अफ़लातून की डायरी (7) : हिमाचल यात्रा / विष्णु कुमार शर्मा

अफ़लातून की डायरी (7) : हिमाचल यात्रा
विष्णु कुमार शर्मा 


09.07.2024

 

मैं लिखने की इच्छा से भरा हूँ, लेकिन शुरू करने की आशंका से घबराया हुआ

इस यात्रा डायरी को लिखना मैं पंद्रह दिन से टालता रहा हूँ कारण कि शुरूआत कैसे करूँ? जब भी लिखे एक अन्तराल बीत जाता है तो लिखना तो मुश्किल नहीं लेकिन उसकी शुरूआत मुश्किल हो जाती है मैं लिखने से जूझता हूँ जैसा मैंने पढ़ा-सुना है कि हर रचनाकार इस चीज से जूझता है यह कोई नई बात नहीं है और मैं तो कोई रचनाकार होने का दम भी नहीं भरता लेकिन ऐसी मुश्किल आती है तब मैं कविता की शरण में जाता हूँ गीत चतुर्वेदी ने इस जूझन की प्रेरणा को अपने कविता संग्रहखुशियों के गुप्तचरकी भूमिका इसे कुछ यूँ लिखा है- “दान्ते अलीगियेरी नेन्यू लाइफके शुरूआती पन्नों में एक वाक्य लिखा है, जो हिंदी अनुवाद में यों हैं : ‘मैं लिखने की इच्छा से भरा हूँ, लेकिन शुरू करने की आशंका से घबराया हुआ यह वाक्य मेरी मेज़ के पास, हमेशा, कहीं कहीं चिपका रहता हैगीत जहाँ दान्ते अलीगियेरी की इन पँक्तियों को अपने आसपास रखते हैं वहीं मैं गीत के इस कविता संग्रह को अपनी टेबल के आसपास रखता हूँ कभी इसे तकिए के नीचे रखकर भी सोया हूँ जब भी कभी मैं उलझन में होता हूँ इस कविता संग्रह को उठा लेता हूँ और उन पँक्तियों को आयतों की तरह दोहराता हूँ जिन्हें मैंने नीले एल्कोस बैटर बॉल पेन से चिह्नित किया है। चलो, ऐसी ही एक पंक्ति से डायरी की शुरूआत करते हैं -

मेरे पास जीने का 38 साल का अनुभव है

हो सकता है, 39 वें साल किसी रोज़

सारा का सारा अनुभव धरा रह जाए

किसी काम आए

            कल 10 जुलाई को मुझे भी 39 वाँ लग रहा है तो 38 वें साल की इस भयानक गर्मी में हमने एक नया अनुभव लेने का विचार किया वैसे इस बार की गर्मी अपने आपमें एक नया अनुभव थी ऐसी गर्मी मैंने अपने जीवनकाल में कभी नहीं देखी माणिक जी ने एक व्हाट्सअप ग्रुप में ये जानकारी शेयर की कि 20 से 23 जून, 2024 तक संभावना इंस्टीट्यूट कंडबाड़ी जिला- काँगड़ा, हिमाचल प्रदेश में सिनेमा पर एक वर्कशॉप है वर्कशॉप का शीर्षक था- ‘प्रतिरोध का सिनेमा नाम से लग रहा था कि निश्चित रूप से इसमें पैरेलल सिनेमा या सिनेमा में हाशिए के स्वरों की बात होगी अच्छी राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय फिल्में दिखाई जाएँगी। चूँकि मैं और दीपक जी अपने-अपने कॉलेज में पहले से बच्चों को सिनेमा दिखाते रहे हैं तो हमें नए कंटेंट की तलाश थी। हालाँकि दीपक जी ने यात्रा के अंत में उद्घाटित किया कि यह उनका तीसरा उद्देश्य था। पहला, अलवर की भीषण गर्मी से निजात पाना; दूसरा, मित्रों (यानी हम) से मिलना था। हाहहाहाहाहा... सो, हमारे मित्र और बड़े भाई दीपक चंदवानी ने इनिशिएट किया कि हमें इस वर्कशॉप में चलना चाहिए। मैंने और बलदेव ने बिना किसी प्रतिरोध के अपनी सहमति दे दी। दीपक जी हमारे परधान (प्रधान) हैं। पीएचडी के समय से हमने उन्हेंचार उजबकसमूह के प्रधान का दर्जा दिया हुआ है। वे आयु, अनुभव और ज्ञान में हमसे वरिष्ठ हैं। वे यथासंभव बालहठ, त्रियाहठ और राजहठ से अप्रभावित रहते हैं। तथापि हम उनकी चिरौरी कर कुछ छूटें ले लेते हैं। हमारी उच्छृंखलता का वे समय-समय पर नियमन करते हैं। हमारे संसर्ग से उनकी सहजता सहनशीलता में वृद्धि और अनावश्यक ओढ़ी हुई गंभीरता में क्षीणता आई है, ऐसा मानने से शायद वे हिचके लेकिन ये सच है। अब वे अधिक लोकतांत्रिक हुए हैं। इस बीच  हमारे मित्र माणिक ने बताया कि भीलवाड़ा से सूरज पारीक का भी मन है इस वर्कशॉप में जाने का और वे रजिस्ट्रेशन भी कर चुके हैं; तो मैंने सूरज से बात की। इस तरह चार टिकट बुक किए गए। घर और कॉलेज की मुश्किलों को साइड में रख हम सबने 19 जून को शाम दिल्ली मिलने का प्रस्ताव रखा। बलदेव को नोहर, हनुमानगढ़ से आना था। दौसा (दीपक जी अलवर से बैठे ) से दिल्ली तक की ट्रेन यात्रा में हमारे साथ उत्तरप्रदेश से आया एक परिवार भी यात्रा कर रहा था। उन्हें भी दिल्ली से ट्रेन बदलनी थी। परिवार में पति-पत्नी और एक किशोर था। बात से बात निकली तो उन्होंने बताया कि वे मेहंदीपुर बालाजी जाकर आए हैं। दरअसल वे हर साल वहाँ जाते हैं। दीपक जी मेरी ओर इशारा कर कहा कि ये वहीं के हैं। आगे धर्म-अध्यात्म पर चर्चा छिड़ी। तभी दीपक जी ने एक मार्के की बात कही- “ईश्वर सब जगह है लेकिन शायद वहाँ हो जहाँ आदमी ने उसे स्थापित किया हो।मुझे गीत चतुर्वेदी याद आए-

ईश्वर हमारे चेहरे पर रहता है, एक चौड़ी मुस्कान बनकर

 

अग्नि और बरखा

तो बलदेव और सूरज 19 जून को सुबह ही दिल्ली पहुँच चुके थे। रात साढ़े दस बजे पुरानी दिल्ली स्टेशन से हिमाचल एक्सप्रेस में हमारी रवानगी थी। दिन के समय का सूरज ने अक्षरधाम मंदिर की यात्रा कर उपयोग किया। शाम के समय का सदुपयोग करने हेतु बलदेव ने श्रीराम सेंटर में नाटक देखने का प्रस्ताव रखा था। स्लीपर क्लास की यात्रा में लू के थपेड़ों से हम बुरी तरह परेशां थे। मैं और दीपक जी शाम 5 बजे पुरानी दिल्ली स्टेशन उतरे। लॉकर रूम में सामान रखा। ऑटो पकड़ श्रीराम सेंटर रवाना हो गए। भूख-प्यास से बेहाल हम लोगों ने जाते ही श्रीराम सेंटर की कैंटीन पर धावा बोला। बलदेव सूरज पहले से ही वहाँ थे और खा-पी चुके थे। हमने मेन्यु कार्ड देखा, लेकिन हम निराश हुए। वहाँ ज्यादातर चाइनीज़ या चिकन युक्त स्नैक्स थे। हमारे खाने लायक कुछ नहीं था। सब देखदाख कर फ़ाइनली हमने आलू-टोस्ट ऑर्डर किए। वही एक विकल्प था हमारे लायक। गर्मी में चाय-कॉफ़ी हम पीना नहीं चाहते थे और वहाँ नींबू पानी का एक गिलास चालीस रुपए का था। इसलिए दीपक जी ने मिरिंडा की पाँच सौ मिली की एक बोतल ले ली जो ज्यादा ठंडी नहीं थी। यदि कोल्डड्रिंक एकदम चिल्ड हो तो वह सुगर सीरप का टेस्ट देती है जो कि वह असल में वो है। पेट भरा तो शरीर में कुछ जान आई। आखिर सेंटर के पीछे लगे वाटरकूलर से ठंडा पानी पीकर हम ताजा दम हुए। वाटरकूलर के बारे में कम लोगों को पता था। यही वाटरकूलर गर फ्रंट में लगा होता तो कैंटीन से शायद कोई बोतल बंद पानी नहीं खरीदता इसलिए उसे जानबूझकर पीछे लगाया है। चूँकि बलदेव सूरज पहले गए थे तो उन्होंने गार्ड से चार मीठी बातें की और उस वाटरकूलर को ढूँढ निकाला था। और हमारे बोतल बंद पानी खरीदने के पैसे बच गए। वहाँ से निकलते वक्त भी हमने अपनी बोतलें भर लीं। गिरीश कर्नाड के नाटकअग्नि और बरखाका शो था। दो सौ रुपए से लेकर एक हजार रुपए तक की टिकट थी। थियेटर में नाटक देख पाना जनसाधारण के सुलभ नहीं रहा। उसकी रुचि है उसमें। अब यह एलीट क्लास का शगल बनकर रह गया है। एक समय जब मनोरंजन के साधन सीमित थे, जीवन में आपाधापी कम थी, फुरसत थी, तब रामलीला और स्थानीय लोकनाट्य जनसामान्य के लिए सहज उपलब्ध थे। नाटक केवल मनोरंजन ही नहीं अपितु शिक्षा का माध्यम भी थे। अलवर में दशहरे के आसपास होने वाले भरथरी के नाटक में आज भी भारी भीड़ उमड़ती है। लेकिन ऐसे उदाहरण बहुत थोड़े हैं। रंगमंच और उसके कलाकार मुश्किल में हैं। बलदेव ने अपना पीएचडी का शोध कार्यराजस्थान में हिंदी रंगमंचपर ही किया है। राजस्थान की रंग परंपरा के डॉक्यूमेंटेशन का बहुत ही श्रम-साध्य कार्य किया है बलदेव ने। पीएचडी थीसिस के अलावा भी अभी बहुत मैटर पड़ा है उसके पास। यदि उस पर थोड़ी मेहनत और लगाकर काम किया जाए तो दो बढ़िया किताबें बन सकती हैं। खैर, हमने दो सौ वाली चार टिकट ली। जहाँ हमारी सीट्स थीं वहाँ से ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था, आगे रेलिंग रही थी। तकरीबन दस मिनट बाद एक लड़का नीचे से आया और उसने बताया कि नीचे पाँच सौ रुपए वाली सीट्स खाली हैं, आप नीचे सकते हैं तो वहाँ बैठे सब लोग खुशी में भरकर नीचे दौड़ पड़े। दो सौ के टिकट में पाँच सौ वाली फीलिंग, ये खुशी अलग होती है। खैर, नाटक शुरू हुआ। सभी अभिनेता-अभिनेत्री शानदार थे। अभिनय कुशल। एक जगह थोड़ी हास्यास्पद स्थिति पैदा हुई। नाटक की मुख्य नायिका की भूमिका अदा कर रही अभिनेत्री शरीर से भरी-पूरी थी और नाटक में एक संवाद आया जिसमें वह कहती है किदेखो, तुम्हारे वियोग में मैं कैसे सूख कर काँटा हो गईसुनकर दर्शकों में हँसी का फव्वारा छूट गया। दूसरे, संवादों में अनुवाद की अनुभवहीनता साफ सुनाई पड़ रही थी। नाटक के कालखंड और परिवेश के अनुसार संवाद संस्कृतनिष्ठ होने चाहिए थे लेकिन बीच-बीच में अरबी-फारसी का बेमेल छोंक अखर रहा था। नाटक ढाई घंटे का था, हमारे पास समय कम था सो हम डेढ़ घंटे बाद निकल पड़े। भूख कम थी लेकिन खाना तो खाना ही था तो श्रीराम सेंटर के बाहर ही एक ढाबे पे हमने दो थाली ऑर्डर की, खाना खाया। ऑटो पकड़ा और स्टेशन की ओर दौड़े। रस्ते में ही जोरदार बौछारों ने हमारी यात्रा के मंगलमय होने का संकेत दे दिया।

 

