जापानी साहित्य और भारतीय दर्शन: तोकोकु के लेखन में अद्वैत चेतना
- अर्पिता पॉल
शोध सार : सन् 1894 के अप्रैल महीने में, ‘मिन्यूशा’ द्वारा प्रकाशित ‘जूनी बुंगो’ (बारह साहित्यकार) श्रृंखला के छठे खंड में कितामुरा तोकोकु द्वारा राल्फ वाल्डो एमर्सन (1803-1882) की एक आलोचनात्मक जीवनी प्रस्तुत की गई। यह जीवनी जापान में एमर्सन पर चर्चा करने वाला पहला कार्य माना जाता है। सन् 1890 में प्रकाशित सातो शिगेनोरी के ‘सिविलाइज़ेशन’ के अनुवाद के साथ, ‘जूनी बुंगोसी’ ने जापान में एमर्सन के विचारों को परिचित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उल्लेखनीय बात यह है कि कितामुरा तोकोकु (1868-1894) का एमर्सन के विचारों के प्रति दृष्टिकोण, पहले के सतही अनुमोदनों से कहीं आगे बढ़ा हुआ था।
तोकोकु का एमर्सन से प्रारंभिक परिचय न्यू इंग्लैंड की रोमांटिसिज़्म के अध्ययन के माध्यम से हुआ था। उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक ‘अदृश्य’ और आदर्शवादी संसार का निर्माण किया, जिसने उन्हें पश्चिमी रोमांटिसिज़्म को जापानी साहित्य में आत्मसात करने की क्षमता प्रदान की। सन् 1893 में ‘बुंगाकुकाई’ (साहित्यिक संसार) के मई अंक में प्रकाशित ‘थ्योरी ऑफ इनर लाइफ’ (आंतरिक जीवन का सिद्धांत) में तोकोकु व्यक्त करते हैं कि “इंस्पिरेशन (प्रेरणा) का अर्थ है कि यह केवल ब्रह्मांडीय आत्मा, अर्थात् ईश्वर, से मानव आत्मा, या आंतरिक जीवन, के प्रति एक प्रकार की संवेदनशील प्रतिक्रिया है। ... यह संवेदनशील प्रतिक्रिया मानव के आंतरिक जीवन को पुनः निर्मित करती है। यह प्रतिक्रिया मानव के आंतरिक अनुभवों और आत्म-जागरूकता को भी पुनः निर्मित करती है।”1कितामुरा तोकोकु के इसदार्शनिक दृष्टिकोण में एमर्सन के ट्रांसेंडेंटलिज़्म और अद्वैत वेदांत के विचारों का गहन प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। एमर्सन ने अपने लेखन में ‘ओवर-सोल’ की अवधारणा प्रस्तुत की, जो आत्मा और ब्रह्मांड की एकता को दर्शाती है। यह विचार अद्वैत वेदांत के ‘आत्मा’ और ‘ब्रह्म’ के सिद्धांत के समान है, जिसमें सभी प्राणियों और ब्रह्मांड की अद्वितीय एकता का बोध होता है। तोकोकु ने ओवर-सोल, एक एमर्सनियन इकाई, के साथ अपने साक्षात्कार के माध्यम से मानव और ईश्वर के बीच की एकता का अन्वेषण किया।एमर्सन के आदर्शवाद (Idealism), रहस्यमय अनुभवों(MysticalExperiences), विकासवादी दर्शन (EvolutionaryPhilosophy) और नैतिक पूर्णतावाद (MoralPerfectionism) ने उनकी आध्यात्मिकता और नैतिक दर्शन को रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
एमर्सन के लेखन, जैसे नेचर(1836), द ओवर-सोल (1841)और सेल्फ-रिलायंस(1841) में भारतीय उपनिषदों और वेदांत दर्शन की गूंज स्पष्ट रूप से सुनाई देती है। एमर्सन ने आत्मा और ब्रह्म के अद्वैत संबंध को एक सार्वभौमिक सत्य के रू़प में प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि ओवर-सोलवह सार्वभौमिक आत्मा है, जिसमें हर प्राणी और ब्रह्मांड की सारी विविधताएँ विलीन होती हैं।
इस अध्ययन का उद्देश्य कितामुरा तोकोकु और एमर्सन के विचारों के बीच वैचारिक और दार्शनिक संबंधों का विश्लेषण करना है। यह शोध पत्र इस बात पर केंद्रित है कि तोकोकु ने एमर्सन के ट्रांसेंडेंटलिज़्म, ओवर-सोलऔर अद्वैत वेदांत की अवधारणाओं को कैसे आत्मसात किया और उन्हें जापानी साहित्य एवं दर्शन के संदर्भ में ढाला।
बीज-शब्द: मेइजीपुनर्स्थापन, जूनी बुंगो, ट्रांसेंडेंटलिज़्म, ओवर-सोल, रोमांटिसिज़्म,अद्वैत, र्योचि, वैदिक दर्शन, प्रतीभासिक, परमार्थिक।
मूल आलेख :
मेइजी युग में सांस्कृतिक आदान-प्रदान: जापानी बुद्धिजीवियों पर एमर्सन के विचारों का प्रभाव
मेइजी पुनर्स्थापन (1868) वह समय था जब पूर्व और पश्चिम की विचारधाराएँ एक-दूसरे के साथ संवाद कर रही थीं। इस युग में जापान ने अपनी परंपरागत सांस्कृतिक सीमाओं को पार करते हुए वैश्विक विचारधाराओं को आत्मसात करने का प्रयास किया। विदेशी सांस्कृतिक विचारों के प्रवेश के साथ, एमर्सन जैसे विचारक, जो अमेरिकी संस्कृति के प्रमुख प्रतिनिधि थे, जापानी बुद्धिजीवियों को प्रेरित करने लगे। कई प्रमुख ईसाई विद्वानों और विचारकों, जैसे नाकामुरा मसानाओ, कांदा नोबु, और तोकुतोमी सोहो ने एमर्सन के विचारों को आत्मसात किया।
तोकोकु द्वारा एमर्सन के गहन अध्ययन के दौरान लिखे गए निबंधों में दर्शनशास्त्रीय सूत्रों को उजागर करना वाकई में दिलचस्प है। सन् 1872 में, बोस्टन के रिवर्स हाउस में इवाकुरा तोमोमी के नेतृत्व के अंतर्गत जापानी राजनयिक मिशन के स्वागत भोज का आयोजन किया गया। उस समय एमर्सन और कवि ऑलिवर वेंडेल होम्स को आमंत्रित किया गया। एमर्सन ने ‘जापान और बुशीदो’पर एक व्याख्यान दिया। यद्यपि एमर्सन को पूर्वी सभ्यता में गहरी रुचि थी, कहा जा सकता है कि जापान के बारे में उनकी जानकारी सीमित थी।उस शाम भोज के दौरान एमर्सन ने अपने भाषण मेंकहा, "जापान हमारे लिए रोमांस से भरा हुआ है।"[i](Kenz, 2004)
