शोध आलेख : पारिस्थितिक स्त्रीवादी चिंतन : भारतीय संदर्भ / पूजा यादव

पारिस्थितिक स्त्रीवादी चिंतन : भारतीय संदर्भ
पूजा यादव

शोध सार : भारतीय साहित्य और लोक परंपराएँ जितनी सम्पन्न है उतनी ही विविधताओं से भरी हुई हैं। महिलाएँ अपनी दिनचर्या की शुरूआत तुलसी, नीम, वट और पीपल को जल देकर करती हैं। इस तरह वह प्रकृति के साथ एक ऊर्जा को अपने भीतर समाविष्ट करती हैं। उनके द्वारा किये गये व्रत-पूजन भी प्रकृति से जुड़े होते हैं तथा किसान संस्कृति में भी महिलाएँ प्रकृति की अनेक रूपों में पूजा करती हुई उत्सव मनाती हैं। वे कुएं, पोखर और नदियों को भी पूजती रही हैं। वस्तुतः प्रकृति के साथ स्त्रियों के घनिष्ठ संबंध का एक लंबा इतिहास रहा है। भारतीय परंपरा में प्रकृति के साथ स्त्रियों की घनिष्ठता कई रूपों में व्याप्त है, जैसे – व्रत-पूजा, लोक गीत, कहानियाँ, वेद-ग्रंथ, साहित्य एवं पर्यावरण आन्दोलन इत्यादि। प्रस्तुत शोध पत्र में पारिस्थितिक स्त्रीवाद की चेतना को भारतीय संदर्भों में समझने का प्रयास किया जायेगा।

बीज शब्द : पारिस्थितिक स्त्रीवाद, लोक परंपरा, स्त्रीवादी चिंतन, लोक गीत, आंदोलन, पितृसत्ता, पूंजीवाद, विमोचन, अवमूल्यन, विस्थापन।

मूल आलेख : कोई भी सिद्धांत या विचार अचानक से स्वरूप नहीं लेता है। इसके पीछे एक लंबी प्रक्रिया होती है। ऐसे में पारिस्थितिक स्त्रीवाद की वैचारिक और सैद्धांतिक पृष्ठभूमि की निर्मिती के पीछे भी एक लंबी प्रक्रिया की स्वीकृति आवश्यक है । पाश्चात्य जगत में पारिस्थितिक स्त्रीवाद को स्त्रीवाद की चेतना से निर्मित एक नयी शाखा के रूप में जाना जाता है। यह नया विचार अपने भीतर स्त्री के साथ प्रकृति के अंतर्संबंध को अंतर्निहित किये साकार होता है। चूँकि बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पर्यावरण संकट वैश्विक चिंतन के रूप में उभरता है इसलिए यह सिद्धांत और भी तार्किक एवं प्रासंगिक हो जाता है। एक तरफ स्त्रियों का शोषण और दूसरी तरफ पर्यावरण को तहस-नहस किये जाने की प्रक्रिया ने इस चिंतन की उपयोगिता को और भी महत्त्वपूर्ण बना दिया है। यद्यपि बाकि सभी विचारों की तरह इस विचार को भी पाश्चत्य जगत से आयातित माना गया तथापि विभिन्न स्रोतों से यह विदित होता है कि यह विचार भारतीय साहित्य और लोक परंपरा में पूर्व से ही विद्यमान है। जिसमें यह स्पष्ट है कि स्त्रियाँ न केवल प्रकृति को सहेजती हैं बल्कि उसके शोषण के विरोध में आवाज़ भी उठाती हैं। वे अभी तक अपने स्वत्व और अधिकार के लिए लड़ रही थीं लेकिन अब वे प्रकृति और उनके साहचर्य में रहने वाले समस्त जीवों के संरक्षण हेतु भी अपनी आवाज़ बुलंद कर रही हैं। इसके साथ ही वे अपने और प्रकृति के साथ हो रहे शोषण की परतों की गहरी समझ रखती हैं और उसके दूरगामी प्रभावों से वाकिफ़ भी हैं। अतः वे अपनी वैचारिकी और आंदोलनों में स्त्रियों के साथ प्रकृति के विमोचन को सम्मिलित करती हैं साथ ही शोषण के शिकार हुए समस्त वर्गों को भी अपने चिंतन और विश्लेषण का बिंदु बनाती हैं।

