शोध आलेख : प्रियंवद के कथा साहित्य में साम्प्रदायिकता के सवाल / विष्णु कुमार शर्मा

प्रियंवद के कथा साहित्य में साम्प्रदायिकता के सवाल
- विष्णु कुमार शर्मा

शोध सार : समय साक्षी है कि साम्प्रदायिकता ने इतिहास के पन्नों को आदमी के खून से रंगा है। चूँकि विजेता हमेशा इतिहास निर्माता होता है तो झूठा इतिहास या नैरेटिव गढ़कर उसका इस्तेमाल भी अपनी सत्ता कायम रखने के जतन होते रहे हैं और हो रहे हैं। अनेक बार जो सत्ता में होते हैं वे नए सिरे से इतिहास लिखाते है। साम्प्रदायिकता के लिए इतिहास सबसे मुफ़ीद औजार है। उसका इस्तेमाल कोई भी, कैसे भी कर सकता है। प्रियंवद के उपन्यास ‘वे वहां कैद हैं’ के प्रमुख पात्र दादू इतिहास के प्रोफेसर हैं। वे अपने विद्यार्थियों को इतिहास को तीसरी आँख से देखने को कहते हैं। यह तीसरी आँख है- विचारधाराओं और पूर्वाग्रहों से मुक्त हो एक निरपेक्ष भाव से देखना। याद रखें- मिश्रित समाज व सभ्यताएँ चिरंजीवी होती हैं। कबीर-तुलसी से लेकर प्रेमचंद व नजीर अकबराबादी तक और गाँधी-पटेल से लेकर इस महादेश के आखिरी आदमी तक की मोहब्बत की इस साझी विरासत को बचाना हम सबकी जिम्मेदारी है।

बीज शब्द : साम्प्रदायिकता, साहित्य, इतिहास, धार्मिक राष्ट्र, नस्लीय अहमन्यता, जातीय श्रेष्ठता, आशा, प्रेम, जीवन, साझी विरासत।

मूल आलेख :

“जलेबी तुर्कों के साथ आई
मुग़ल मालपुए लाए
गुलाब जामुन शाहजहाँ के खानसामे से बेध्यानी में बना
बीकानेर का रसगुल्ला बंगाल या उड़ीसा से आया
सब कुछ, सब जगह से आया जब
फिर चुनावों के वक्त भाषणों से क्यूँ गायब हो जाती है मिठास
आपसे पूछना चाहता है पुष्पेश पंत
जोधपुर के पुंगलपाड़े में गुलाब जामुन बनाता चतुर्भुज हलवाई”[1].

साम्प्रदायिकता ने इतिहास के पन्नों को आदमी के खून से रंगा है। चूँकि विजेता हमेशा इतिहास निर्माता होता है तो झूठा इतिहास या नैरेटिव गढ़कर उसका इस्तेमाल भी अपनी सत्ता कायम रखने के जतन होते रहे हैं और हो रहे हैं। अनेक बार जो सत्ता में होते हैं वे नए सिरे से इतिहास लिखाते है। साम्प्रदायिकता के लिए इतिहास सबसे मुफ़ीद औजार है। उसका इस्तेमाल कोई भी, कैसे भी कर सकता है। प्रियंवद लिखते हैं- “इतिहास देश की, समाज की स्मृति है। जैसे मनुष्य की स्मृति दोषपूर्ण नहीं होनी चाहिए वैसे ही देश व समाज की भी नहीं होनी चाहिए। यदि स्मृति दोषपूर्ण है तो वर्तमान और भविष्य भी निरापद व निर्द्वंद्व नहीं होंगे।”[2] इस वक्त लगभग पूरी दुनिया में साम्प्रदायिकता की समस्या फिर से उठान पर है। प्रियंवद ने अपना पहला उपन्यास ‘वे वहां कैद हैं’ वर्तमान समय के एक बड़े सवाल साम्प्रदायिकता को केंद्र में रखकर लिखा। देश में बीसवीं सदी के वहां कैद हैं’ बीसवीं सदी के आख़िरी दशक में उठी साम्प्रदायिकता की तीव्र लपटों से भी पहले उन्होंने उन आहटों को चीन्हते हुए इसे लिख दिया था। शायद उन्होंने इसकी धीमी पदचाप को सुन लिया हो। इसमें जो कुछ उन्होंने लिखा वो आगे जाकर वह सब कुछ सच साबित हुआ। इसके दूसरे व तीसरे संस्करण की भूमिकाएँ इसका प्रमाण हैं। उपन्यास से पहले ये भूमिकाएँ पढ़ी जानी चाहिए। अपनी किताब ‘भारत विभाजन की अंतःकथा’ में वे लिखते हैं- “धार्मिक राष्ट्र एक अनिवार्य बुराई है। मनुष्य के शोषण का यह प्राचीनतम और सशक्ततम रूप है। इस्लाम के धार्मिक आधार पर बने पाकिस्तान ने स्वयं ही भारत में एक ‘हिन्दू राष्ट्र’ की अवधारणा और संभावना को वैचारिक व भावनात्मक स्तर पर मजबूत आधार दे दिया... गाँधी की हत्या एक कट्टर हिन्दू ने की। इस बात ने विभाजन के बाद भारत को तत्काल एक हिन्दू राष्ट्र में बदल जाने की संभावना से बचा लिया था।”[3] इतिहास की यह जरूरी किताब उन्होंने भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश की युवा पीढ़ी को समर्पित की है जो विभाजन की विभीषिका बिलकुल अछूते हैं और इतिहास की सच्चाइयों से नावाकिफ़। साम्प्रदायिकता भारत ही नहीं अपितु पूरी दुनिया में एक बड़ी समस्या रही है। धर्म और राजनीति के गठजोड़ ने समय-समय पर दुनिया के अनेक हिस्सों में अपने फायदे के लिए आदमी के खिलाफ आदमी का इस्तेमाल किया है। सत्ता-लोलुपों ने अपनी सत्ता और अपने अहंकार की पूर्ति के लिए आमजन में धार्मिक गौरव, नस्लीय अहमन्यता, जातीय श्रेष्ठता के बोध का झूठा भाव भरकर उसे युद्धों में झोंक दिया।

