समीक्षा: समाजवादी आन्दोलनों का समकालीन दस्तावेज / ज्ञान प्रकाश यादव

समाजवादी आन्दोलनों का समकालीन दस्तावेज
- ज्ञान प्रकाश यादव

प्रेमसिंह समाजवादी आंदोलन से जुड़े हैं। उनकी हाल में प्रकाशित पुस्तक ‘पंडित होई सो हाट न चढ़ा (समाजवादी नेताओं के प्रति मेरी श्रद्धांजलियाँ)’ है। इसमें लेखक की उन समाजवादी नेताओं पर लिखी गई श्रद्धांजलियों का संकलन है, जिनके साथ उसका व्यक्तिगत और औपचारिक संबंध रहा है। इस पुस्तक की पहली श्रद्धांजलि दिग्गज समाजवादी नेता मधु लिमये पर है। एक तरफ प्रेमसिंह मधु लिमये के सादा जीवन तथा उच्च विचार से आकर्षित होते हैं तो दूसरी तरफ उनके राजनैतिक एवं वैचारिक लेखन का तटस्थ मूल्यांकन भी करते हैं। वे मधु लिमये को सार्वजनिक जीवन का बुद्धिजीवी मानते हैं। वे मधु लिमये के राजनैतिक चिंतन का मूल्यांकन करते हुए लिखते हैं कि “मधु जी राजनैतिक प्रवृत्तियों का आकलन राजनैतिक पार्टियों के रूप में करने के आदी थे। यह तथ्य उनकी विश्लेषण पद्धति से ही नहीं, मेल-जोल की परिधि से भी पहचाना जाता है। राष्ट्रीय पार्टियों और उनके राष्ट्रीय नेताओं के ‘परफारमेंस’ तक ही अक्सर उनकी नज़र रहती है। नए राजनैतिक-सामाजिक उभारों और प्रवृत्तियों को ये नेता दबाते और विकृत करते हैं, तथा एक दिन इन उभारों और प्रवृत्तियों का नया नेतृत्व पैदा होगा जिसमें वर्तमान संकट को राष्ट्रीय संदर्भों में समझने की क्षमता होगी, इस ओर शायद मधु जी ध्यान नहीं दे पाए। वे प्रभुत्वशाली राजनैतिक धाराओं से निराशा के बावजूद, उन्हीं में संकट के समाधान की संभावनाओं की तलाश करते हैं। एक वैकल्पिक राजनैतिक विचारधारा और आंदोलन की सृष्टि उनका सरोकार नहीं रह गया था। अतः ‘निराशा के कर्तव्य’ के रूप में वे उसी कांग्रेस को पुनः लाना चाहते हैं जिसका विरोध उन्होंने हमसफ़र समाजवादी नेतृत्व के साथ अपने राजनैतिक जीवन के उषाकाल में किया था।”

इस पुस्तक की दूसरी श्रद्धांजलि किशन पटनायक को समर्पित है, जिसका शीर्षक ‘पंडित होई सो हाट न चढ़ा’ इस पुस्तक का भी शीर्षक है। यह इस पुस्तक की सबसे खास श्रद्धांजलि है, जो किशन पटनायक के कथनों के हवाले से बुद्धिजीवियों के दायित्वों का मूल्यांकन करती है। किशन पटनायक की पुस्तक ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया : सभ्यता, समाज और बुद्धिजीवी की स्थिति पर कुछ विचार’ समाज में धारणाएं बनाने वाले बुद्धिजीवी-वर्ग की वैचारिक स्थिति पर मुकम्मल प्रकाश डालती है। वे लिखते हैं कि समाज की सारी गति और दुर्गति के लिए बुद्धिजीवी उत्तरदायी हैं। भारत को समृद्ध हो रही है तो भारत का बुद्धिजीवी प्रशंसा का पात्र है, भारत की दुर्गति हो रही है तो निंदा का। यह किसी व्यक्ति-विशेष का मूल्यांकन नहीं है। हरेक राष्ट्र का एक बुद्धिजीवी समूह होता है। बुद्धिजीवी का एक वर्ग के रूप में मूल्यांकन किसी लेखक, पत्रकार या वैज्ञानिक के मूल्यांकन से ज़्यादा ज़रूरी है। विभिन्न समाजों के इतिहास में अंधकार-युग के नाम से एक अध्याय आता है। संभवतः यह अंधकार-युग उनके पहले वाले समय के बुद्धिजीवी समूह के लुच्चेपन का परिणाम है। हमारे समय के बुद्धिजीवी को इसी तरह के कठघरे में खड़ा करना होगा। जो यह मानते हैं कि अयोग्य लोग भाड़ में जा रहे हैं तो जाएँ, लेकिन वे कहकर तो देखें- अपनी बात को शास्त्रीय भाषा में बोलने की कोशिश तो करें।

