शोध आलेख : माधवी : स्त्री का वस्तुकरण / शिल्पा उपाध्याय

माधवी : स्त्री का वस्तुकरण
- शिल्पा उपाध्याय


शोध सार : 'माधवी' नाटक पूर्ण रूप से एक स्त्री जीवन की त्रासदी की कहानी है। माधवी प्रत्येक स्थान पर हर एक के लिए भोग्या ही रही। उसका सौन्दर्य भी इसका एक निमित्त था। उसे एक वस्तु के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। पहले उसके अपने पिता के द्वारा झूठी दानवीरता और अपनी प्रतिष्ठा को बनाए रखने के साधन के रूप में गालव के हाथों में सौंप कर और तत्पश्चात् गालव द्वारा अपनी गुरु दक्षिणा चुका पाने के निमित्त के रूप में। प्रेम मातृत्व और त्याग जैसी भावनाओं के साथ माधवी हर एक कदम पर छली जाती है। माधवी कुछ क्षण अपने पुत्र के साथ रहना चाहती है परन्तु उस मातृत्व सुख से भी वंचित रह जाती है। नाटक में माधवी अपने पवित्र प्रेम के कारण सारे त्याग करती है परन्तु उस प्रेम की परिणति वैराग्य धारण से होती है, जो इस नाटक को और अधिक मार्मिक और हृदयग्राही बनाता है। 

बीज शब्द : वस्तुकरण, चिरकौमार्य, अनुष्ठान, निर्बन्ध, संवेदनशून्यता, समाजशास्त्र, परतंत्रता, पितृसत्तात्मक व्यवस्था।

मूल आलेख : भीष्म साहनी आधुनिक हिन्दी कथा-साहित्य के प्रमुख स्तम्भों में से एक हैं। इन्हें हिंदी साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा का लेखक माना जाता है क्योंकि ये अपनी लेखनी में सदैव मानवीय मूल्यों के हिमायती रहे। साहित्य के प्रति अपने समर्पण, अथक परिश्रम और सतत् साहित्य साधना के द्वारा भीष्म साहनी ने हिन्दी साहित्य जगत में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। भीष्म साहनी ने उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध और आत्मकथा आदि गद्य विधाओं में सृजन कर हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इनकी लेखनी में मानवीय संवेदना के साथ-साथ सामाजिक सरोकार, जीवन मूल्य, यथार्थवादी दृष्टिकोण हमेशा दिखाई पड़ता है। इनका रचनात्मक संसार जीवन के विस्तृत उतार-चढ़ाव और मोड़ों के बावजूद संवेदना के स्तर पर अविचलित रहा है। बहुमुखी प्रतिभासंपन्न भीष्म साहनी ने अपने नाटकों के माध्यम से समकालीन हिन्दी नाटककारों में एक विशिष्ट स्थान बनाया है। भीष्म साहनी के सभी नाटक युगीन समस्याओं तथा जनसामान्य की पीड़ा और व्यथा का चित्रण अत्यंत प्रभावशाली रूप में करते हैं। इनके नाटकों की विषयवस्तु लगभग इतिहास, पुराण, मिथक, लोक-कथा और किंवदंतियों पर आधारित है। उन्होंने नाटकों के माध्यम से आज के युग की किसी किसी मानवीय स्थिति का संवेदनात्मक रूप में उद्घाटन किया है।