उपन्यास ‘वे वहां कैद हैं’ के प्रमुख पात्र दादू इतिहास के प्रोफेसर हैं। वे अपने विद्यार्थियों को इतिहास को तीसरी आँख से देखने को कहते हैं। यह तीसरी आँख है- विचारधाराओं और पूर्वाग्रहों से मुक्त हो एक निरपेक्ष भाव से देखना। “बहुत कुछ ऐसा है जो इतिहास खुद नहीं बोलता पर उसके अंदर होता है। उसे ढूंढना पड़ता है और वही मनुष्य का सबसे बड़ा सत्य होता है। यह सत्य सिर्फ़ उसी तीसरी आँख से दिखता है। वह सत्य है आशा का। दैट इज होप माई चिल्ड्रेन... नेवर गिव अप दिस होप। दिस थर्ड आइ इज योर प्रिविलेज। प्रिविलेज ऑफ़ बीइंग ए स्टूडेंट ऑफ़ हिस्ट्री।”[4] इतिहास के विद्यार्थी और अध्यापक ही नहीं अपितु हर व्यक्ति के पास शिव की यह तीसरी आँख होनी चाहिए ताकि हम इतिहास को सही मायने में समझ सकें।

उपन्यास की एक और महत्त्वपूर्ण पात्र दादू की पत्नी एनी हैं। एनी का जन्म फ्रांस के एक छोटे से कस्बे में हुआ। बहुत छोटी उम्र में एनी ने देखा कि उसकी स्कूल के बच्चों को एक कतार में खड़ा कर के नाजियों ने गोली से भून दिया था पर वह किसी तरह बच गई। उसके माँ-बाप को भी गोलियों से उड़ा दिया गया। बड़ी होने पर एनी एक अस्पताल की कैंटीन में नौकरी करने लगी। रोज वहाँ उसने कई जिंदा शरीरों को लाश बनते देखा। उनके परिजनों को रोते-बिलखते देखा और धीरे-धीरे इस वातावरण में उसे मृत्यु से घृणा होने लगी। अब जहाँ वह मृत्यु देखती उसे पराजित करने के लिए उस पर झपट पड़ती। उसके अंदर एक ज़िद की तरह मनुष्य-जीवन का महत्त्व बढ़ने लगा। पढ़ाई के लिए मिली स्कॉलरशिप से वह अध्यात्म और दर्शन की खोज में फ्रांस से भारत आ गई और यहां के एक कॉलेज में पढ़ने लगी। यहीं एनी की मुलाकात दादू से हुई और दोनों ने शादी कर ली। बेटियों के बड़ा होने पर वह फ़िर अपना अधिक से अधिक समय अस्पतालों में देने लगी। वह मरीजों के लिए फल ले जाती, उनके पास पैसे नहीं होने पर दवाइयों की व्यवस्था करती, उन्हें साफ धुले कपड़े उपलब्ध कराती। उनके तीमारदारों की भी हरसंभव मदद करती। वह लोगों को मौत के मुँह में जाने से बचने के लिए हरसंभव कोशिश करती। इसी तरह बीमारों के बीच काम करती हुई एक दिन वह स्वयं क्षयरोग से ग्रस्त हो गई और अंत में उसकी मृत्यु हो गई। साम्प्रदायिकता की आग में अपने लोगों को खोने के कारण एनी में जिजीविषा ने जन्म लिया। यह आशा ही है जो जीवन को चलाए रखती है। यह घृणा के विरुद्ध प्रेम का संदेश है, यह मृत्यु के विरुद्ध जीवन का उद्घोष है।

