा और मासूम प्रतीत होता है। इसकी कथनी का करनी में रूपांतरित होना इसे विचारोत्तेजक बना देता है। कालिदास पर किए गए आक्षेप मल्लिका ने खुद पर लिए हैं। यह रूमानी आवेग या फिर कच्ची उम्र का उन्माद नहीं है। इस तथ्य की पुष्टि करता हैनाटक में कहीं भी उसका हताश या विचलित होना। मल्लिका के व्यक्तित्व और उसकी नियति का मूल्यांकन करते हुए जयदेव तनेजा लिखते हैं – “मल्लिका का यह अटूट आस्थामय त्याग, चिर-वियोग और आजन्म दुःख उसके अपने निर्णय एवं चुनाव का परिणाम है। वरण की स्वतंत्रता के उपयोग से अनिवार्यतः जुड़े होने के कारण इस चरित्र में एक सार्वजनीन और सार्वकालिक प्रभावशीलता गई है।“2 औरों की देखादेखी जीना अपेक्षाकृत सरल और सुरक्षित है। लेकिन अपनी शर्तों पर जीना तो खुद को दाँव पर लगाना है। ऐसा व्यक्ति कई लोगों के लिए अपवाद होता है। कुछ उसमें नई संभावना देखते हैं। मगर वह किसी भी लगाव या दबाव से प्रभावित हुए बिना अपनी राह चुनता है। अपने प्रति उत्तरदायी होने का माद्दा रखता है। यह दायित्वबोध मल्लिका के स्वाभिमानी, स्वावलंबी और ज़िंदादिल व्यक्तित्व का आधार है। अतः वह कह सकती है – “मल्लिका का जीवन उसकी अपनी संपत्ति है। वह उसे नष्ट करना चाहती है तो किसी को उस पर आलोचना करने का क्या अधिकार है?”3 मल्लिका के अनुसार उसने भावना में एक भावना का वरण किया है।यह प्लेटोनिक आवेग नहीं बल्कि खुद पर दावेदारी है। कालिदास और अपने रिश्ते में वह किसी का दखल नहीं चाहती। लोग इस संबंध को चाहे जो नाम दें, किसी की परवाह करते हुए मल्लिका ने इसे खुलकर जीया है।


कालिदास के लिए अपने पर गर्व करने का साधन मात्र हैमल्लिका। अंबिका की यह धारणा बहुत हद तक सही साबित हई है। पर क्या कालिदास को मल्लिका समझ सकी? दरअसल, कालिदास के आत्मनिष्ठ स्वभाव से मल्लिका भलीभाँति परिचित है। एक वही है, जो कि कालिदास के दबे-घुटे अंतःकरण को समझती है। कालिदास को अपनों के बीच जो मिला, उसनेपर्वत शिखरोंऔर  ‘मेघ मालाओंमें खोज लिया। उसका अंतर्मुखी मन कविता में खुलना और खिलना जानता है। कविता ही उसके अस्तित्व का यथार्थ है। अपनी इस वास्तविकता को कालिदास खुद इतना महसूस कर सका, जितना कि मल्लिका ने टोह लिया। जीवन से मिल सकी खुशी और खूबसूरती का कविता में सृजन करना, ज़िंदादिल स्वभाव की मल्लिका को भाता है। यह विपरीत से विपरीत परिस्थिति में संभावना को जिलाये रखने का जज़्बा है। कालिदास की इस सृजनशीलता में मल्लिका निखार देखना चाहती है। इसलिए उसकी झिझक को झकझोरती है। उसकी दबी चाह को पंख देती है। कालिदास के राजकवि होकर उज्जयिनी जाने में मल्लिका अपने प्यार की जीत देखती है।