भारतीय लोक परंपरा और पारिस्थितिक स्त्रीवाद -

भारतीय लोक परंपरा में पारिस्थितिक स्त्रीवाद की चेतना को सहज ही रेखांकित किया जा सकता है। मसलन, लोक गीतों में स्त्री और प्रकृति के सह-संबंध को लेकर खूब सारे गीत मिलते हैं। जिसमें स्त्री के सुख और दुःख के प्रत्येक क्षणों में शामिल प्रकृति उनकी सखी, माता, पिता, भाई बन जाती है। जँतसार के एक गीत में इसकी झलकियाँ देख सकते हैं। इस गीत में एक स्त्री जो अपने ससुराल में है और अपने मायके जाने की बात करती है तो उसकी सास उससे कहती है कि उस नैहर में जाकर क्या करोगी जहाँ माता पिता और भाई-बहन ही नहीं है इस पर वह कहती है कि –

गंगा जी हई मोर मइया,
सुरूज हमरो बाप हउवें ए जी ।
चानारमा हउवें हमरे भइया
त हम नइहरवा जइबो ए जी ।[1]

एक स्त्री का प्रकृति के प्रति इतनी सुंदर अनुभूति कि गंगा मेरी माँ है, सूरज मेरे पिता है और चन्द्रमा मेरे भाई हैं सहज ही स्त्री और प्रकृति के अंतर्संबंध को जाहिर करती है। ऐसे ही एक और गीत को उधृत कर सकते हैं –

रहितों में जल की मछरिया, जल बिखेरहितो
हरि मोरे जइते आसानानावा, चरन में लपटइतों।[2]

इस गीत में एक स्त्री पति के परदेस जाने से दुखी है। वह सोचती है कि यदि जल की मछली होती तो स्नान करते अपने पति के पांवों से लिपट जाती तब शायद उसे मेरे मन के दुःख का अहसास होता। इस प्रसंग में भी स्पष्ट है कि स्त्रियाँ, प्रकृति में ही अपने को कल्पित और अभिव्यंजित कर पाती हैं।

ऐसे ही लोक में व्याप्त अनेक उत्सव और पूजा-व्रत में प्रकृति को स्त्री पूजती और संवारती है। उत्तर भारत के कई राज्यों मसलन बिहार, उत्तर-प्रदेश और झारखंड में छठ पूजा का उत्सव एक ऐसा ही उदाहरण है। जहाँ स्त्रियाँ सूर्य की पूजा जल में खड़े होकर पूरी निष्ठा के साथ करती हैं। वह कोई मंत्र नहीं पढ़ती वह गीत गाती हैं जिसमें प्रकृति को सहजता के साथ जोड़ लेती हैं। छठ के एक गीत के उदहारण द्वारा प्रकृति के साथ स्नेहिल राग को सहज ही आत्मानुभूत किया जा सकता है –

1-केलवा के पात पर उगेलन सुरुज मल झांके झुंके
केलवा के पात पर उगेलन सुरुज मल झांके झुंके[3],

यकीनन यह सुंदर परिकल्पना स्त्री जीवन को किसी न किसी रूप में प्रकृति के और भी करीब ले आती हैं। उनके चिंतन उनकी अनुभूति में प्रकृति रची बसी है। निश्चित ही प्रकृति को चाहने के कारण कई हैं लेकिन प्रकृति प्रत्येक स्थिति में स्त्री जीवन के केंद्र में रहती है।