प्रियंवद के दूसरे उपन्यास ‘परछाईं नाच’ के केंद्र में है बाजारवाद। एलपीजी (उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण) के कतिपय दुष्परिणाम जो हम आज देख पा रहे हैं, प्रियंवद ने 2000 ई. में प्रकाशित अपने दूसरे उपन्यास ‘परछाईं नाच’ में बाजार द्वारा साम्प्रदायिकता के एक टूल के रूप में इस्तेमाल का खाका खींच कर दिया था। एक बढ़िया साहित्यकार हमेशा समय की नब्ज़ अपना हाथ रखता है। इसमें उन्होंने दिखाया है कि बाजार किस तरह से साम्प्रदायिकता का पोषण करता है और अपने फायदे के लिए उसका इस्तेमाल करता है। उपन्यास का नायक अनहद एक विज्ञापन एजेंसी में काम करता है। एजेंसी उसे बोतलबंद पानी के प्रचार के लिए एक विज्ञापन तैयार करने को कहती है। जब यह उपन्यास प्रकाशित हुआ तब तक भारत में बोतलबंद पानी केवल उच्च वर्ग के बीच लोकप्रिय था। मध्यवर्ग के लिए पानी खरीदना तब तक आश्चर्य का विषय माना जाता था। विज्ञापन के माध्यम से बाजार ने हम सबकी आँखों में हाइजीन के डर को पैदा किया और आज वह डर हकीकत बन चुका है। अनहद गंगा पानी के लिए तैयार किए गए अपने पोस्टर को उन्हें दिखाते हुए कहता है कि "अकबर, हिन्दू-मुस्लिम श्रेष्ठता का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक है। या कहिए कि वह एक आदर्श भारतीय मुसलमान है। इस पानी में हम उसकी इसी छवि को इस्तेमाल करेंगे। हम अकबर और गंगा को इतना उठाएँगे कि गंगा का पानी पीना हर भारतीय मुसलमान के लिए जरूरी हो जाएगा। अकबर इस देश का आदर्श मुसलमान है और हर मुसलमान को वैसा ही होना चाहिए, और वैसा होने और सिद्ध करने के लिए उसे भी अकबर की तरह गंगाजल पीना चाहिए। इसमें हिन्दुओं के प्रति सौहार्द, प्रेम और एक बन्धुत्व भी छिपा है जिसे अकबर जानता था और जो अब हर मुसलमान के लिए जानना जरूरी है। इस तरह इस पानी को पवित्रता के अलावा हम हिन्दू-मुस्लिम एकता, साम्प्रदायिक सद्भाव और राष्ट्रीयता का प्रतीक भी बनाएँगे। इस पानी को यदि मुसलमान पीता है तो उसकी राष्ट्रभक्ति उसी तरह असन्दिग्ध होगी जैसी अकबर की है। मुसलमान को किसी और तरीके से इसे सिद्ध करने की जरूरत नहीं पड़ेगी- न वन्देमातरम् गा कर, न जयहिन्द बोलकर। बस हमारा पानी पीना उसके लिए काफ़ी होगा।"[5] अपनी अगली योजना को जो कि बाजारवाद का अप्रस्तुत और भयावह चेहरा है, प्रस्तावित करते हुए वह कहता है कि “अगर आप चाहेंगे तो हम इसी पोस्टर को बिल्कुल दूसरी तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं। इससे बिल्कुल विरोधी प्रभाव पैदा कर सकते हैं। पर यह निर्णय आपका होगा। इसी पोस्टर से देश के मुसलमानों में एक हिंसक उत्तेजना पैदा की जा सकती है। हम इससे एक नयी तरह के साम्प्रदायिक उन्माद को जन्म दे सकते हैं। यह मुसलमानों को आक्रामक तरीके से उत्तेजित कर सकता है क्योंकि यह उनकी राष्ट्रीयता पर प्रश्न खड़ा करता है... उनसे उनकी राष्ट्रभक्ति का प्रमाण माँगता है, उसे सिद्ध करने के लिए कहता है। यह बिल्कुल साफ़ और घिनौने तरीके से उनका अपमान करता है। वे हमारे इस पूरे प्रचार को जड़ से नकार सकते हैं... इसका बहिष्कार कर सकते हैं। वे इन पोस्टरों में आग लगा सकते हैं... हत्याएँ कर सकते हैं... जुलूस निकाल सकते हैं। अपनी संस्कृति अपने धर्म की पहचान के लिए भयानक विरोध कर सकते हैं। पर हमें इससे भी फ़ायदे हैं। पहला तो यह कि यह प्रतिक्रिया रूप में हिन्दुओं को इस पानी की तरफ़ खींचेगा।”[6] हम देखते आएं हैं कि अपने-अपने फायदे के लिए धर्म और राजनीति ने एक-दूसरे का इस्तेमाल बहुत चतुराई से किया है। अब इस गठजोड़ का तीसरा और सबसे सशक्त साथी बाजार है। बाजार अपने फायदे के लिए इन दोनों का इस्तेमाल कर रहा है। जाहिर है इन दोनों सत्ताओं का भी इसमें अपना फायदा है लेकिन थोड़ा। प्रियंवद अपने उपन्यास में बाजार की इस क्रूरता को बेनकाब करते हैं।