मल्लिका की कालिदास कोई कमज़ोरी नहीं है। उसके प्रति खुद को समर्पित करने का नफ़ा-नुकसान वह खूब समझती है। इसलिए किसी हीन भावना या अपराध बोध के बिना मल्लिका अपनी नियति को स्वीकार सकी। कालिदास से जुड़े अपवाद मल्लिका को नहीं अखरते। वह राजकन्या प्रियंगुमंजरी से कालिदास के विवाह की चर्चाओं को अहमियत नहीं देती। राज्याधिकारी संग ब्याह रचवा देने का प्रियंगुमंजरी द्वारा रखा गया प्रस्ताव, मल्लिका को आहत करता है। मगर वह इस अपमान को पचाने की हिम्मत रखती है। गाँव में ठहरे राजकवि कालिदास के घर आने की उसने आस सँजो रखी है। उसकी यह आस टूट जाती है, मगर वह नहीं टूटती। वह भी ज़िंदगी में आगे बढ़ गई। उसने विलोम के संग घर बसा लिया। इस संदर्भ में गोविंद चातक लिखते हैं – “मल्लिका विलोम से ब्याह कर अपने जीवन को प्रामाणिकता-ऑथेण्टिसिटी-प्रदान करती है।“5 पुरुष प्रधान समाज में स्त्री का एकल अस्तित्व कहाँ तक संभव है? अतः उसका विलोम से विवाह करना व्यावहारिक धरातल पर जायज़ है।आषाढ़ का एक दिनकी चर्चित प्रस्तुतियों के निर्देशक रहे रामगोपाल बजाज इस संदर्भ में कहते हैं – “मल्लिका के अवचेतन में पहले से ही विलोम के स्वीकार का कोई कोई बीज अवश्य रहा होगा-भले ही मल्लिका उसे जानती रही हो। उनके संबंधों की इस जटिलता, एम्बीग्विटी और ड्वैलटी के बिना-यह परिणति झूठ है, असंभव है।”6 यह समझना भी दिलचस्प और ज़रूरी है कि मल्लिका ने विलोम को क्यों चुना? जिसके प्रति एक समय वह विरोधी पक्ष जैसा बरताव करती थी। आर्थिक दृष्टि से सक्षम विलोम का मल्लिका की ओर झुकाव है। यह उसकी कथनी-करनी में दिखता है। विलोम की इस भावना और वस्तुस्थिति का मल्लिका के मन पर कुछ असर पड़े, यह नामुमकिन है। अतः कालिदास की ओर से कोई संभावना शेष रहते मल्लिका ने विलोम को अपना लिया। मगर कालिदास के कवित्व से अपने लगाव को वह जीती रही। यह एम्बीग्विटी मानव मन की जटिलता को दर्शाती है।


दमन और पलायन की बजाय मल्लिका अपनी जटिलताओं से जूझती है। वह प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थिति में भी अपने भीतर असुरक्षा या अवसाद नहीं पनपने देती। हालाँकि इस नाट्य-रचना का हर अंक मल्लिका के आँसुओं पर समाप्त हुआ है। लेकिन ये आँसू हार या बेबसी नहीं दर्शाते। कुछ अच्छा छूटने या बीतने के अहसास से आँख नम हो जाना एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। मन के कच्चे व्यक्ति के आँसुओं में हताशा झलकती है। जबकि मल्लिका जो बीत गया उसे आँसुओं में बहा देती है। ताकि नई शुरूआत की जा सके। तीसरे अंक में एक स्वगत कथन मल्लिका के अभाव को स्वर देता है। मगर लगता नहीं कि कालिदास के विषय में सोच रही मल्लिका को उससे शिकायत है। वह मानो नियति पर हैरान है। यह मल्लिका के व्यक्तित्व का अंतर्मुखी पक्ष है। कार्ल गुस्ताव युंग के अनुसार व्यक्ति में बहिर्मुखी और अंतर्मुखी रुझानों का सह-अस्तित्व रहता है। किसी में अंतर्मुखी तो किसी में बहिर्मुखी रुझान प्रबल रहता है। समय के साथ व्यक्तिव का रुझान बदल सकता है।7 इस परिप्रेक्ष्य में यदि देखा जाए तो कालिदास अंतर्मुखी और विलोम बहिर्मुखी स्वभाव का है। पहले से तीसरे अंक तक दर्शाए गए वर्षों के अंतराल में कालिदास और विलोम का स्वभाव तो खास परिवर्तित नहीं हुआ। लेकिन मल्लिका के बेबाक और मुखर व्यक्तित्व में बहिर्मुखी से अंतर्मुखी रुझान की ओर संक्रमण दिखता है। अंतर्मुखी मल्लिका भी उदार और उन्मुक्त है। इतना कुछ हो जाने के बाद भी तसल्ली से कालिदास की सुनती है। बेझिझक उसे बता देती है कि वह माँ बन चुकी है। मल्लिका नाटक का सर्वाधिक गतिशील और संश्लिष्ट चरित्र है।


