- आनन्द कुमार एवं ब्रजेश कुमार
शोध सार : सोशल मीडिया ने आधुनिक युग में युवाओं की जातिगत पहचान, अभिव्यक्ति, और सामाजिक संघर्ष को गहराई से प्रभावित किया है। यह शोध लेख भारतीय समाज में जाति एवं विशेष रूप से युवाओं की भूमिका पर ध्यान केंद्रित करते हुए सोशल मीडिया के बीच जटिल संबंधों का विश्लेषण करता है। सोशल मीडिया ने युवाओं को जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ उठाने का एक शक्तिशाली मंच प्रदान किया है। इसके साथ ही, यह प्लेटफ़ॉर्म जातिगत रूढ़िवादिता, पूर्वाग्रहों, और ऑनलाइन हिंसा को भी बढ़ावा देता है, जो युवाओं की मानसिकता और आत्म-सम्मान को प्रभावित करता है। लेख में युवाओं की जातिगत अभिव्यक्ति के विविध रूपों जैसे गर्व से पहचान प्रदर्शित करना या इसे छिपाने की कोशिश को समझने का प्रयास किया गया है। साथ ही, सोशल मीडिया के माध्यम से जातिगत एकजुटता, शैक्षिक जागरूकता, और सामूहिक संघर्ष की नई संभावनाओं को भी रेखांकित किया गया है। अंततः, यह लेख सोशल मीडिया की द्वैत भूमिका को उजागर करता है, एक ओर, यह युवाओं को सामाजिक न्याय के लिए सशक्त बनाता है, दूसरी ओर, यह जातिगत विभाजन को गहरा भी कर सकता है। भविष्य में नीतिगत हस्तक्षेप और जागरूकता के माध्यम से इस माध्यम का सकारात्मक उपयोग सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
बीज शब्द : सोशल मीडिया, युवा, जाति पहचान, जातिगत भेदभाव, सामाजिक न्याय, डिजिटल एक्टिविज़म।
मूल आलेख : आधुनिक युग में सोशल मीडिया1 ने मानव जीवन के हर पहलू को प्रभावित किया है। यह न केवल संचार का एक माध्यम2 है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तन का एक शक्तिशाली उपकरण भी बन गया है। भारत जैसे देश में, जहां जाति3 एक प्रमुख सामाजिक संरचना है, सोशल मीडिया का युवाओं की जातिगत पहचान और उनके अनुभवों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। सोशल मीडिया ने युवाओं को अपनी आवाज़ उठाने और सामाजिक मुद्दों पर चर्चा करने का एक मंच प्रदान किया है। यह मंच न केवल उन्हें जागरूक करता है, बल्कि उन्हें सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करने में भी सक्षम बनाता है। भारत में, जहां जाति एक गहरी सामाजिक समस्या है, सोशल मीडिया युवाओं को जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ उठाने का अवसर प्रदान करता है। सोशल मीडिया पर युवा जातिगत भेदभाव के मामलों को साझा करते हैं और इनके खिलाफ आंदोलन चलाते हैं। इसके अलावा, सोशल मीडिया पर जातिगत समानता और सामाजिक न्याय के लिए कई आंदोलन भी चलाए जा रहे हैं। सोशल मीडिया ने युवाओं को जातिगत पहचान और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर चर्चा करने का एक शक्तिशाली मंच प्रदान किया है। सोशल मीडिया ने 21वीं सदी में संवाद, विचारों के आदान-प्रदान और सामाजिक संरचनाओं को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। खासकर युवा वर्ग के लिए यह एक ऐसा मंच बन गया है जहाँ वे न केवल अपने विचार साझा कर सकते हैं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर अपनी राय भी व्यक्त कर सकते हैं। भारत जैसे विविध सामाजिक संरचना वाले देश में, जाति अब भी एक महत्वपूर्ण सामाजिक तत्व बनी हुई है, और सोशल मीडिया ने इस विषय पर नए विमर्शों को जन्म दिया है। यह मंच जहाँ एक ओर जाति आधारित भेदभाव को उजागर करने और सामाजिक न्याय की लड़ाई को आगे बढ़ाने का माध्यम बना है, वहीं दूसरी ओर यह नए प्रकार के उत्पीड़न और बहसों को भी जन्म दे रहा है।