जब कुछ प्रमुख ईसाई विद्वानों ने एमर्सन के विचारों को आत्मसात करने का प्रयास किया, तब ‘सेइयो हिन्को रोन’(पश्चिमी नैतिकता) के लेखक नाकामुरा मसानाओ (1832-1891),जो एमर्सन के मानवतावाद के कट्टर प्रशंसक थे, उन्होंने एमर्सन के लेखों के अंश अक्सर पढ़े और अपने छात्रों को मार्गदर्शन के रूप में सुझाए। मसाकाज़ु तोयामा (1848-1900) (जो एमर्सन के पुनर्मुद्रण संस्करण के संपादक थे), कांदा नोबु (1857-1923) (जिन्होंने अमहर्स्ट में एमर्सन के व्याख्यान सुने और जापान लौटने पर उनके बारे में व्याख्यान दिए), उएमुरा मसाहिसा (1858-1925), और टोकुतोमी सोहो (1863-1957) जैसे बुद्धिजीवियों को एमर्सन के प्रति विशेष लगाव था।2(Jugaku,1947)
व्यक्तिगत आत्म-सुधार के प्रमुख समर्थक के रूप में एमर्सन को देखने के बजाय, उन्हें एक ऐसे 'सभ्यता समर्थक'के रूप में अधिक सटीक रूप से चित्रित किया जा सकता है, जिन्होंने एक ऐसे राष्ट्र को प्रेरित किया, जो हाल ही में अलगाववादी नीतियों (isolationist policies) से उभरा था और समाज के सभी पहलुओं में विविध विदेशी संस्कृतियों को आत्मसात कर रहा था।
एमर्सन की अद्वैतवादी दृष्टि: पश्चिमी और भारतीय विचारधाराओं का संगम
हार्वर्ड डिविनिटी स्कूल जैसी संस्थाओं में अध्ययन करने के बाद, एमर्सन यूनिटेरियन चर्च के मंत्री बने। हालांकि, अपनी दार्शनिक प्रवृत्तियों के साथ बढ़ती असंगति और चर्च की औपचारिक रीति-रिवाजों से असंतोष के कारण, उन्होंने 1832 में मंत्रीपद छोड़ दिया। इसके बाद, अपने व्याख्यानों और लेखन के माध्यम से, वे अमेरिकी ट्रांससेंडेंटलिज्म के केंद्रीय व्यक्ति के रूप में उभरे।
एमरसन का पहला प्रमुख कार्य, नेचर (प्रकृति, 1836), उनके मूल विचारों का महत्वपूर्ण आधार है। विशेष रूप से, यह विविधता में एकता की अवधारणा को प्रमुखता से उजागर करता है, जिसे पूरे पाठ में व्यापक रूप से समझा जाता है। “यह एकताका विचार हमारी धारणा में समाहित है, जो हमारे अनुभव के विभिन्न पहलुओं में प्रकट होता है।... सच में, यह “एकता” का विचार अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह प्राकृतिक दुनिया की आपसी जुड़ाव और अंतर्निहित सामंजस्य को रेखांकित करता है, साथ ही व्यक्तिगत अनुभवों और व्यापक ब्रह्मांडीय व्यवस्था के बीच के अंतर्संबंध को भी।”[ii]
प्रकृति की विविधता में समाहित 'एकता'को समझने का विचार एमरसन के दर्शन का केन्द्रीय तत्व है। वे इस 'एकता'को “सार्वभौमिक आत्मा”, “सर्वोच्च अस्तित्व”, “ओवरसोल”, और अपने बाद के कार्यों में “ईश्वर” के रूप में संदर्भित करते हैं।
यह दृष्टिकोण वेदों के महावाक्य "आयमात्मा-ब्रह्मा" (यह आत्मा ही ब्रह्म है) से जुड़ता है, जो भारतीय दार्शनिक परंपरा में आत्मा और ब्रह्म की अद्वैतता (non-duality) को दर्शाता है। इसके अनुसार, समस्त ब्रह्मांड एक ही मूलभूत तत्व या शक्ति से उत्पन्न हुआ है और उसी में समाहित रहता है।इस विचार का सार यह है कि आत्मा (व्यक्तिगत अस्तित्व) और ब्रह्म (सार्वभौमिक सत्य) के बीच कोई भेद नहीं है। दोनों एक ही मूल तत्व का भिन्न-भिन्न रूप हैं। एमरसन का यह दर्शन प्राकृतिक और दार्शनिक सत्य के बीच के संबंध को समझने और आत्मा की सार्वभौमिकता को अनुभव करने की प्रेरणा देता है।
एमर्सन एक धार्मिक सुधारक थे जिन्होंने धार्मिक संस्थाओं के अधिकार को अस्वीकार किया, धर्मग्रंथों और सभी धार्मिक अंधविश्वासों की निंदा की। उन्होंने दृढ़ता से यह पक्ष लिया कि केवल अंतःकरण (व्यक्ति की आंतरिक आवाज) के माध्यम से ही व्यक्ति अंतिम सत्य को समझ सकता है। उनके अनुसार, जो व्यक्ति अपनी अंतर्निहित दिव्य प्रवृत्ति को समझता है, वही ब्रह्मांड की प्रकृति, मनुष्य के साथ उसका संबंध और अंतिम सत्य की प्रकृति को समझ सकता है। एमर्सन के दार्शनिक विचार वेदांतिक आदर्शवाद और रहस्यवाद की आवाज़ों के समान हैं। उनके दार्शनिक सिद्धांत जैसे ‘ओवर-सोल,’(1841)‘कम्पेन्सेशन’ (1841) का सिद्धांत और मनुष्य की दिव्यता वेदांतिक सिद्धांतों जैसे ब्रह्मा, कर्म आदि से मेल खाते हैं। एमर्सन के दर्शन और अद्वैत वेदांत के बीच समानता एक सार्वभौमिक सत्य है।
हालांकि एमर्सन का वैदिक साहित्य से परिचय 1850 के दशक में हुआ, लेकिन भारतीय दर्शन में उनकी रुचि और ज्ञान का बीजारोपण उनके बचपन में ही हो गया था। उनकी चाची, मैरी मूडी एमरसन (1774-1863), उन्हें भगवद्गीता के श्लोक सुनाया करती थीं। दर्शन (vision) और ज्ञान (knowledge) की व्यापक खोज को समर्पित अपने जीवन को देखते हुए, एमर्सन ने स्वीकार किया, “बौद्धिक इतिहास में हिंदू धर्मशास्त्र से बढ़कर कुछ नहीं है, जो सिखाता है कि परम आनंद या सर्वोच्च कल्याण विज्ञान के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। अर्थात, वास्तविक और अवास्तविक को समझकर, भावनाओं, व्यक्तियों और कार्यों को माया या भ्रम के रूप में अलग करके।”[iii]