प्रियंवद का एक और महत्त्वपूर्ण उपन्यास है- ‘छुट्टी के दिन का कोरस’। उपन्यास में परवेज-अमीना की उपकथा है। इस उपकथा के माध्यम से प्रियंवद ने बताने की कोशिश की है कि किस तरह से सांप्रदायिक ताकतें डर का धंधा करती हैं। वे इस डर को हमारे जेहन में बैठा देती हैं और जाने-अनजाने इस डर को पीढ़ी दर पीढ़ी पोषित करते चलते हैं। और धीरे-धीरे हम एक डरी हुई सभ्यता ने तब्दील होते चले जाते हैं। अमीना बताती है कि जब वह बीस साल की थी तब उसे परवेज नाम के एक लड़के से प्यार हुआ था। वह लड़का उससे मिलने की खातिर उसके बड़े अब्बा के दवाखाने में काम करने लगा। इस तरह उन दोनों के बीच का प्यार परवान चढ़ने लगा। एक बार बड़े अब्बा परवेज़ में कुछ दवाई लाने बाहर भेजते हैं और वहाँ उस शहर में हुए हिन्दू-मुस्लिम दंगों में परवेज़ मारा जाता है। "परवेज़ की मौत से मैंने सीखा कि जैसे-जैसे हम अपनी ज़िन्दगी जीते हैं, हमारे अन्दर ख़ौफ़ का हिस्सा बढ़ता चला जाता है। एक समय ऐसा आता है जब हम हर बात से डरने लगते हैं। ज़रा-सी ज़ुम्बिश से भी। हम डरे हुए लोग ही उनकी असली ताक़त बन जाते हैं जो इन ताक़तों के मरकज़ में बैठे हैं जिन्होंने इसके सारे ढाँचों पर अपना कब्ज़ा कर लिया है। वे जानते हैं कि वे तब तक महफूज़ हैं, निर्द्वंद्व हैं जब तक हमारी ज़िन्दगी में वे इस डर को बड़ा करते रहेंगे। वे ऐसा ही करते रहते हैं। धर्म से, कानून से, विचार से, दंड से, भीड़ से, हत्याओं से, पाखंडी महानताओं के लिथड़े अतीत से।”[7] विवान के संपर्क में आकर अमीना ने जाना कि अब तक जो हमें इतिहास के नाम पर पढ़ाया जाता रहा है वह विजेताओं का इतिहास है, यह विचारधाराओं का इतिहास है। यह वास्तविक इतिहास नहीं, यह एकांगी है। उसने जाना कि “अंगूठियों, तलवारों और लावारिश लाशों से भी इनसानों का इतिहास लिखा जा सकता है... और यह इतिहास मनुष्य का सबसे चमकदार इतिहास होगा।”[8] हजारों-लाखों योद्धा-सैनिक उस राजा के लिए मर जाते हैं जो उन्हें जानता तक नहीं। मृत्यु के बाद एक रंगीन दुनिया जिसे जन्नत या स्वर्ग कहा गया है, के लिए सामान्य जन को इतना उकसाया और ललचाया जाता है, कि उसे पाने के लिए वे मौत से पहले ही मरने को तैयार हो जाते हैं।