            अपनी आत्मकथा 'आज के अतीत' में उन्होंने लिखा है- "मैं प्रगतिशील लेखक संघ के अपने लेखक बंधुओं के साथ मध्यप्रदेश के एक सम्मेलन से लौट रहा था। रेल का डिब्बा खचाखच भरा था, जब त्रिलोचन शास्त्री, जो मेरी बगल में बैठे थे, माधवी की कथा सुनाने लगे। कहानी सचमुच बड़ी मार्मिक थी और नाटक की सभी माँगें पूरी करती थी। मैं यहाँ तक प्रभावित हुआ कि मैंने रेल सफ़र  के दौरान ही एक कोने में बैठकर उसकी रूपरेखा आँक ली। दिल्ली लौटने पर सबसे पहले यही काम किया कि साहित्य अकादमी के पुस्तकालय में महाभारत की वह जिल्द उठाई, जिसमें गालव-माधवी की कथा थी और उसे आद्योपांत पढ़ गया। कथा में माधवी के प्रति सहानुभूति का एक शब्द भी नहीं था। ही माधवी के विश्वामित्र के पास सहवास का प्रस्ताव लेकर जाने की ही भर्त्सना की गई थी। मैं आशवस्त नहीं हुआ। कथा मुख्यतः तीन पुरुष पात्रों- ययाति, गालव और विश्वामित्र की भूमिका पर केन्द्रित थी।"1

            'माधवी' भीष्म साहनी द्वारा लिखित नौवें दशक का नाटक है, जिसमें महाभारत की कथा को आधार बनाकर भारतीय समाज-व्यवस्था में नारी की स्थिति को दर्शाया गया है। माधवी की कथा का वर्णन महाभारत के उद्योग पर्व के 106वें अध्याय से 123वें अध्याय तक आता है। एक रेल सफर के दौरान त्रिलोचन शास्त्री से जब भीष्म जी ने माधवी की कहानी सुनी तो उन्हें इसमें नाटकीय तत्व नजर आए और उन्होंने माधवी को केन्द्र में रखकर पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री के शोषण उपेक्षा को उजागर करने के निमित्त से माधवी नाट्यकृति की रचना की। अतः भीष्म जी ने, "मैंने कथानक के नाते तो महाभारत में वर्णित कथा के ही प्रसंग रखे परन्तु नाटक के केन्द्र में माधवी गई। यह उसी की कहानी है, पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री की अवहेलना और शोषण की कहानी।"2 "स्त्रियों का शोषण, उत्पीड़न और अपमान करने वाली पितृसत्ता प्राचीनकाल से आज तक कायम है। लेकिन उसे समय-समय पर चुनौतियाँ भी दी जाती रही हैं। वर्तमान समय में उसे चुनौती देने वाला जो स्त्रीवादी आंदोलन चल रहा है, उसने स्त्री लेखकों को ही नहीं, पुरुष लेखकों को भी प्रभावित किया है। भीष्म साहनी भी उनमें से एक हैं। अपनी कहानियों और उपन्यासों में वे हमेशा स्त्री पात्रों के प्रति करुणा और सहानुभूति का भाव रखते हैं तथा स्त्री-विरोधी पात्रों और परिस्थितियों के प्रति आलोचनात्मक रूख अपनाते हैं। अपने नाटक माधवी में भी उन्होंने यही किया है।"3

'माधवी' नाटक में तीन अंक हैं। प्रत्येक दृश्य का आरंभ कथावाचक की उद्घोषणा से होता है। गालव की व्यथा-कथा से ही प्रथम दृश्य शुरू होता है। विश्वामित्र का शिष्य गालव अपनी शिक्षा पूरी होने पर गुरुदक्षिणा नहीं जुटा पाया है। वह महाराज ययाति के आश्रम में पहुँचता है। ययाति अपनी कर्तव्य-परायणता और दानवीरता के लिए विख्यात हैं। गालव उन्हें बताता है कि गुरुदक्षिणा में उसे आठ सौ अश्वमेधी घोड़े देने हैं। ययाति को समस्त आर्यावर्त में अपने को सत्यवादी हरिश्चन्द्र से भी महान सत्यव्रती और कर्ण से भी बड़ा दानवीर कहलाने का मोह है। अपने आत्मसम्मान को बचाने और अपने द्वार से अभ्यर्थी को खाली हाथ लौटाने की परंपरा के निर्वाह के साथ वह अंततः कहता है कि- ‘‘सुनो गालव, मैं तुम्हें आठ सौ अश्वमेधी घोड़े तो नहीं दे सकता, पर मैं अपनी एकमात्र कन्या तुम्हें सौंप सकता हूँ। वह बड़ी गुणवती युवती है। उसे पाकर कोई भी राजा तुम्हें आठ सौ अश्वमेधी घोड़े दे देगा।"4 ययाति के लिए माधवी केवल अपनी प्रतिष्ठा बचाये रखने का साधन मात्र है। अपनी बेटी माधवी पर किये गये अत्याचार को भाग्य का नाम देकर अंत में ययाति खुद को अकलंकित स्थापित करते हैं। "प्रथम दृश्य में ही सारा धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक ढ़ाँचा, सम्बन्धहीनता, संवेदनशून्यता, पाखण्ड, पुरुष का आत्ममोह, अधिकारवृत्ति और समाज में- पितृसत्तात्मक सामंती समाज में नारी शोषण सब कुछ संकेतित हो जाता है, स्त्री का अनिश्चय के गर्त में झोंक दिया जाना स्थापित होता है, साथ ही दो विरोधी स्वर एक साथ उभरते हैं- एक; माधवी पटरानी बनने जा रही है, दूसरा; भगवान ही उसकी रक्षा करें, क्योंकि मनुष्य जगत ने तो उसकी व्यवस्था कर दी।"5