हिंदी के नाट्यालेखों में स्त्रीत्व की एक नैसर्गिक, सशक्त और मुकम्मल अभिव्यक्ति हैमल्लिका। इस चरित्र में अपनी माँ अंबिका की परवरिश बखूबी प्रतिबिंबित हुई है। कई अध्येताओं और रंगकर्मियों ने मल्लिका को अंबिका की पुनरावृत्ति कहा है। नाटक का अंतिम दृश्य इस धारणा की पुष्टि करता है। आँखों में आँसू लिए मल्लिका खुद से सटी बच्ची को चूम रही है। यह देख पहले और दूसरे अंक का अंत याद जाता है, जब मल्लिका की आँखों में आँसू आने पर उसे अंबिका ने बाँहों में भर लिया। अंततः अबोध बच्ची से स्नेह की अभिव्यक्ति दर्शाती है कि अब मल्लिका को अंबिका का किरदार निभाना है। त्रासदी की पुनरावृत्ति पर बल देते हुए बृज मोहन शाह ने सन 1975 मेंआषाढ़ का एक दिनमंचित किया था। वे कहते हैं – “अंबिका के जीवन-अनुभव भी शायद मल्लिका जैसे ही रहे हैं, तभी वह बेटी के वर्तमान और भविष्य को इतनी गहराई से विश्लेषित करके उसकी नियति को दूर तक देख पाती है। संभवतः उसकी अपनी जीवन-यात्रा भी किसी कालिदास और विलोम से होकर गुज़री है-नहीं तो नाटक में मल्लिका के पिता का उल्लेख कहीं भी क्यों नहीं है?”8 हालाँकि मल्लिका के पिता का ज़िक्र एक जगह अंबिका की ज़बानी हुआ है। जब वह मल्लिका से कहती है – “पिछली महामारी में जब तुम्हारे पिता की मृत्यु हुई तब भी मैंने ये आकृतियाँ यहाँ देखी थीं।”9 पिता का इतना भर उल्लेख प्रणय अथवा दांपत्य संबंधी अंबिका के अनचाहे अनुभवों की ओर इशारा करता है। क्या इसलिए अंबिका को भावना में भावना का वरण स्वीकार नहीं?


            अंबिका द्वारा पहले अंक में बोले गए संवादों से प्रतीत होता है कि उसका व्यावहारिक दृष्टिकोण मल्लिका की भावुकता को खारिज करता है। लेकिन जैसे मल्लिका रूमानी या भावुक सिद्ध नहीं होती, ठीक ऐसे ही उसकी एंटीथिसिस के रूप में अंबिका को देखना एक तरह का सरलीकरण है। कालिदास के प्रति अंबिका की कटुता का कारण मल्लिका से प्रतिद्वंद्विता नहीं है। अंबिका और मल्लिका के संबंध देख लगता नहीं कि बेटी पर माँ वर्चस्व रखना चाहती है। मल्लिका से उसके संबंध को सरोकार या सहानुभूति तक ही नहीं समझा जा सकता। मल्लिका के प्रति अंबिका का बरताव समानुभूति की अभिव्यक्ति है। गौरतलब है कि कालिदास की खातिर विलोम के मान-सम्मान को महत्व देने वाली मल्लिका ने अंबिका से विद्रोह नहीं किया। दरअसल, मल्लिका की भावना में अंबिका ने उसका साथ दिया है।