प्रियंवद की ही कहानी ‘फाल्गुन की एक उपकथा’ साम्प्रदायिकता की समस्या की गहरी पड़ताल करती है। इस कहानी पर फिल्म भी बन चुकी है। प्रकृति ने जो कुछ बनाया है उसका कोई धर्म नहीं या कहें प्रकृति अपने-आप में धर्म है। असल में प्रकृति के कुछ सार्वभौमिक सिद्धांत हैं, वे ही धर्म हैं। दुनिया के किसी हिस्से में चले जाइए सब जगह मनुष्य के जन्म की प्रक्रिया एक-सी है, इसी तरह जन्म है तो मृत्यु है। मृत्यु अवश्यम्भावी है। अब आप मरने के बस शरीर को दफ्न करें, जलाएं, पानी में बहाएँ या चील-कौओं को खाने पहाड़ पर छोड़ आएं, कोई फर्क नहीं पड़ता। मृत्यु के बाद कुछ भी क्रिया-कर्म करें, कोई फर्क नहीं पड़ता। बस मृत्यु सत्य है। दुनिया में शादी करने के हजार तरीकें हों लेकिन उस शादी में प्रेम सबकी चाहत है। तो इस तरह प्रेम एक सार्वभौमिक सिद्धांत हुआ; मतलब प्रेम धर्म है। इसी तरह सत्य, करुणा, न्याय... आदि सार्वभौमिक सिद्धांतों के समुच्चय का नाम धर्म हैं। लोक-प्रचलित जिन धर्मों को हम धर्म जानते हैं, वह मानव निर्मित अवधारणा है। धर्म के नाम पर लड़ी जा रही लड़ाइयाँ नकली लड़ाइयाँ हैं जिनमें हमें झोंका जाता रहा है। असली लड़ाई जीवन की गरिमा की लड़ाई है, मनुष्य की स्वतंत्रता की लड़ाई है जिस पर कोई बात नहीं करना चाहता। कहानी का नायक अनवर कहता है- “वह (पाशा) यह जानता था कुछ चीजें ऐसी ही होती हैं जिनका कोई मजहब नहीं होता। नाटक... स्टेज... धूप... परिंदे... भूख... चिराग... सीटी... फटी एड़ियां... पाशा, ऐसी ही चीजें थी।”[9] इसी कहानी में एक पात्र उदित है जो नायक का मित्र है। वह कहता है- “कठपुतलियों का खेल याद है न अनवर? कैसे पर्दे के पीछे छुपा आदमी अपनी उंगलियों की डोरों से बंधी कठपुतलियों को नचाता है। पर्दे के सामने देखो... वे कठपुतलियां ही लड़ती हैं... मरती हैं... नष्ट होती हैं। वे कठपुतलियां ही उल्लास से थिरकती हैं... उन्माद से चीख़ती हैं... उत्सव मनाती हैं। पर्दे के पीछे जो है वह जानता है कि उसे किस उंगली को हिलाकर,किस कठपुतली को, किस तरह और कितना नचाना है।”[10] कहानी बताती है कि किस तरह पूरी व्यवस्था अपने हित के लिए एक मुस्लिम युवा को आतंकवादी सिद्ध कर उसकी हत्या कर देती है। इस सबके बीच उदित और मेहरू के बीच प्रेम पलने लगा। जब अनवर को इस बात का पता चला उसने उदित को रोकने की कोशिश की। उदित ने कहा कि वह मेहरू से शादी करना चाहता है। इस पर अनवर ने कहा- “दुनिया बहुत बड़ी लगती होगी तुमको… पर हिंदू और मुसलमान होना उससे बड़ा है। उससे कहीं नहीं भाग पाओगे। जिंदगी भर इस नर्क को अपने-अपने कंधों पर ढोते रहोगे। पर यह भी तब होगा जब भागोगे। मेहरू से पूछ कर देखा? उसके भाई यहां की पूरी इस्लामी बिरादरी के कट्टर लोगों के रहनुमा हैं। मेहरू के टुकड़े हो जाएंगे, पर यह नहीं होगा कि मेहरू एक हिंदू लड़के के साथ भाग जाए। पूरे शहर में आग लग जाएगी।”[11] आखिर में उदित शहर छोड़ जाता है और मेहरू एक दर्जी से ब्याह कर टी.बी. की मरीज बन खून की उल्टियाँ करती हुई दम तोड़ देती है।

