हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे
- जितेन्द्र यादव
हर साल 1 मई विश्व मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसके पीछे ऐतिहासिक कारण है कि किस तरह से सन् 1886 में शिकागो में मजदूरों की जनसभा पर गोलियां चलाकर बेरहमी से उनकी हत्या कर दी गई थी। शहर की सड़क और गलियां खून के रंग से रंग गई थी। उस घटना की स्मृति में प्रत्येक वर्ष 1 मई को मजदूर दिवस मनाया जाता है। हिंदी की प्रगतिवादी कविता में क्रांति और विचारधारा के समर्थक कवियों ने मजदूरों के ऊपर कई कविताएं लिखी किंतु अब मौजूदा समय की कविताओं में कविता से मजदूर गायब है। इसके पीछे की वजह क्या हो सकती है? कि जो मेहनतकश मजदूर दुनिया को अपनी अथक मेहनत से एक आकार देता है, उसका श्रम गगनचुम्बी महल से लेकर खेत-खलिहान तक गवाह है। हम अपने आसपास की जिस भी भौतिक वस्तु को देखते हैं, उसमें उनके खून-पसीने की गंध आती है लेकिन अफ़सोस है कि दुनियां ने श्रमिक और उसके श्रम को उतना महत्व नहीं दिया जिसका वह हकदार है। श्रम का अपमान समाज में गहराई से व्याप्त है। श्रमिकों का जीवन आर्थिक तंगी, अपमानजनक व्यवहार और रोग-व्याधि में व्यतीत होता है। फैज़ साहब का गीत है ‘हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे, इक बाग़ नहीं, इक खेत नहीं, हम सारी दुनिया मांगेगे’। यह गीत मजदूरों के हौसले का प्रतीक है। हिंदी साहित्य में प्रगतिवादी काव्यधारा के अंतर्गत केदारनाथ अग्रवाल, कवि नागार्जुन की कविताओं में मजदूरों को जगह मिली है, उनकी कविताओं में मजदूर क्रांति का प्रतीक है। वह बेचारा नहीं बल्कि ताकत का प्रतीक है किंतु जब हिंदी कविता में मध्यवर्गीय चेतना आई तो उसकी अनुभूति, रचना विधान और भावबोध बदल गया। कविता धीरे-धीरे अमूर्त होती चली गई। जहां मध्य वर्ग की जटिलता, उसका जीवन, उसका प्रेम-प्रसंग कविता के केंद्र बिन्दु बन गया। यह सोचने का विषय है कि जहां मजदूर भारत का एक बड़ा वर्ग है, खेत से लेकर कल-कारखानों तक, कोयला खदान से लेकर सड़क और पुल निर्माण तक, शहर में रिक्शा चलाने से लेकर मॉल में गार्ड तक... हर जगह उसकी मौजूदगी है; फिर भी वह कविता से गायब कर दिया गया है। कुछ हद श्रम केन्द्रित जीवन पर कविताई हुई है तो इधर मेरे अल्प ज्ञान में यह ध्यान नहीं आया है। हमारी अनुभूति का विस्तार उसको नहीं छू पा रहा है।
महाप्राण निराला की प्रसिद्ध कविता ‘वह तोड़ती पत्थर’ के बिना उनकी कविता पर बात संभव नहीं है। निराला ने बहुत सी कविताएं लिखी लेकिन जब ‘वह तोड़ती पत्थर’ कविता में मजदूर स्त्री का चित्रण करते हैं तब कविता के बिंब में पूरे मजदूर का संघर्ष, उसकी व्यथा, उसकी गरीबी, उसकी लाचारी... सभी एक साथ कविता की सतह पर दिखाई देने लगते हैं। साठोत्तरी कविता में धूमिल की पहचान ‘मोचीराम’ कविता से अधिक बनी है। ‘मोचीराम’ कविता धूमिल की चर्चित कविताओं में से एक है। जहां निराला की दृष्टि सड़क किनारे पत्थर तोड़ती हुई महिला पर जाती है वहीं धूमिल की दृष्टि उससे भी एक कदम आगे बढ़कर उस मोची पर जाती है जो सड़क किनारे चप्पल और जूता सिलने का कार्य करता है। इस स्तर की बेजोड़ कविता बाद की कविताओं में कम ही दिखाई देता है। मार्क्सवादी विचारधारा के कवि मुक्तिबोध के यहां भी मजदूर वर्ग का चित्रण मिलता है क्योंकि समाज का एक बड़ा हिस्सा मजदूर वर्ग है लेकिन अब लगता है कि कविता में उसकी सुध लेने वाला अब कोई नहीं बचा है। कवियों का एक बड़ा वर्ग सुविधाभोगी बन चुका है जो प्रेम पर तो कविता लिखता है लेकिन श्रम पर कविता लिखने से बचता है। यह अजीब विडंबना है कि कविता का पूरा अमूर्तिकरण कर दिया गया। जहां श्रम और श्रमिक से कोई संबंध नहीं है। कविता को एक बार फिर मजदूर के पास जाना होगा। उसकी ताकत बनना होगा, क्योंकि कविता ही अपनी अनुभूति से मजदूर और उनकी व्यथा तक पहूंच सकती है। मजदूर कविता का पाठक नहीं है लेकिन उसका विषय अवश्य है। उसके यथार्थ चित्रण से ही मनुष्य के संघर्ष का दस्तावेज तैयार हो सकता है।