आग का जो संबंध रोटी से है; कविता, क्रांति और अपनी दहक से है

            अगले दिन सुबह साढ़े सात बजे हम अम्ब अंडूरा स्टेशन उतरे। यह काँगड़ा के लिए निकटतम स्टेशन है। इसके बाद का दौलतपुर चौक शायद इस रूट का आखिरी स्टेशन है। संभावना वालों ने टैक्सी वालों के कुछ संपर्क सूत्र उपलब्ध करवाए थे। दीपक जी ने बात की और अंत में एक टैक्सी बुक कर दी। पीएचडी के समय से ट्रेन के टिकट, होटल, टैक्सी आदि की बुकिंग और किफ़ायती दामों पर शॉपिंग दीपक जी ही करते आए हैं। तीन साल की पीएचडी में केवल एक बार मैं और बलदेव बिना दीपक जी के उदयपुर गए और हमने होटल में तीन हजार रुपए का कमरा लिया। जबकि दीपक जी हमेशा हजार-बारह सौ में तीन लोगों का होटल बुक कर देते थे। किसी भी ट्रिप का पूरा खर्चा वे ही उठाते हैं। अंत में तीन का भाग देकर हमें बिल पकड़ा देते हैं। और हम बिल का पेमेंट कर देते हैं... स्टेशन उतरने से पहले ही ड्राइवर का फोन गया था। जब हम टैक्सी पर पहुँचे तब ड्राइवर की वर्दी पहने (जिस पर नेम प्लेट भी लगी थी) एक जेंटलमैन ने हमारा स्वागत किया। नाम बताया- सुरेन्द्र। सुरेन्द्र जी से बतियाते, जानकारी लेते हम चलते रहे। प्रधान उजबक डॉ. दीपक चंदवानी ड्राइवर के पास वाली आगे की सीट पर विराजमान हुए और हम दोनों पीछे। पहाड़ों के घुमावदार रास्तों में बलदेव को पीछे वाली सीट पर चक्कर आने लगे। दो जगह उल्टियाँ भी की। इस पर प्रधान ने सदाशयता प्रकट करते हुए उसे अगली सीट पर बिठाया और खुद पीछे गए। बगलामुखी माता मंदिर से ठीक पहले कुछ लोग राहगीरों को रोककर शरबत पिला रहे थे। अभी हमारे यहाँ भी निर्जला एकादशी पर धर्मप्रेमी बंधुओं ने जगह-जगह स्टाल लगाकर शरबत पिलाया। शाम तक गुप्तेश्वर रोड से सोमनाथ सर्किल तक पूरे शहर की सड़कों पर प्लास्टिक डिस्पोजल उड़ते फिर रहे थे। लेकिन यहाँ हमें रुकवाकर शरबत भरे स्टील के गिलास की ट्रे गाड़ी के अंदर ही बढ़ा दी। शरबत पिया तो स्वाद कुछ अलग लगा। गुलाब के शरबत में कतीरा गोंद घुला था। अद्भुत स्वाद और पर्याप्त ठंडा भी। अहा ! तबियत तर हो गई। कतीरा या कथीरा एक प्रकार का गोंद है। इसे रात भर पानी में भिगोया जाकर सुबह खाली पेट मिश्री या शक्कर बूरा मिलाकर खाया जाता है। आज यहाँ शरबत के साथ पीया। कतीरा गोंद पेट की गर्मी को दूर करता है। महिलाओं में प्रदर रोग को ठीक करता है, पुरुषों की यौन शक्ति बढ़ाता है।

            लगभग दोपहर 12.30 बजे हम संभावना इंस्टीट्यूट, कंडबाड़ी पहुँचे। रिपोर्टिंग टाइम 11.00 बजे था। अधिकांश प्रतिभागी समय से पहुँच गए थे। आयोजन टीम से फातिमा और रचित प्रतिभागियों को कैंपस से रूबरू करवा रहे थे। वहाँ के नियमों और कार्य प्रणाली की जानकारी दे रहे थे। सबसे पहली और महत्त्वपूर्ण बात उन्होंने बताई कि यहाँ आपको किसी भी प्रकार के प्लास्टिक वेस्ट को नहीं छोड़ना है। यदि आप कोई सिंगल यूज प्लास्टिक उत्पादित करते हैं तो उसे यहाँ छोड़े, अपने बैग में रखकर वापिस नीचे ले जाएँ। काश ! ऐसा हर जगह हो। हमने अपने हिल स्टेशंस को प्लास्टिक से पाट दिया है। आज जब अम्ब से यहाँ रहे थे तो रास्ते में देखा कि फोर लेन का काम चल रहा है। सड़क चौड़ी की जा रही है, पहाड़ों को काटा जा रहा है। मैंने दीपक जी का ध्यान दिलाया कि जहाँ से पहाड़ काटा गया है वहाँ देखिए। पहाड़ की संरचना साफ दिखलाई पड़ रही है। ये मिट्टी के पहाड़ हैं जिनमें बीच-बीच में नदी के गोल कंकरों की परत है। हिमालय बहुत नई पर्वतमाला है, अभी शैशवकाल में है। ये बहुत ही संवेदनशील पहाड़ हैं और तेज आवाज से भी दरक सकते हैं। लेकिन इन्हें आदमी मशीनों से रौंदता चला जा रहा है... इसके बाद अगली क्लास जेंडर संवेदनशीलता को लेकर थी, उसके बाद लंच टाइम था। हमने फातिमा को कहा कि हम पहले नहाना चाहेंगे। नहा-धोकर हम सीधे लंच पर पहुँचे। लंच के बाद अगला सेशन शुरू हुआ।प्रतिरोध का सिनेमाके समन्वयक संजय जोशी ने अपने अभियान और वर्कशॉप के बारे में जानकारी दी। संजय जोशी नाम सुनकर मुझे लगा कि नाम कुछ-कुछ सुना-सुना है। ज्यूँ ही सुना कि ये नवारुण प्रकाशन के संपादक हैं तो याद आया कि कोई दो साल पहले मैंने इनसे उर्मिलेश कीगाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेलऔर पीटर ग्रे कीशिक्षा का अर्थमँगवाई थी। माणिक जी ने इनका नंबर दिया था। संजय जी ने स्पष्ट किया कि ये वर्कशॉप फिल्म स्क्रीनिंग को लेकर है कि फिल्म मेकिंग को लेकर। फिल्म स्क्रीनिंग के द्वारा समुदाय (स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थियों और आमजन) को कैसे शिक्षित किया जाए, कैसे गैर भाषा की फिल्में दिखाई जाएँ, कैसे आमजन के मुद्दों से जुड़ी फिल्मों द्वारा सामाजिक मुद्दों पर एक नैरेटिव तैयार किया जाए; संजय जी के साथ ये सब जानकारी कार्यशाला के दूसरे मेंटर सौरभ और अश्विथी ने भी अपनी बात शेयर करने के दौरान दी।

टी-ब्रेक के बाद हमें दो फिल्में दिखाई गई- ‘शिटऔरटू प्लस टू इक्वल फाइवशिटमैला उठाने वाली एक महिला कामगार की सच्ची कहानी है तो ईरानी फिल्मटू प्लस टू इक्वल फाइवबताती है कि हमें गलत बात का विरोध करने के लिए अपनी असहमति दर्शानी चाहिए। असहमति में उठा पहला हाथ दूसरे हाथ के लिए प्रेरणा बनता है। सत्ता कितनी भी क्रूर हो, असहमति और प्रतिरोध का बीज कभी नष्ट नहीं होता... ‘सिनेमा इन स्कूलअभियान से आए बड़े बदलाव के शानदार उदाहरण के रूप में हमें उत्तराखंड केनानकमत्ता पब्लिक स्कूलके बारे में बताया गया। वहाँ की दो पूर्व छात्राएँ कृति और रिया भी कार्यशाला में थीं। साथ हीकिशनगंज सिनेमा यात्राके बारे में बताया कि कुछ युवा लोग कैसे उत्तरप्रदेश के पिछड़े इलाकों में आमजन को फिल्में दिखा रहे हैं। उन इलाकों में जहाँ आज भी टीवी नहीं पहुँचा। और यह भी कि फिल्म स्क्रीनिंग शुरू हुई ये यात्रा अब कैसे फिल्म मेकिंग में तब्दील हो गई है।

शाम के समय सूरज बेचैन था। पूछा तो बताया कि उसके जीजाजी को कैंसर डायग्नोस हुआ है। वह जयपुर जाना चाहता है। यहाँ से जाने की कोई व्यवस्था बैठ जाए तो वह निकलना चाहता है। इधर-उधर मालूमात करने और घर बात करने के बात वह सहज हो गया और बोला कि अब चार दिन बाद ही जाएगा। हमने कहा कि अर्जेंसी है तो फ्लाइट से निकल जाए। पता नहीं कि सच क्या था लेकिन मुझे लग रहा था कि वर्कशॉप के दो सेशन अटेंड करने के बाद से वह असहज है। पूरी मेंटर टीम के लेफ्ट ओरिएण्टेशन को सुनने के बाद से वह विचलित है। मैंने दीपक जी को कहा कि इसे रजिस्ट्रेशन करना ही नहीं चाहिए था, यदि यह सुन नहीं सकता तो। इसे वर्कशॉप के नाम से ही अंदाज लगा लेना चाहिए था कि मूल में बात कहीं कहीं बाईं ओर ही झुकी रहेगी। और सवर्ण मानसिकता से पोषित सूरज के लिए ये वर्कशॉप असहज करने वाली ही होगी। वैसे हमें अपने दिमाग की खिड़कियाँ खुली रखनी चाहिए और भिन्न मत को भी सुनना-पढ़ना चाहिए ताकि हम मजबूती से बीच में या सही के पक्ष में खड़े हो सके कि अपनी पक्षधरता के चलते दाएँ या बाएँ। मुझे तो कोई तकलीफ़ नहीं होती ऐसे कार्यक्रमों में। कार्यक्रम चाहे दाएँ वालों का हो या बाएँ वालों का। मैं भी ऐसी ही मानसिकता वाले एक ब्राह्मण घर में पैदा हुआ हूँ लेकिन मैं स्त्री, दलित, आदिवासी, किसान आदि विमर्शों की सभा-सेमिनारों में जाता हूँ। उनसे संबंधित पुस्तकें पढ़ता हूँ। उनके मुद्दों पर लिखता हूँ। उनकी वैचारिकी से काफी हद तक इत्तेफाक भी रखता हूँ। एलजीबीटीक्यू के बारे में पढ़ता हूँ, उन्हें समझने की कोशिश करता हूँ। उनके प्रति सहृदय और संवेदनशील हूँ। मेरा मानना है कि हम सब मनुष्य हैं। हर मनुष्य की अपनी गरिमा है। उसकी गरिमा का ध्यान रखा जाना चाहिए। इस गरिमा के साथ जीना उसका हक़ है। लेकिन मेरी अब तक की समझ ये है कि कानून-संविधान, एक्टिविज्म या विमर्शों से ये बराबरी कभी नहीं आएगी। जब तक आदमी के मन को बदला जाए, ये मुश्किल काम है। बल्कि इनसे आदमी-आदमी के बीच की ये दरार और चौड़ी हो रही है। पूरी दुनिया में वाम और दक्षिण वैचारिकी ने एक-दूसरे का कितना खून बहाया है ये किसी से छुपा नहीं है। रंगभेद पश्चिम में आज भी सच्चाई है। हमारे यहाँ जाति है जो कभी नहीं जाती। सवर्ण-दलितों के बीच वैमनस्यता कायम है बल्कि बढ़ी है। स्त्री-पुरुष आज भी नॉर्थ और साउथ पोल हैं। साम्प्रदायिकता पूरी दुनिया का सच है। इन सबका पूर्ण समाधान यदि कहीं है तो वह अध्यात्म में है। अध्यात्म बताता है कि तुम मात्र चेतना (कॉन्शियसनेस) हो। काला-गोरा, स्त्री-पुरुष, हिन्दू-मुस्लिम, सवर्ण-दलित... ये बाहरी भेद हैं जो तुम्हारे अहम् (Ego) ने पैदा किए हैं। शारीरिक स्तर पर भी स्त्री-पुरुष में कोई ज्यादा भेद नहीं। होता तो स्त्री की किडनी या उसका लीवर पुरुष के कैसे ट्रांसप्लांट हो जाता? और जाति और मजहब (ऑर्गेनाइज्ड रिलिजन) तो पूरे-पूरे झूठ हैं।