शहर कानपुर में गंगा के सिमटते जाने से उपजे रेतीले मैदान पर कब्जे और तज्जन्य वोट बैंक की राजनीति के लिए दो राजनैतिक दलों की रस्साकशी किस तरह साम्प्रदायिक तनाव पैदा करती है, इसकी बानगी हमें प्रियंवद की कहानी ‘कहो रिपुदमन’ में देखने को मिलती है। “अचानक सरकार को समझ आया कि बेहद होशियारी के साथ यह पूरी जन-शक्ति, पूरा जन-आन्दोलन हिन्दू संगठनों के हाथ जा रहा है। यही संगठन हवा बाँधे हैं... धर्म के दैत्य को जिंदा किए है... यही फावड़े दे रहे हैं., लंच पैकेट्स दे रहे हैं, चंदा कर रहे हैं. सरकार ने पूरे खतरे को भाँपा, ठीक से सूँघा और फिर उसके भी हाथ-पैर तनने लगे। उसकी मांदों में सोए जानवर बाहर निकलने लगे। अपने-अपने पंजें, दांत, खाल के अंदर छिपाए, नतमस्तक... कोमल और चिकनी त्वचा के साथ।”[12] इसके चार दिन बाद ही हिन्दुओं के घरों पर केसरिया झंडे लहराने लगे। प्रतिक्रिया में मुस्लिम घरों में हरे झंडे टंग गए। रिपुदमन जिसने अपने घर पर केसरिया झंडा लगाने से मना किया अगले ही दिन एक हिन्दू कबाड़ी के घर हुआ, वह मरा। इसी समय तीन मुसलमानों का क़त्ल हुआ (रिपुदमन के पिता को टेनरी में काम करने के कारण लोग मुल्ला जी कहते थे; वे हिन्दू थे लेकिन अख़बारों और शहर में तीन मुसलमानों के मरने की ख़बर थी) मारे गए। मुल्ला जी की हत्या त्रिशूल से की गई थी। शहर में कर्फ्यू लगा. फिर धारा एक सौ चवालीस और इस तरह गंगा पुनरुद्धार कार्यक्रम रुक गया. सत्य-न्याय-धर्म में आस्था रखने वाले कथानायक रिपुदमन की आस्था डिग जाती है- “बेहतर था कि मैं झंडा ही लगा लेता... बाबू नहीं मारे जाते. मुझे लगता है मैंने ही उनकी हत्या की है.”[13] लड़की बेचने के आरोप में रिपुदमन को गिरफ्तार कर लिया जाता है। थाने में उसके सामने उसकी बहन का बलात्कार किया जाता है और उसे बेच दिया जाता है। रिपुदमन की सारी आस्था बह जाती है और अंत में उसका अमेरिका से लौटा डॉक्टर मित्र उसे मुर्दाघर में मुर्दों को सड़ने से बचाने के लिए रखी बर्फ की सिल्लियाँ बेचते पाता है। कहानी बताती है कि व्यवस्था कितनी क्रूर और निर्मम हो सकती है। और ये व्यवस्थाएँ दुनिया के हर कोने में सदियों से काबिज हैं। सुरक्षा के नाम पर असल में हमने अपनी स्वतंत्रता, अपनी गरिमा, अपने जीवन को ही इनके पास गिरवी रख दिया है।