प्रेमसिंह किशन पटनायक का समग्रता में मूल्यांकन करते हुए लिखते हैं कि वे देश के उन गिनती के लोगों में हैं जिन्होंने आधुनिक सभ्यता के नए अवतार वैश्वीकरण के चलते देश की गुलामी के खतरे को सत्तर के दशक में ही पहचाना और लगातार उसके मुकाबले के लिए ज़मीनी और वैचारिक संघर्ष किया। प्रेमसिंह किशन पटनायक के ‘गुलाम दिमाग़ का छेद’ और ‘प्रोफ़ेसर से तमाशगीर’ आलेख का ज़िक्र तसल्ली से करते हैं। वे ‘प्रोफ़ेसर से तमाशगीर’ के हवाले से लिखते हैं कि प्रणव राय अपनी शिक्षा का पेशा छोड़कर प्रचुर धन की हवस और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चकाचौंध के वशीभूत पहले दूरदर्शन के कार्यक्रम निर्माता बनते हैं। वहाँ पच्चीस-तीस लाख की सालाना कमाई करके अपनी निजी टेलीविजन कंपनी के मालिक बन जाते हैं। 28 फरवरी, 1994 को वित्तमंत्री मनमोहन सिंह के बजट पर प्रणव राय द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम का हवाला देकर किशन पटनायक बताते हैं कि कैसे नई आर्थिक नीतियां, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और बुद्धिजीवी एकजुट होकर देश के करोड़ों साधारण लोगों को अपने ही देश में अप्रासंगिक बना देते हैं।

प्रेमसिंह किशन पटनायक की तरह ही बुद्धिजीवी-वर्ग की निर्मम आलोचना करते हैं। उनका कहना है कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारत के अंगरेजीदां बुद्धिजीवियों ने सरकारी धन से इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (आईआईसी) जैसे द्वीप अपने लिए कायम किया। शिक्षा और शोध की उच्च संस्थानों में अपने लिए आलिशान ढंग की सुख-सुविधाएँ हासिल कीं। भारत की जनता की गाढ़ी कमाई खाकर ही उसकी तृप्ति नहीं हुई; उसने विदेशी धन भी खूब खाया है।

बुद्धिजीवी व नागरिक समाज की यथार्थ स्थिति का मूल्यांकन राहुल सांकृत्यायन ने ‘दिमाग़ी गुलामी’ पुस्तिका और एडवर्ड सईद ने ‘बुद्धिजीवी की भूमिका’ नामक निबंध में किया है। एडवर्ड सईद के लिए बुद्धिजीवी की भूमिका यह है कि वह यथास्थिति पर प्रश्न उठाये, सत्ता को चुनौती दे, खबरों की, सरकारी रिपोर्टों की तह तक पहुँचने की कोशिश करे, विद्वता और ज्ञान के रूप में जो प्रदान किया जा रहा है उसकी सतह के नीचे तक पहुँचाने का प्रयास करे। हालाँकि भारत का बुद्धिजीवी वर्ग यह करने में असफल रहा है। क्योंकि वह सफल होता तो 2013 के सिविल सर्विसेज परिणाम की ही भांति 2024 के परिणाम पर भी 20-25 दिन लगातार अख़बारों में आलेख लिखता। लेकिन वह अंग्रेजी आधिपत्य और नवसाम्राज्यवादी दलाली को स्वीकार कर चुका है। इसीलिए भारत के दस हिंदी भाषी राज्यों के परीक्षार्थियों को ऊँट के मुँह में जीरा देने के बाद भी वह अंग्रेजी फ्रीज वाली दही अपने मुँह में चुपचाप जमाए रखा है।

युवा तुर्क के नाम से मशहूर चंद्रशेखर को लिखी श्रद्धांजलि में प्रेमसिंह उन्हें उदारीकरण के विरोधी के रूप में याद करते हैं। उनसे पहले जनेश्वर मिश्र ने चंद्रशेखर को लिखी अपनी टिप्पणी में लिखा था कि चंद्रशेखर ‘विदेशी पूँजी की गुलामी के विरोधी थे।’ प्रेमसिंह चंद्रशेखर के निम्नलिखित कथन को उद्धृत करते हुए इस ओर ध्यान आकर्षित करते हैं कि “हमारा देश स्वराज के सपने को भूलकर एकबार फिर आर्थिक गुलामी की बेड़ियों में फँस रहा है, जिससे इसकी राजनीतिक और सामाजिक स्वतंत्रता अंतर्राष्ट्रीय बाजार के हाथों खतरे में पड़ जाएगी। बाजार के जरिए देश में प्रवेश करने वाले नवसाम्राज्यवाद का विरोध करने के लिए करो या मरो का समय आ गया है।”