भारतीय साहित्य में पारिस्थितिक स्त्रीवाद -

वर्तमान समय में पारिस्थितिक स्त्रीवाद की संकल्पना को पाश्चात्य दर्शन के इको-फेमिनिज्म के रूप में जाना जाता है। किन्तु ऐसा नहीं है कि भारतीय दर्शन इस संकल्पना से बिल्कुल अनभिज्ञ था। भारतीय दर्शन के प्राचीन ग्रंथों में इस संकल्पना के सूत्र किसी न किसी रूप में मिलते रहे हैं। सर्वप्रथम अथर्ववेद संहिता में मनुष्य पृथ्वी को तथा स्वयं को उसका अंश अथवा पुत्र मानता था। अथर्ववेद में लिखा गया है – “हे पृथ्वी माता! जो आपके मध्यभाग और नाभिस्थान हैं तथा आपके शरीर से जो पोषणयुक्त पदार्थ प्रादुर्भूत होते हैं; उसमें आप हमें पवित्रता प्रदान करें। यह धरती हमारी माता है और हम सब उसके पुत्र हैं।”[4] माता-पुत्र का व्यवहार वास्तव में प्रकृति और मनुष्य के सुंदर सह-संबंध को परिभाषित करता है। प्रकृति की सेवा ही मनुष्य का कर्तव्य है। चूँकि प्रकृति समस्त गुणों से युक्त होती है तथा मनुष्य के लिए संसाधन उपलब्ध कराने के साथ ही उनके जीवन को सहज एवं सरल बनाती है। अतएव माता स्वरूप प्रकृति सदैव श्रद्धेय मानी गयी। इसी क्रम में एक उदाहरण द्रष्टव्य है – “जिसमें सभी प्रकार की श्रेष्ठ वनस्पतियाँ और औषधियां पैदा होती हैं, वह पृथ्वी माता विस्तृत और स्थिर हो। विद्या, शूरता, सत्य, स्नेह आदि सद्गुणों से पालित, पोषित, कल्याणकारी और सुख-साधनों को देने वाली मातृभूमि की हम सदैव सेवा करें।”[5] इसके साथ ही मनुष्य, प्रकृति से कुछ भी लेने के संदर्भ में सचेत भी है कि उससे प्रकृति को किसी भी प्रकार की हानि न पहुँचे। अथर्ववेद में लिखा गया है – “हे धरतीमाता! जब हम (औषधियाँ निकालने अथवा बीज बोने के लिए) आपको खोदें, तो वे वस्तुएँ शीघ्र उगे – बढ़ें। अनुसंधान के क्रम में हमारे द्वारा आपके मर्म-स्थलों के अथवा हृदय को हानि न पहुँचे।”[6] प्रारंभ में मनुष्य, प्रकृति के दिए संसाधनों के प्रति कृतज्ञता महसूस करता था। जिससे प्रकृति और मनुष्य के बीच संतुलन बना रहा। हालाँकि सभ्यता के विकास-क्रम में मनुष्य ने प्रकृति का दोहन करना शुरू किया और इसी के साथ स्त्री-शोषण के अलग-अलग रूप भी अस्तित्व में आते रहे हैं। ऋग्वेद से ही स्त्रियों के दायरे को सीमित किया जाना प्रारम्भ हो चुका था तथापि वह बीच-बीच में अपने अस्तित्व के नकारे जाने पर सवाल भी उठाती रही। ऋग्वेद के अनुसार रोमशा संभवतः पहली स्त्री हुई जिसने अपने पति से कहा – “हे पतिदेव! आप मेरे पास आकर बार-बार मेरा स्पर्श करें (प्रेरणा लेकर देखें), मेरे कार्यों को अन्यथा न लें। जिस प्रकार गांधार की भेड़ रोमों से भरी होती है, उसी प्रकार मैं गुणों से युक्त-प्रौढ़ हूँ।”[7] इस कथन के द्वारा रोमशा एक स्त्री की महत्ता को स्थापित करने के लिए आवाज उठाती हैं। इसी श्लोक की व्याख्या करते हुए सुमन राजे अपनी किताब ‘हिंदी साहित्य का आधा इतिहास’ में रोमशा के कथन में स्त्री-विमर्श का पहला स्वर देखती हैं। वस्तुतः रोमशा, यहाँ न केवल स्त्री बल्कि प्रकृति दोनों के अंतर्संबंध को रेखांकित करती हैं।

यद्यपि ‘मनुष्य’ शब्द में स्त्री और पुरुष दोनों का बोध होता है। लेकिन वर्चस्ववादी समाजिक व्यवस्था में स्त्रियाँ मनुष्य की परिभाषा से बाहर कर दी गयीं। इस प्रकार पुरुष अपनी बेलगाम इच्छाओं को पूरा करने हेतु प्रकृति और स्त्री पर वर्चस्व स्थापित कर लेता है। फलस्वरूप समाज पितृसत्तात्मक होने के साथ ही स्त्री और प्रकृति के शोषण का केंद्र भी बनता चला गया। हालाँकि इस क्रम में स्त्रियों के सीमित दायरे में प्रकृति, उनके सुख और दुःख की सहेली बनती गयी। संस्कृत साहित्य का अत्यधिक विख्यात नाटक ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ है। जिसमें शकुन्तला का प्रकृति के साथ रागात्मक संबंध इस कड़ी को एक नयी दृष्टि प्रदान करता है। उसकी पूरी दिनचर्या में प्रकृति मौजूद होती है। हिरन और लताएँ तक उनके दुःख में दुखी और सुख में सुखी होती हैं। शकुन्तला भी प्रकृति से अपार स्नेह करती है। उसकी विदाई के समय एक ओर प्रकृति शृंगार सामग्री प्रदान करती है तो दूसरी ओर रुदन और उदासी की मूर्ति भी बन जाती है। इस क्रम में द्रष्टव्य है –“मृगियों ने कुशा के ग्रास उगल दिए हैं, मोरों ने नाचना छोड़ दिया है और लताएँ पीले पत्तों को डालकर मानो अपने आँसू डाल रही हैं।”[8] यह अनुभूति शकुंतला के हृदय में भी वैसी ही है। उसका मन भी इनसे बिछड़ते वक़्त अत्यंत दुखी है। वह अपनी विदाई के वक्त लताओं को गले लगाती है। यहाँ प्रकृति स्त्री का प्रतिरूप बन जाती है। स्त्री और प्रकृति के घनिष्ठ संबंध का जिक्र मलिक मुहम्मद जायसी की रचना ‘पद्मावत’ में भी मिलता है। नागमती अपने वियोग की स्थिति में यह पाती है कि उसकी दशा भी पपीहे पक्षी की तरह हो गयी है। वह कहती है –