डिनर के बाद के सेशन में समीना मिश्रा की फिल्म हाउस ऑन गुलमोहर अवेन्युदिखाई गई। समीना वहाँ मौजूद थीं। मुझे समीना बहुत सुंदर लगीं। उन्होंने अपने बालों को नहीं रंगा था। काले-सफेद बाल मिलकर उनके व्यक्तित्व को एक सहज आभा दे रहे थे। उनकी मुस्कराहट लाज़वाब थी। आँखों में हल्का काजल किसी को भी मोहित करने के लिए पर्याप्त था। उन्होंने जींस-टॉप पहना था और वे बहुत आकर्षक और सहज लग रही थीं। फिल्म उनकी निजी ज़िंदगी पर है। फिल्म पर और उनके निजी जीवन को लेकर उनसे थोड़ी चर्चा हुई, शेष बातचीत का सिरा अगली सुबह तक के लिए खुला छोड़ा गया।

 

तुम देर से आए हो, मग़र वक्त पर आए हो

रात को सोने से पहले ही हमने तय किया कि सुबह खड्ड यानी नदी में नहाएँगे। इंस्टीट्यूट से पाँच सौ मीटर की दूरी पर नदी थी। डिनर से पहले ही हम नदी देख आए थे। अगले दिन सुबह सात बजे हम कपड़े लेकर नदी जा पहुँचे। बायीं ओर चीड़ के लम्बे पेड़ों का जंगल था। पीछे पहाड़ पर बर्फ दिखाई पड़ रही थी। लेकिन ये पहाड़ यहाँ से कई किमी दूर होंगे। सूरज की किरणें फूटने लगी थीं। मैंने नदी में पैर डुबोए तो बदन में सिहरन दौड़ गई। बर्फीला ठंडा पानी। सबसे पहले बलदेव उतरा। धीरे-धीरे हिम्मत कर हम सब उतरे। एक डुबकी के बाद शरीर सुन्न मतलब ठंड महसूस ही नहीं हो रही थी। आज तारिख 21 जून थी यानी अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस। हमने नदी में ही चट्टानों पर योगासन किए। ध्यान की मुद्रा में फोटो खिंचवाए। सूरज ने चश्मा लगाकर फोटो निकलवाए। और भी कई मुद्राएँ। हमारे सूरज बाबु को फोटुओ से बड़ा प्रेम है सो मैंने उन्हेंफोटोजीवीनाम दिया है। जिससे वे कभी-कभी चिढ़ जाते हैं। पर मुझे भी उनकी फोटो प्रेम की अतिशयता से इरीटेशन होने लगता है। दीपक जी अपना कैमरा लेकर आए थे और उन्होंने कमाल के फोटो खींचे। मेरे फोन चार साल पुराना हो चुका है, फोटो इत्ते अच्छे नहीं आते लेकिन यहाँ मैंने ट्राई किया तो कुछ अच्छे फोटो निकल आए। खासकर चीड़ के पेड़ों की फुनगियों के बीच से निरभ्र आकाश के। नदी के लिए जाने के लिए हमें इंस्टीट्यूट से नीचे उतरना पड़ता है। उतरते और चढ़ते हुए हम संस्थान के बगीचे से आड़ू खाते हैं। नाशपति और अंगूर भी हैं लेकिन अभी कच्चे हैं। साढ़े आठ बजे से नौ बजे तक नाश्ता है फिर क्लास शुरू होगी। कमरे पर लौटकर हम तैयार होते हैं। कल के भोजन से हमें थोड़ी निराशा हुई। रोटियाँ कम सिंकी और कच्ची-सी थीं। मैंने दाल-चावल से काम चलाया पर हम राजस्थानियों को तो रोटियाँ चाहिए ही चाहिए। दोनों समय में दाल-चावल-रोटी होता ही था बस सब्जियाँ बदलती। सब्जियाँ सब स्वादिष्ट बनती बस दिक्कत रोटियों की थी। नाश्ते में क्या था मुझे अभी याद नहीं रहा। चाय और काढ़ा पेय में दो विकल्प थे। चीनी और गुड़ पाउडर मीठे में भी दो विकल्प थे। मैं काढ़ा चुनता और मीठे में गुड़ पाउडर। दीपक जी बलदेव दूध वाली चाय और उसमें चीनी। सूरज चाय पीता और काढ़ा। आज पहला सेशन निर्देशक समीना मिश्रा ने लिया। उन्होंने अपने प्रोजेक्टहम हिन्दुस्तानीऔर ‘The magic key center : The incredible child’ के बारे में विस्तार से बताया। उनके पीपीटी प्रजेंटेशन में एक शानदार बात लिखी थी- “Every child does not have to become an artist but can look at the world through the eyes of an artistसमीना का कहना था कि आर्ट को शिक्षा में ठीक तरीके से शामिल किए जाने की जरूरत अभी भी बनी हुई है। आर्ट क्या करती है? समीना के शब्दों में- “The art built critical thinking, collaborative skills, empathy and intercultural understanding”  समीना हिंदी कम बोल पाती हैं क्योंकि अंग्रेजी उनकी प्रथम भाषा है लेकिन वे कामचलाऊ हिंदी भी बोल लेती हैं और हमें भी उनकी अंग्रेजी आसानी से समझ रही थी। भारतीय एक्सेंट वाली अंग्रेजी तो लगभग समझ ही जाती है। हमारी सेशन मोडरेटर अश्विथी कमाल की हिंग्रेजी बोलती हैं। दूसरे मोडरेटर सौरभ या किसी प्रतिभागी द्वारा जब अंग्रेजी का ओवरडोज हो जाता तो संजय जी फट से टोक देते- “प्लीज, हिन्दुस्तानी में बोलेंगे तो ज्यादा लोग समझ पाएँगे आपकी बात को लंच के बाद सभी प्रतिभागियों को भी फिल्म स्क्रीनिंग करनी थी। सबसे पहले अनुकृति और नईम नेकोरसमूवी दिखाई। धर्मेश और लकी ने करण तोरानी की विज्ञापन फिल्मचाँदनी रातेंदिखाई। फिर इन पर चर्चा हुई। कुछ और साथियों ने भी अपनी स्क्रीनिंग की। हमारा नंबर अगले दिन था।

संजय जी बहुत सुलझे हुए आदमी हैं। उन्होंने बताया कि इससे पहले वे तीन वर्कशॉप कर चुके हैं। उनमें अधिकांश प्रतिभागी थियेटर और सिनेमा से जुड़े थे। लेकिन जल्द उन्हें समझ गया कि ये लोग इस वर्कशॉप का इस्तेमाल अपनी समझ बढ़ाने और अपने कैरियर के लिए कर रहे हैं जबकि उनका उद्देश्य समाज में बड़ी संख्या तक अच्छा सिनेमा पहुँचाना है। हालाँकि वहाँ से कुछ एक्टिविस्ट साथी भी मिले जो आज उनकी यात्रा में साथ हैं। उन्हें विचार आया कि टीचर्स इस काम को बेहतर तरीके से कर सकते हैं और उन्हें कई स्कूलों के साथ काम करते हुए इसका अनुभव भी हुआ। तो इस बार की वर्कशॉप उन्होंने शिक्षकों के लिए विशेष रूप से रखी। क्योंकि शिक्षकों को फिल्म स्क्रीनिंग के लिए जगह और ऑडियंस ढूंढने की जरूरत नहीं पड़ती। साथ ही बड़ों की बजाय बच्चों पर इसका इम्पेक्ट भी अच्छा आता है।

संभावना इंस्टीट्यूट में जहाँ हमारा रसोईघर और डाइनिंग हाल था वहाँ बाहर प्लेट लगी थीकुमुदभूषण भवन। हमने अनुमान किया कि कहीं इसका संबंध दिल्ली के सीनियर एडवोकेट और आम आदमी पार्टी के पूर्व नेता प्रशांत भूषण से तो नहीं। एक साथी से पूछा तो उन्होंने इसकी पुष्टि की- “हाँ, ये प्रशांत भूषण की माँ के नाम पर है वे साथी वहीं चल रही एक दूसरी वर्कशॉप में थे जो एनजीओ में काम करने वाले साथियों के लिए थी। आज सुबह नाश्ते के वक्त मैंने एक शख्स को देखा। काले कुर्ते-पायजामे, काली टोपी और काला चश्मा लगाए वे स्कूटी पर नमूदार हुए। मैंने पूछा- आप हिमांशु कुमार हैं? उन्होंने मुस्कुराकर गर्दन हिलाई।मैंने आपको फेसबुक पर पढ़ा है।हिमांशु आदिवासियों के लिए काम करते हैं। जबरदस्त एक्टिविस्ट हैं। उन्होंने बताया कि वे आजकल यहीं इसी गाँव में रह रहे हैं। संभावना इंस्टीट्यूट में होने वाली वर्कशॉप बतौर मेंटर लेते हैं। अभीबुनियादनाम से चल रही वर्कशॉप में वे फेसिलेटर हैं। इसी वर्कशॉप में फ़ातिमा और मोहम्मद भी फेसिलेटर हैं। मोहम्मद को हमने नहीं देखा। फ़ातिमा से पहले दिन परिचय हुआ। उन दोनों का एक बेटा है- कासिम। बहुत ही प्यारा बच्चा। कासिम की उम्र बारह साल है। दुबला-पतला शरीर, लम्बा चेहरा, सुतवाँ नाम और सिल्की बाल। वह हमारी वर्कशॉप में भी आता है, कभी नाश्ते और कभी लंच के वक्त मिलता है। संभावना इंस्टीट्यूट में हीउड़ाननाम से एक प्राइमरी स्कूल भी है। फ़ातिमा ने पहले ही दिन बता दिया कि प्रतिभागियों को स्कूल में जाने की मनाही है। गाँव में जगह-जगह पेड़ों पर बाँस की टोकरियाँ डस्टबिन के रूप में लटकी हैं लेकिन उनमें भी प्रतिभागियों को कचरा डालने की मनाही है। वे स्थानीय लोगों के लिए हैं। शराब पीने की मनाही किसी नैतिक कारण से नहीं, बल्कि इसलिए है कि पास में स्कूल है और गाँव है। गाँव वालों में शराब पीकर हुड़दंग करने वाले प्रतिभागियों के कारण इंस्टीट्यूट को लेकर नकारात्मक भाव मन में आए। स्मोकिंग के लिए रसोईघर और आवास से दूर एक स्मोकिंग जोन बनाया गया। सिगरेट के बड्स और यूज्ड सैनेटरी नैपकिन आप वहाँ स्थित नैचुरल इन्सिंरेटर में डाल दें।

तो कासिम से मैंने बात की। वह एक छोटे काले पिल्ले को बुलाता हुआ ले जा रहा था। मेरे पूछने पर उसने इशारा कर बताया- “मोहम्मद और फ़ातिमा यहाँ काम करते हैं इसलिए ये घर हमें मिला हुआ है। मैं सातवीं कक्षा में पढ़ रहा हूँ। मैं स्कूल नहीं जाता, होम स्कूलिंग कर रहा हूँ। मोहम्मद और फ़ातिमा मुझे घर पर ही पढ़ाते हैं। मेरा fearless leopard के नाम से उसका एक यूट्यूब चैनल है, आप सब्सक्राइब करना।अपने माँ-बाप का इस तरह नाम लेकर कहना मुझे आश्चर्य और ख़ुशी दोनों से भर रहा था। मैं देखता रहा। वह पिल्ले को दुलराता हुआ ढालू छत वाले घर की पहली मंजिल पर ले गया। ये छत पत्थर की स्लेट से बनी है जिसके जॉइंट्स पर लोहे की पत्तियाँ लगी हैं। ये स्लेट हमारी कोलू/केलू/कवेलू (मिट्टी की टाइल) जैसी हैं। कासिम के जाने के बाद मैंने अपने मित्रों से कहा- “कासिम यहाँ चलने वाली वर्कशॉप्स में अक्सर बैठ जाता है। देशभर से अलग-अलग क्षेत्रों से आने वाले लोगों से उसका इंटर-एक्शन होता है। यह उसकी पीयर लर्निंग है। क्या बनेगा ये लड़का बड़ा होकर?” बलदेव ने प्रतिवाद किया- “इतने बड़े-बड़े लोगों के बीच रहकर यह बच्चा समय से पहले अपना बचपन खो देगा।मैं देख रहा था। वह रसोईघर के भीतर गया और रोटी लाया। रोटी के टुकड़े कर वह कुत्ते के पिल्ले को खिला रहा था। पिल्ला दम हिलाता हुआ लपक रहा था। इस तरह कासिम अपना बचपन बचा रहा था।

 

बान तुम अब भी बह रही हो क्या?”