दृश्य दो का संबंध वन से है। गालव और माधवी अश्वमेधी घोड़ों की तलाश में वन में घूम रहे हैं क्योंकि गालव की प्रतिज्ञा अब माधवी की प्रतिज्ञा बन चुकी है। उसे अपने पिता के आदेश का अनुपालन करना है, स्वयं उसकी चाहत का कोई मूल्य नहीं। इसी दृश्य में गालव और माधवी के प्रेम का बीजारोपण होता भी दिखाई देता है। साथ ही गालव के मन की दुविधा और माधवी का अपने भाग्य की क्रूर विडम्बना के प्रति दुःख का भाव भी व्यक्त होता है। एक तरफ स्वप्न में देखे गये राजकुमार के रूप में गालव का मिलना लेकिन प्रतिज्ञा पूर्ति हेतु अलग होने की विवशता। अश्वमेधी घोड़ों की प्राप्ति के लिए उत्तराखण्ड की ओर प्रस्थान करते समय माधवी कहती है- "उत्तराखण्ड की ओर हम लम्बे से लम्बे मार्ग से जाएँगे, ताकि हम अधिक समय तक एक-दूसरे के साथ रह सकें। वनों, पर्वतों को तुम्हारे साथ लाँघते हुए मुझे अच्छा लगेगा। चलो, गालव..."6

दृश्य तीन में अयोध्या के राजा हर्यश्च का दरबार है, जिसमें माधवी को लेकर गालव उपस्थित है। गालव, माधवी को देकर उनसे अश्वमेधी घोड़े लेने की प्रार्थना करता है। राजा को धूल-धूसरित माधवी राजकन्या नहीं, भीलनी लगती है। कैसे मान ले कि यह चक्रवर्ती राजा को जन्म देगी? वह प्रमाण माँगता है। यहाँ माधवी का मोलभाव होता है मानों वह इंसान होकर कोई वस्तु हो। माधवी को एक छोटी सी पीठिका पर खड़ा करके छड़ी के निर्देश से उसके एक-एक अंग का निरीक्षण किया जाता है। यहाँ तक कि उसको मुख खोलकर दिखाने का निर्देश दिया जाता है। कंठ का निरीक्षण करने के लिए कुछ बोलने को कहा जाता है। भरी सभा में राजज्योतिषी उसके अंग-प्रत्यंगों का बखान करके उसके राजकन्या होने की पुष्टि करता है। इस प्रकार के दृश्य योजना के द्वारा वस्तु रूप में नारी को समझे जाने की मानसिकता को भीष्म साहनी ने सहज ही व्यक्त कर दिया है। माधवी के शारीरिक गुणों की प्रशंसा सुनकर राजा हर्यश्च उसे रनिवास में रखने को राजी हो जाता है और पुत्र-प्राप्ति के बाद दो सौ अश्वमेधी घोड़े देने का सौदा तय होता है। यहीं पर गालव को अपने चिर कौमार्य की बात-बताकर माधवी अपने प्रेम के लिए त्याग करने को तैयार हो जाती है और जल्दी ही गुरु दक्षिणा की प्रतिज्ञा से मुक्त होकर मिलन की आशा में राजा के रनिवास में चली जाती है।