“पिउ बियोग अस बाउर जीऊ।
पपिहा निति बोले पिउ पीऊ।”[9]

भक्तिकाल में ही मीरा स्त्री-अधिकारों की स्वतंत्रता के प्रति सचेत दिखती हैं। वह पितृसत्ता के दमनकारी नीतियों के खिलाफ़ अपने ‘स्व’ को प्रत्येक स्थिति में स्थापित करती हैं। आधुनिक काल में महादेवी वर्मा का नाम महत्वपूर्ण हैं। इन्होंने सर्वप्रथम ‘शृंखला की कड़ियाँ’ निबंध लिखकर स्त्री सरोकारों और उसके अधिकारों के प्रति अत्यंत सचेत और तार्किक दृष्टि को स्थापित किया। वह स्त्री की बेड़ियों और उसकी मुक्ति के विविध पहलुओं की तरफ सभी का ध्यान ले जाती हैं। जाहिर है, पारिस्थितिक स्त्रीवाद न केवल स्त्री की मुक्ति की बात करता है अपितु वह समग्र प्रकृति को भी मुक्त करने पर जोर देता है। इसी कड़ी में महादेवी वर्मा द्वारा लिखा गया ‘मेरा परिवार’ महत्वपूर्ण है। इस रचना में वह पशु-पक्षियों के प्रति स्नेहिल और करूणा से पूर्ण दिखती हैं। इसमें वह मनुष्य द्वारा प्रकृति के प्रति क्रूरता से दुखी भी हैं साथ ही उसकी कड़ी आलोचना भी करती हैं। वह प्रकृति के चल-अचल सौन्दर्य पर किसी तरह के शोषण को देखकर हतप्रभ होती हैं। वह कहती हैं शिकारी आखिर प्रकृति के चल सौन्दर्य को क्षति पहुंचाकर प्रसन्न क्यों होता है? वह ‘मेरा परिवार’ में लिखती हैं – “आकाश में रंग-बिरंगे फूलों की घटाओं के सामने उड़ते हुए और वीणा, वंशी, मुरज, जलतरंग आदि का वृन्दावन (आर्क्रेस्ट्रा) बजाते हुए पक्षी कितने सुंदर जान पड़ते हैं। मनुष्य ने बंदूक उठाई, निशाना साधा और कई गाते-उड़ते पक्षी धरती पर ढेले के समान आ गिरे। किसी की लाल-पीली चोंचवाली गर्दन टूट गयी है, किसी के पीले सुंदर पंजे टेढ़े हो गये हैं और किसी के इंद्रधनुषी पंख बिखर गये हैं। क्षत-विक्षत रक्तस्नात उन मृत-अर्धमृत लघु-गानों में न अब संगीत है, न सौन्दर्य, परन्तु तब भी मारने वाला अपनी सफलता पर नाच उठता है।”[10] उनकी संवेदना और ममत्व समस्त प्रकृति के लिए झलकती है। इसी क्रम में ‘स्मृति की रेखाएं’ और ‘अतीत के चलचित्र’ रचना में उनके द्वारा समस्त शोषित तबके के लोगों को केंद्र में रखा गया है।