शाम की चाय पर मैं और सूरज साथ बैठे थे कि सूरज एक सज्जन की तरफ इशारा कर बोला- “इस आदमी को मैं देख रहा हूँ दो दिन से वर्कशॉप में है और इसने कोई सवाल नहीं किया। बस डीसेंटली बैठा रहता है। कौन है ये?” तभी वे सज्जन हमारे पास वाले मोढ़े पर चाय का गिलास हाथ में लेकर नमूदार हुए। सूरज ने बिना किसी लाग-लपेट के ये ही सवाल उन पर दाग दिया। उन्होंने कहा- “मैं युसुफ सईद हूँ। फिल्म डायरेक्टर।सूरज अपनी सीट से उछला- “आप फिल्म डायरेक्टर युसुफ सईद हैं !” बिना कोई प्रतिक्रिया मुख पर लाए उन्होंने हामी में सर हिलाया। एकदम सहज व्यक्तित्व, सौजन्य की प्रतिमूर्ति और सादा लिबास। आज शाम अगले सेशन में हम उनकी ही फिल्म देखने वाले थे। टी ब्रेक ख़त्म हुआ, फिल्म शुरू हुई- ‘बसंत फिल्म बसंत बताती है कि इस्लाम की सूफी परंपरा में अमीर खुसरो द्वारा अपने उदास गुरु संत निजामुद्दीन औलिया को खुश करने के लिए सरसों के फूलों की भेंट ले जाने से शुरू हुआ यह पर्व चिश्ती सिलसिले की अन्य संतों की दरगाह पर भी मनाया जाता है। निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर बसंत पंचमी को मेला लगता है। स्त्री-पुरुष अपने सर पर पीला कपड़ा बाँध हाथ में सरसों के फूल लेकर चढ़ाने जाते हैं और खुसरो की कव्वालियाँ गाते हैं-

सकल बन फूल रही सरसों, सकल बन फूल रही सरसों,

अम्बुवा फूटे, टेसू फूले, कोयल बोले डार-डार

और गोरी करत सिंगार

मलनियाँ गढ़वा ले आईं कर सों

सकल बन फूल रही सरसों

और

आज वसंत मना ले सुहागिन, आज वसंत मना ले

अंजन-मंजन कर पिया बौरी, लम्बे नेहर लगाए

तू का सोवे नींद की मासी, सो जागे तोरे भाग सुहागिन

आज वसंत मना ले।।।

ऊंची नार के ऊंचे चितवन, ऐसो दियो है बनाय

शाहे अमीर तोहे देखन को, नैनों से नैना मिलाय सुहागन 

आज वसंत मना ले सुहागिन, आज वसंत मना ले

फिल्म पूरी होते ही मैं उछला।अरे ! ये फिल्म तो मैं देख चुका। माणिक ने भेजी थी पिछली बसंत पंचमी पर। युसुफ़ सईद इसके डायरेक्टर हैं ! अमेजिंग।।।

इसके बाद युसुफ की अगली फिल्मअमरोहादिखाई गई जो उत्तरप्रदेश के अमरोहा कस्बे की गंगा-जमुनी तहज़ीब की मुकम्मल तस्वीर दिखाती है। यहाँ के आम और यहाँ की रोहू मछली बहुत प्रसिद्ध है। एक मत है कि हजरत शरफुद्दीन जब यहाँ आए तो स्थानीय लोगों ने आम और रोहू पेश की जो उन्हें बहुत पसंद आए और इसके बाद से ही यह अमरोहा के नाम से जाना जाने लगा। दोनों से मिलकर इसका नाम अमरोहा पड़ा। हालाँकि इतिहास की पुस्तकों में उल्लेख मिलता है कि 474 . पू. में यहाँ वंशी साम्राज्य के राजा अमरजोध का शासन था। तारीखे-अमरोहा पुस्तक में उल्लेख है कि अमरोहा में 676 . से 1148 . तक राजपूत वंश का शासन था। नाम की उत्पत्ति को लेकर और कई मत हैं लेकिन युसुफ ने फिल्म में अमरोहा की उत्पत्ति हजरत शरफुद्दीन के किस्से से ही जोड़ी है। उनकी फिल्म में जो इतिहास-संस्कृति की झलक दिखाई है उसका स्रोत इस्लामिक शासन ही है... अमरोहा कभी कृषि उत्पादों की मंडी के साथ-साथ हथकरघा उद्योग, मिट्टी के बर्तन और लकड़ी के काम के लिए मशहूर था। यहाँ की ढोलक बड़ी मशहूर थीं। कहा जाता है कि कभी भगवान कृष्ण भी यहाँ आए थे और उन्होंने यहाँ एक तालाब में स्नान किया और शिवलिंग की स्थापना की। उस तालाब के किनारे एक मंदिर बना है जिसे वासुदेव मंदिर कहा जाता है। सनद रहे अमरोहा का जिले के रूप में गठन तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने ज्योतिबाफुले नगर नाम से वर्ष 1997 में किया। बाद में स्थानीय लोगों की माँग पर और मुलायम सिंह के कहने पर साल 2012 में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इसका नाम बदलकर फिर से अमरोहा कर दिया। अमरोहे का जिक्र हो और जॉन एलिया याद आए, नामुमकिन है- “समंदर पर रहकर तास्नाकान हूँ मैं, बान तुम अब भी बह रही हो क्या?”

 

मुझे ईश्वर पर नहीं, प्रेम पर भरोसा है

सुबह के टी ब्रेक से पहले मेंटर सौरभ ने कहा किवैसे तो वर्कशॉप के ब्रोशर में लिखा था कि वर्कशॉप में खाना वेज ही बनेगा लेकिन आज हमारा चिकन खाने का मन है। तो बताइए चिकन खाने का कौन-कौन इच्छुक है। जो खाएँगे वे सब मिलकर कंट्रीब्यूट करेंगे।चार हम लोगों, निर्देशक युसुफ सईद और एक प्रतिभागी जो उत्तरप्रदेश से थे, को छोड़कर सबने हाथ ऊपर कर दिया। सेशन के बाद हमने अपनी बात रखी कि हम नॉन-वेज नहीं खाते तो क्या ऐसी व्यवस्था हो सकती है कि या तो हमारा खाना अलग टेबल पर लगे या हम आध घंटा पहले खाकर निकल जाएँ, उसके बाद आप लोग अपना खाते रहें। सौरभ ने अंग्रेजी में जो कहा उसका लब्बोलुआब यह था किये तो गैर-बराबरी की बात होगी। फिर हम सिनेमा दिखाकर समाज में समानता कैसे ला पाएँगे जिसकी बात दो दिन से हम यहाँ कर रहे हैं।तभी अश्विथी बीच में कूदी और अपने तर्क देने लगी। बोली किसर, खाना तो एक ही टेबल पर लगेगा, आप अपना खाइए, हम अपना। और आपका-हमारा भी क्या; खाना, खाना होता है? खाना तो सब वही रहेगा बस एक डोंगा चिकन का एक्स्ट्रा लगेगा। इसमें क्या दिक्कत है? नॉन-वेज भी खाना ही है। सूरज और यूपी वाले भईया ने साफ इंकार कर दिया इस तरह खाने से। दीपक जी ने कहा- “देखिए शाकाहार-माँसाहार की बहस में नहीं पड़ना चाहते। हम आपके खाने की रुचि का सम्मान करते हैं और आपको हमारी रुचि का सम्मान करना चाहिए। बस हम इतना कहना चाहते हैं।वह रचित की ओर इशारा कर बोली- “ये तो वीगन हैं लेकिन इन्होंने खाने को लेकर कभी आपत्ति नहीं की।सींकिया देह और पोनी टेल वाले रचित महाशय बोले- “खाना, सब खाना होता है। चिकन भी खाना है और आलू भीमैंने मन ही मन कहा ये पक्का फर्जी वीगन है। सौरभ बताने लगा किउसकी फैमिली वेजिटेरियन है लेकिन जब वह पढ़ने गया और फिर एक्टिविज्म में जब वह आया तो सबके साथ समान बर्ताव के लिए नॉन-वेज खाने लगा। आदिवासियों के बीच वह गया तो पहली बार उसने पोर्क खाया। पहले दिन वह असहज था, उसने सूखे चावल खाए। लेकिन अगले दिन सोचा कि इस तरह कैसे चलेगा तो अगले दिन से वह खाने लगा। अब उसे कोई दिक्कत नहीं है, वह कुच्छ भी खा सकता है।हमने बहस करना उचित नहीं समझा और क्लास के बाद हम गाँव की ओर घूमने निकल गए। यहाँ थोड़ी-थोड़ी दूरी पर सराय बनी हैं जिनका नाम दिया गया है- वर्षाशालिका। बरसात से बचने के लिए स्थानीय लोगों ने अपने प्रियजनों की स्मृति में वर्षाशालिकाएँ बनवाई हैं। सूरज और यूपी वाले भईया ने तै किया कि वे केले खाकर काम चलाएँगे। वहाँ जो छोटे-मोटे रेस्टोरेंट थे वहाँ मैगी और चिकन मोमोज के अलावा कुछ नहीं मिलता। एक चाय की दुकान पर लिखा था- “यहाँ ऑर्डर पर खाना तैयार किया जाता है।बलदेव ने उन दंपति से पूछा तो उन्होंने कहा बना देंगे। यूपी वाले भईया केले खा चुके थे। हमने चार आदमियों के लिए दाल-रोटी बनाने को कहा। सौ रुपए प्रति व्यक्ति रेट तय हुई। हम कुछ और आगे बढ़ गए। एक घंटे बाद लौटे तो खाना तैयार था। स्त्री ने गरम रोटियाँ बनाई, पुरुष जिनका नाम पवन था वे खाना परोसने लगे। दाल रोटी के बाद बीन्स की सब्जी और लेकर आए। हम चौंके तो स्त्री बोली- “मैंने इनसे कहा कि एक सब्जी से कैसे खाएँगे, मान लो किसी को दाल ही पसंद हो तो? इसलिए मैंने अपने घर के खाने के लिए लाई गई सब्जी आपके लिए बना दी।हम उनके भावपूर्ण आतिथ्य के आगे नतमस्तक थे। ये पहाड़ी लोग हैं। कितने सच्चे, कितने भाव-प्रवण, कितने प्रेमपूर्ण।मुझे ईश्वर पर नहीं, प्रेम पर भरोसा है” (गीत चतुर्वेदी) और ऐसे लोग पहाड़ ही नहीं देश-दुनिया के हर हिस्से में आपको मिल जाएँगे। दुनिया ऐसे लोगों से ही चल रही है।

  कल वर्कशॉप के एक साथी अमन ने अपनी एक फिल्म दिखाई जो दिल्ली में हरिजन बस्ती के पास बने डंपिंग यार्ड की समस्या को बताती है। कि कैसे वहाँ के स्थानीय निवासियों के तमाम प्रतिरोध के बावजूद स्थानीय प्रशासन सरकार उस डंपिंग यार्ड का वहाँ से हटाने पर अड़ी है। कैसे शहर के दूसरे इलाके साफ-सुथरे हैं और जो सफाईकर्मी हैं उनके मौहल्ले गन्दगी से अटे हैं, तंग गलियाँ हैं, मवेशी हैं, बदबू मारता और जहरीली धुंआ देता डंपिंग यार्ड है। अमन उसी वाल्मीकि बस्ती में रहता है। एक जरूरी मुद्दे पर एक बढ़िया फिल्म थी। सबने अमन की सराहना की। प्रतिभागियों ने अपनी टिप्पणियाँ दीं। किसी प्रतिभागी या मेंटर ने बताया कि सैंतालिस में जब देश आजाद हुआ और बँटवारे की बात आई तब नेहरू और जिन्ना में ये आम सहमति बनी कि हरिजन समुदाय को आपस में बाँट लिया जाए क्योंकि सफाई कामगारों की जरूरत तो दोनों देशों को पड़ेगी। यही कारण था कि जब हरिजन समुदाय के लोग इधर से उधर गए या उधर से इधर आए तब कत्लेआम के दौरान उन्हें बख्श दिया गया। सूरज ने सभा के प्रतिकूल प्रतिक्रिया दी और साथ में ये जोड़ दिया कियहाँ इकतरफा बात हो रही है। स्त्री-दलित-आदिवासियों के उत्पीड़न के लिए केवल जाति विशेष यानी ब्राह्मणों को टारगेट किया जा रहा है। मैं भी ब्राह्मण हूँ।तीन दिन से दबा हुआ सूरज का गुस्सा फट पड़ा। ये कहते ही ज्यादातर प्रतिभागी इसके विरोध में अपना स्वर उठाने लगे। तो बात पूरी जातिगत डिस्कोर्स में बदल गई और शाम तक यही मुद्दा छाया रहा। असल में सभी मेंटर और गेस्ट फैकल्टी भी फिल्मों को लेकर की गई अपनी बात के साथ ये जोड़ना नहीं भूल रहे थे कि 2014 के बाद देश में हालात खराब हुए हैं। तो क्या इससे पहले देश में सबकुछ सही था? हम विकसनशील हैं और लगातार ग्रो कर रहे हैं। हम ही नहीं पूरी दुनिया की यही प्रोसेस है। हाँ, ऐसा भी होता हैं कि आप एक देश या समाज के रूप में लगातार ग्रो कर रहे हैं और अचानक प्रतिगामी ताकतें सत्ता पर काबिज़ हो जाएँ और आपकी पिछले सौ सालों की प्रगति को उलट कर रख दें। चूँकि वर्कशॉप में अधिकतर प्रतिभागी स्त्री, दलित, आदिवासी या मुस्लिम कम्युनिटी से थे तो वे मेंटर्स और गेस्ट फैकल्टी की वाम वैचारिकी से सहमत होने ही थे। ये तय है कि जो भी व्यक्ति हाशिए (स्त्री, दलित, आदिवासी, पिछड़ा, किसान, मुस्लिम..) से होगा वह वाम वैचारिकी से ताल्लुक रखेगा ही रखेगा। जेएनयू के पूर्व छात्र और लेखक जे. सुशील लिखते हैं कि जेएनयू में आने वाले विद्यार्थी अधिकतर कमजोर तबके से होते हैं इसलिए वे वहाँ की आबोहवा (वाम वैचारिकी) में जल्द घुलमिल जाते हैं। लेकिन वहाँ से पढ़ाई पूरी करते-करते वे वाम दक्षिण के बीच का रास्ता निकालते हैं, दिमाग वाला (कैरियर का ) रास्ता। जिन्दगी जीने के लिए पैसा तो चाहिए ! उन्हें समझ जाता है कि वाम वैचारिकी हमारी समस्याओं को जूम करके तो दिखाती है लेकिन समाधान उसके पास भी नहीं। बकौल अमिता...“अब सर, नौकरी नहीं होगी तो एक्टिविज्म कैसे करेंगे?”