प्रियंवद की कहानी ‘बोधिवृक्ष’ एक शहर, तहजीब और इस देश की साझी विरासत के ख़त्म होते चले जाने की कहानी है। कहानी के नायक असगर मेहंदी अली हैं जो पीर अली के वारिस हैं। पीर अली रूहे अवध नवाब सालारजंग के बावरची हुआ करते थे। वे हिंदुस्तान के सबसे महँगे बावरची थे। उस समय वे पंद्रह सौ रुपया तनख्वाह लेते थे। “उनका हुनर था पुलाव। पुलाव बनाना दुनिया में सिर्फ वही जानते थे।”[14] विभाजन के समय असगर अली के परिवार के अधिकांश लोग पाकिस्तान चले गए। वे नहीं गए। ‘आप पाकिस्तान क्यों नहीं गए’ सवाल करने पर- “मैं चला जाता तो जाने आलम को कहाँ छोड़ जाता? कहाँ छोड़ जाता चूने वाली हैदरी, मुश्तरी को? नासिख, आतिश को? इन रंडियों को, नौटंकियों को? यह हवा, खुशबू, यह फख्र... ऊँचा सर... चौड़ी छाती... वह सैंकड़ों साल, जो हमारे पुरखों ने यहाँ बिताए?”[15] लेकिन आजादी के चालीस साल बाद एक समय ऐसा आया जब बेहूदा और जाहिल हत्यारों ने उनके बेटे को मार दिया गया। उसकी बीवी की नंगी लाश एक नाली में मिली। असगर अली अचानक मुसलमान बना दिए गए। वे पूछते हैं- “यह मेरा नहीं, उनका है। कब से भाई? आजादी की लड़ाई क्या अकेले उन्होंने लड़ी, मुसलमानों ने नहीं? कौन-सा मुसलमान बादशाह... सुल्तान यहाँ से दस रुपए लेकर दूसरे मुल्क में गया? बताओ कि किसकी कब्र, किसके पूरे खानदान की कब्र यहाँ नहीं है? हमारा हक़ कैसे कम हुआ? कितने आये थे बाहर से बाबर के साथ?... गजनवी के साथ?... बाकी सब कहाँ से आए? कहाँ पैदा हुए? कहाँ के थे? आखिर कितने साल रहने तक भी कोई पराया होता है? दस, बीस, पचास, सौ, हजार?”[16] कहानी का नैरेटर कहता है- “बाहर शहर का रंग बदल रहा था... झंडे दिन पर दिन ऊँचे हो रहे थे। झंडे बोलने लगे थे। टोपियाँ... माथे की पट्टियाँ... चादरें एक तय शक्ल ले रहे थे। भीख माँगने वाले, साधु और महंत बन गए थे। साधु महंत, राजा की गद्दी के पाखंड, हिंसा और माया में डूबे थे। नए सवाल... नए समीकरण... नए देवता पैदा हो रहे थे। नई जुबान बोली जा रही थी... एक दिन अचानक असगर मेहंदी भी खो गए। वह सिर्फ मुसलमान बना दिए गए।”[17] असगर अली कहते हैं कि मेरी चिंता मुझे मुसलमान बनाए जाने की नहीं पीर अली की उस किताब की है जो इस मुल्क की तहजीब का हिस्सा है जिसमें उस दौर के एक से एक नायाब व्यंजनों की रेसिपी है। नैरेटर के कहने पर असगर अली वह किताब एक विदेशी लड़की राशेल को सौंप देते हैं। “साम्प्रदायिकता किस कदर हमारी साझी विरासत को मिटने पर आमादा है, इसे असगर मेहंदी के दर्द के जरिए समझा जा सकता है। जायकों की लुप्तप्राय हो चुकी ‘रेसिपी’ का हक़दार असगर मेहंदी इस मुल्क के किसी बाशिंदे को नहीं बल्कि राशेल को पाता है। इस किस्म की दुर्भाग्यपूर्ण विडम्बनाओं के मूल में इस मुल्क का मुकद्दर छिपा है। इन अंदेशों को सही-सही पढ़ पाने की काबिलियत प्रियंवद को आज के परिप्रेक्ष्य में विचारणीय बनाती है। बोधिवृक्ष का सम्बन्ध बुद्ध के बुद्धत्व प्राप्ति से है। बाद में जिसकी शाखाएँ अलग-अलग देशों में फ़ैल गईं, फैलीं। पर उसका मूल यहीं था। पर अब हम इन विरासतों के समूल नाश में रत हैं।”[18] राशेल ने तीन दिन उनके शहर में रहकर उनसे जो रेसिपी सीखीं. उसकी एक सचित्र किताब नैरेटर को भेजी जिसमें व्यंजनों की तस्वीरों के साथ छपी फोटो के नीचे लिखा था- ‘असगर मेहंदी ऑफ इंडिया’। यह देख उनकी आँखों से आँसू बहाने लगे। वे फुसफुसाए- “असगर मेहंदी ऑफ इंडिया”... अस्फुट शब्द- “हैदरी, मुश्तरी... नासिख, आतिश... जाने आलम... रंडियां, नौटंकियां... यह हवा, खुशबू... ये सब मेरा है। मैं यहाँ का हूँ। असगर मेहंदी ऑफ इंडिया।”

और अंत में... आइए हम अपने देश के महान सम्राट् अशोक को याद करें-

“देवानां प्रिय प्रियदर्शी राजा विविध दान और पूजा से गृहस्थ और संन्यासी सब सम्प्रदायवालों का सत्कार करते हैं, किन्तु देवानां प्रिय दान या पूजा की इतनी परवाह नहीं करते जितनी इस बात की कि सब सम्प्रदायों के सार (तत्व) को वृद्धि हो (सम्प्रदायों के) सार की वृद्धि कई प्रकार से होती है, पर उसकी जड़ वाक्-संयम है अर्थात् लोग केवल अपने ही सम्प्रदाय का आदर और जब चाहे दूसरे सम्प्रदायों की निन्दा न करें या विशेष अवसर पर निन्दा भी हो तो संयम के साथ हर दशा में दूसरे सम्प्रदायों का आदर करना ही चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य अपने सम्प्रदाय की उन्नति और दूसरे सम्प्रदायों का उपकार करता है। इसके विपरीत जो करता है वह अपने सम्प्रदाय की (जड़) काटता है और दूसरे सम्प्रदायों का भी अपकार करता है।”[19]