दूसरे अंक में चार दृश्य हैं- पहले दृश्य का आरंभ कथावाचक की उद्घोषणा से होता है। कथावाचक सीता-सावित्री की कथा के माध्यम से स्त्री की तुलना पृथ्वी से करता है। मानो संकेत है कि अभी माधवी को पृथ्वी की भाँति संसार भर का बोझ कर्तव्य मानकर वहन करना है। माधवी त्याग और सेवा की प्रतिमूर्ति है, एक तरफ माधवी का प्रेमी गालव माधवी को भूलकर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ति के लिए और अश्वमेधी घोड़ों की तलाश में घूम रहा है और दूसरी तरफ माधवी के पिता ययाति का अपनी दानवीरता के यश का मोह उभरता है। वह इसके लिए तैयार नहीं कि वह विश्वामित्र से जाकर अभ्यर्थना करें कि वह दो सौ घोड़ों से संतुष्ट हो जाए। ययाति पुत्री को दान में दे चुका है। भीष्म साहनी ने कुछ ऐसे पात्र भी रचे हैं, जो सामान्य हैं पर मानवीय हैं जैसे- मारीच। मारीच, ययाति को समझाता है कि यदि राजकन्या अयोध्या नरेश की महारानी ही बनकर रहे तो महाराज और माधवी दोनों की मर्यादा बनी रहेगी। मारीच कहता है- "अपनी पुत्री की स्थिति को देखते हुए भी आपको अपना यश अधिक प्यारा है। भले ही इसके लिए माधवी की बलि देनी पड़े।"7 ययाति और मारीच के संवाद से ही माधवी को पुत्र-रत्न की प्राप्ति होने तथा ऋषि विश्वामित्र के पास दो सौ अश्वमेधी घोड़ों के जाने की सूचना मिलती है।

दृश्य दो में अयोध्या में उत्सव का वातावरण है। अयोध्या के राजप्रासाद में माधवी मातृत्व और वात्सल्य से भरी हुई है लेकिन विवश है- 'माँ नहीं, केवल जन्म देने वाली।'8 गालव का थोड़ी देर से आना, माधवी की अधीरता, आने पर बच्चे के प्रति ममता, गालव का हवा से बातें करते घोड़ों के प्रति उत्साह- शिशु और घोड़े का, पुरुष मन और नारी मन का यह विरोध बहुत ही सहज रूप में चित्रित हुआ है। वे अब स्वतंत्र हैं परन्तु माधवी का मन स्वतंत्र नहीं है। "पूरे व्यवस्था-तंत्र में स्त्री के मानसिक अकेलेपन और परतंत्रता का विषाद ही ध्वनित होता है- कुछ भी उसका नहीं, उसका बच्चा भी राजा का होगा। वह समझ भी नहीं पा रही है कि प्रसव-पीड़ा गालव की प्रतिज्ञा पूर्ति सोचने वाली माधवी के सामने यही गालव इतना नीरस और स्वार्थ-केन्द्रित? 'नारीत्व' की सार्थकता और 'मातृत्व' की पूरी शारीरिक-मानसिक-भावनात्मक परिवर्तन प्रक्रिया से गुजरने के बाद माधवी स्वभावतः अब ज्यादा भावुक, मैच्योर, अनुभव-सम्पन्न है। वह अतिथि मंडप में डाल दी जाती है ताकि बच्चे पर छाया पड़े। यहीं वह पहले से ज्यादा अवसादग्रस्त, निर्बन्ध, अस्पष्ट और मुखर हो गई है।"9 अब 'दायित्व' और 'कर्तव्य' जैसे शब्द उसे अच्छे नहीं लगते। गालव उसकी वेदना समझकर कहता है- "मैं नहीं जानता था कि संतान पैदा हो जाने पर तुम इतनी दुर्बल हो जाओगी। इसीलिए शायद स्त्रियाँ जोखिम के काम नहीं कर सकतीं, किसी बड़े काम का दायित्व वहन नहीं कर सकतीं।"10 इस पर माधवी गालव को कुछ देर एकटक देखते रहने के बाद कहती है- "तुम यही कहना चाहते हो कि मैं कर्तव्यपराण नहीं हूँ?...एक कर्तव्य मेरे पिता का, एक कर्तव्य मुनिकुमार गालव का; दोनों के कर्तव्य मेरे माध्यम से पूरे हो रहे हैं। फिर भी मैं दुर्बल हूँ, कर्तव्यपरायण नहीं हैं। पिता ने मुझे सौंपकर अपना कर्तव्य निभा दिया, और मुनिकुमार ने घोड़े बटोरकर अपना कर्तव्य पूरा कर दिया। एक दानवीर बन गया, दूसरा आदर्श शिष्य। और माधवी? मोह की मारी कर्तव्य से घिर गई।... वह किसी बड़े काम का दायित्व वहन नहीं कर सकती। यही ?"11 यहीं वह गालव को पहचान गई है। पहली बार इस दृश्य में माधवी के भीतर कटुता और व्यंग्य जन्में हैं। अब वह भावी बच्चे का रोना सुन पा रही है।