आज सुबह फिल्म स्क्रीनिंग में मैंने फिल्मराम उजागरदिखाई। यह गिरिराज किशोर जी के उपन्यासपरिशिष्टके एक अंश को लेकर बनाई गई है। इसकी पटकथा प्रियंवद जी ने लिखी है। भूमिका में भी उनका स्वर है। फिल्म का निर्माण गिरिराज किशोर की बेटी शिवा ने किया है। फिल्म एक विश्वविद्यालय में एक दलित युवक की फाँसी लगाकर की आत्महत्या या हत्या के मुद्दे पर है। युवक का मित्र राम उजागर इस मुद्दे को उठाता है तो उसे किसी प्रकरण में फँसाकर विश्वविद्यालय से रेस्टिकेट कर दिया जाता है, फिर जबरन पागलखाने भेज दिया जाता है। जाँच के लिए कमेटी बनती है जिसमें एक प्रोफ़ेसर को छोड़कर शेष सभी सत्ता के साथ हैं... फिल्म पर हमने प्रतिक्रियाएँ चाहीं तो अमन और धर्मेश सहित अनेक प्रतिभागियों की प्रतिक्रिया ये थी कि इस फिल्म के माध्यम से आप क्या कहना चाहते है? मैंने कहा कि मैं वही बात कहना चाह रहा हूँ जो कल आप कहना चाह रहे थे। उनका कहना था कि आप क्यूँ जातिगत भेदभाव का मुद्दा उठा रहे हैं? आपको इसका क्या अनुभव? (आप एक सवर्ण हैं) आप पराई पीर क्या जानें? चूँकि समय कम था इसलिए ज्यादा बहस नहीं हुई। लेकिन उन प्रतिक्रियाओं ने मुझे थोड़ा विचलित अवश्य किया।सूरज को मौका मिला गया। लंच में वह बोला- “देख लिया आपने, आप इनके बड़े हिमायती बनते हैं?” बलदेव ने भी उसकी राय से इत्तेफ़ाक रखते हुए जो कहा उसका आशय यह था कि अपने जाति समुदाय के प्रति निष्ठावान होना कोई गलत नहीं है। जाति समुदाय की सेवा और वृहत्तर समुदाय की सेवा में कहीं कोई टकराहट नहीं है। हम सबके भले के लिए सोचें लेकिन पहले अपने समाज के लिए सोचें इसमें कहाँ बुराई है?

 

है ज़िन्दगी मिल के बिताएँगे

चारू भाटिया वर्कशॉप से आज सुबह ही निकल गई। उसे ऑफिस से इतनी ही छुट्टी मिली थी। वह राष्ट्रदूत के जयपुर ऑफिस में काम करती है। चारू अतुल भाटिया सर की बेटी है। बलदेव ने अनुमान से उसे पहचाना। वह हमसे मिलकर बहुत खुश हुई। उसने फोन पर अपने पापा को बताया। भाटिया सर सिरोही बॉयज कॉलेज में एसोसिएट प्रोफ़ेसर थे। बलदेव सिरोही गर्ल्स में था और मैं रेवदर। अभी कुछ महिने पहले भाटिया सर ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली। भाटिया सर डेपुटेशन पर रेवदर भी आए थे। बलदेव उसके साथ छोटी बच्ची की तरह व्यवहार कर रहा था। मैंने कहा- “यार, उसके साथ एक एडल्ट की तरह बिहेव करो। नाउ शी इज वर्किंग वूमन। और हम भी कोई बुड्ढे नहीं हुए हैं यार।”    

वर्कशॉप में पहले दिन हमारी दोस्ती अमिता से हुई। अमिता डीयू के किसी कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर है। पहले एडहॉक थी। साल भर पहिले परमानेंट हुई है। दो दिन वह हमारे साथ खड्ड पर भी गई। पहली बार थोड़ा झिझकी लेकिन फिर उसे समझ गया कि आदमी तो सब के सब ठीक ही हैं। लड़कियों की छठी इंद्री उन्हें बता देती है कि कौन गड़बड़ है और कौन ठीक। बलदेव के गँवईपन पर उसे खूब हँसी आती। वर्कशॉप का आखिरी सेशन ख़त्म होने के बाद भी रात को देर तक वह मेरे बलदेव के साथ बतियाती रही। उसका कहना है किगर प्यार का कीड़ा नहीं काटे तो लड़के बढ़िया दोस्त होते हैं। लड़कियों के सौ नखरें। लड़कों के खूब कनेक्शंस होते हैं तो आपको मदद मिलती है। लड़के मदद के लिए हमेशा तैयार भी रहते हैं।मैंने हाल में लक्ष्मण यादव कीप्रोफ़ेसर की डायरीपढ़ी थी। मैंने अमिता से पूछा तो उसने बताया किसब सच ही लिखा है लक्ष्मण सर ने। एडहॉक वालों के हाल खराब हैं। मैंने भी खूब प्रोटेस्ट में भाग लिया है। मेरी गाइड जो कि डीयू में प्रोफ़ेसर भी हैं और वर्तमान समीकरणों के हिसाब से पावरफुल भी, ने सहयोग किया और कुछ दबाव समूह (दलित राजनैतिक या सामाजिक या प्रशासनिक जो भी संगठन) ने काम किया और अंततः मेरा हो गया। लक्ष्मण सर बहुत लाइमलाइट में गए थे तो उनका परमानेंट होना मुश्किल था... अब सर, नौकरी नहीं होगी तो एक्टिविज्म कैसे करेंगे? पैसा तो चाहिए ना ! मैं दलित कम्युनिटी से हूँ तो हम दलित बस्तियों में जाते हैं, बच्चों का पढ़ाते हैं, वहाँ लोगों को शिक्षा के प्रति जागरूक करते हैं, दलित संगठनों को चंदा देते हैं। उन्हें कैसे भूल जाएँ जहाँ से निकलकर आए हैं। सोसाइटी को लौटाने का भी तो फर्ज़ बनता है।एक देर रात हम तीनों बैठे थे कि आमरा वहाँ से गुजरी। हमें गप्पें मारते देख वह बैठ गई। आमरा बीबीसी में काम करती हैं। उसने बताया कि जब से बीबीसी पर सरकार की नज़र टेढ़ी हुई है तब से हमें बहुत सावधानी से काम करने के निर्देश हैं। एक-एक वर्ड और सेंटेंस पर कई चरणों में गौर किया जाता है, कुछ भी ऐसा चला जाए जिसका गलत मीन (अर्थ) निकाला जाए और एजेंसी के लिए मुश्किल खड़ी हो जाए। पैरेटिंग को लेकर बात चली तो अमिता ने कहा कि जब मेरे बच्चे होंगे तो मैं छोटी उम्र से ही उन्हें  हॉस्टल में रखूँगी। हम बहुत देर से हॉस्टल में आए। हॉस्टल में बेहतर माहौल मिलता है। बच्चे सरवाइव करना सीखते हैं, सेल्फ डिपेंडेंट बनते हैं।”  आमरा ने इससे असहमति जताई। वह क्लास छह से ही हॉस्टल में रही थी। उसका मानना था कि छोटे बच्चों को माता-पिता के भावनात्मक संबल की जरूरत अधिक होती है। हायर एजुकेशन के लिए तो फिर बच्चों को बाहर जाना ही पड़ता है इसलिए बारहवीं तक तो बच्चों को माता-पिता के साथ ही रहने देना चाहिए।।। आमरा को किसी ने आवाज दी तो वह चली गई। अमिता ने भी विदा माँगी। ये इस कैम्पस की आखिरी रात थी यानी 22 जून की रात। शायद बारह बजने को है, दीपक जी सो गए हैं और सूरज कमरे में किसी से फोन पर धीमी आवाज में बतिया रहा हैं। मैं और बलदेव चाँदनी रात का पूरा लुत्फ़ उठाना चाहते हैं। हम नीचे जाने वाली कैम्पस की सड़क पर ही लेट गए। पास में कलकल बहते पानी का शोर है। किचन के बाहरी अहाते में कुछ युवा साथी समवेत स्वर में गीत गा रहे हैं-

है ज़िन्दगी मिल के बिताएँगे

हाल--दिल गा के सुनाएँगे

हम तो सात रंग हैं

ये जहाँ रंगी बनाएँगे

है ज़िन्दगी...

 

देअर आर नो फ्री लंचेज

आज दोपहर 02.00 बजे वर्कशॉप समाप्त होगी। प्लान के मुताबिक हमें दोपहर से अगले दिन शाम तक धर्मशाला और मैक्लोडगंज घूमना था। चौबीस जून को रात साढ़े दस बजे पठानकोट से दिल्ली के किए हमारी ट्रेन है। हमने प्लान में थोड़ा बदलाव किया और ड्राइवर सुरेन्द्र जी को साढ़े नौ बजे ही बुला लिया। मैंने और दीपक जी ने नाश्ता किया। सूरज ने कल चिकन बनने के कारण और बलदेव से रस्ते में उल्टियाँ होने के भय से नाश्ता नहीं किया। अपना सामान पैक कर हम धर्मशाला के लिए रवाना हुए। सबसे पहले हमने स्टेट वॉर मेमोरियल देखा। कंडबाड़ी में जहाँ चीड़ के पेड़ थे यहाँ से देवदारु के जंगल शुरू हो जाते हैं। इसके बाद एक चिड़ियाघर गए। वहाँ कुछ खास नहीं था जैसे आम चिड़ियाघर होते हैं वैसा ही। पता नहीं आदमी के क्या खुजली है कि इन पशु-पक्षियों को नुमाइश के लिए यहाँ बाड़ों में बंद किया हुआ है। पिचके पेट और उभरी हुई पसलियों वाला एक बब्बर शेर गर्मी से बेहाल हो चक्कर काट रहा है। उसे पता भी नहीं कि उस पर बनाई गई रील्स से लोग अपने फॉलोवर्स और पैसा दोनों बढ़ा रहे हैं। अब हम धर्मशाला क्रिकेट स्टेडियम के आगे थे। यह शायद दुनिया का सबसे ऊँचाई पर बना क्रिकेट स्टेडियम है। यहाँ तीस रुपए का टिकट लगता है। मैं पहली बार क्रिकेट स्टेडियम देख रहा हूँ और रोमांचित हूँ। अंदर भारी भीड़ है। लोग फोटुएँ ले रहे हैं। हमने भी ली। फोटोजीवी सूरज ने कुछ ज्यादा ली। अब सुरेन्द्र जी हमें एक चाय बागान के पास ले आए हैं। हम पूछते हैं यहाँ कितने का टिकट है? सुरेन्द्र जी बोले- “ना जी, कोई टिकट-विकट नहीं है। अराम से फोटो-शोटो लो।दीपक जी बोले- “फ्रेंड्स, रिमेम्बर देअर आर नो फ्री लंचेज हम बागान में गए, फोटो ली। बाहर चाय की दुकान थी। हमने चाय का मेन्यु देखा, एक सौ दस रुपए से शुरू। हमने सेवन मसाला चाय ऑर्डर की। रेट के मुताबिक चाय शानदार थी। एक सौ दस रुपए अखरे नहीं। लोग वहाँ से चाय पत्ती भी खरीद रहे थे। हम चलने को हुए तो दीपक जी अपने होंठो और गालों को तीन सेंटीमीटर खींचकर मुस्करा कर बोले- “मैंने कहा था ! देअर आर नो फ्री लंचेज।