सोशल मीडिया4 ने युवाओं को जातिगत पहचान और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर चर्चा करने का एक शक्तिशाली मंच प्रदान किया है। यह मंच न केवल उन्हें जागरूक करता है, बल्कि उन्हें सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करने में भी सक्षम बनाता है। सोशल मीडिया पर युवा जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न के मामलों को साझा करते हैं और इनके खिलाफ आवाज़ उठाते हैं। युवाओं की सोशल मीडिया पर सक्रियता ने जातिगत मुद्दों को एक नई दिशा दी है। पहले जहाँ जाति से जुड़े सवालों पर मुख्यधारा की मीडिया में सीमित चर्चा होती थी, वहीं अब सोशल मीडिया के कारण यह एक सार्वजनिक विमर्श का विषय बन गया है।
सोशल मीडिया पर युवाओं की जातिगत अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों की पहचान की जा सकती है। कुछ युवा अपनी जातिगत पहचान को गर्व के साथ प्रदर्शित करते हैं, जबकि कुछ इसे छिपाने का प्रयास करते हैं। सोशल मीडिया पर जातिगत अभिव्यक्ति के ये विभिन्न रूप युवाओं की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्थिति को दर्शाते हैं। दलित, बहुजन और आदिवासी समुदायों के युवा अपनी आवाज को बुलंद करने के लिए ट्विटर, इंस्टाग्राम, फेसबुक, यूट्यूब और अन्य डिजिटल प्लेटफार्मों5 का उपयोग कर रहे हैं। इन प्लेटफार्मों पर वे जातिगत भेदभाव, शिक्षा और रोजगार में असमानता, आरक्षण नीति, सामाजिक बहिष्कार और जातिगत हिंसा जैसे विषयों पर खुलकर चर्चा कर रहे हैं। इससे उन लोगों को भी अपनी बात कहने का अवसर मिला है, जो पारंपरिक मीडिया में नजरअंदाज कर दिए जाते थे। हालांकि, सोशल मीडिया पर जातिगत विमर्श केवल उत्पीड़ित समुदायों तक सीमित नहीं है। इसमें सवर्ण जातियों के युवा भी हिस्सा ले रहे हैं, कुछ समर्थन में और कुछ विरोध में। आरक्षण, जातिगत पहचान और सामाजिक असमानता के मुद्दों पर विभिन्न दृष्टिकोण देखने को मिलते हैं। एक तरफ दलित-बहुजन समुदायों के युवा जाति-आधारित उत्पीड़न और ऐतिहासिक अन्याय की चर्चा करते हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ सवर्ण युवा इसे ‘जाति राजनीति’ का नाम देकर इसे अस्वीकार करने की कोशिश करते हैं। ऐसे मतभेद कभी-कभी तीखी बहसों, ट्रोलिंग और डिजिटल उत्पीड़न का कारण बनते हैं, जिससे जातिगत तनाव और अधिक बढ़ जाता है।
सोशल मीडिया ने युवाओं को जातिगत पहचान और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर चर्चा करने का एक शक्तिशाली मंच प्रदान किया है। यह मंच न केवल उन्हें जागरूक करता है, बल्कि उन्हें सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करने में भी सक्षम बनाता है। सोशल मीडिया पर युवा जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न के मामलों को साझा करते हैं और इनके खिलाफ आवाज़ उठाते