दृश्य तीन का दृश्यारंभ बहुत नाटकीय लगता है जब अभद्र, फूहड़, कामक्रीड़ा की ही बातें करने वाला रसिक काशी-नरेश माधवी को देखता है। वह साधु को बुलाकर यह निश्चित करता है कि इस स्त्री से उसे पुत्रलाभ होगा। दृश्य चार का आरंभ नेपथ्य के गर्जन-तर्जन से होता है, लोग इधर-उधर भाग रहे हैं और आपस में जिज्ञासावश पूछ रहे हैं जिससे पता चलता है कि वितस्ता नदी में बाढ़ गई है जिसमें सैकड़ों अश्वमेधी घोड़े बह गये हैं। राजा गाधि ने कभी यज्ञ कराया था जिसके सम्पन्न होने पर ब्राह्मणों को एक हजार अश्वमेधी घोड़े दान स्वरूप दिया था। ब्राह्मण इन घोड़ों को उत्तराखण्ड के राजाओं को बेचते थे। बहुत सारे घोड़े तो उन्होंने बेच दिये। शेष बचे घोड़ों को लेकर जब वे वितस्ता नदी पार कर रहे थे तभी बाढ़ गई। इतनी सूचनाएँ लोगों की भागदौड़ के बीच होने वाली बातों से, पर्दे के पीछे से ही मिल जाती है। इसके बाद ऋषि विश्वामित्र के आश्रम के दृश्य के साथ पर्दा खुलता है और तापस के साथ होने वाले संवादों से ज्ञात होता है कि आर्यावर्त में इस वक्त केवल छः सौ ही अश्वमेधी घोड़े हैं जबकि विश्वामित्र ने आठ सौ घोड़ों की माँग की है। छः सौ घोड़ों के बाद शेष दो सौ घोड़ों के लिए गालव को विश्वामित्र की शरण में ही आना पड़ेगा क्योंकि वितस्ता नदी की बाढ़ से बचे घोड़े विश्वामित्र के आश्रम में ही पहुँचाए जा रहे थे।