 अब सुरेन्द्र जी ने कहा कि हमें रोप वे से मैक्लोडगंज चले जाना चाहिए। जब कल हम घूमघामकर फ्री हो जाएँ तब उन्हें फोन कर दें और वे हमें पिकअप कर पठानकोट स्टेशन छोड़ देंगे क्योंकि अभी धर्मशाला से मैक्लोडगंज के रास्ते में ट्रैफिक जाम मिलेगा। हमने गूगल कर रोप वे की टिकट देखी। वन साइड के पाँच सौ और दोनों साइड के आठ सौ रुपए। हमने कहा कि हम ये रुपए क्यूँ खर्च करें? हमने पाँच हजार रुपए में गाड़ी की है। हमने रोप वे से जाने से इंकार कर दिया। अब सुरेन्द्र जी का मुँह फूल गया। आए तब से जेंटलमैन की तरह बिहेव कर रहे सुरेन्द्र जी का व्यवहार बदल गया। हालाँकि दीपक जी उनसे पहले की तरह ही बतियाते रहे।

हमारा अगला पॉइंट था नड्डी। यहाँआइ लव नड्डीलिखी लोहे की रेलिंग के आगे हमने फोटो खिंचवाए। आजकल ये सब शहरों में हैं। नड्डी में कुछ विशेष नहीं था। दीपक जी सूरज घर के लिए कुछ शॉपिंग करने लगे। मैं और बलदेव आगे चलते गए। एक चाय की दुकान पर बलदेव ने चाय ऑर्डर की। मैंने चाय के लिए मना कर दिया। पेट में भारीपन था, शायद गैस हो ! मेरा नींबू पानी पीने का मन था जो यहाँ कहीं दिख नहीं रहा था। इसलिए हमने कड़ुआ धूंआ छाती में भरकर बाहर फेंका  इसके बाद एक-दो डकार आई तो जी कुछ हल्का हुआ। हम कुछ और आगे बढ़े तो माता निर्मला देवी के सहजयोग साधना केंद्र का होर्डिंग लगा था। मुझे मुकेश जी याद हो आए। जब मैं सोनड में स्कूल व्याख्याता था तब हमारे एक साथी थे मुकेश सैनी। वे माता निर्मला देवी के भक्त थे। स्कूल में भी कई बार प्रार्थना सत्र में वे विद्यार्थियों को सहज ध्यान कराते थे। स्टाफ साथी दबे स्वर में इसका प्रतिरोध करते क्योंकि कई बार वे ध्यान से ज्यादा माताजी का गुणगान करने लगते। मुझे भी उन्होंने कई बार इससे जोड़ने की कोशिश की लेकिन मैंने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया। माताजी के फोटो का लॉकेट वे गले में पहनते जिसमें माताजी ने सोने का बड़ा-सा हार पहना होता। लोकेट और सोने के हार के कारण ही मुझे उनसे वितृष्णा हो आई। मैं किसी विधि या संप्रदाय में नहीं बँधना चाहता था।

साथियों को भूख लगी तो नड्डी में ही एक रेस्तरां पर हमने मसाला डोसा खाया। स्नैक्स लेने हो या हल्का नाश्ता करना हो तो मेरी पहली पसंद साउथ इंडियन ही है। कम तेल कम मिर्च-मसाले में बनते हैं ये। वैसे डोसा अच्छा नहीं था। अब हमारा अगला पॉइंट डल झील थी। जब हम डल झील पहुँचे तो देखकर मन खट्टा हो गया। हम अपने मन में कश्मीर की डल झील की कल्पना कर बैठे थे। और यहाँ देखा तो कुछ नहीं। एक पोखरे में भरा गंदला-सा पानी। हाँ, झील के उस ओर देवदारु के लम्बे-घने पेड़ों की शृंखला थी। मुझे हजारी बाबा का निबंधदेवदारुयाद हो आया। मेरे प्रिय निबन्धकार हजारी बाबा भी कैसे गपोड़ी आदमी थे? देवदारू की फुनगियों से लुढ़कने की कल्पना करने वाले। हम झील के लिए नीचे नहीं उतरे। सड़क से ही फोटो ली। झील के दूसरे किनारे मुझे एक किशोर जोड़ा दीखा। लड़का प्रणय निवेदन कर रहा था। वह लड़की को बार-बार छूने की कोशिश में था और लड़की उसे छका रही थी। जैसे ही वह छूने में असफल रहता वह खिलखिला पड़ती और कभी खुद जानबूझकर उसे छूने का मौका दे देती। दृश्य देख आँखें जुड़ा गई। मैंने बलदेव को दिखाया। वह बोला किसोलो ट्रेवलिंग में कभी-कभी ऐसे अवसर मिल जाते हैं। ऐसे लोग और पल क्षणिक होते हैं। ये बिना एक-दूसरे को अपनी उम्मीदों से बाँधे जीवन में कभी मिटने वाली याद एक-दूसरे को दे जाते हैं। आगे फिर से मिलने का कोई वादा और जो जीवन साथ जिया उसकी कोई ग्लानि। इन पलों की फोटो लेते हैं क्यूँकि फोटो भी बंधन बन जाता है कई बार। हर याद कैमरे में दर्ज करने की नहीं होती। कुछ यादें अपने दिल के किसी ऐसे कोने में रखने के लिए होती हैं जहाँ किसी को झाँकने की इजाज़त नहीं होती। वहाँ सिर्फ़ हम देख पाते हैं।तभी सूरज को वहाँमेवाड़ प्रेमनाम से आइसक्रीम का ठेला दीखा। सूरज ने कहा ये पक्का हमारे भीलवाड़ा का होगा। बात की तो वही हुआ। नाम-गाँव पूछा तो एकदम परिचित निकले। आइसक्रीम वाले युवा साथी ने अपना नाम बताया-मुकेश। वह भीलवाड़ा की गंगापुर तहसील के किसी गाँव से सूरज के परिचित के चचेरे भाई निकले। यहाँ कब से पूछने पर मुकेश ने बताया कि सत्रह साल पहले उसके पिताजी यहाँ आए थे। फिर बड़े भैया आए। अब वे चारों भाई यहीं और यही काम करते हैं। चार लड़के अपने गाँव से ली आए हैं। इस तरह धर्मशाला से मैक्लोडगंज के रास्ते में आठ जगह उनके ठेले हैं। मुकेश ने बढ़िया आइसक्रीम खिलाई। हमने पैसे देने चाहे तो लेने से इंकार कर दिया। इसरार करने पर आधे पैसे यानी केवल सौ रुपए लिए। तभी वहाँ एक परिवार आया। पति-पत्नी और दो बच्चियाँ। छोटी किसी बात पर बड़ी से नाराज थी। माता-पिता सेल्फी लेने में व्यस्त थे। मैंने दीपक जी का ध्यान दिलाया। उन्होंने अपने कैमरे से उनकी कई तस्वीरें लीं और बिना इजाज़त बिना फोटो लेने के लिए माफ़ी सहित उनके माता-पिता को दिखाई। फोटो देखकर वे बहुत खुश हुए और कहा- “माफ़ी की कोई जरूरत नहीं। प्लीज हम दोनों की भी एक तस्वीर उतारिए... अब एक पूरे परिवार की भी।उन्होंने दीपक जी का नंबर लिया और कहा कि फोटोज प्लीज व्हाट्सअप कर दें।

 

खिलाई गई रोटी दिए गए चुम्बन, कभी गिने नहीं जाते

मैक्लोडगंज के मुख्य चौराहे से होते हुए सुरेन्द्र जी ने हमें दलाई लामा मंदिर के पास छोड़ा। इसे नामग्याल मोनेस्ट्री कहते है। इसी का नामत्सुगलाखांग टेम्पलभी है। दलाई लामा साल में दो या तीन बार यहाँ उपदेश देने आते हैं। मुख्य मंदिर में भगवान बुद्ध की एक स्टेज पर एक बड़ी पीतवर्णी प्रतिमा है। बाहर बेलनाकार प्रार्थना चक्र लगे हैं जिन पर तिब्बती भाषा में मंत्र उकेरे गए हैं। उन्हें हथेली से धक्का मारकर घुमाना भी अनुष्ठान का एक हिस्सा है। सब लोगों को हमने ऐसा करते देखा तो हमने भी किया। मंदिर के आगे अहाते में कई वृद्ध बौद्ध भिक्षु माला फेरते दीखे तो वहीं एक युवा भिक्षु बार-बार दंडवत हो रहा था जैसे गोवर्द्धन में कई साधु एक ही स्थान पर एक सौ आठ बार दंडवत होते हैं। गिनती के लिए वे गोल पत्थर आगे रखते जाते हैं। सनातन धर्म में आए विकृतियों को दूर करने के लिए बुद्ध ने एक शुद्ध मार्ग चलाया लेकिन आज उसके अनुयायी फिर उन्हीं कर्मकांड में उलझकर रह गए हैं। मंदिर से निकलकर हम बाजार दर्शन को निकले। खाने-पीने की चीजें भी बड़ी महँगी हैं यहाँ। यहाँ सब जगह एक ही स्नैक्स है मोमोज, जो हम खाना नहीं चाहते थे। हमने आलू चिप्स और पानीपूरी खाई। यहाँ पानीपूरी पचास रुपए की प्लेट यानी दस रुपए की मात्र एक, बाप रे ! हमने एक-एक ही खाई। इस सबसे  भूख शांत नहीं हुई क्योंकि आज दिन में खाना नहीं खाया था। हम एक होटल में घुसे। बाहर ही टेबल पर एक प्रौढ़ दम्पती पकौड़े और चाय लिए बैठे थे। हमने भी एक टेबल पर आसन जमाते हुए यही ऑर्डर कर दिया। लेकिन होटल स्टाफ ने मना कर दिया कि अब वे डिनर की तैयारी करेंगे इसलिए हमारा ऑर्डर नहीं लेंगे। हमने विनती भी की लेकिन वे नहीं माने। बलदेव बोला- अंकल-आंटी के साथ खा लेते हैं। मैंने और दीपक जी ने उसे बरजा। लेकिन वह कहाँ मानने वाला था।

बलदेव- “आप खुशनसीब हैं अंकल आपको पकौड़े मिल गए, हमारी ऐसी किस्मत कहाँ?

अंकल - “क्या बात कर रहे हैं?