एमर्सन की वैदिक दर्शन में गहन रुचि उनके लघु कविता “ब्रह्मा” में प्रकट होती है, जो “अटलांटिक मंथली” (नवंबर 1857) में प्रकाशित हुई थी। इस कविता के माध्यम से वे अद्वैत वेदांत की माया और ब्रह्म की अवधारणा को व्यक्त करते हैं:
I am the doubter and the doubt, and I am the hymn the Brahmin sings”[iv]- (एमरसन, ‘ब्रह्मा’, 1856)
यह कविता एमर्सन के वैदिक रहस्योद्घाटन और भारतीय दर्शन में उनकी गहरी अंतर्दृष्टि का प्रमाण है।अद्वैत वेदांत के संदर्भ मेंपंक्तियों का अर्थयह बताता है कि जो व्यक्ति ब्रह्म (आत्मा का सत्य) को पहचानने में असफल होता है, वह भटकाव में रहता है। ब्रह्म ही वह शक्ति है जो संशय उत्पन्न करता है, और वह स्वयं संशय का भी आधार है।
“ओवर-सोल” (1841) में, उनका विचार और विस्तारित होता है, जहाँ उन्होंने लिखा, “इस बीच, मनुष्य के भीतर सम्पूर्ण का आत्मा है; वह विवेकशील मौन है; सार्वभौमिक सुंदरता, जिसके साथ प्रत्येक भाग और कण समान रूप से संबंधित है; शाश्वत एक।”[v](Brooks,
1940)
एमर्सन का निबंध “द ओवर-सोल”,जो पहली बार 1841 में प्रकाशित हुआ था, मानव आत्मा को केंद्र में रखकर लिखा गया है। इस निबंध में पूर्वी धर्मों, विशेष रूप से वेदांत दर्शन का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। “द ओवर-सोल”निबंध निम्नलिखित उद्धरण को सम्मिलित करता है: “भूतकाल और वर्तमान की गलतियों का सर्वोच्च आलोचक, और भविष्य के सत्य का एकमात्र भविष्यवक्ता, वह महान प्रकृति है जिसमें हम विश्राम करते हैं, जैसे पृथ्वी वातावरण की कोमल बाहों में रहती है। यह वही एकता है, वही “ओवर-सोल,”जिसमें हर व्यक्ति का अस्तित्व समाहित है और सभी के साथ एक हो जाता है; वही साझा हृदय।”
एमर्सन के लिए यह शब्द ‘ओवर-सोल’एक सर्वोच्च अंतर्निहित एकता को दर्शाता है, जो द्वैत या बहुलता से परे है, और यह दृष्टिकोण अद्वैत वेदांत के दर्शन के साथ गहराई से मेल खाता है। 1845 में एमर्सन की डायरी में उल्लेख मिलता है कि वे “भगवद्गीता” और हेनरी थॉमस कोलब्रूक के “वेदों पर निबंध” पढ़ रहे थे।[vi](Pradhan, 1996)‘ओवर-सोल’ निबंध में एमर्सन इस भौतिक बहुलता और पारलौकिक एकता के बीच के विरोधाभास को और स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हैं:“हम क्रम में, विभाजन में, टुकड़ों और कणों में जीते हैं। लेकिन इंसान के भीतर उस संपूर्ण आत्मा का वास है; एक “प्रज्ञावान मौन” (wise silence); एक सार्वभौमिक सुंदरता, जिससे हर टुकड़ा और हर कण समान रूप से जुड़ा है—वही शाश्वत एकता। यह गहरी शक्ति, जिसमें हम मौजूद हैं और जिसकी कृपा हम सभी के लिए सुलभ है, न केवल हर समय आत्मनिर्भर और पूर्ण है, बल्कि देखने का कार्य, देखी जाने वाली वस्तु, देखने वाला और दृश्य, सब एक ही हैं। हम दुनिया को टुकड़ों में देखते हैं—जैसे सूरज, चाँद, जानवर और पेड़; लेकिन यह पूरा, जिसका ये सभी चमकते हुए भाग हैं, आत्मा है।”[vii]
इसी प्रकार, एमर्सन "ओवर-सोल" को "प्रज्ञावान मौन" (wise silence) के रूप में वर्णित करते हैं, जो आत्मा की मौलिक शुद्धता और दिव्यता को इंगित करता है। ट्रांसेंडेंटलिज़्म यह सिद्धांत प्रस्तुत करता है कि जो व्यक्ति ईश्वर को बाहरी संसार में खोजता है, वह कभी उसे नहीं पाता, लेकिन जो अपनी अंतर्निहित दिव्य आवाज़ के निर्देशों का पालन करता है, वह ईश्वर को अपने भीतर अनुभव करता है। इस विचारधारा के अनुसार, प्रत्येक प्राणी "ओवर-सोल" का अभिन्न अंग है और उससे किसी भी प्रकार अलग नहीं है।
उपनिषदों के महावाक्य—"अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ही ब्रह्म हूँ), "तत्त्वमसि" (तू वही है), "अयमात्मा ब्रह्म" (यह आत्मा ही ब्रह्म है), और "प्रज्ञानं ब्रह्म" (ब्रह्म ही चेतना है)—ट्रांसेंडेंटलिज़्म की इसी अवधारणा की पुष्टि करते हैं।
सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत।
अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिल्लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत॥ ३.१४.१ ॥
छांदोग्य उपनिषद मेंदिया गयायह श्लोक अद्वैत वेदांत के एक प्रमुख सिद्धांत को समझाता है और "ब्रह्म" की महत्ता पर बल देता है।
व्याख्या : पूरी सृष्टि ब्रह्म से उत्पन्न हुई है, उसी में स्थित है और अंततः उसी में लीन हो जाती है।
एमर्सन की "ओवर-सोल" की अवधारणा इस दृष्टि से छांदोग्य उपनिषद की इस अवधारणा से मेल खाता है।