प्रेमसिंह चंद्रशेखर का समग्रता में मूल्यांकन करते हैं। वे लिखते हैं कि समाजवादी आंदोलन के निष्ठावान कार्यकर्ताओं को यह बड़ा अजीब, साथ ही दुर्भाग्यपूर्ण लगता रहा है कि उदारीकरण के विरोध पर चंद्रशेखर का कई बुद्धिजीवियों के अलावा देवरस और नानाजी देशमुख के साथ संवाद और सहयोग होता है, लेकिन केवल उसी काम में लगे किशन पटनायक के साथ नहीं। इसके जो भी कारण रहे हों, दोनों में संबंध और सहयोग होता तो उदारीकरण विरोधी संघर्ष में अपेक्षित मजबूती आती। इसके बावजूद चंद्रशेखर का महत्त्व कम नहीं होता। नेताओं, टिप्पणीकारों और मीडिया ने भले ही उदारीकरण विरोधी नेता के रूप में चंद्रशेखर की पहचान को रेखांकित न किया हो, इतिहास में उनकी महत्ता इसी रूप में अक्षुण्ण और प्रेरणाप्रद रहेगी।

प्रेमसिंह बृजमोहन तूफान के व्यक्तित्व, कृतित्त्व एवं राजनीतिक कार्यों का व्यवस्थित एवं सारगर्भित मूल्यांकन उन पर लिखी श्रद्धांजलि में करते हैं। वे उनकी दो भागों में प्रकाशित आत्मकथा ‘दि किस ऑफ फ्रीडम’ और ‘फ्रीडम ऑन ट्रायल’, उर्दू कहानियों का संग्रह ‘एक हजार आदमी’, उर्दू गजल का संग्रह ‘उरूसे फिक्र’ एवं जिंदगी के अंतिम सालों में बोल-बोलकर लिखवाई गई ‘वली तूफान के दोहे’, ‘इक्कीसवीं सदी का भारत’ और ‘योग तूफान’ का ज़िक्र करते हैं। प्रेमसिंह लिखते हैं कि “जहाँ तक मैं समझा, वे अंत तक छटपटाहट से भरे थे। देश की राजनीति, खासकर समाजवाद की राजनीति के पतन पर उन्हें गहरा क्षोभ था। वे किसी को दोष नहीं देते थे, लेकिन हम लोगों की तरह पिछड़े और दलित उभार में आशाएँ भी नहीं देखते थे। केवल रेडियो सुनकर नवसाम्राज्यवादी मंसूबों की उन्हें अच्छी तरह खबर और समझ रहती थी।”

वे सुरेन्द्र मोहन के बारे में लिखते हैं कि उन्हें हमेशा एक ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किया जाएगा जो नव-उदारवाद के खिलाफ ग़रीबों और वंचितों के हक़ में लगातार लड़ता रहा और उसके सबसे बड़े विरोधियों में से एक था। वे देश में नवउदारवाद के खिलाफ चलने वाले सकारात्मक और वास्तविक आन्दोलनों के पर्याय बन गये थे। मृणाल गोरे को पता था कि उन्हें किस वर्ग के लिए काम करना है, किन मुद्दों/ समस्याओं का समाधान किया जाना है और किन मूल्यों को बनाये रखना है। वे यह मानने से इनकार करती थीं कि कानून पारित करने से समस्या का समाधान हो सकता है। अगर नेतृत्व लोगों की समस्याओं के प्रति गंभीर नहीं है तो केवल कानून पारित करने से कोई फ़ायदा नहीं होगा। प्रेमसिंह लिखते हैं कि मृणाल गोरे के निधन पर प्रेस से जुड़े लोगों या नेताओं ने उन्हें समाजवादी नेता नहीं बल्कि ‘समाजवादी कार्यकर्ता’ कहा, जबकि वे वास्तव में समाजवादी नेता थीं।