मध्यकाल के कवि कबीर और रैदास श्रमशील जाति से थे। वे कवि के साथ श्रमिक भी थे। फिर भी हिंदी कविता का श्रमिक से मोहभंग होना चिंतनीय है। ये दुनिया श्रमिकों के कंधे पर टिकी है। विचारधारा की प्रतिबद्धता जन सामान्य की चिंता ही कवि और कविता को जनपक्षधरता की ओर ले जा सकता है। प्रगतिशील लेखक संघ 1936 के सम्मेलन में प्रेमचंद ने अपने ऐतिहासिक भाषण ‘साहित्य का उद्देश्य’ में महत्वपूर्ण संकेत दिया है कि साहित्य को अब श्रम में सौन्दर्य देखना होगा। खेत में काम करती हुई स्त्री के सौन्दर्य का चित्रण करना होगा। भारतीय समाज ने श्रम और श्रमिक को हिकारत की दृष्टि से देखता है। जो आदमी बिना श्रम किए ही मौज करता है उसे समाज सम्मान की नजर से देखता है। कार्य को जाति समूहों में बांटकर श्रम को जाति के साथ जोड़ दिया। सफाई का काम, चमड़े का काम, खेती-किसानी का काम, पशुपालन इत्यादि कार्यों को जातियों में बाँट दिया गया। बहुजन चिंतक काँचा इल्लैय्या अपने लेखन में श्रमिक जातियों को देशज वैज्ञानिक कहते हैं। इन जातियों ने ही जरूरत के हिसाब से वस्तुओं की खोज की है। चमड़ा का कार्य करने वाली चर्मकार जाति ने ही पहली बार पैर के लिए चमड़े का चप्पल या जूता बनाया होगा। चमड़े से क्या-क्या बनाया जा सकता है। सब उसने खोज की है। पशुपालक जातियों ने जानवर से दूध निकालकर दही और घी बनाने की विधि का अविष्कार किया। वह कहते हैं कि जिस आदिवासी को हम गंवार और अनपढ़ कहते हैं उनके पास जंगल में सबसे ज्यादा जड़ी-बूटी की जानकारी होती है। किस फल को खाना है और कौन फल खाने योग्य नहीं है। एक-एक फल और फूल को चखकर जंगल में रहने वाले आदिवासी ने ही बताया है। मनुष्य आरंभ में पेड़ के पत्ते पर खाना खाता था किन्तु कुम्हार जाति ने मिट्टी के बर्तन की खोज करके सभ्यता के विकास की अगली कड़ी जोड़ दी। लुहार जाति ने खेती के लिए लोहे से औज़ार बनाए। बुनकर जाति ने कपड़ा बुनकर मनुष्य जाति का तन ढका। यह सब देशज वैज्ञानिक जातियाँ थी। किन्तु समाज में इन जातियों की आज भी सामाजिक और आर्थिक स्थिति कहाँ पर है। हम सब परिचित हैं।
शोषण की चक्की में सबसे ज्यादा मजदूर वर्ग ही पिसता है। वह संगठित होकर अपने हक की लड़ाई नहीं लड़ पा रहा है। आज भी कम पैसे पर वह अपना श्रम बेचने को मजबूर है। मशीनीकरण ने उनके श्रम को अधिक सस्ता बना दिया है। मशीन और पूंजी के बल पर पूंजीपति वर्ग दुनिया में ताकतवर बनकर उभरे हैं। लेकिन मजदूरों की हालत और भी दयनीय हुई है। हमें दुनिया को समरसतापूर्ण बनाना होगा ताकि गैरबराबरी की खाई को कम किया जा सके। इसके लिए प्रगतिशील चिंतकों, आलोचकों और रचनाकारों को आगे आना होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि बहुत लोग ऐसे हैं जो इन कामों को कर भी रहे हैं। मुझे याद आ रहा है कि मजदूर दिवस के अवसर पर कई साल पहले राजेश चौधरी जी के साथ मैं और माणिक भाई राजसमंद जिले के भीम में प्रति वर्ष होने वाले मजदूर मेले में गए थे। सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय के नेतृत्व में एक बड़ा आयोजन होता है जिसमें बुद्धजीवी और मजदूर वर्ग का अद्भुत वैचारिक मिलन होता है। वहाँ पर एक वैचारिक ऊर्जा मिलती है। ऐसे आयोजन से ही मजदूर एकता कायम होगी। मजदूर दिवस के अवसर पर कवि केदारनाथ अग्रवाल की कविता कुछ पंक्तियाँ पेश हैं आपकी नज़र-
“जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
तूफानों से लड़ा फिर खड़ा हुआ है
जिसने सोने को खोदा, लोहा मोड़ा है
जो रवि के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा
जो जीवन की आग जला कर आग बना है
फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है
जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है
जो युग के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा”
जितेन्द्र यादव
संपादक अपनी माटी
अंक में शामिल रचनाओं पर कुछ बात :- हिंदी सिनेमा के बेजोड़ नायक श्याम बेनेगल को श्रंद्धांजलि स्वरूप ‘अपनी माटी’ ने उन पर दो आलेख इस अंक में सँजोए हैं। एक आलेख कर्पूरी ठाकुर और एक शारदा सिन्हा जी पर केंद्रित है। इस अंक से माधव राठौड़ राजस्थान में लघु पत्रिकाओं की परंपरा पर निरंतर लिखेंगे। पढ़कर प्रतिक्रिया दीजिएगा। भारतीय इतिहास के सच्चे किन्तु भुला दिए गए नायक-नायिकाओं में से एक अहिल्याबाई होल्कर पर स्त्री विमर्श की दीठ से लिखा है प्रो. नीलम राठी ने। कथेतर का जिम्मा सँभालने वाले हमारे साथी और सह-संपादक विष्णु कुमार शर्मा ने पिछले कई अंकों से चिट्ठी-पत्री कॉलम की निरंतरता बनाए रखते हुए इस बार दो चिट्ठियाँ शामिल की हैं। सीमा जी ने चिट्ठी में अपने बिसरे मित्र को याद करते हुए स्त्री और पुरुष की मित्रता जैसे गहन विषय पर चिंतन व्यक्त किया है तो अश्विनी व्यास ने अपनी किशोर बिटिया के नाम पाती लिखते हुए उसे हर दिशा में और हर विचारधारा का चिंतन-मनन करने की सलाह दी है। आशुतोष कुमार शुक्ल ने नदी के नाम लंबी चिट्ठी लिखी है। कविता के युवा स्वर दिव्या श्री, गीता प्रजापति और महेंद्र नंदकिशोर की कविताएँ आपको पसंद आएँगी, ऐसी उम्मीद है। हमेशा की तरह अपनी जीवंत भाषा, अद्भुत शिल्प के साथ मौजूद हैं हेमंत कुमार अपने संस्मरण के साथ। ‘अफ़लातून की डायरी’ में आपको कराएँगे हिमाचल की यात्रा। और भी बहुत कुछ मिलेगा आपको इस अंक में। महेंद्र नंदकिशोर बहुत सोच-विचारकर काम करने वाले संवेदनशील अध्यापक हैं और हमने उनके शर्मीले स्वभाव के बावजूद उनकी कविता में रूचि यहाँ पेश किया है। पूरे अंक में हमारे ही साथी और राजस्थान सरकार के उच्च शिक्षा विभाग में राजनीति विज्ञान के सहायक आचार्य विजय मीरचंदानी के फोटोग्राफी हुनर का प्रस्तुतीकरण आपको नज़र आएगा। आत्मकथ्य के तौर पर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की हिंदी साहित्य की सहायक आचार्य प्रियंका सोनकर से हमने लिखवाया है ताकि पाठक जान सके कि वर्तमान समाज में भी युवा कैसा जीवन-संघर्ष अनुभव कर रहे हैं। राजेंद्र कुमार सिंघवी जी नेमेवाड़ को केंद्र बनाकर लिखा है जहां से यह पत्रिका निकलती है, वह आपको ज़रूर पसंद आएगा। इस अंक में परिचर्चा और बातचीत का कॉलम नहीं भर पाया तो माफी चाहते हैं। रचनाएं कम-ज्यादा होती रहती है मगर सभी समाज के हर पक्ष को समेटने की कोशिश जारी है।
और.. और अंत में, इस नारे के साथ कि “हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे”... इंकलाब ज़िंदाबाद।
माणिक
संपादक अपनी माटी
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र विजय मीरचंदानी
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