बलदेव- “हाँ, होटल स्टाफ ने मना कर दिया, वे हमारा पकौड़े का ऑर्डर नहीं ले रहे हैं।

अंकल- “कोई बात नहीं, इसमें से ले लीजिए... प्लीज।

आंटी- “प्लीज, ले लीजिए, ये बहुत ज्यादा हैं... लीजिए आप, हमें ख़ुशी होगी।

बलदेव- “चलिए, आपकी ख़ुशी के लिए ले लेते हैं।

अंकल-आंटी ने हमें भी कहा- “आप लोग भी लीजिए, प्लीज।मैंने और दीपक जी ने एक-एक उठाया। बलदेव ने दो लिए। सूरज ने दो पकौड़ों के साथ चटनी भी ली। मुझेथ्री इडियट्सयाद आए। हहहाहा... अंकल-आंटी दिल्ली से यहाँ घूमने आए थे। बहुत प्यारा जोड़ा। पकौड़े सिर्फ मैं गिन रहा था, वे नहीं। वे प्रेम में थे इसलिए प्रेम से खिला रहे थे। वैसे भीखिलाई गई रोटी दिए गए चुम्बन, कभी गिने नहीं जाते” (गीत चतुर्वेदी)

मार्केट का पूरा चक्कर लगाकर हम लौटने लगे कि रस्ते में एक पब से म्यूजिक सुनाई दे रहा था। बलदेव के कहने पर हम सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचे। पब बिलकुल खाली था। एक म्यूजिक बैंड परफोर्म कर रहा था। सुंदर-सजीले, दाढ़ी वाले चार युवा। दीपक जी ने एक के कान में कहा कि मैं भी गाता हूँ मल्लब  क्या आप यहाँ मुझे गाने का मौका देंगे? उसने मुस्करा कर सर हिलाया मल्लब ये प्रोफेशनल जगह है- सॉरी... हम पब में बैठे, मैन्यु देखा। ड्रिंक्स बहुत महँगी थी जो हमें लेनी नहीं थी। खाना भी बहुत महँगा था। वेटर ने हमें पानी पिलाया। हमने उसे शुक्रिया कहा और नीचे उतर आए। थोड़ा आगे चलते ही रावणहत्था लिए एक लोक कलाकार भगवान शंकर को समर्पित कोई राजस्थानी गीत गाता मिला। हम रुके, गाना सुना फिर बातचीत हुई। राजस्थान के हनुमानगढ़ का निकला। उससे हमने संगीत सुना। पहले बलदेव ने तीस रुपए दिए। फिर बोला- “इसे दो सौ रुपए और दो विष्णु जी मैंने प्रश्नवाचक निगाह से देखा तो बोले- “स्साला, वहाँ पब में तो अभी दो हजार का खाना खा आते।मैंने फीकी हँसी छोड़ी और सौ का नोट कलाकार को पकड़ा दिया। उसने नोट माथे से लगाकर रख लिया।

 

प्रीत की कोमल त्वचा पर आँख के छुए से भी दाग पड़ता है

अब हम गाड़ी में सवार हो भागसूनाग पहुँचे जहाँ हमें रात्रि विश्राम करना था और सुबह ट्रेकिंग करनी थी। बस स्टैंड पर वाहनों की भारी कतार लगी थी। हमने दो-तीन होटल देखे फिर बस स्टैंड के पास वाला एक होटल फाइनल कर दिया- दो हजार रुपए में एक बड़ा कमरा जिसमें दो डबल बेड लगे थे। सामान रख हम बाहर आए। मैक्लोडगंज के मुख्य बाजार से हम देखते आए थे कि कहीं प्योर वेज रेस्तरां दीखे लेकिन कोई दिखा नहीं। यहाँ भी सब जगह वेज-नॉन वेज एक साथ थे। सूरज इस बात पर अड़ा था कि हंड्रेड परसेंट वेज रेस्तरां में ही खाना खाएगा। कई जगह पूछा लेकिन बात नहीं बनी। तभी हमारे होटल के दायीं ओर श्री कृष्णा रेस्टोरेंटहंड्रेड परसेंट वेजलिखा दीखा। सूरज उछल पड़ा। दीपक जी ने कहा कि और भी देखते हैं लेकिन सूरज अड़ गया कि यहीं ठीक है। खाना खाया, एकदम खराब खाना था। लेकिन पेट भरना था। अब हम बाजार करने निकले। तीनों मित्रों का मन हुआ कि आइसक्रीम खायी जाए। मैंने कहा कि भोजन के तुरंत बाद आइसक्रीम खाना स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित नहीं है। लेकिन वे क्षणवादी सज्जन पूर्ण भोग के पक्ष में थे। सामूहिक दबाव के बावजूद मैंने आइसक्रीम नहीं खाई। हम आगे चलते-चलते एक कपड़े की दुकान पर पहुँचे। हमने कुछ कपड़े देखे। दीपक जी ने मोलभाव किया। हमने पत्नियों और बेटियों के लिए पोंचु और शाल खरीदे। बलदेव ने हैम्प से बने दो बैग भी खरीदे। दस बज गए थे, हम थके थे। सुबह ट्रेकिंग पर जाना था। होटल लौटने को हुए। मैंने कहा कि मेरे हिस्से की आइसक्रीम खिलाई जाए। सूरज आइसक्रीम लेने गया और एक अपने लिए भी ले आया। आइसक्रीम खाने से पहले मैं पानी पीना चाहता था। मुझे बहुत प्यास लगी थी। जिस दुकान से हमने आइसक्रीम खरीदी उसने सामने नल की ओर इशारा किया। मैं पानी पीने को झुकने वाला ही था कि एक प्रौढ़ मुस्लिम सज्जन जो अपने हाथ में धुले हुए कप लिए नल पर खड़े थे, ने एक बड़े कप में पानी भरकर मेरी ओर बढ़ा दिया। मन एक साँस में पी गया। उन्होंने फिर से भरकर मेरी ओर बढ़ाया। मैं फिर पी गया। गर्म खाना खाने से जो सीने में जलन हुई थी, वह एकदम ठंडे पानी से शांत हुई। उन्होंने पूछा- और? मैंने गर्दन हिलाई तो तीसरा कप भरकर मेरी ओर बढ़ा दिया। मैं उनके प्रति कृतज्ञता से भरा था। मैंने शुक्रिया कहा। वे बस मुस्कराए और कप धोकर चल पड़े। मुझे बाबुषा याद आई- “प्रीत की कोमल त्वचा पर आँख के छुए से भी दाग पड़ता है

         सुबह छह बजे हमें ट्रेकिंग के लिए निकलना था लेकिन हम उठे ही सात बजे। इसके बाद बातों में मशगूल हो गए। नहा-धोकर तैयार हुए। नौ बज चुके थे। बाहर एक रेस्तरां पर नाश्ता किया। आलू-प्याज के पराठे और दही। पराठे जले-से थे और दही भी बेस्वाद। बेमन से खाया और भागसूनाग वाटर फॉल के लिए निकले। बाजार के खत्म होते ही भागसूनाग मंदिर दिखा। जूते उतार कर हम सीढ़ियाँ चढ़कर मंदिर पहुँचे। यह शिव मंदिर था। छोटे गर्भगृह में कई लोग पूजा-अर्चना में संलग्न थे। हमने बाहर से ही दर्शन किए। एक ओर कुछ कमरें बने थे जिनकी आगे की दीवारों पर आगे लकड़ी का बेहद सुंदर काम था। दीपक जी ने इसके फोटोग्राफ लिए। वहाँ सीढ़ियों के सामने बने हॉल की दीवार पर 16 सितंबर, 1972 का एक शिलापट्ट लगा था जिसमें मंदिर का और उस स्थान का इतिहास लिखा था। नीचे महंत गणेश गिरि जी महाराज का नाम लिखा था। शिलापट्ट में मंदिर को 5080 वर्ष प्राचीन बताया गया था तथा घटना (जिसके कारण इस स्थान का नाम भागसूनाग पड़ा) को 9084 वर्ष पुराना बताया गया है। घटना का इतिहास इस तरह था-द्वापर युग के मध्यकाल में दैत्य राजा भागसूनाग की राजधानी अजमेर देश में थी। एक बार राजा भागसूनाग के प्रदेश में वर्षा होने के कारण भयानक सूखा पड़ गया। प्रजा में त्राहि-त्राहि मच गई।प्रजा ने मिलकर राजा भागसूनाग से निवेदन किया कि तत्काल कहीं से पानी का प्रबंध करें यदि ऐसा हो सका तो हम लोग इस स्थान को छोड़कर अन्यत्र कहीं चले जाएंगे। प्रजापालक राजा भागसूनाग ने सबको वहीं रहने का आश्वासन दिया और पानी की तलाश करता हुआ नागों के इस प्रदेश में पहुंचा। यहाँ भागसूनाग के ऊपर फैली धौलाधार पर्वत माला के बीच अनेक सुंदर सरोवर आज भी विद्यमान है। भागसूनाग से लगभग 18000 फीट ऊंची धौलाधार शिखर पर राजा को एक सरोवर लहराता हुआ दिखाई दिया जिसे नागडल नाम से जाना जाता है। उस सरोवर का जल मायावी दैत्यराज भागसूनाग ने अपनी माया के द्वारा कमंडल में भर लिया और वापस लौट चलें। चलते-चलते अँधेरा  हो गया तो भागसूनाग यही विश्राम करने लगा।जब नागों ने देखा कि उनका सरोवर खाली पड़ा हुआ है तो वे पैरों के निशानों का पीछा करते हुए भागसूनाग का पता लगाते हुए यहाँ तक पहुंचे। इसी स्थान पर भागसूनाग और नागों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। उस युद्ध में भागसूनाग के कमंडल का जल नीचे गिर गया तब से आज तक वह जल विभिन्न धाराओं के रूप में प्रवाहित होता चला रहा है। युद्ध में नागों ने भागसूनाग को पराजित कर दिया। वह समझ गया कि ये नाग भी भगवान शंकर के ही स्वरुप हैं। अपनी पराजय स्वीकार करते हुए युद्ध में घायल भागसूनाग ने नागदेव शंकर से कहा कि मुझे ज्ञात हो गया है कि आपका जल को चुराने के अपराधस्वरूप अब मेरी मृत्यु निश्चित है। किंतु अपनी प्रजा के हित के लिए मुझे ऐसा करना पड़ा इसलिए मैं आपसे क्षमा प्रार्थना करता हूँ।भागसूनाग की इस विनम्र प्रार्थना से नागदेव शंकर शांत हो गए और उसकी अंतिम इच्छा के बारे में जानना चाहा।भागसूनाग ने प्रार्थना की यदि आप मुझ पर कृपा करें तो मेरी अंतिम इच्छा यही है कि किसी तरह मेरे राज्य में पानी पहुँच  जाए जिससे मेरी प्रजा की रक्षा हो सके और आपके हाथों मेरी मुक्ति हो।साथ ही आपका नाम के साथ मेरा नाम भी अमर रहे; ऐसा कुछ उपाय कीजिए।यह कहकर भागसूनाग ने अपने प्राण त्याग दिए। इसके बाद नागदेव ने अजमेर प्रदेश में जमकर वर्षा की और जल के अनेक स्रोत बहा दिए। फिर अपने नाम के साथ राजा भागसूका नाम जोड़कर उसे सदा-सदा के लिए अमृत्व प्रदान किया। तभी से इस स्थान का नामभागसूनागप्रसिद्ध हुआ। नागदेव अपने आराध्य शिव का रूप धारण कर यहाँ प्रकट हुए और इस मंदिर में उनका स्वयंभू लिंगभागेश्वरनाम से प्रसिद्ध हो गया। कालांतर में यहाँ के राजा धर्मचंद को भगवान भागेश्वर ने सपने में अपने यहाँ होने की सूचना दी। और राजा धर्मचन्द द्वारा ही यहाँ मंदिर बनवाकर विधिपूर्वक भगवान शिव स्वरूप भागेश्वर की स्थापना की गई। राजा धर्मचंद के नाम से ही इस नगरी का नाम धर्मशाला पड़ा। भागसूनाग के ऊपर कुछ दूरी पर धर्मकोट गाँव भी है जो राजा धर्मचंद के नाम से ही विद्यमान है। मंदिर के साथ ही कमरे में कुछ सिद्ध महात्माओं की पुरानी समाधियाँ जिसमें से एक बड़ी समाधि को किसी सिद्धने अपने जीवित रहते ही ले लिया था। इस सिद्ध पीठ पर यदि कोई निष्ठापूर्वक साधना-उपासना करता है तो भगवान उसकी संपूर्ण मनोकामनाएँ पूरी करते हैं। मंदिर के नीचे से निकलने वाले इस पवित्र जल से स्नान, पान आदि करने से नाना प्रकार के रोग व्याधि दूर हो जाते हैं।

 