तोकोकु का दार्शनिक समन्वय - एमरसन का प्रभाव
कितामुरा तोकोकु के साहित्यिक मूल्य और सामाजिक स्थान की नींव पूर्व और पश्चिम के पेंथिस्टिक (सर्वेश्वरवादी) और रहस्यवादी अस्तित्वमूलक दृष्टिकोणों के समन्वय में निहित है। उनके इस समन्वय ने जापानी साहित्य को एक ऐसा आध्यात्मिक आयाम प्रदान किया, जिसने आधुनिकता के युग में दुनिया के “मोहभंग” के बावजूद अपनी स्थिरता बनाए रखी।
तोकोकु, "स्वतंत्रता और जनाधिकार आंदोलन" से प्रेरित होकर, मानवीय प्रकृति के आधुनिक मुक्ति की गहरी आकांक्षा रखते थे। परिणामस्वरूप, उन्होंने साहसपूर्वक सामंती नैतिकताओं और परंपराओं को चुनौती दी।उनके दर्शन और साहित्य में एमरसन की शिक्षाओं का गहन प्रभाव स्पष्ट है, विशेषकर मानव आत्मा की स्वतंत्रता, एकता, और प्रकृति के साथ गहरे संबंध को लेकर। यह प्रभाव तोकोकु के साहित्यिक कार्यों को एक दार्शनिक गहराई प्रदान करता है, जो न केवल जापानी साहित्य को समृद्ध करता है, बल्कि पूर्व और पश्चिम की विचारधाराओं के बीच एक सांस्कृतिक पुल का निर्माण भी करता है।
तोकोकु ने अपने 30 अगस्त, 1893 की डायरी प्रविष्टि में उल्लेख किया कि वे एमर्सन पर अपने लेख की शुरुआत करने वाले थे।[viii](Brownstein, 1990) हालांकि, एमर्सन के विचारों और लेखन से वे अपने साहित्यिक करियर के आरंभिक दिनों से ही परिचित थे। एमर्सन के निबंध "लव" से प्रेरित उद्धरण तोकोकु के लेख "एंसेई शिक्का तो जोसेई"में देखे जा सकते हैं। इसमें तोकोकु ने लिखा:
"एमर्सनकहते हैं कि चाहे एक दार्शनिक कितना भी उदासीन और शांत हो, प्रेम के प्रचंड आघात से उसकी आत्मा युवा और अपरिपक्व व्यक्ति की तरह बेचैन और भटकने लगती है।"
तोकोकु का "भावनात्मक प्रेम" का वर्णन, तोकुगावा काल (1600-1868 )के यौन-केन्द्रित दृष्टिकोण के विरोध में था। उनके इस निबंध की पहली पंक्ति, "प्रेम जीवन का रहस्य है। पहले प्रेम है, फिर जीवन। यदि प्रेम को मिटा दिया जाए, तो जीवन में क्या रस है?" ने जापानी साहित्य में "रोमांटिक प्रेम" के आधुनिक विमर्श की नींव रखी।
किनोशिता नाओए (1869–1937), एक प्रसिद्ध जापानी ईसाई समाजवादी कार्यकर्ता और लेखक,ने इस निबंध के प्रभाव का उल्लेख करते हुए कहा,"ऐसा लगा मानो हम तोप के गोले से उड़ा दिए गए हों।"तोकोकु के इस आधुनिक दृष्टिकोण ने साहित्य में "रोमांटिक प्रेम" की विचारधारा को एक नई दिशा दी। इस आधुनिकता को देखते हुए, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त जापानी विद्वान,कात्सुमोतो सेइइचिरो ने लिखा:"तोकोकुमेइजी आकाश पर एक उल्कापिंड की तरह प्रकट हुए।"[ix](Ōta, 1989)
एक प्लेटोनिस्ट के रूप में, तोकोकु ने यह समझा था कि पश्चिमी स्वच्छन्दतावाद(Romanticism)
को जापानी साहित्य में आत्मसात करने के लिए 'अदृश्य'[x](invisible) के दृष्टिकोण का होना अनिवार्य था।'अदृश्य'का यह दृष्टिकोण उन विचारों और भावनाओं पर केंद्रित है जो प्रत्यक्ष नहीं होते, लेकिन जो रचनात्मकता और गहराई को प्रेरित करते हैं।तोकोकु का मानना था कि 'अदृश्य'के माध्यम से मनुष्य अपने आंतरिक जीवन और ब्रह्मांडीय चेतना के साथ गहरे संबंध स्थापित कर सकता है। यह दृष्टिकोण साहित्य को केवल भौतिक और सतही घटनाओं तक सीमित नहीं करता, बल्कि उसे मानव आत्मा और ब्रह्मांड के बीच की परस्परता तक ले जाता है।
इसीलिए वह ब्रह्मांड के अदृश्य क्षेत्र की अभिव्यक्ति की तलाश में थे।इसी प्रयास के दौरान उन्होंने रोमांटिक कवि बायरन(1788-1824) की रचनाओं का अध्ययन प्रारंभ किया। तोकोकु की कविता "सोशू नो शि" (1888) (द सॉन्ग ऑफ प्रिजनर)( कैदी का गीत), जो बायरन की "द प्रिजनर ऑफ चिलोन" (1816)से प्रेरित है, और “होरैक्योकु” (माउंट होराई की कथा) (1891)में ‘यथार्थवाद’और 'आदर्शवाद'दोनों के तत्व मिलते हैं।
तोकोकु का बौद्धिक मोड़ उस समय आया जब उन्होंने एमरसन के ट्रांसेंडेंटलिज़्म में गहरे रुचि लेना शुरू किया, जिसमें व्यक्तिगत स्वायत्तता और गरिमा पर बल दिया गया था, जो मन के भीतर पुराने सामाजिक क्रम को नष्ट करने के लिए प्रेरित करता था। तोकोकु की एमरसन के विचारों से जुड़ाव के केंद्रीय बिंदु के रूप में "मन" की खोज थी, जिसे उन्होंने "र्योचि" (ryochi) (सच्चे और ईमानदार)हृदय—के रूप में संदर्भित किया। इसे तोकोकु ने परत दर परत खोजा, ताकि वह ईश्वर के साथ अधिक व्यक्तिगत और सार्वभौमिक संबंध स्थापित कर सकें।
अपने महत्वपूर्ण निबंध "नाईबू सेइमेई रॉन" (1893) में तोकोकु ने एमर्सन के "द ओवर-सोल" (1841) निबंध में वर्णित सार्वभौमिक आत्मा की अवधारणा को पुनः व्याख्यायित करते हुए इसे "ब्रह्मांड में व्याप्त जीवन" के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने इसे भारतीय दर्शन की उस अवधारणा के साथ जोड़ा, जो अस्तित्व की अद्वैत प्रकृति, अर्थात् "आत्मन" और "ब्रह्म" पर बल देती है।"नाईबू सेइमेई रॉन”में तोकोकु लिखते हैं:
“मानव के ‘आंतरिक’ जीवन को देखना उसके विविध रूपों को देखना है। आत्मिक ज्ञान, आत्मिक अनुभव, और अवलोकन का अभिन्नता इसी पर आधारित है। आत्मिक ज्ञान या आत्मिक अनुभव के बिना अवलोकन वास्तविक अवलोकन नहीं हो सकता। यही इसका आधार है।”[xi]
यह विचार एमरसन के प्रभाव को दर्शाता है, विशेष रूप से "नाईबू सेइमेई" (आंतरिक जीवन) के संदर्भ में।परंतु दोनों के बीच "एकता" की अस्तित्ववादी अवधारणा में एक महत्वपूर्ण अंतर है। जहाँ एमरसन के दृष्टिकोण में "प्रकृति" और "आत्मा" की संरचना पर ध्यान दिया जाता है, वहीं तोकोकु के लिए मनुष्य का "नाईबू सेइमेई"(आंतरिक जीवन) ही 'परम'है, और बाकी सब उसके एक प्रकट रूप।
रॉबर्ट गॉर्डन की पुस्तक Emerson and the Light of India- An Intellectual History (2007)यह स्पष्ट करती है कि आदि शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत में माया—भौतिक संसार की भ्रमपूर्ण प्रकृति—की अवधारणा, एमर्सन के उस विश्वास के अनुरूप है जिसमें वे प्रकृति की परिवर्तनकारी शक्ति को ‘ओवर-सोल’ का प्रतिबिंब मानते हैं।तोकोकु के लिए यह दार्शनिक समानता एमर्सन के ट्रांसेंडेंटलिज्म को जापानी और पश्चिमी परंपराओं में निहित अपनी आध्यात्मिक दृष्टि के साथ संयोजित करने का अवसर प्रदान करती है।
सन् 1893 में लिखे गए “इस्सेकीकन” में तोकोकु प्रकृति और ब्रह्मांड के अनुभवों पर गहन चिंतन करते हैं। वे बताते हैं कि आत्मा, जो आरंभ में ब्रह्मांड के वैभव के समक्ष अलग-थलग और नगण्य लगती है, चेतना में परिवर्तन के माध्यम से ब्रह्मांड के साथ अपनी एकता को प्राप्त करती है। यह प्रक्रिया शंकराचार्य की प्रतीभासिक (मिथ्या धारणा) से परमार्थिक (परम सत्य) तक की यात्रा के समान है, जो अंततः “ब्रह्म” की वास्तविकता को उजागर करती है।
इस आध्यात्मिक रूपांतरण को तोकोकु “शिन्की इत्तेन” और “शिन्की म्योहेन” (चेतना में परिवर्तन) के रूप में संदर्भित करते हैं। यह वाक्यांशउनके उल्लेखनीय निबंधों—“इस्सेकीकान”और “शिन्की म्योहेन वो रोन्ज़ु”—में विशेष रूप से प्रकट होता है। यह परिवर्तन सभी चीजों की परस्पर संबंधितता और आत्मा के "ब्रह्म" के साथ ब्रह्मांडीय विशालता में विलय का एक गहन अनुभव प्रदान करता है।
“इस्सेकीकान” कितामुरा तोकोकु द्वारा लिखा गया एक प्रभावशाली निबंध है, जो आधुनिक जापानी साहित्य और दर्शन को एक नई दिशा प्रदान करता है। निबंध का मुख्य केंद्र यह विचार है कि व्यक्ति अपने व्यक्तिगत अस्तित्व और आत्मा की सीमाओं को पार कर ब्रह्मांडीय वास्तविकता से एकाकार हो सकता है।
इस निबंध के पहले भाग में तोकोकु लिखते हैं, "मेरे हृदय का संताप अब तक शांत नहीं हुआ है, और जैसे ही मैं गहरे शरद ऋतु के घास के बीच से गुजरता हूँ, अचानक झींगुरों की चिरपरिचित ध्वनि मेरे कानों में गूंजती है। इसे सुनते ही मेरा हृदय परिवर्तित हो जाता है; इसे पुनः सुनते ही मेरा कष्ट और स्पष्ट हो जाता है। जिसे मैं पहले पीड़ा समझता था, वह वास्तव में पीड़ा थी ही नहीं। देखो, ऐसा प्रतीत होता है मानो शरद ऋतु की विषादपूर्ण भावना को धीरे और शांतिपूर्ण ढंग से शोकित किया जा रहा हो। उसमें दुख जैसा कुछ भी नहीं है। यदि इसे शोक के रूप में देखा जाए, तो यहमेरे मन का हीशोक है। यदि इसे विलाप के रूप में समझा जाए, तोयहमेरे मन का हीविलाप है।जब मन की अवस्था बदल जाती है, तो न वहाँ 'वे'रहते हैं और न ही 'मैं', केवल विशाल आकाश में जलते हुए असंख्य दीप ही शेष रह जाते हैं।"
अंतिम पंक्ति, “जब मन की अवस्था बदल जाती है, तो न वहाँ 'वे'रहते हैं और न ही 'मैं', केवल विशाल आकाश में जलते हुए असंख्य दीप ही शेष रह जाते हैं,"अद्वैत वेदांत के मुख्य सिद्धांतों, विशेषकर ब्रह्म (अंतिम, अनंत वास्तविकता) और आत्मा (व्यक्तिगत आत्म) के संबंध से गहराई से जुड़ा हुआ है।
अद्वैत दर्शन में अंतिम लक्ष्य यह समझना है कि व्यक्तिगत आत्म (आत्मा) सार्वभौमिक चेतना (ब्रह्म) से अलग नहीं है। द्वैत का अनुभव, जिसमें 'मैं'और 'वे,'आत्म और अन्य का भेद होता है, इसे अज्ञान (अविद्या) के कारण उत्पन्न माया (भ्रम) माना जाता है। जब यह अज्ञान समाप्त होता है, तब व्यक्तित्व की सीमाएँ मिट जाती हैं और व्यक्ति अपनी पहचान अनंत वास्तविकता, ब्रह्म, के साथ एक रूप में समझने लगता है।
तोकोकु का यह कथन इसी द्वैत से परे जाने की ओर संकेत करता है। "मनोस्थिति का बदलना" उच्च चेतना के एहसास के रूप में देखा जा सकता है, जो अद्वैत के आत्मज्ञान के सिद्धांत के समान है। "वे" और "मैं" का अभाव अहंकार के अंत और इस तथ्य की पहचान का प्रतीक है कि सभी भेद सतही हैं। "विशाल आकाश के अनगिनत दीपक" सभी प्राणियों की एकता का दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं, जहाँ सभी एक ही अंतिम वास्तविकता की अभिव्यक्ति हैं।