हैं। इसके अलावा, सोशल मीडिया पर जातिगत समानता और सामाजिक न्याय के लिए कई आंदोलन भी चलाए जा रहे हैं। जाति6 आधारित भेदभाव केवल वास्तविक जीवन में ही नहीं, बल्कि डिजिटल दुनिया में भी मौजूद है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े युवा अक्सर ट्रोलिंग, गाली-गलौज, साइबर बुलिंग और बहिष्कार का सामना करते हैं। सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर कई बार ऐसे ट्रेंड चलते हैं, जिनमें जातिगत टिप्पणियाँ और घृणा भरे संदेश देखने को मिलते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सोशल मीडिया वास्तव में एक लोकतांत्रिक मंच है, जहाँ हर किसी को समान अवसर और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलती है? कई युवा दलित और बहुजन लेखक, विचारक और कार्यकर्ता इस मुद्दे को उठाते हैं कि सोशल मीडिया कंपनियाँ भी जातिगत भेदभाव के मामलों में निष्पक्ष नहीं हैं। कई बार उनकी पोस्ट्स को रिपोर्ट कर दिया जाता है या उन्हें बैन कर दिया जाता है, जबकि सवर्ण वर्चस्व को बनाए रखने वाले अकाउंट्स और पेज खुलेआम जातिगत भेदभाव को बढ़ावा देते हैं।
सोशल मीडिया7 ने जाति के खिलाफ संघर्ष करने वाले आंदोलनों को भी मजबूती दी है। ‘Dalit Lives Matter’, ‘Smash Brahminical Patriarchy’ और ‘Ambedkarite Movement’ जैसे कई डिजिटल अभियान सोशल मीडिया पर खूब चर्चित हुए हैं। इन अभियानों ने जातिगत अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने में बड़ी भूमिका निभाई है। खासकर, रोहित वेमुला की आत्महत्या, हाथरस गैंगरेप केस और अन्य जातिगत हिंसा के मामलों में सोशल मीडिया ने व्यापक जनसमर्थन जुटाने और न्याय की मांग को मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई है। ऐसे आंदोलनों से यह साबित होता है कि डिजिटल प्लेटफार्म केवल उत्पीड़न का माध्यम ही नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का भी एक महत्वपूर्ण औजार बन सकते हैं। हैशटैग #DalitLivesMatter ने सोशल मीडिया पर व्यापक प्रभाव डाला है। यह आंदोलन दलित समुदाय के युवाओं द्वारा शुरू किया गया था, जो जातिगत हिंसा और भेदभाव के मामलों को उजागर करने के लिए सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं8। इस हैशटैग के माध्यम से युवाओं ने न केवल अपने अनुभव साझा किए, बल्कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जातिगत असमानता के प्रति जागरूकता फैलाई। यह आंदोलन सोशल मीडिया की शक्ति को दर्शाता है, जहां युवा पारंपरिक मीडिया की सीमाओं को पार कर सीधे जनता तक पहुंच बना सकते हैं।
युवाओं के बीच जातिगत पहचान का प्रदर्शन भी सोशल मीडिया पर एक महत्वपूर्ण पहलू बन गया है। ट्विटर और इंस्टाग्राम बायो10 में जातिगत पहचान जोड़ना, एक नई प्रवृत्ति के रूप में उभर रहा है। यह प्रवृत्ति जातिगत पहचान को गर्व के साथ अपनाने और ऐतिहासिक अन्याय का प्रतिकार करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम मानी जा सकती है। लेकिन इसके साथ ही, यह भी देखा गया है कि कई सवर्ण युवा भी अपनी जातिगत पहचान को दिखाने के लिए 'ब्राह्मण प्राइड' या 'राजपूत बॉय' जैसे टैग इस्तेमाल करते हैं, जिससे जातिगत