आदिवासी साहित्य में भी प्रकृति से अभिन्नता और रागात्मक संबंध शामिल है। आदिवासी स्त्रियाँ प्रकृति के साहचर्य में ही अपने जीवन की कल्पना करती नज़र आती हैं। इसलिए उनके द्वारा लिखित साहित्य में भी प्रकृति राग गहरे अनुभूत किया जाता है। एक कविता में यह द्रष्टव्य है जिसमें एक आदिवासी लड़की अपने बाबा से कहती है कि मुझे इतनी दूर न ब्याहना जहां जंगल, नदियां और पहाड़ न हो। मुझे इतनी पास ब्याहना जहां तुम नदी तैरकर मुझसे मिलने आ सको और तुम्हें अपनी बकरियां न बेचनी पड़े। उस व्यक्ति से ब्याहना जो प्रेम करता हो इस जंगल, नदी और पहाड़ से –

"बाबा!
मुझे उतनी दूर मत ब्याहना
जहाँ मुझसे मिलने जाने ख़ातिर
घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हें
…………………………
जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ
वहाँ मत कर आना मेरा लगन... "[11]

अतः यह स्पष्ट है कि भारतीय साहित्य में पारिस्थितिक स्त्रीवाद वैचारिक रूप से विद्यमान है। पारिस्थितिक स्त्रीवाद में अंतर्निहित समस्त चेतना और प्रतिरोध की आवाज़ बहुत पहले से ही भारतीय साहित्य का अभिन्न हिस्सा रही है।

पारिस्थितिक स्त्रीवाद की चेतना और भारतीय पर्यावरण आंदोलन -

भारतीय परंपरा में प्रकृति को अचर नहीं अपितु चर माना गया है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त कोई भी वस्तु जीवन-विहीन नहीं मानी जाती है। यद्यपि भारतीय परंपरा में स्त्री और प्रकृति को प्रत्येक रूप में संरक्षित और पूजनीय कहा गया है। बावजूद मौजूदा दौर में स्त्री और प्रकृति का सबसे अधिक शोषण हो रहा है। हालाँकि इस शोषण के खिलाफ़ प्राकृतिक आपदाओं के रूप में प्रकृति के विरोध को दर्ज किया जा सकता है तथापि विध्वंस की यह प्रक्रिया प्रकृति और मनुष्य दोनों को ही हानि पहुंचाते हैं। स्त्रियों की चेतना कहीं न कहीं इन सूत्रों को पहचानती है। इसलिए वह अपने स्वत्व की लड़ाई के साथ ही प्रकृति को बचाने हेतु अनवरत पर्यावरणीय आंदोलनों में सहभागिता कर रही हैं।

पर्यावरण आंदोलनों की इस प्रक्रिया में सर्वप्रथम खेजड़ली आंदोलन का नाम महत्वपूर्ण है। यह आंदोलन ऐसे समय में होता है जब पर्यावरण संकट पर ऐसी चर्चा और परिचर्चा नहीं चल रही थी। स्त्रियाँ, प्रकृति के साथ जिस घनिष्ठ, स्नेहिल और आत्मिक अनुभूति को जी रही थीं, उस पर किसी प्रकार के होने वाले प्रहार को भला कैसे अनदेखा कर सकती थीं। यह आंदोलन सन् 1730 में होता है। खेजड़ली नाम जोधपुर के एक गाँव का नाम था। इस गाँव में प्रकृति प्रेमी बिश्नोई समाज रहता था। इसी समाज की प्रकृति प्रेमी महिला अमृता देवी थीं। जोधपुर के राजा अभयसिंह जब खेजड़ली के पेड़ों को काटकर लकड़ी लाने का आदेश देते हैं तब पेड़ काटने वाले मजदूरों से अकेले ही अमृता देवी लड़ जाती हैं। वह कहती हैं कि यह मात्र पेड़ नहीं अपितु मेरे भाई समान हैं। बावजूद मजदूर जब उनकी बात नहीं मानते हैं तो वह उन पेड़ों से चिपक जाती हैं। वह उद्घोषणा करती हुई कहतीं हैं – “सर साटे रूख रहे तो भी सस्तो जाण” अर्थात् इन पेड़ों को बचाने के लिए यदि हमें अपनी जान भी देनी पड़े तो इससे भी कोई गुरेज़ नहीं है। हालाँकि पेड़ों से चिपकी हुई अमृता देवी पर प्रहार किया जाता है जिससे उनकी मृत्यु हो जाती है। तत्पश्चात यह विरोध आंदोलन का रूप ले लेता है। इस मुहिम में लगभग 400 लोगों को मार दिया जाता है। तब से इसे पर्यावरण आंदोलन के संदर्भ में भारत में घटित अविस्मरणीय घटना के रूप में जाना जाता है। इस पूरी प्रक्रिया ने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के खिलाफ़ आवाज़ उठाने की पहल को नींव प्रदान की। संभवतः यह पर्यावरण आंदोलन से जुड़ी अपनी तरह की पहली घटना भी थी।