इस प्रकार, तोकोकु की यह काव्यात्मक अभिव्यक्ति अद्वैत वेदांत के उस शिक्षण के समान है, जिसमें यह कहा गया है कि जब व्यक्तिअहंकार और द्वैतवादी सोच से ऊपर उठता है, तो वह संसार को खंडित रूप में नहीं, बल्कि एकीकृत वास्तविकता के रूप में देखता है। यह विचार शंकराचार्य केप्रसिद्ध श्लोक से मेल खाता है, जो उन्होंने विवेकचूडामणि में कहा था:"ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः।"[xii]
अर्थात, "ब्रह्म ही सत्य है, यह संसार मिथ्या है, और जीव ब्रह्म से अलग कुछ नहीं है।"यह श्लोक इस सत्य को प्रकट करता है कि जब व्यक्ति अपने अहंकार को पार कर ब्रह्म के साथ एकता को स्वीकार करता है, तो वह संपूर्ण संसार को एक अखंड और एकीकृत वास्तविकता के रूप में अनुभव करता है।
तोकोकु आगे कहते हैं,“जब मैंने जुड़ी हुई बाहों के साथ नीले आकाश को देखा, तो ऐसा महसूस हुआ जैसे मैंने "स्वयं" को भूलकर स्वतंत्र रूप से तैरते हुए "समय" को फटे हुए कपड़ों की तरह गिरा दिया हो।“इस वाक्य में, तोकोकु का ब्रह्मा की वास्तविकता के प्रति दृष्टिकोण उनके अद्वैतवादी विचारों को दर्शाता है, जिसमें "स्वयं" और "समय" के अद्वितीयता की समाप्ति होती है। तोकोकु के अनुसार, ब्रह्मा का अनुभव तब होता है जब व्यक्ति अपने व्यक्तिगत "स्वयं" (आत्म) की पहचान को पार कर जाता है और उसे ब्रह्मांडीय एकता के साथ जोड़ता है।
यह वाक्य उस आंतरिक परिवर्तन को व्यक्त करता है जब व्यक्ति अपने "स्वयं" से मुक्त होकर एक ऐसी स्थिति में पहुंचता है जहां समय और अस्तित्व की सीमाएँ मिट जाती हैं। जुड़ी हुई बाहों के साथ नीले आकाश को देखना एक प्रकार की ध्यान की स्थिति है, जिसमें व्यक्ति अपने आत्म के भेद को पार कर एक अद्वितीय ब्रह्मा के साथ एकाकार हो जाता है।
"समय" को "फटे हुए कपड़ों" की तरह गिरा देना इस बात का प्रतीक है कि समय की सीमा और भौतिक अस्तित्व का त्याग किया जा चुका है, और व्यक्ति ब्रह्मा के शाश्वत और अनंत रूप में विलीन हो जाता है।
तोकोकु के कथन को शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत में वर्णित प्रतीभासिक (मिथ्या धारणा) से परमार्थिक (परम सत्य) तक की यात्रा के संदर्भ में समझा जा सकता है।प्रतीभासिक अवस्था वह है जहाँ व्यक्ति माया (भ्रम) के कारण "मैं" और "वे" जैसे द्वैतों को वास्तविक मानता है। यह अवस्था अज्ञान (अविद्या) का परिणाम है, जहाँ व्यक्ति भौतिक और मानसिक भेदभाव में फँसा रहता है। यहाँ, व्यक्ति स्वयं को सीमित और अलग अस्तित्व के रूप में देखता है।परमार्थिक अवस्था, इसके विपरीत, उस सत्य को प्रकट करती है जहाँ "ब्रह्म" के अलावा कुछ भी नहीं है। यह वह अवस्था है जहाँ आत्मा (व्यक्तिगत चेतना) और ब्रह्म (सार्वभौमिक चेतना) के बीच की सभी सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं।
तोकोकु के कथन में "जब मनोस्थिति बदलती है" का अर्थ प्रतीभासिक से परमार्थिक की ओर यह यात्रा है। इस यात्रा में, "वे" और "मैं" जैसे भेद समाप्त हो जाते हैं, और व्यक्ति केवल विशाल आकाश (ब्रह्म) के अनगिनत दीपकों (सभी प्राणियों की एकता) को देखता है।यह प्रक्रिया शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन में वर्णित आत्मसाक्षात्कार से मेल खाती है। “प्रतीभासिक” अवस्था में, व्यक्ति संसार को खंडित और भिन्न-भिन्न रूपों में देखता है। परंतु जब व्यक्ति "परमार्थिक" सत्य तक पहुँचता है, तब उसे यह समझ में आता है कि वह स्वयं और समस्त सृष्टि एक ही ब्रह्म की अभिव्यक्ति हैं।
एमरसन और तोकोकु दोनों की अवधारणाएँ "एकता" या "ओवर-सोल" की मूलभूतता पर जोर देती हैं ।तोकोकु निरंतर "आत्मा और ब्रह्म" की एकता की अभिव्यक्तिखोजने के प्रयास में थे, जिसमें एमरसन की भूमिका उनके लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थी।यहइस बात को भी दर्शाता है कि कैसे तोकोकु ने पश्चिमी और पूर्वी विचारधाराओं को समेकित किया और 'आंतरिक जीवन'और 'आध्यात्मिक दृष्टि'के माध्यम से जापानी साहित्य में एक नई दार्शनिक विमर्श की नींव रखी।
भारतीय धर्मग्रंथों में, एमर्सन ने एक आदर्शवादी दर्शन में झलक पाई, जो जॉर्ज बर्कले (1685-1753) के दर्शन से बहुत मिलती-जुलती थी, जिन्होंने प्राचीन भारतीय ऋषियों जैसे व्यास से सहमति व्यक्त की कि ब्रह्मांड एक “प्रकट” (emanation) है, जो दिव्य से उत्पन्न हुआ है, या जैसे विलियम जोन्स (1746-1794) ने “अद्वैत वेदांत” के केंद्रीय सिद्धांत को संक्षेप में प्रस्तुत करते हुए कहा कि भौतिक ब्रह्मांड “हर पल दिव्य शक्ति के माध्यम से समर्थित है” और इसका “कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है” सृष्टि के “स्रष्टा” के मन से, और इसलिए ब्रह्मांड के अस्तित्व की वास्तविक प्रकृति उसकी दिव्य एकता में निहित है।