ध्रुवीकरण और बढ़ जाता है। सोशल मीडिया पर जातिगत मुद्दों पर बढ़ती बहसों के कारण राजनीतिक दल भी इस मंच पर अधिक सक्रिय हो गए हैं। जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखते हुए कई नेता और राजनीतिक समूह सोशल मीडिया पर अपनी रणनीतियाँ बना रहे हैं। चुनावों के समय जातिगत पहचान और मुद्दों को लेकर सोशल मीडिया पर बड़े स्तर पर प्रचार-प्रसार किया जाता है। यह एक तरह से डिजिटल युग11 की नई ‘जातिगत राजनीति’ का स्वरूप है, जिसमें युवा न केवल मतदाता के रूप में भाग ले रहे हैं, बल्कि विचारधाराओं को भी प्रभावित कर रहे हैं।
हालांकि, सोशल मीडिया की इस जातिगत बहस का एक नकारात्मक पक्ष भी है। कई बार यह प्लेटफार्म जातिगत द्वेष12 और नफरत को बढ़ावा देने का काम करते हैं। फेक न्यूज़, अफवाहें और गलत जानकारी के माध्यम से जातिगत तनाव को भड़काने की कोशिशें होती हैं। खासकर, व्हाट्सएप और फेसबुक जैसे प्लेटफार्मों पर नफरत फैलाने वाली सामग्रियाँ तेजी से वायरल होती हैं, जिससे समाज में तनाव पैदा होता है। इसके अलावा, कई बार जातिगत विमर्श केवल ट्रेंडिंग टॉपिक बनकर रह जाता है और वास्तविक सामाजिक परिवर्तन की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया जाता। युवाओं को सोशल मीडिया के इस जातिगत विमर्श को जिम्मेदारी से संभालने की जरूरत है। केवल ऑनलाइन बहसों तक सीमित रहने के बजाय, जाति-आधारित अन्याय के खिलाफ जमीनी स्तर पर भी प्रयास करने की आवश्यकता है। शिक्षण संस्थानों, कार्यस्थलों और सामाजिक संरचनाओं में जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए युवाओं को मिलकर काम करना होगा। सोशल मीडिया को केवल एक अभिव्यक्ति का माध्यम न मानकर, इसे सामाजिक परिवर्तन के लिए एक प्रभावी औजार की तरह इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
सोशल मीडिया ने जातिगत विमर्श को नए आयाम दिए हैं और युवाओं को अपनी पहचान, संघर्ष और अधिकारों के लिए आवाज उठाने का अवसर प्रदान किया है। यह एक ऐसा मंच है जो जातिगत अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने वालों के लिए एक ताकत भी बन सकता है और यदि गलत हाथों में चला जाए, तो नफरत और विभाजन का कारण भी। इसीलिए यह आवश्यक है कि युवा इस मंच का उपयोग जागरूकता बढ़ाने, समावेशिता को प्रोत्साहित करने और जातिविहीन समाज की दिशा में कदम बढ़ाने के लिए करें, ताकि भविष्य में एक समान और न्यायसंगत समाज की परिकल्पना साकार हो सके। जाति भारतीय समाज की एक प्राचीन और गहरी सामाजिक संरचना है, जो सदियों से समाज को विभाजित करती आई है। जाति व्यवस्था ने समाज को विभिन्न वर्गों में बांट दिया है, और यह व्यवस्था आज भी भारतीय समाज में गहराई से जड़ें जमाए हुए है। जाति न केवल सामाजिक संबंधों को प्रभावित करती है, बल्कि यह शिक्षा, रोजगार, और राजनीति में भी एक प्रमुख भूमिका निभाती है। जाति व्यवस्था का उदय प्राचीन भारत में हुआ था, जब समाज को चार वर्णों में विभाजित किया गया था: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र 13 । समय के साथ, यह व्यवस्था और जटिल हो गई, और समाज को हजारों जातियों और उपजातियों में विभाजित कर दिया गया। जाति व्यवस्था ने समाज में ऊंच-नीच और भेदभाव को जन्म दिया और यह आज भी भारतीय समाज में एक प्रमुख समस्या है।