वे समाजवादी नेता व प्रोफेसर विनोद प्रसाद सिंह को याद करते हुए लिखते हैं कि “जब उन्होंने ‘नया संघर्ष’ निकाला तो मुझे सहायक संपादक बनने को कहा। वह एक टीम वर्क था, जिसमें हरिमोहन मिश्र, अरविन्द मोहन, सत्येन्द्र जैन और दीपक सिन्हा काम करते थे। ‘नया संघर्ष’ के अगस्त क्रान्ति, तिब्बत, लोहिया, वैकल्पिक राजनीति, मधु लिमये विशेषांक काफी चर्चित हुए।” इस पुस्तक में सुनील पर एक श्रद्धांजलि ‘नव-उदारवाद की बेदखली होगी सुनील को सच्ची श्रद्धांजलि’ और उनके कार्यक्षेत्र केसला पर एक विस्तृत लेख ‘केसला : सार्वभौमवाद के बरक्स स्थानीयता का दावा’ संकलित है। प्रेमसिंह सुनील की जीवट कार्यकुशलता का सम्मान करते हैं। उनका कहना है कि सुनील अर्थशास्त्र के अध्येता थे और हम उन्हें जमीनी अर्थशास्त्री कहते थे। उन्होंने अर्थशास्त्र जैसे जटिल विषय पर हमेशा हिंदी में लिखकर वैश्वीकरण को चुनौती दी। उनके व्यक्तित्व और विचारों का निचोड़ वैश्वीकरण विरोध था। उसमें कहीं थोड़ी-सी असंगति भी नज़र नहीं आती है। प्रेमसिंह उस चिंता की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं, जो तीसरी दुनिया के देशों की सबसे बड़ी चिंताओं में से एक हैं। वे लिखते हैं कि पूँजीवादी सार्वभौमवाद का इसबार का आक्रमण इतना प्रबल है कि उपनिवेशवाद के खिलाफ इतना लंबा संघर्ष करके जो स्वतंत्रता अनेक देशों ने हासिल की थी, उस पर इस कदर गहरा संकट आ गया है कि स्वतंत्रता का विचार ही त्याज्य होता जा रहा है। भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में प्रेस/ मीडिया पर लगाया जा रहा प्रतिबंध यही दर्शाता है।

वे भालचंद्र भाई वैद्य की शवयात्रा का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि पिछले तीन दशक से सत्ता के गलियारों से दूर नवसाम्राज्यवादी गुलामी लाने वाली सरकारों के खिलाफ शहरों-देहातों में अनाम संघर्ष करने वाले नेता की अंतिम यात्रा में हज़ारों की संख्या में लोग शामिल हुए! शवयात्रा में शामिल लोग करीब अढ़ाई किलोमीटर दूर स्थित श्मशान स्थल तक पैदल चले। उनमें ‘भाई वैद्य अमर रहें’, ‘भाई तेरे सपने को हम मंजिल तक पहुँचाएँगे’, ‘लोकशाही समाजवाद- जिंदाबाद जिंदाबाद’, ‘भाई वैद्य को लाल सलाम’, ‘लड़ेंगे जीतेंगे’, ‘समाजवाद लाना है- भूलो मत भूलो मत’ जैसे क्रांतिकारी नारे लगाने वाले सोशलिस्ट पार्टी/ सोशलिस्ट युवजन सभा के कार्यकर्ता मुट्ठीभर ही थे। भाई वैद्य का मानना था कि लोकशाही समाजवादी विचारधारा ही पूँजीवाद का विकल्प है।

न्यायमूर्ति राजेन्द्र सच्चर निजीकरण के विरोधी थे। उनका मानना था कि अगर सार्वजनिक क्षेत्र को नष्ट कर प्राइवेट क्षेत्र को स्थापित किया जाएगा तो संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक संस्थाओं का नष्ट होना तय है; संविधान में निहित समाजवाद के मूल्य को त्यागकर धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के मूल्यों को बचाए नहीं रखा जा सकता है; नव-उदारवादी नीतियों का अंधानुकरण एक तरफ साम्प्रदायिकता, अंधविश्वास और पोंगापंथ को बढ़ावा देता है, दूसरी तरफ़ अंधराष्ट्रवाद को। यह भारत का वह सच है, जिसे जानते हुए भी साधारण जनता मुँह फेर लेती है क्योंकि इस जनता को परम्परागत रूप में बार-बार यह एहसास करवाया गया है कि उसके कष्टों के निवारण के लिए कोई मसीहा अवतार लेगा और जनता मसीहा के इंतज़ार में शोषण-पर-शोषण सहती रहती है। इसी शोषण की एक लंबी यात्रा के बाद वह इसे ‘नियति का खेल’ एवं ‘विधि का विधान’ मान लेती है। प्रेमसिंह जस्टिस राजेन्द्र सच्चर पर एक श्रद्धांजलि ‘समाजवादी विजन से प्रेरित थे सच्चर साहब’ और पहली पुण्यतिथि पर ‘न्यायमूर्ति सच्चर, उनकी रिपोर्ट और मुसलमान’ लिखते हैं। यह दर्शाता है कि वे सच्चर साहब के कार्यों से बहुत प्रभावित रहे हैं। उनका कहना है कि “सच्चर साहब का समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, नागरिक अधिकारों, व्यक्ति-स्वातंत्र्य और अन्याय के प्रतिकार की अहिंसक कार्यप्रणाली में अटूट विश्वास था। सच्चर साहब की बहुआयामी भूमिका की सार्थकता के मूल में उनकी लोकतांत्रिक समाजवाद और सोशलिस्ट विजन में गहरी आस्था थी। सच्चर समिति की रपट और सिफारिशें को भी इसी दृष्टि से समझा जाना चाहिए। उनकी भूमिका के इस परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखे बगैर उनकी शख्सियत की प्रशंसा का कोई खास मायना नहीं है।”