नाटक में जो प्रकोष्ठ है, वहाँ मल्लिका से पहले अंबिका मौजूद है। उल्लेखनीय हैंशुरूआती पृष्ठों में दिए गए रंग संकेत, मल्लिका के धाराप्रवाह संवाद और अंबिका द्वारा बोले गए औपचारिक वाक्य। ये दर्शाते हैं कि मल्लिका की ओर ध्यान देने से अंबिका बचना चाहती है। मन ही मन जूझती अंबिका अपने तनाव को काम के बहाने दबाने की कोशिश कर रही है। उसके लिए मल्लिका का मान-सम्मान और संरक्षण अहमियत रखता है। मगर वह मल्लिका को वरण के अधिकार से वंचित नहीं करना चाहती। पुरुषवादी यथार्थ का दबाव कालिदास और मल्लिका से जुड़े अपवाद को अंबिका के लिए असहनीय बना देता है। इस दबाव के चलते बालिग हो रही मल्लिका की स्वतंत्रता को बाधित करना अवचेतन में अंबिका को अखरता है। यह कशमकश बौखलाहट में बदल जाए , इसलिए उसने जैसे-तैसे चुप्पी साध रखी है। उसके संवादों में भी कई स्थलों पर मानसिक अंतर्विरोध महसूस किया जा सकता है। यह द्वंद्व समानुभूति बनाम सरोकार का है।


वैवाहिक जीवन की पृष्ठभूमि में स्त्रीत्व के मनोशारीरिक पहलू पर विचार करते हुए सिगमंड फ़्रायड ने एक महत्वपूर्ण तथ्य रेखांकित किया है। घर-गृहस्थी की एकरसता, संबंध विच्छेद, जीवनसाथी की असामयिक मृत्यु जैसी किसी वस्तुस्थिति में दैहिक तृप्ति के अभाव का अंदेशा बना रहता है। लिहाज़ा बढ़ती उम्र की स्त्री मातृत्व से अपनी अतृप्ति के विरुद्ध ढाल का काम लेती है। वह अपनी संतान का जीवन जीना शुरू कर देती है। उसमें वह खुद को देखती है। उसके जज़्बात इस तरह महसूस करना चाहती है जैसे कि वे अपने जीये अनुभव हैं। फ़्रायड लिखते हैं – “ऐसे ही नहीं कहा जाता कि अपनी संतान को देख माँ-बाप भी जवान और ज़िंदादिल बने रहते हैं।”10 अंबिका का यौवन कैसा रहा होगा? प्रणय के कैसे अनुभव उसने सँजो रखे हैं? इस संदर्भ में कथानक मौन है। लेकिन इस मौन में मल्लिका के प्रति अंबिका की समानुभूति सुनी जा सकती है। अंबिका के लिए उन्मुक्त मल्लिका ज़िंदादिली का प्रतीक है। जिसे अंबिका ने खुद गढ़ा है। वह मल्लिका के हर फ़ैसले में साझीदार है। नाटक की शुरूआत में ही इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है। यहाँ अंबिका के साथ मल्लिका का बरताव दर्शाता है कि माँ-बेटी पक्की सहेलियाँ हैं। अगर दोनों मन से विपरीत हैं तो क्यों भीगकर आई मल्लिका की उमंग में अंबिका के वास्ते इतना अपनापन है? अंबिका की मौजूदगी में मल्लिकाऋतुसंहारका पद गुनगुना रही है। बातों-बातों मेंमेघदूतके बिंब का उल्लेख करती है। ये तथ्य इस ओर संकेत करते हैं कि वह कालिदास से ही मिलकर लौटी है। यह अंबिका भी जानती है। उसने भी अपने समय में यौवन का खुमार खूब जीया है। इस संदर्भ में उसका यह संवाद उल्लेखनीय है – “मेरी वह अवस्था बीत चुकी है जब यथार्थ से आँखें मूँद कर जीया जाता है।”11 यह बात मल्लिका की दलील का निषेध करते हुए कही गई है। मगर परोक्ष रूप से अंबिका के अवचेतन में दबी समानुभूति को उजागर करती है।