उस लड़की का नाम ब्रह्मलता है”- बाबुषा

            अब हम भागसूनाग जल प्रपात के लिए आगे बढ़े। यहीं से त्रिउंड के लिए ट्रेकिंग शुरू होती है। होटल के रिशेप्शनिस्ट ने कल कहा था कित्रिउंड के लिए सुबह जल्दी ट्रेकिंग के लिए जाना उचित नहीं होगा और गाइड अवश्य ले जाइएगा यहाँ सब लोग एक-दूसरे को बिजनेस में सपोर्ट करते दीखे। होटल, गाइड, टैक्सी, शॉपिंग सबका एक-दूजे से नेटवर्क है। आगे उसने जोड़ा- “सर, त्रिउंड का नौ किमी का रास्ता है। आठ बजे भी निकलेंगे तो आप लोग शाम चार-पाँच बजे से पहले लौट कर नहीं सकेंगे हम हर हाल में चार बजे यहाँ से निकलना चाहते थे क्योंकि पठानकोट स्टेशन यहाँ से साढ़े तीन घंटे की दूरी पर है और पहाड़ों में समय अधिक भी लग सकता है। दूजे, सूरज ने हाथ खड़े कर दिए कि वह ट्रेक नहीं कर सकेगा इतना। सो, रात से ही मामला डांवाडोल था कि त्रिउंड जाना है या नहीं। हम भागसूनाग जल प्रपात पहुँचे। करीब साढ़े दस बज गए थे। वहाँ जल की एक पतली से धार बह रही थी। वहाँ हमने कुछ फोटो लिए और त्रिउंड के लिए ऊपर चढ़ाई शुरू की। दस मिनट में ही हमें समझ गया कि मामला आसान नहीं है। वहीं कुछ दूरी पर एक कैफे है- शिवा कैफे। हम कैफे में बाहर ही टीन शेड के नीचे बैठे। बढ़िया हवा चल रही थी। कैफे का भीतर का इंटीरियर शानदार था। भगवान शंकर के चित्रों से दीवारें सजी थीं। मैन्यु में ज्यादातर चाइनीज स्नैक्स थे। हमने तीन कॉफ़ी और एक चाय ऑर्डर की। हमने करीब डेढ़ घंटा वहीं गुजार दिया। त्रिउंड से लौटकर रहे युवाओं से पूछा तो सबका उत्तर यही था किचढ़ाई मुश्किल बहुत है लेकिन ऊपर स्वर्गिक आनंद की अनुभूति होती है भईया। टाइम हो तो जरूर जाना वर्ना करोगे  बहुत।हमारे पास टाइम था और हिम्मत और नीयत। दीपक जी ने कहा कि दो घंटे का समय है जितना चढ़ सकेंगे उतना चढ़ेंगे फिर लौट आएँगे। मैंने और बलदेव ने सहमति दे दी। शिव कैफे से आगे बढ़े। थोड़ी चढ़ाई पर वन विभाग का एक कर्मचारी बैठा मिला उसने कहा कि ऊपर जाने के लिए दो सौ रुपए प्रति व्यक्ति के हिसाब से पर्ची कटेगी। सलाह-मशविरा हुआ। सूरज ने साफ इंकार कर दिया तो हम नीचे लौट पड़े। जल प्रपात तक आने के बाद मैंने और बलदेव ने प्रस्ताव रखा कि नीचे ट्रेक से जाकर सीधे झरने के रास्ते से शिलाओं को पार करते हुए चला जाए तो बढ़िया रहे। शेष दो मित्रों ने इंकार किया। दीपक जी ने कहा कि थोड़ा नीचे जाकर तुम बता दो तो हम भी आने का सोच सकते हैं। हमने चट्टानों से होते हुए कुछ नीचे जाकर दिखा दिया। दीपक जी मान गए। थोड़ा नीचे उतरे तो एक विदेशी जोड़ा धूप सेंक रहा था। कम कपड़ों में युवती एक बड़ी चट्टान पर लेटी हुई कोई किताब पढ़ रही थी और युवक मोबाइल में मशगूल था। हमने उनके एकांत को भंग नहीं किया और दूरी बनाते हुए आगे बढ़ लिए। थोड़ी दूर बढ़े ही थे कि हमें दूर से ही एक फिरंगी नग्न हो नहाता दिखा। हम उसके पास आए तब तक वह कपड़े पहनकर कुछ पढ़ने-लिखने में व्यस्त हो गया। उम्र कोई चालीस के करीब होगी। भूरी दाढ़ी उस पर फब रही थी। बदन कसा हुआ था। हमने दीपक जी से कहा कि आप अभी अमरीका जाकर आए हैं, आपको अंग्रेजी भी जानते हैं तो फिरंगी से थोड़ी गुफ्तगू कीजिए। दीपक जी ने मना किया कि शायद उसे बात करना ठीक लगे। उसकी डायरी में जो नोट्स बने थे उससे लग रहा था कि वह संगीत पर काम कर रहा था। हमारे दबाव में दीपक जी ने उससे बात शुरू की तो उसने साफ मना कर दिया कि हमसे बात करने में उसकी कोई रुचि नहीं है। दीपक जी ने उससे माफ़ी माँगकर इस अंदाज में हमारी ओर देखा कि मैंने कहा था ! चट्टानों पर से उतरने में शरीर का बहुत श्रम हो रहा था। एक जगह रुककर हमने पानी पिया और सुस्ताने लगे। अब हम लगभग नीचे गए थे। यहाँ बहुत से लोग सपरिवार आए थे। कुछ लोग नहा रहे थे। कुछ बौद्ध भिक्षु और भिक्षुनियाँ भी स्नान के बाद अपने चीवर धूप में सुखा रहे थे और आपस में बतिया रहे थे। मैं और सूरज एक चट्टान पर बैठकर कुछ बतिया रहे थे। हमारे ठीक पीछे एक बड़ी चट्टान पर दो विदेशी स्त्रियाँ बतिया रही थीं। उनके पास एक कुत्ता था। उनमे से एक गोल मुँह वाली स्त्री जिसने गुलाबी टी-शर्ट पहनी हुई थी उस कुत्ते को नहालकर तौलिए से पोंछने का जतन कर रही थी जबकि कुत्ता अपना शरीर पोंछना नहीं चाहता था। शरीर पोंछने के बाद वह फिर पानी में दुबकी लगा आता। एक बार वह हमारे करीब भी आया और पानी झटक कर चला गया। उससे और पीछे एक चट्टान पर दीपक जी और बलदेव बैठे थे। दीपक जी ने अपने कैमरे से कुत्ते की कुछ तस्वीरें लेनी चाही लेकिन वह स्थिर नहीं हो रहा था तो उन्होंने कुत्ते की मालकिन और उसकी सहेली की फोटुएँ खींच डाली। भूरे बाल, तीखे नैन नक्श, उठी हुई नाक और गंभीर चेहरा लिए दूसरी स्त्री को संदेह हुआ कि उनकी फोटो खींची जा रही है। उसने दीपक जी की ओर देखा ही था कि वे भी झट भाँप गए और उनके समीप जाकर बोले किआपकी अनुमति के बिना फोटो खींचने के लिए माफ़ी। लेकिन आप फोटो देखेंगी तो निश्चित रूप से प्रसन्न होंगी। फिर भी आपको ऐतराज हो तो हम फोटो डिलीट कर देंगे फोटोज देखकर वे वाकई खुश हुईं और उन्होंने दीपक जी का नंबर लिया। साथ ही अपना नंबर दिया कि फोटो उनको भेज दें। इस तरह अपनी कलाकारी के लिए दूसरी बार दीपक जी को अनजान लोगों से तारीफ मिली। मैंने दीपक जी से कहा-

भूरे केश वाली उस लड़की का नाम ब्रह्मलता है

जिसका सौन्दर्य अव्याख्येय है

जिसकी लाज के आलोक में अलसुबह का सूर्य

मद्धम पड़ गया था।

वे बोले- “तुम्हें कैसे पता?” मैं फक से हँस दिया। पता नहीं। मैं तो बाबुषा की कविता पढ़ रहा था। सब बेलौस हँस दिए। मैंने कविता आगे पढ़ी-

मेरा मन कहता है इस समय पृथ्वी के किसी गीले छोर पर

उसका ब्रह्मपुरुष सिंघाड़े तोड़ता होगा

क्या वे दोनों कभी जान सकेंगे कि उनके मिलन में

मेरी प्रार्थना सम्मिलित है।

            अब हम वापस भागसूनाग मंदिर पहुँच गए। प्यास और गर्मी से हालत ख़राब थी इसलिए सबसे पहले हमने नींबू सोडा पिया। अब हम एक वेज रेस्तरां में गए और खाना खाया। लौटकर सामान पैक किया, सुरेन्द्र जी बुलवाया और लौट चले। खाना यहाँ भी बहुत अच्छा नहीं था। रास्ते में सबका जी खराब हो आया। हम पठानकोट से आधा घंटे पहले एक जगह रुके। मैंने और बलदेव ने नींबू सोडा और दीपक जी सूरज ने चाय पी। अब हम पठानकोट में एंटर हुए। दीपक जी ने जिज्ञासा प्रकट की तो ड्राइवर ने हमें वह जगह दिखाई जहाँ जैश--मोहम्मद के आतंकवादियों ने जनवरी, 2016  में एयरबेस पर हमला किया था। बाद में तत्कालीन सरकार ने पठानकोट हमला मामले की संयुक्त जाँच के तहत पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों को एयरबेस का दौरा कराया जिसकी बेहद आलोचना हुई। उसे एक कमजोर रणनीतिक कदम बताया गया।

            सुरेन्द्र जी ने हमें स्टेशन पर छोड़ा। यहाँ भयंकर गर्मी और उमस का माहौल था। सबसे पहले हम बारी-बारी से नहाए। उसके बाद तीन साथियों ने स्टेशन के बाहर ही ट्रेन के डिब्बे में बने एक रेस्तरां में खाना खाया। मुझे भूख नहीं थी इसलिए मैंने खाना नहीं खाया। मैं सामान के साथ वोटिंग रूम में बैठा रहा। उन लोगों ने आइसक्रीम खाई और मेरे लिए बादाम शेक ले आए। साढ़े दस बजे ट्रेन आई। एसी डिब्बे में चढ़े तब कुछ राहत मिली। ट्रेन ने सुबह नई दिल्ली स्टेशन छोड़ा। यहाँ से बलदेव को अलग निकल जाना था। सूरज को चूँकि जयपुर जाना था इसलिए वह हमारे साथ ही था। सराय रोहिल्ला से गरीब रथ में हमारी अलवर-जयपुर तक की यात्रा होनी थी। इसका दौसा स्टॉपेज नहीं है इसलिए मेरी टिकट अलवर तक की ही थी।

 

पापा, जल्दी आना !

मैं दीपक जी के घर गया। हम नहा-धोकर फ्रेश हुए। भाभीजी ने तब तक खाना बना दिया था। सलाद, रायता, टिंडे की सब्जी, चपाती, प्याज-हरा धनिया पोदीने की चटनी, मिर्च बड़ी, छाछ... अहा ! आनंद गया। पाँच दिन बाद घर का भोजन नसीब हुआ है। इस सादा किन्तु सुरुचिपूर्ण भोजन पर छप्पन भोग निछावर हैं। दीपक जी के घर शायद चौथी बार आया हूँ। उनका परिवार कभी खाना खिलाए बिना नहीं भेजता। उनके माता-पिता भी उतना ही आग्रह और स्नेह रखते हैं। अभी अंकल-आंटी हैं नहीं, जयपुर गए हैं। एक बार हमें कहीं शादी में जाना था इसलिए खाना तो हमें वहीं शादी में ही खाना था। शाम के कोई पाँच बजे थे। स्नैक्स के नाम पर ही उन्होंने इतना कुछ खिला दिया कि भोजन जित्ता हो गया। भाभीजी भी- “अरे भईया ! आपने तो कुछ लिया ही नहीं। थोड़ा तो और लो।फिर ये महाशय भी- “अरे, लो भई, जवान आदमी हो।दीपक जी खुद उतना ही लेंगे जितना उन्हें रोज खाना होता है और मेहमान का वजन बढ़ा देते हैं। भोजन के लिए जब दीपक जी की तारीफ़ की जाए तब वेतारक मेहता का उल्टा चश्माके भिड़े मास्टर की स्टाइल में कुर्ते की कॉलर ऊँची करके कहते हैं- “हमारे सिंधियों में खाना हमेशा स्पेशल होता है... भोजन और भाषा इन दो चीजों से ही सिंध की संस्कृति को हमने बचाए रखा है हम घंटा भर सोए कि मेरी ट्रेन का टाइम हो गया। दीपक जी ने मुझे स्टेशन छोड़ा। वहाँ से मैं दौसा लौट आया। लवी मार्शल आर्ट क्लासेज गई है। पंद्रह मिनट पहले जाता तो वह मिल जाती। और दरवाजा खोलते ही लिपट जाती। मैं कहीं बाहर जाता हूँ तो वह मुझे सबसे ज्यादा याद करती है। उसे मेरे बिना नींद आती है। पुरु अभी छोटा है, वह अपने खेल में मगन रहता है। वैसे भी बेटियाँ अपने पापा के ज्यादा नजदीक रहती है।दीपक जी और बलदेव की बेटियाँ भी ऐसी ही हैं। बाहर हम होते हैं तो रोज फोन पर उन्हें बताओ कि क्या खाया, कब खाया। उन्हें पता होता है कि पाँच दिन बाद आएँगे फिर भी फोन रखते हुए यही कहती हैं- पापा, जल्दी आना !

आभार- डायरी के कुछ काव्यात्मक शीर्षक दान्ते अलीगियेरी, जॉन एलिया, बाबुषा कोहली और गीत चतुर्वेदी की कविताओं से लिए गए हैं. उनका आभार रहेगा

 

विष्णु कुमार शर्मा
सहायक आचार्य, हिंदी विभाग
स्व. राजेश पायलट राजकीय महाविद्यालय बांदीकुई, जिला- दौसा, राजस्थान
  

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  विजय मीरचंदानी

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