इसके बाद नाटक का तीसरा अंक आरंभ होता है जिसमें तीन दृश्य हैं। पहले दृश्य में कथावाचक के माध्यम से काशी नरेश के प्रतदर्मन नामक पुत्र के जन्म की तथा भोजनगर के वृद्ध राजा उशीनर के पास गालव और माधवी के पहुँचने की सूचना मिलती है। जिससे माधवी शिवि नामक पुत्र को जन्म देती है। इसके बाद वन में शेष घोड़ों की तलाश में घूमते हुए अचानक माधवी गायब हो जाती है। माधवी के गायब होने पर गालव की प्रतिक्रिया में दो चिंताएँ हैं- ऋणमुक्त होने की और दूसरी कि अपनी सुख-सुविधा के लिए माधवी ने उसे त्याग दिया।

दूसरे दृश्य में विश्वामित्र के आश्रम का दृश्य है। उनके पास इतने घोड़े हो गये हैं कि पूरा आश्रम घुड़साल बन गया है। एक तो गालव द्वारा भेजे गये छः सौ घोड़े, साथ ही वितस्ता की बाढ़ से बचे घोड़े। तभी माधवी, विश्वामित्र के आश्रम में पहुँचती है और बिना गालव को बताए उसकी गुरु दक्षिणा के लिए दो सौ घोड़ों के लिए विश्वामित्र के आश्रम में रहकर पुत्ररत्न के बदले में दो सौ घोड़े देने का प्रस्ताव रखती है।

तीसरे दृश्य में कथावाचक की उद्घोषणा से ज्ञात होता है कि गालव की प्रतिज्ञा पूर्ण हुई। ययाति के द्वारा आश्रम में राजसी ठाठ-बाट के साथ माधवी स्वयंवर और वहीं गालव के दीक्षांत समारोह की धूम है। 'महान शुभ पर्व जैसा वातावरण। पर उसमें वे राजा भी आए हैं जिनके रनिवास में माधवी रह चुकी है। माधवी के गर्भ से उत्पन्न बच्चों को भी वे लाए हैं। ऋषित्व का भी उपहास उड़ाया जाता है। समस्त आर्यावर्त में प्रकाश-स्तम्भ की तरह चमकते ययाति का यश बढ़ गया है और सबको अब गालव 'सच्चा साधक' नजर आता है। सब कुछ है पर माधवी वहाँ नहीं है, उसका नाम, यश। गालव भी 'ऋषि गालव' कहलाएगा पर माधवी एक उपादान, एक वस्तु, माध्यम मात्र बनकर रह जाती है। पिता ययाति के लिए अभी भी वह 'अल्हड़ मृगशावक' है।'12 ययाति विश्वामित्र सब गालव पर कृपालु हैं। गालव चिन्तित है कि माधवी कहाँ है? कहीं वह किसी राजा को वर ले? वह आशंकित रहता है। माधवी वन में है। अचानक माधवी आती है- ढ़ली हुई देह, चेहरे का फीका लावण्य, मुँह पर झाँइयाँ, आँखों के नीचे काले साये, अधेड़, अनाकर्षक माधवी को देखकर वह ठिठक जाता है। माधवी से चिरकौमार्य का अनुष्ठान करके पुनः आकर्षक बन जाने का अनुरोध करता है। किन्तु माधवी अपने प्रिय के साथ अपने वास्तविक रूप में रहना चाहती है। इसमें माधवी की अस्मिता का गहन बोध मुखरित हुआ है-

'माधवी : और तुम सौन्दर्य के उपासक कब थे। तुम तो कर्तव्य के उपासक हो ना?

गालव : तुम्हें तो चिरकौमार्य का वर मिला है, माधवी। तुम प्रसव के बाद भी युवती बनी रह सकती हो।