इस क्रम में एक लंबे समय के बाद सन् 1974 में चिपको आंदोलन की शुरूआत होती है। हालाँकि इस दौर में पर्यावरण संकट पूरे विश्व में चिंतन का विषय बन चुका था। अतः इस आंदोलन की महत्ता कई गुना बढ़ जाती है। ध्यान देने की बात है कि इस आंदोलन की नींव पुनः एक महिला द्वारा रखी जाती है। उत्तराखंड के चमोली जिले की रेणी नामक गाँव की रहने वाली ‘गौरा देवी’ इसका नेतृत्व करती हैं। गौरा देवी के विषय में प्रसिद्ध इतिहासकार रामचन्द्र गुहा लिखते हैं – “गौरा एक महिला थी, एक विधवा और निरक्षर। परंपरागत संदर्भों में उन्हें तिहरी असुविधाएं भुगतनी थी, और तब वे गढ़वाली, भारतीय और विश्व पर्यावरणवाद तक की एक सच्ची अग्रदूत थीं...क्योंकि गौरा देवी चिपकों में शामिल होने वाली महिलाओं के पहले समूह की नेता थीं, जो कि खुद ही पश्चिमी दुनिया के बाहर होने वाला पहला पर्यावरणवादी आंदोलन था।”[12] इस आंदोलन में पूँजीवादी शक्तियों की भूमिका प्रत्यक्ष रूप से देखी जा सकती है। वहाँ की निवासी स्त्रियाँ यह जानती हैं कि पेड़ो की कटाई बाढ़ लाने के साथ ही रोजमर्रा के जीवन को और भी कठिन बना देंगी। अतः वे संगठित होकर गौरा देवी के नेतृत्व में पेड़ों को बचाने की मुहिम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती हैं। गौरा देवी उन ठेकेदारों को रोकती हुई कहती हैं – “भाइयों, यह जंगल हमारे मायके की तरह है। हम इनसे जड़ी-बूटी, फल और सब्जियां हासिल करती हैं, जंगल काटने से बाढ़ आयेगी। हमारे खेत बह जायेंगे।”[13] प्रकृति स्त्रियों के जीवन में संबंधों की एक नयी परिभाषा के साथ उपस्थित होती है। गौरा देवी की यह दूरदर्शिता पारिस्थिक स्त्रीवाद की चेतना को सार्थकता प्रदान करती है। अमृता देवी की तरह यह भी ठेकेदारों से कहती हैं कि ‘पहले हमें गोली मारो, फिर काट लो हमारा मायका।’ तदोपरांत वह पेड़ों से चिपक जाती हैं। अंततः इस मुहिम में शामिल स्त्रियाँ ठेकेदारों को जंगल काटने से रोक पाने में सफल होती हैं। आंदोलनों के इसी कड़ी में वानिकी आंदोलन भी प्रमुख है। यह आंदोलन अल्मोड़ा में ‘पावर मिल’ लगाने के लिए लगातार किये जा रहे खड़िया मिट्टी की कटाई के विरोध में प्रकट होता है। दरअसल, खदानों से निकली धूल वहां के खेतों की उर्वरता को खत्म कर देती है। वहां खेतों की जुताई भी मुश्किल से हो पाती है। ऐसे में स्त्रियाँ पुनः सामने आती हैं। वह कहती हैं – “उनकी खुदाई हमारी जिन्दगी तबाह कर रही है, हमारे बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ कर रही है, हम उसे कैसे खुदाई करने दें?”[14] इस आंदोलन में भी स्त्रियों का संगठन सफल होता है। इसी कड़ी में ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ विकासवादी नीतियों में शामिल नर्मदा नदी पर बांध बनाये जाने के विरोध में खड़ा होता है। इसकी पुरोधा मेधा पाटकर होती हैं। वह विकासवादी मॉडल तथा सत्ता के खिलाफ़ अपने आंदोलन को मजबूती देती हैं। वह विस्थापित होने वाले आदिवासियों के अधिकारों के प्रति पूरी सचेतता बरतती हैं। वह विस्थापित समुदाय की आवाज़ बनती हैं। वह कहती हैं – “नर्मदा घाटी के लोग सभी विस्थापन पीड़ितों के साथ जीवन के लिए आखिरी हद तक लड़ेंगे। हम उस बर्बर खेल को बेनकाब करेंगे जो पूरे देश में विस्थापितों की कीमत पर खेला जाता रहा है।”[15]