भारतीय संविधान ने जातिगत भेदभाव को समाप्त करने और सामाजिक न्याय12 स्थापित करने के लिए कई प्रावधान किए हैं। संविधान के अनुच्छेद 15 और 17 के तहत जातिगत भेदभाव को गैरकानूनी घोषित किया गया है और अनुच्छेद 46 के तहत अनुसूचित जातियों और जनजातियों के कल्याण के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं। हालांकि, आज भी भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न के मामले सामने आते हैं। सोशल मीडिया ने इन मामलों को उजागर करने और जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज़ उठाने का एक मंच प्रदान किया है। सोशल मीडिया पर युवा अपनी जातिगत पहचान14 को विभिन्न तरीकों से अभिव्यक्त करते हैं। कुछ युवा अपनी जातिगत पहचान को गर्व के साथ प्रदर्शित करते हैं, जबकि कुछ इसे छिपाने का प्रयास करते हैं। सोशल मीडिया पर जातिगत अभिव्यक्ति के ये विभिन्न रूप युवाओं की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्थिति को दर्शाते हैं। सोशल मीडिया पर युवा जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न के मामलों को साझा करते हैं और इनके खिलाफ आवाज़ उठाते हैं। इसके अलावा, सोशल मीडिया पर जातिगत समानता और सामाजिक न्याय के लिए कई आंदोलन भी चलाए जा रहे हैं।
सोशल मीडिया पर जातिगत रूढ़िवादिता और पूर्वाग्रहों का प्रसार भी देखा जा सकता है। सोशल मीडिया पर जातिगत रूढ़िवादिता और पूर्वाग्रहों का युवाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। सोशल मीडिया पर जातिगत रूढ़िवादिता और पूर्वाग्रहों का प्रसार युवाओं की मानसिकता और आत्म-सम्मान को प्रभावित करता है। युवा सोशल मीडिया पर जातिगत रूढ़िवादिता और पूर्वाग्रहों के खिलाफ आवाज़ उठाते हैं और इनके प्रभाव को कम करने का प्रयास करते हैं। हालांकि, सोशल मीडिया का अंधेरा पक्ष भी है। जातिगत रूढ़िवादिता और पूर्वाग्रहों को बढ़ावा देने वाली सामग्री भी तेजी से फैलती है। उदाहरण के लिए, कुछ समुदायों द्वारा दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों के खिलाफ अपमानजनक मीम्स (memes) या टिप्पणियां साझा की जाती हैं, जो युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं। शोधकर्ता अनुभव यादव (2017) के अनुसार, सोशल मीडिया पर जातिगत अपमान का सामना करने वाले युवाओं में आत्म-सम्मान की कमी और अवसाद की संभावना अधिक होती है।
इसके विपरीत, सोशल मीडिया ने जातिगत एकजुटता को भी मजबूत किया है। दलित, आदिवासी और ओबीसी समुदाय के युवा ऑनलाइन समूहों और फ़ोरम के माध्यम से एक-दूसरे से जुड़ते हैं, अपनी सांस्कृतिक विरासत को साझा करते हैं और सामूहिक संघर्ष की रणनीतियां बनाते हैं। उदाहरण के लिए, "दलित पैंथर" जैसे ऑनलाइन समूह साहित्य, कला, और राजनीतिक चर्चाओं के माध्यम से जातिगत गर्व को बढ़ावा देते हैं। ये प्लेटफ़ॉर्म युवाओं को उनकी पहचान के साथ सशक्त होने में मदद करते हैं। सोशल मीडिया के एल्गोरिदम भी जातिगत विषयों को प्रभावित करते हैं। कई बार, प्लेटफ़ॉर्म विवादास्पद या नफ़रत फैलाने वाली सामग्री को अधिक ऑनलाइन पहुँच15 