माधवी : मैंने सोचा, गालव के पास जा रही हूँ तो जैसी हूँ, वैसी ही जाऊँगी।'13

            अब प्रेम का दावा करने वाला, राजा के महलों के झरोखों में माधवी की छवि को देखने का आकांक्षी उसे देख जैसे जड़ हो जाता है, उसे स्वतंत्र करने में ही उसे अपनी मुक्ति नजर आती है और तुरंत मुक्ति का उपाय भी निकाल लेता है, कहता है- 'जो स्त्री मेरे गुरु के आश्रम में रह चुकी हो उसे मैं अपनी पत्नी कैसे मान सकता हूँ।'14 गालव ने अपनी मुक्ति के लिए कितनी सुन्दर तरकीब सोची। माधवी जिसने अपना यौवन, अपने बच्चे, सपने सब कुछ न्योछावर कर दिया गुरु-दक्षिणा जुटाने के लिए, उसे सिद्ध गालव तभी अपना सकते हैं जब वह पुनः यौवन कौमार्य को प्राप्त करे। माधवी जैसी है उसे उस रूप में स्वीकार्य नहीं। फिर भी संसार गालव को तपस्वी कहेगा और माधवी को दुर्बल मन की चंचल स्त्री- जिसका विश्वास नहीं किया जा सकता- कितना अद्भुत न्याय है। ध्यातव्य है कि गुरु के पास रहने की बात करने के बाद वह माधवी से अनुरोध करता है कि तुम पुनः कौमार्य धारण कर लो तो मैं तुम्हें पाकर अपने को धन्य मानूँगा। किन्तु माधवी इसके लिए तैयार नहीं होती। वह कहती है- 'तुमने मेरे यौवन की आहुति देकर गुरु-दक्षिणा जुटाई है। यौवन रूप तो मिल जाएँगे पर अपने दिल का क्या करूंगी जो छलनी हो चुका है।'15

            इस प्रकार हम देखते हैं कि नाटक में आरंभ से लेकर अंत तक माधवी साधन बनी रही। ययाति ने बिना किसी धर्म संस्कार के उसे उपभोग्या-नियति के हवाले कर दिया तथा गालव ने गुरु दक्षिणा जुटाने के निमित्त उसे मुद्रा की तरह इच्छानुसार भिजाया। माधवी यहाँ निमित्त-मात्र है- गालव की गुरु दक्षिणा जुटाने की, अपने पिता की दानवीरता की रक्षा करने की, प्रेम के आदर्शात्मक मूल्यों को स्थापत्य की तरह साकार करने की। इस पूरे नाटक में माधवी का उस अस्त्र की तरह प्रयोग किया जाता है जिसके द्वारा योद्धा हर बार अपने उद्देश्य के कुछ और निकट पहुँचता है- माधवी के मिथकीय सौन्दर्य का राजनैतिक समाजशास्त्र पुरुष जाति के हितों की पूर्ति पर ही संपन्न होता है।

संदर्भ :

1.    भीष्म साहनी- आज के अतीत, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2015, पृ0 238-39
2.    वही, पृ0- 239
3.    रमेश उपाध्याय- भारतीय साहित्य के निर्माता: भीष्म साहनी, साहित्य अकादमी, प्रथम संस्करण 2015, पृ0 80
4.    भीष्म साहनी- माधवी, राजकमल प्रकाशन, पन्द्रहवाँ संस्करण 2021, पृ0- 19
5.    सं0 नामवर सिंह- आलोचना 2004, अंक 17-18, पृ0- 187
6.    भीष्म साहनी- माधवी, राजकमल प्रकाशन, पन्द्रहवाँ संस्करण 2021, पृ0- 33
7.    वही, पृ0- 53
8.    वही, पृ0- 56
9.    सं0 नामवर सिंह- आलोचना 2004, अंक 17-18, पृ0- 188
10. भीष्म साहनी- माधवी, राजकमल प्रकाशन, पन्द्रहवाँ संस्करण 2021, पृ0- 65
11. वही, पृ0- 65
12. सं0 नामवर सिंह- आलोचना 2004, अंक 17-18, पृ0- 189,190
13. भीष्म साहनी- माधवी, राजकमल प्रकाशन, पन्द्रहवाँ संस्करण पृ0- 111, 112
14. वही, पृ0- 115
15. वही, पृ0- 116

 

शिल्पा उपाध्याय
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, का.हि.वि.वि., वाराणसी
shilpaupadhyay2408@gmail.com,  8279441685

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  विजय मीरचंदानी

Post a Comment

और नया पुराने