जब अमेरिकी लोग हिंदू विचारधारा से परिचित हो रहे थे, उसी समय विवेकानंद (1863-1902) और भारत के अन्य हिंदू बौद्धिकों ने पश्चिमी मिशनरियों द्वारा हिंदू धर्म को मिथकात्मक और परलोकवादी कहे जाने पर प्रतिक्रिया देने और इस ईसाई तर्क को खंडित करने की कोशिश की कि मुक्ति केवल मसीह के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती है। इस संघर्ष में, अद्वैत वेदांत का दर्शन हिंदू विचारधारा के प्रमुख प्रणाली के रूप में सामने आया।
जापान के वेदांत सोसायटी में स्वामी विवेकानंद की वार्षिक जयंती स्मृति व्याख्यान के दौरान यह उल्लेख करना कभी नहीं भुलाया जाता कि विवेकानंद ने अपने संक्षिप्त ठहराव के दौरान जापान के लोगों पर गहरी छाप छोड़ी थी। उन्होंने 1893 में अमेरिका में आयोजित विश्व धर्म संसद में भाग लेने के मार्ग में नागासाकी, कोबे, योकोहामा, ओसाका, क्योटो और टोक्यो जैसे जापान के महत्वपूर्ण शहरों का दौरा किया।विवेकानंद का अद्वैत वेदांत का व्याख्यान संप्रदायिक या विशिष्ट नहीं था, क्योंकि यह एक दर्शन था न कि एक विश्वास प्रणाली। उनके चेहरे की बुद्ध से समानता को देखते हुए, कई लोगों ने उन्हें "दूसरे बुद्ध" के रूप में संदर्भित किया।[xiii]
यह यात्रा कितामुरा तोकोकु की मृत्यु से ठीक एक वर्ष पहले हुई थी। यह संभावना व्यक्त की जा सकती है कि तोकोकु ने विवेकानंद के जापान में दिए गए व्याख्यानों को सुना हो। यह एक उल्लेखनीय शोध का क्षेत्र हो सकता है कि क्या तोकोकु विवेकानंद की वेदांत शिक्षाओं में रुचि रखते थे।हालांकि, यह स्पष्ट है कि तोकोकु ने आत्मा और ब्रह्म पर वेदांत के बारे में जो कुछ भी आत्मसात किया, वह एमर्सन के अध्ययन के माध्यम से ही हुआ।
तोकोकु के शोध कार्य "एमरसन"(1893-94)में, वह पूर्वी विचारधारा और एमरसन के दर्शनशास्त्र के बीच संबंध की खोज करते हैं, और एमरसन के इन विविध बौद्धिक परंपराओं के एकत्रीकरण को उजागर करते हैं।तोकोकु लिखते हैं, “पश्चिमी सभ्यता के समृद्ध इतिहास और भविष्य को देखते हुए, शायद उन्होंने महसूस किया कि हमारे देश, संयुक्त राज्य अमेरिका, के दीर्घकालिक भविष्य में कुछ योगदान देने के लिए इस सक्रिय और गतिशील सोच के कुछ तत्वों को अपनाना आवश्यक था। इसे ध्यान में रखते हुए, उन्होंने एशिया की गहराई में विस्तार से अन्वेषण किया, जिसमें उन्होंने फारसी काव्य का अध्ययन किया, मुहम्मद के बारे में पढ़ा, और जर्मनी में उभरते नए रुझानों को अपनाया, ताकि दूर पूर्व की गहरी शांति का अनुभव कर सकें, कन्फ्यूशियस को पढ़ा, और ब्रह्मा के बारे में गाया।”[xiv]
यह तोकोकु की अपनी विश्वदृष्टि को भी दर्शाता है, जो दोनों, पूर्वी और पश्चिमी विचारों को एकीकृत करता है, और उन्हें पारस्परिक रूप से परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि पूरक मानता है।
“कोकुमिन तो शिसो” (1893) (राष्ट्र और विचार) में तोकोकु ने कहा, “विचार का अंतिम रूप एक वृत है। केवल पूर्वी दर्शन पर अत्यधिक ध्यान केंद्रित करना मूर्खता है, और केवल पश्चिमी विचारों में लिप्त होना भी मूर्खता है।“[xv]यह विचार तोकोकु के विभिन्न दार्शनिकताओं के सम्मिलन को व्यक्त करता है, जो संतुलन और एकीकरण को महत्वपूर्ण मानते हैं, जो एमरसन के भी दर्शन से मेल खाता है। तोकोकु के लिए, एमरसन एक ऐसे बौद्धिक और आध्यात्मिक संबंध का मॉडल थे, जो पूर्वी और पश्चिमी परंपराओं के बीच की दीवार को पार कर एक उच्चतर, एकीकृत सत्य की खोज करते थे।
इस प्रकार, तोकोकु के लिए एमरसन से उनका जुड़ाव दो महत्वपूर्ण स्तरों पर था। एक बड़े स्तर पर-राष्ट्रीय एकता और स्वतंत्रता के लिए वैचारिक आधार को समझने के बारे में। मेइजी काल में राष्ट्रीयता की भावना प्रबल थी, और तोकोकु, जो इस काल के उत्पाद थे, जापान की आध्यात्मिक और बौद्धिक मुक्ति के लिए गहरे रूप से चिंतित थे। उन्होंने “जो़गाकू ज़ास्शी”[xvi] और “बुंगक्काई”[xvii] में जो लेखन किया, वह उन्हें एक नए प्रकार के लेखक के रूप में स्थापित करता है, जिन्होंने सभी से ऊपर आध्यात्मिक स्वतंत्रता का समर्थन किया, और जो राजनीतिक और साहित्यिक दृष्टिकोण को एक समग्र रूप में अपनाते थे। एमरसन के विचारों ने तोकोकु को व्यक्तिगत स्वायत्तता और व्यापक मानव संबंध के बारे में जो विचार दिए, वे उन्हें गहरे रूप से प्रभावित करते थे, खासकर जब उन्होंने अपने देश की राजनीतिक और सामाजिक स्वतंत्रता की कल्पना की थी।
और एक छोटे स्तर पर, एमरसन के विचारों पर आधारित “वननेस” (oneness, एकता) ने तोकोकु को एक ऐसी भाषा और अभिव्यक्ति प्रदान की, जो उन्हें अपने स्वयं के दृष्टिकोण को व्यक्त करने के लिए आवश्यक थी, जो आत्मा और ब्रह्मा के बीच संबंध को प्रकट करता था। एमरसन का यह “वननेस” या एकताके विचारने, तोकोकु को ब्रह्म और आत्मा के संबंध में अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए एक ढांचा प्रदानकिया था।