“क्योंकि जो कोई अपने सम्प्रदाय की भक्ति में आकर इस विचार से कि मेरे सम्प्रदाय का गौरव बढ़े, अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा करता है और दूसरे सम्प्रदायों की निन्दा करता है, वह ऐसा करते वास्तव में अपने सम्प्रदाय को ही गहरी हानि पहुँचाता है। इसलिए समवाय (परस्पर मेलजोल से रहना) ही अच्छा है अर्थात् लोग एक-दूसरे के धर्म को ध्यान देकर सुनें और उसकी सेवा करें। क्योंकि देवानां प्रिय (राजा) की यह इच्छा है कि सब सम्प्रदाय वाले बहुश्रुत (भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों से परिचित) तथा कल्याणकारक ज्ञान से युक्त हों। इसलिए जो लोग अपने-अपने सम्प्रदाय में ही अनुरक्त हैं, उनसे कहना चाहिए कि देवानां प्रिय दान या पूजा को इतना बड़ा नहीं समझते जितना इस बात को कि सब सम्प्रदायों के सार (तत्त्व) का वृद्धि हो।”[20]

*(सम्राट् अशोक: गिरनार का बारहवाँ शिलालेख) और... और अंत में-

“मैत्रेयी कॉलेज दिल्ली से इतिहास में ऑनर्स कर रही चार लड़कियाँ
पाती पुरोहित, सारा रजा, जोर्जिना और हरप्रीत कौर
कोरस में हँसती है कन्हैया हलवाई की इमरती खाते हुए।।”[21]

याद रखें- मिश्रित समाज व सभ्यताएँ चिरंजीवी होती हैं। कबीर-जायसी से लेकर अमीर खुसरो व नजीर अकबराबादी तक और गाँधी-पटेल से लेकर इस महादेश के आखिरी आदमी तक की मोहब्बत की इस साझी विरासत को बचाना हम सबकी जिम्मेदारी है।

सन्दर्भ : 
[1] सं. पल्लव: बनास जन, पृथ्वी पर दिखी पाती, विनोद विट्ठल की कविताएँ, नवम्बर 2017, अंक 17, पृ. 25
[2] प्रियंवद: भारत विभाजन की अंतःकथा (भूमिका), पृष्ठ 9
[3] प्रियंवद: भारत विभाजन की अंतःकथा, पेंगुइन रेंडम हाउस इंडिया प्रा. लि., गुडगाँव, 2015 पृष्ठ 29
[4]प्रियंवद :वे वहां कैद हैं,नेशनल पब्लिशिंग हाउस,दरियागंज, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1994 पृ. 23
[5]प्रियंवद :परछाईं नाच,भारतीय ज्ञानपीठ, कोलकाता, 2005, पृ. 125
[6] वही, पृ. 126
[7]प्रियंवद :छुट्टी के दिन का कोरस, भारतीय ज्ञानपीठ, कोलकाता, 2009, पृ. 135
[8]वही,पृ. 138
[9]प्रियंवद: कश्कोल, संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2015, पृ. 62
[10]वही, पृ. 71
[11]वही, पृ. 47
[12] प्रियंवद: आईनाघर: प्रियंवद की सम्पूर्ण कहानियाँ (भाग-1), संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2008, पृ. 73
[13] वही, पृ. 73
[14] प्रियंवद :खरगोश, पृ. 22
[15] वही, पृ. 24
[16] वही, पृ. 25
[17] वही, पृ. 28
[18] राहुल सिंह: हिंदी कहानी: अंतर्वस्तु का शिल्प, राजकमल पेपरबैक्स, 2022, पृ. 142-143
[19] अशोक के धर्मलेख, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसार मन्त्रालय, दिल्ली, पृ. 34
[20] वही
[21] सं. पल्लव: बनास जन (पृथ्वी पर दिखी पाती, विनोद विट्ठल की कविताएँ), नवम्बर 2017, अंक 17, पृ. 26

विष्णु कुमार शर्मा
सहायक आचार्य, हिंदी, स्व राजेश पायलट राजकीय महाविद्यालय बांदीकुई, जिला- दौसा, राजस्थान

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  विजय मीरचंदानी

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