साइलेंट-वैली या शांत घाटी आंदोलन की शुरुआत केरल राज्य में सन् 1770 और 1980 के बीच शुरू होता है। दरअसल यह आन्दोलन कुंतीपुझा नदी पर जल विद्युत परियोजना के विरोध में साकार होता है। जिससे 8.3 वर्ग किलोमीटर[16] का अछूता नम सदाबहार वन जलमग्न हो जायेगा। इसी आन्दोलन में कवयित्री और कार्यकर्ता सुगथाकुमारी बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। उसी दौरान इनके द्वारा लिखित कविता ‘मराथिनु स्तुति’ (एक पेड़ के लिए स्तुति) इस पूरे आन्दोलन का उद्बोधन गीत बन गया। आन्दोलनकारियों को एक नयी ऊर्जा से स्फुरित करती यह कविता, उनकी लंबी लड़ाई का हिस्सा बन जाती है। 1985 में इस आन्दोलन की सफलता को इस रूप में रेखांकित किया जा सकता है कि साइलेंट वैली को साइलेंट वैली पार्क का दर्जा दिया गया।

इसी चेतना को आज की युवा पीढ़ी अपने सचेत वैचारिकी और संवेदनाओं के साथ आगे बढ़ा रही है। उनके पास अपने पर्यावरण को बचाने हेतु आन्दोलन करने के पर्याप्त कारण हैं। मणिपुर की रहने वाली लिसिप्रिया कंगुजम मात्र 6 वर्ष (वर्तमान में 13 वर्ष) की उम्र में पर्यावरण संकट को न केवल समझती हैं बल्कि उसके संरक्षण हेतु आन्दोलन भी करती हैं । लिसिप्रिया जिस क्षेत्र में रहती हैं वहां प्राकृतिक आपदाएं समय-समय पर आती रहती हैं। जिसका प्रभाव बच्चों के जीवन पर भी पड़ता है। वह अपने आस पास बच्चों की यह स्थिति देखती हैं। जिससे प्रभावित होकर और पर्यावरण को बचाने की मुहिम लेकर चल पड़ती हैं। बीबीसी से बातचीत के दौरान इसका जिक्र भी करती हुई बताती हैं कि “जब मैं देखती हूँ कि बच्चे आपदाओं के कारण अपने माता-पिता को खो देते हैं या बेघर हो जाते हैं तो मुझे रोना आता है।”[17] इससे यह ज्ञात होता है कि पर्यावरण संकट की गंभीरता को यह नयी पीढ़ी भी गहरे अनुभूत कर पा रही है। साथ ही पूंजीवादी नीतियों के खोखले विकास के नारों में अनगिनत बच्चों को सुन्दर बचपन की तमाम संभावनाओं से दूर कर दिया जा रहा है| पारिस्थितिक स्त्रीवाद द्वारा शोषित हो रहे समुदाय जिसमें कि बच्चे भी शामिल हैं, उनकी मुक्ति को भी अपने चिंतन का हिस्सा बनाया जाता है| इन संदर्भों के अतिरिक्त भी पर्यावरणीय चेतना बहुत से आंदोलनों में दृष्टिगत होती है। जिनमें अप्पिको आंदोलन, जंगल बचाओ आंदोलन, वन्दना शिवा के नेतृत्व में चलाया गया नवदान्या आंदोलन, मैती आंदोलन, मुंबई में ‘आरे बचाओ आन्दोलन’ आदि उल्लेखनीय हैं।