बकौल फ़्रायड इस समानुभूति में प्रबल संभावना रहती है कि माँ उस व्यक्ति से प्रणय मूलक लगाव महसूस करने लगे, जिसे बेटी चाहती है। सांस्कृतिक धरातल पर अनुचित होने के चलते ऐसे भाव मन में उपज सकें, इसलिए इन संबंधों में संदेह और सख्ती से काम लिया जाता है।12  कालिदास के तईं अंबिका की धारणा में क्या अनचाहा प्रणय निहित है? जैविक धरातल पर इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन मानवीय अस्तित्व को तय करने में जैविक के समानांतर सांस्कृतिक आग्रह भी अहम भूमिका निभाता है। इस तथ्य को फ़्रायड ने भी दर्ज किया है। वे कहते हैं कि संस्कृति हमें पशुओं से अलग दर्शाती है, हमारे संरक्षण और आपसी सामांजस्य में बहुत मदद करती है।13 पीढ़ी-दर-पीढ़ी सशक्त और समृद्ध होते सांस्कृतिक मूल्यबोध ने जैविक तथ्यों को प्रभावित किया है। कई बार सांस्कृतिक सरोकार अधिक प्रासंगिक जान पड़ते हैं। कालिदास का मल्लिका से विवाह अंबिका को स्वीकार है। बिना विवाह प्रणय की इजाज़त देने वाला पुरुष प्रधान समाज अंततः स्त्री के ही मथ्थे कलंक मढ़ता है। इस सरोकार तले अंबिका ने मल्लिका के संग अपनी समानुभूति को दबाना चाहा है। मगर यह भाव अंबिका की कथनी-करनी में ज़ाहिर हो जाता है। मल्लिका की आँख नम होने पर उसे बाँहों में भर लेना भी यही दर्शाता है। ऐसे में अंबिका भूल जाती है कि कुछ देर पहले उसकी मल्लिका से बहस हुई थी या फिर उसने मल्लिका को खरी-खोटी सुनाई थी।


आभा गुप्ता ठाकुर लिखती हैं – “यद्यपि अंबिका के चरित्र मेंस्त्रीपरमाँहावी है, किंतु स्त्री का आत्मसम्मान एवं आत्म-गौरव उसने अभाव की ज़िंदगी जीते हुए भी बचाकर रखा है।”14 अंबिका की शख्सियत में मौजूद समानुभूति और सरोकार मातृत्व के ही दो भिन्न पहलू हैं। वह किसी के आगे कमज़ोर या बेबस नहीं दिखती। उसके जो मन में है, दो टूक बयान करती है। हालाँकि विलोम कहता है – “बहुत-सी बातें, जो अंबिका के मन में रहती हैं, मैं मुँह से कह देता हूँ।”15 मगर अंबिका उसे बखूबी अहसास करा देती है कि अपने घर में वह किसी बाहरी व्यक्ति का दखल नहीं चाहती। अस्वस्थ और दुर्बल हो जाने पर भी अंबिका अपनी दावेदारी से नहीं चूकती। वह प्रियंगुमंजरी से कहती है – “यह घर सदा से इस स्थिति में नहीं है, राजवधू! मेरे हाथ चलते थे, तो मैं प्रतिदिन इसे लिपती-बुहारती थी। यहाँ की हर वस्तु इस तरह गिरी-टूटी नहीं थी।”16 क्रूर नियति मल्लिका को तोड़ सके इसलिए प्रियंगुमंजरी और विलोम के कारण आहत हुई मल्लिका को अंबिका अपने कटाक्ष से नहीं बख्शती।


कालिदास की कृतियों और किंवदंतियों के आधार पर गढ़े गए मल्लिका और अंबिका बेहद प्रामाणिक प्रतीत होते हैं। इनके नैसर्गिक स्त्रीत्व ने इन्हें पुनरुत्थानवादी या रूमानी की बजाय सामयिक स्वर दिया है। इनमें जीती साधारण स्त्री वह असाधारण जीवट लिए है, जिसे पुरुषसत्ता तो क्या राजसत्ता भी झुका सके। इनके संवादों और क्रियाकलापों में स्त्रीत्व का सामूहिक अवचेतन अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराता है। इस सब के चलते ही दशकों पहले लिखा गयाआषाढ़ का एक दिनआज भी एक बहुमंचित नाट्य-रचना है।