तोकोकु की लेखनी और बौद्धिक खोजें एमरसन के आध्यात्मिक और बौद्धिक स्वतंत्रता के आदर्श से गहरे रूप से प्रभावित थीं, और उनका एमरसन के प्रति दृष्टिकोण पूर्व और पश्चिम के बीच एक पुल के रूप में कार्य करता था, जो उन्हें अपने समय और स्थान की सीमाओं को पार करने की अनुमति देता था।
तोकोकु के प्रमुख शोधकर्ता कात्सुमोटो सेइइचिरो ने अवलोकन किया, “तोकोकु ने पूर्वी ब्रह्मांडीय दृष्टिकोण द्वारा प्रदान की गई शांतिपूर्ण मुक्ति में गहरे उतर गए।“ इसी तरह, प्रोफेसर तोमुइची सासाबुची ने तोकोकु की यात्रा को “सीमित आत्मा से परे एक बड़ी वास्तविकता में विलीन होने का अनुभव और जीवन की जागरूकता” के रूप में व्याख्यायित किया।[xviii]समकालीन शोधकर्ताओं में प्रोफेसर चेन लू (वसैदा विश्वविद्यालय) ने टोकोकु का अध्ययन योमेगाकू दृष्टिकोण से किया है, जबकि डॉ. हो बेकान (त्सुकुबा विश्वविद्यालय) ने टोकोकु पर एमरसन के माध्यम से हिंदू धर्म के प्रभाव की संभावना का उल्लेख किया है।हालांकि, इन शोधों ने तोकोकु के अध्ययन में महत्वपूर्ण आयाम जोड़े हैं, लेकिन तोकोकु के बौद्धिक ढांचे में हिंदू धर्म के तत्वों के शोध के लिए एक गहरे अध्ययन की आवश्यकता बनी हुई है, जो अभी तक एक अपर्याप्त क्षेत्र है।
संदर्भ :
3. The complete works of Ralph Waldo Emerson: The conduct of life [Vol. 6], pp. 426
4. Ibid, pp. 388
5. Brooks Atkinson (ed.), The Selected Writings of Ralph Waldo Emerson, The Modern Library, New York, pp.262
6. Sachin N. Pradhan, India in the United States: Contribution of India and Indians in the United States of America, SP Press International Inc., 1996, pp. 12
7. Emerson, Ralph Waldo, Essays,Boston: James Munroe and Company, 1841, pp. 223
8. Michael C. Brownstein,Tōkoku at Matsushima, Monumenta Nipponica, Sophia University, Autumn, 1990, Vol. 45, No. 3 (Autumn, 1990), pp. 292
9. Masaki Ōta, Kindai Nihon Bungei Shiron; Tokoku・Toson・Soseki・Takeo, Oofusha, Tokyo,1989, pp. 237
10. यहाँ 'अदृश्य'का तात्पर्य उस रूप से है जो सामान्य इंद्रियों से अनुभव नहीं किया जा सकता, बल्कि केवल अंतर्ज्ञान, भावना, या आध्यात्मिक दृष्टि के माध्यम से अनुभव किया जाता है।
11. कात्सुमोतो सेइइचिरो, कितामुरा तोकोकु संपूर्ण संग्रह, दूसरा खंड, 'आंतरिक जीवन पर विचार', पृष्ठ 138, इवानामी शोतें, 1912
12. भगवान् श्री आदि शंकराचार्य, विवेक-चूडा्मणि, अनुवादक—मुनिलाल, Gita Press, Gorakhpur, पृष्ठ 11,https://archive.org/details/vivekchudamaniadishankaracharya/page/n9/mode/2up (accessed on Feb 1, 2025)
13. Vedanta Society Japan, Nippon Vedanta Kyokai: A branch of the Ramakrishna Mission, Kanagawa-Ken, Japan, Official Website: https://www.vedantajpen.com/society-s-history/ (accessed on Feb 1, 2025)
14. Electronic version of Jūni Bungō (Twelve Men of Letters) series, 6th Volume, published by Minyūsha, April, 1894 (Derived from National Diet Library, Japan)
16. ह्योरों हाचिगो, जोगाकु ज़ास्शीशा, 15 जुलाई 1893, https://www.aozora.gr.jp/cards/000157/files/43440_16861.html (accessed on Feb 2, 2025)
17. बुंगाकुकाई (साहित्यिक संसार) एक जापानी मासिक साहित्यिक पत्रिका है,जिसे बुंगेईशुंजू द्वारा जुनबुंगाकु ( अर्थात् शुद्ध साहित्य) पर केंद्रित प्रकाशन के रूप में प्रकाशित किया जाता है। बुंगाकुकाई का पहला संस्करण 1893 से 1898 तक प्रकाशित हुआ था। इसके संस्थापक जापान के प्रथम पीढ़ी के स्वच्छंदतावादी (रोमांटिक) लेखक थे। यह पत्रिका मुख्य रूप से स्वच्छंदतावाद (रोमांटिसिज़्म), आधुनिकतावाद (मॉडर्निज़्म) और आदर्शवाद (आइडियलिज़्म) पर लेख प्रकाशित करती थी। पत्रिका का दूसरा संस्करण अक्टूबर 1933 में शुरू हुआ। तब से बुंगेईशुंजू इस पत्रिका का स्वामित्व रखता है। बुंगाकुकाईका मुख्यालय टोक्यो में स्थित है।
18. यासुओ शिगेमात्सु, सासाबुची टोमोइची द्वारा रचित ‘कितामुरा तोकोकु’, क्यूशू विश्वविद्यालय शैक्षणिक सूचना रिपोजिटरी,1951, पृष्ठ 103-104, https://api.lib.kyushuu.ac.jp/opac_download_md/12400/p103.pdf (accessed on Feb 2, 2025)
अर्पिता पॉल
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, जापानी विभाग, भाषा भवन, विश्वभारती, पश्चिम बंगाल, 731235
arpita.paul@visva-bharati.ac.in,
9958841732
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