निष्कर्ष : इस तरह हम देख सकते हैं कि पारिस्थितिक स्त्रीवाद का उद्देश्य स्त्री और प्रकृति के बीच अंतर्संबंध को व्याख्यायित करना है। जैसा कि उपर्युक्त में वर्णित किया जा चुका है, स्त्री और प्रकृति के संबंध पौराणिक, ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक रूपों में पाए जाते रहें हैं। अतः स्पष्ट है कि प्रकृति और स्त्री के बीच आन्तरिक बंधन की मान्यता बहुत पहले से ही मौजूद है। हालाँकि पारिस्थितिक स्त्रीवाद की महत्ता इसलिए बढ़ जाती है कि उसमें एक नये आयाम- जिसमें वर्चस्व और पदानुक्रम- को भी शामिल किया गया है। इसी क्रम में पारिस्थितिक स्त्रीवाद अपने विकास क्रम में प्रकृति के विनाश तथा पितृसत्ता द्वारा स्त्रियों के शोषण एवं वर्चस्व के बीच घनिष्ठ संबंध को उद्घाटित करता है। उनका मानना है कि इस अपूर्ण विकास की प्रक्रिया में महिलाओं और पर्यावरण का वस्तुकरण कर उनका अवमूल्यन किया जा रहा है साथ ही हाशिये के समाज, किसान, आदिवासी और तीसरी दुनिया के लोग भी इसके शिकार हो रहे हैं। जबकि पारिस्थितिक स्त्रीवाद स्त्री और प्रकृति के बीच की इस साझेदारी के द्वारा एक सकारात्मक स्थिरता को सुनिश्चित करता है, जो अनवरत उन समस्त शोषित वर्ग की मुक्ति के लिए पितृसत्तात्मक पूँजीवादी व्यवस्था को चुनौती दे रहा है।

संदर्भ :
[1] रामनारायण तिवारी, (संकलनकर्ता एवं संपादक), भोजपुरी श्रम लोकगीतों में जँतसार, प्रतिश्रुति प्रकाशन, कोलकाता, 2013, पृष्ठ संख्या-111
[2] कृष्ण देव उपाध्याय, (संकलनकर्ता एवं संपादक), भोजपुरी लोकगीत भाग-1, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयागराज, 2009, पृष्ठ संख्या -207
[4] “यत् ते मध्यं पृथिवि यच्च नभ्यं, यास्त ऊर्जस्तन्व: संबभूवु:।
तासु नो धेह्यभि न: पवस्व माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:।” (श्लोक 12)
पं. रामस्वरुपशर्मा गौडः, (व्याख्याकार), अथर्ववेदसंहिता, भाग-2, कांड-12, भूमि सूक्त, चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी, 1997, पृष्ठ संख्या – 13
[5] “विश्वस्वं मातरमोषधीनां ध्रुवां भूमिं प्रिथवीं धर्मणा धृताम्।
शिवां स्योनामनु चरेम विश्वह्य।।” (श्लोक 17)
वही, पृष्ठ संख्या – 16
[6] “यत् ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपिरोहतु।
मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पिपम्।।” (श्लोक 35)
वही, पृष्ठ संख्या – 25
[7] “उपोप मे परा मृश मा मे दभ्राणि मन्यथाः।
सर्वाहमस्मि रोमशा गन्धारीणामिवाविका।”
कम्बोज, डा. जियालाल, ऋग्वेदसंहिता, प्रथम मंडल, सूक्त-126, श्लोक 7, विद्यानिधि प्रकाशन, दिल्ली, 2004, पृष्ठ संख्या – 374
[8] “उद्गलितदर्भकवला मृगाः परित्यक्तनर्तना मयूराः।
अपसृतपाण्डुपत्रा मुञ्चन्त्यश्रूणीव लताः।।”
कपिलदेव द्विवेदी, (प्रणेता), अभिज्ञानशाकुन्तलम् (कालिदास), प्रयाग पुस्तक भवन, इलाहबाद, 2014, पृष्ठ संख्या – 217-218
[9] आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, (संपादक), पद्मावत, भारतीय ज्ञानपीठ, 2016, पृष्ठ संख्या – 127
[10] महादेवी वर्मा, मेरा परिवार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद, 2008, पृष्ठ संख्या – 47
[11] निर्मला पुतुल, नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, संस्करण,2012, पृष्ठ संख्या-76
[12] रामचन्द्र गुहा, उपभोग की लक्ष्मण रेखा (अनुवाद: रुबीना सैफी), पेंगुइन बुक्स इण्डिया, हरियाणा, 2013, पृष्ठ संख्या – 66
[13] वही, पृष्ठ संख्या – 66
[14] राधा कुमार, स्त्री संघर्ष का इतिहास, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019, पृष्ठ संख्या – 359
[15] अरुण कुमार त्रिपाठी, मेधा पटकर, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, 2011, पृष्ठ संख्या – 21
[17] "I cry when I see children lose their parents or become homeless due to the dangers of disasters" https://www.bbc.com/news/world-asia-india-51399721

पूजा यादव,
पोस्ट डॉक्टोरल फेलो, (आई. सी. एस. एस. आर., नई दिल्ली), हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी
py014886@gmail.com8400262908

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  विजय मीरचंदानी

  


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