के लिए प्राथमिकता देते हैं, जिससे जातिगत तनाव बढ़ता है। उदाहरण के लिए, ट्विटर पर ट्रेंड होने वाले विवादास्पद हैशटैग अक्सर जातिगत संघर्ष को हवा देते हैं। हालांकि, कुछ युवा एल्गोरिदम की इस कमजोरी का उपयोग सकारात्मक संदेश फैलाने के लिए भी करते हैं। वे वायरल होने वाली सामग्री बनाकर जातिगत समानता के संदेश को व्यापक दर्शकों तक पहुंचाते हैं। शिक्षा और सोशल मीडिया का संबंध भी इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है। युवा ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म जैसे यूट्यूब और इंस्टाग्राम का उपयोग जातिगत इतिहास और सामाजिक न्याय पर शैक्षिक सामग्री साझा करने के लिए कर रहे हैं।
हालांकि, डिजिटल डिवाइड अभी भी एक बड़ी चुनौती है। ग्रामीण और आर्थिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों के युवाओं तक सोशल मीडिया की पहुंच सीमित है, जिससे उनकी आवाज़ें मुख्यधारा में कम सुनाई देती हैं। इसके अलावा, महिलाओं और समलैंगिक समुदाय के दलित युवाओं को ऑनलाइन जातिगत और लैंगिक उत्पीड़न का दोहरा बोझ झेलना पड़ता है। इन चुनौतियों के बावजूद, सोशल मीडिया युवाओं के लिए एक सुरक्षित स्थान बनता जा रहा है। कई युवा ऑनलाइन समुदायों16 में अपनी जातिगत पहचान को स्वीकार करते हैं और अन्य लोगों के साथ सहानुभूति पाते हैं।
निष्कर्ष : सोशल मीडिया युवाओं की जातिगत पहचान को आकार देने में एक दोधारी तलवार की तरह है। एक ओर, यह उन्हें भेदभाव के खिलाफ आवाज़ उठाने और सामाजिक न्याय के लिए संगठित होने का मंच देता है। दूसरी ओर, यह जातिगत रूढ़िवादिता और पूर्वाग्रहों को बढ़ावा देकर समाज को विभाजित भी करता है। युवाओं की भूमिका इन चुनौतियों को समझने और सोशल मीडिया का उपयोग सकारात्मक बदलाव के लिए करने में निहित है। भविष्य में, इस विषय पर और गहन शोध की आवश्यकता है ताकि सोशल मीडिया के माध्यम से जातिगत समानता की दिशा में ठोस कदम उठाए जा सकें।
2- ग्रैहम मिकल, सोशल मीडिया कोमुनिकतिओन शेयरिंग एंड विसिबिलिटी, रूटलेज, 2016 पृ.78
3- लुइ डेमों, होमो हिरार्किकस, ऑक्सफ़ोर्ड, 1970 पृ. 21
4- स्वर्ण सुमन, सोशल मीडिया , संपर्क क्रांति का कल आज और कल, हार्पर कॉलिन्स , 2014
5- डा. कामिनी जैन, प्रसार एवं संचार विकास, रीगल प्रकाशन, 2010 पृ. 45
6- जी.एस. घुरिये, कास्ट एंड रेस इन इंडिया, पोपुलर प्रकाशन, 2011 पृ. 162
7- सच्चिदानंद सिन्हा, जाति व्यवस्था: मिथक वास्तविकता, और चुनौतियाँ, राजकमल प्रकाशन, 2006 पृ. -122
8- रेमण्ड विलिअम, संचार माध्यमों का वर्ग चरित्र, ग्रन्थ शिल्पी, 2000, पृ. 111
9- हर्ष देव, सामाजिक मीडिया शब्दकोष, सामायिक प्रकाशन, 2008, पृ. 89
10- जयसिंह झाला, सोशल मीडिया एवं समाज, रावत प्रकाशन, 2014, पृ. 54
11- मनोहर श्याम जोशी, मास मीडिया और समाज, वाणी प्रकाशन, 2014 पृ. 49
12- घनश्याम शाह, सोशल जस्टिस, रावत प्रकाशन, 1998
13- जी.एस. घुरिये, कास्ट एंड रेस इन इंडिया, पोपुलर प्रकाशन, 2011
14- गार्थ मेसी, वेज ऑफ़ सोशल चेंज सेज, 2012
15- दीपक राय, सोशल मीडिया राजनीत और समाज, Nppl बुक्स 2019
16- सेवा सिंह बाजवा, सोशल मीडिया के विविध आयाम, किंडल संस्करण, 2022
एक टिप्पणी भेजें