प्रेमसिंह ने प्रोफेसर केशव राव जाधव को लिखी श्रद्धांजलि में उन्हें साहस, दृढ़ विश्वास और प्रतिबद्धता का धनी व्यक्ति लिखा है। वे लिखते हैं कि प्रो। जाधव ने ‘मैनकाइंड’ की तर्ज पर ‘न्यू मैनकाइंड’ नामक पत्रिका निकाली, जिसे वे 4-5 साल तक प्रकाशित करते रहे। उन्होंने लगभग एक दशक तक ‘ओलंपस’ नामक एक और पत्रिका भी प्रकाशित की। उन्होंने किशन पटनायक के साथ मिलकर ‘लोहिया विचार मंच’ का गठन किया। वे ‘राममनोहर लोहिया ट्रस्ट’ के ट्रस्टियों में से एक थे। अपनी इस सक्रियता से उन्होंने समाजवादी दर्शन और आंदोलन की विरासत को समृद्ध किया।

वे जॉर्ज फर्नांडिस को एक तूफानी नेता बताते हैं। वे उन पर लिखी श्रद्धांजलि में लिखते हैं कि “जिस तरह से मौजूदा सरकार भारतीय रेल का निजीकरण करती जा रही है, उसे देखकर जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में हुई 1974 की रेल हड़ताल याद आती है। जनता पार्टी की सरकार में उद्योगमंत्री के रूप में जॉर्ज फर्नांडिस ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों कोकाकोला और एबीएम को कड़े क़ानून बनाकर देश से बाहर कर दिया था। आज जब देश अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चरागाह बन चुका है, साम्राज्यवाद विरोध की चेतना से प्रेरित जॉर्ज का वह फैसला याद आता है।”

वे रघुवंश प्रसाद सिंह और जगदीश तिरोड़कर की समाजवादी विचारधारा के प्रति अटूट निष्ठा, सहजता एवं सौम्यता की चर्चा करते हैं। इस पुस्तक के अंत में ‘वर्तमान दौर में कर्पूरी ठाकुर की प्रासंगिकता’ शीर्षक एक लेख है, जो एक वक्तव्य का संवर्धित रूप है। इसमें लेखक जननायक कर्पूरी ठाकुर के समाजवादी प्रशिक्षण एवं जिज्ञासु वृत्ति का चित्रण इत्मीनान से करता है। बकौल प्रेमसिंह “हर सफ़र में अक्सर किताबों से भरा बस्ता उनके साथ होता था। उनका प्रशिक्षण समाजवादी विचारधारा में हुआ था। हालाँकि, फुले, आंबेडकर और पेरियार समेत सभी परिवर्तनकारी विचारों को वे आत्मसात करके चलते थे। लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, नागरिक स्वतंत्रता, मानवाधिकार जैसे मूलभूत आधुनिक मूल्यों के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता थी। सादगी और अपने पद का अपने परिवार और मित्रों के लिए किंचित भी फायदा नहीं उठाने की उनकी खूबी उनके स्वाभिमानी व्यक्तित्व के अलावा गाँधीवादी-समाजवादी धारा से भी जुड़ी थी।”

संक्षेप में, यह पुस्तक समाजवादी आन्दोलनों का समकालीन दस्तावेज़ है। इसलिए यह समाजवादी विचारधारा एवं नागरिक समाज में निष्ठा रखने वालों के लिए महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह नामक पब्लिकेशन, दिल्ली से प्रकाशित है।

समीक्षक ज्ञान प्रकाश यादव दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएच.डी. हैं। वर्तमान में ये स्वतंत्र अध्येता के रूप में साहित्यिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विषयों पर लेखन कर रहे हैं। 
ssgpyadav1993@gmail.com

लेखक प्रेमसिंह समाजवादी आंदोलन से जुड़े हैं तथा भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो हैं।

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी

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