निष्कर्ष : कालिदास और विलोम के संदर्भ में मल्लिका पर विचार करते हुए सबसे महत्वपूर्ण तथ्य प्रतीत होता हैवरण की स्वतंत्रता। इसी के इर्द-गिर्द नाटक में मल्लिका की ज़िंदादिल और स्वावलंबी शख्सियत आकार लेती है। निःसंदेह उसका ऐसा व्यक्तित्व अंबिका के संस्कारों की ही देन है। पितृसत्ता से लोहा लेते हुए अंबिका ने अपने दम पर मल्लिका को पाला-पोसा है। अंबिका की कटूक्तियों में जो यथार्थ बोलता है, उसका मल्लिका ने मज़बूती से सामना किया है।  अदम्य मल्लिका सख्त से सख्त हालात में भी हताशा या पलायन को नहीं चुनती। नाटक का दूसरा और तीसरा अंक इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। अंततः इस तथ्य को रेखांकित करना भी बहुत ज़रूरी है कि मल्लिका और अंबिका अर्थातआषाढ़ का एक दिनके ये दो प्रमुख स्त्री चरित्र मानव मन की जटिलता का असरदार संप्रेषण रचते हैं।


संदर्भ :


1.  मोहन राकेश, ‘लहरों के राजहंस’, प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002, संस्करण: 2004(पहली आवृत्ति:2009), पृष्ठ संख्या: 20
2.    जयदेव तनेजा, ‘मोहन राकेश: रंगशिल्प और प्रदर्शन’, प्रकाशक: राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली-110051, वर्ष:2018 संस्करण: तीसरा, पृष्ठ संख्या: 55
3.    मोहन राकेश, ‘आषाढ़ का एक दिन’, प्रकाशक: राजपाल एंड सन्ज़, नई दिल्ली-110006, संस्करण: 2004, पृष्ठ संख्या: 12
4.    वही, पृष्ठ संख्या: 13
5.    गोविंद चातक, ‘आधुनिक हिंदी नाटक का अग्रदूत: मोहन राकेश’, प्रकाशक: राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली-110051, वर्ष:2016 संस्करण: तीसरा, पृष्ठ संख्या: 57
6.    जयदेव तनेजा, ‘मोहन राकेश: रंगशिल्प और प्रदर्शन’, प्रकाशक: राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली-110051, वर्ष:2018 संस्करण: तीसरा, पृष्ठ संख्या: 83
7.    C.G. Jung,  ‘Psychological Types’, Editor: H. Godwin Baynes, Publisher: Pantheon Books, New York;1923, Page No. 513
8.    जयदेव तनेजा, ‘मोहन राकेश: रंगशिल्प और प्रदर्शन’, प्रकाशक: राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली-110051, वर्ष:2018 संस्करण: तीसरा, पृष्ठ संख्या: 107-108
9.    मोहन राकेश, ‘आषाढ़ का एक दिन’, प्रकाशक: राजपाल एंड सन्ज़, नई दिल्ली-110006, संस्करण: 2004, पृष्ठ संख्या: 11
10. Sigmund Freud,  ‘Totem and Taboo’,  Translated by: A.A. Brill, Publisher: Vintage Books, New York;1918, Page No. 22
11. मोहन राकेश, ‘आषाढ़ का एक दिन’, प्रकाशक: राजपाल एंड सन्ज़, नई दिल्ली-110006, संस्करण: 2004, पृष्ठ संख्या: 2
12. Sigmund Freud,  ‘Totem and Taboo’,  Translated by: A.A. Brill, Publisher: Vintage Books, New York;1918, Page No. 22
13. Sigmund Freud, ‘Civilization and Its Discontents’, Translated by: Joan Riviere, Edited: Ernest Jones, Publisher: Hogarth Press, 52Tavistock Square London;1929, Page No. 49-50
14. आभा गुप्ता ठाकुर, आलेख: ‘स्त्री विमर्ष के परिप्रेक्ष्य में’, ‘कृति मूल्यांकन: आषाढ़ का एक दिन’, प्रकाशक: राजपाल एंड सन्ज़, नई दिल्ली-110006, संस्करण: 2019, पृष्ठ संख्या: 147
15. मोहन राकेश, ‘आषाढ़ का एक दिन’, प्रकाशक: राजपाल एंड सन्ज़, नई दिल्ली-110006, संस्करण: 2004, पृष्ठ संख्या: 81
16.
वही, पृष्ठ संख्या: 75

 

नितिन नारंग
जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली - 110025
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अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  विजय मीरचंदानी

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