- विष्णु कुमार शर्मा
जितनी भी भाषाएँ जानता हूँ
उतनी में घर की याद आती है
जबकि दुनिया में ऐसी कोई जगह नहीं
जिसे घर कह सकूँ।
दिल बहुत साफ़ है, ज़िन्दगी गंदी
ईश्वर पर अब भी राजा का कब्ज़ा है।”(1)
वरिष्ठ कथाकार मधु कांकरिया की कथेतर रचना ‘मेरी ढाका डायरी’ इसी साल 2025 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। लेखिका ने इसे ‘ढाका के क्रान्तिद्रष्टा छात्र-युवाओं और ढाका की श्रमजीवी महिलाओं की अपराजेय जिजीविषा को’ समर्पित किया है। बहुराष्ट्रीय कंपनी में ऊँचे ओहदे पर काम करने वाले उनके बेटे का ट्रांसफर जब ढाका हो जाता है तो उन्हें भी इस सिलसिले में ढाका जाना होता है। अपने इस ढाका प्रवास को संवेदनशील दृष्टि से देखती हैं उनकी भीतरी आँख और वर्तमान से इतिहास में आवाजाही करते हुए जो सच वे हमारे सामने लाती हैं उसमें गुंथा हुआ तीन मुल्कों का साझा अतीत, साझी भाषा व साझी संस्कृति। भारत और पाकिस्तान का रिश्ता सैंतालीस से ही कड़वाहट भरा रहा है लेकिन बांग्लादेश के साथ हमारे संबंध कभी नीम-नीम, कभी शहद-शहद रहे हैं। भारत से बांग्लादेश के नेता और वहाँ की आवाम बहुत-बहुत प्रभावित रहती है। दिल्ली को छींक भी आती है तो ढाका को जुकाम हो जाता है। अब जबकि पिछले कुछ महीनों से वहाँ राजनैतिक अस्थिरता है, भारत समर्थित समझी जाने वाली शेख हसीना का तख्ता पलट दिया गया है ऐसे में हम सबके लिए बांग्लादेश की राजनीति और वहाँ के समाज को जानना और जरूरी हो जाता है। हम मित्र बदल सकते हैं पड़ोसी नहीं। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, इतिहास, आर्थिकी, धर्म और राजनीति के गठजोड़, साम्प्रदायिकता... और इन सबके केंद्र में मानवीयता और उसमें भी खासतौर से स्त्री-जीवन को जानने के लिए बहुत मुफ़ीद है मधु कांकरिया की ढाका डायरी। हमारे लिए, खासकर नई पीढ़ी के लिए जिसने न भारत-पाक विभाजन की विभीषिका को झेला और न बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम के गवाह रहे। जो सोशल मीडिया पर ही इतिहास पढ़ते हैं, उस पीढ़ी के लिए यह एक जरूरी किताब है। यह किताब बांग्लादेश के अभिजात वर्ग से लेकर आम आदमी के जीवन का कच्चा चिट्ठा हमारे सामने खोलकर रख देती है। लेखिका ने शुरू में ही यह स्पष्ट कर दिया है कि मेरी यह डायरी बांग्लादेश को सम्पूर्णता में जानने का कोई दावा नहीं करती। साथ ही भारत की राजनीति की प्रतिक्रिया में बांग्लादेश में दिन-दिन पाँव पसारते वहाबी इस्लाम और उसके आम आदमी, विशेष रूप से औरतों पर पड़ने वाले प्रभावों को भी हमारे सामने लाती है। बंगबंधु शेख़ मुजीबुर रहमान ने बांग्लादेश को राष्ट्रीय, जनतांत्रिक, सेक्युलर देश घोषित किया था। मुजीब का यह देश “दुनिया के इतिहास में पहला ऐसा देश है, जो धर्म के नाम पर बने एक देश से भाषा और संस्कृति के नाम पर अलग होकर बना। भाषा के महबूब की तरह प्रेम करने वाला देश है बांग्लादेश।”(2) वहाँ आपको गाड़ियों के पीछे लिखे नंबर बांग्ला में मिलेंगे, दुकानों के साइनबोर्ड भी बांग्ला में, यहाँ तक कि विदेशी कंपनियों के भी। शिक्षा की भाषा तो बांग्ला है ही। पिछले दिनों प्रधानमंत्री शेख हसीना ने प्रस्ताव रखा कि क्यों न न्यायालय की भाषा भी बांग्ला कर दी जाए? लेखिका इशारा करती हैं कि कुछ भारत में बढ़ते हिंदुत्व की प्रतिक्रिया में और कुछ रोजगार की तलाश में बढ़ते अरब मुल्कों के संपर्क व उनसे मिलने वाली फंडिंग के चलते पिछले बीस सालों में बांग्लादेश में इस्लामीकरण तेजी से बढ़ा है। इस सबका सबसे ज्यादा असर औरतों पर पड़ा है। उन्हें फिर से सातवीं सदी की ओर धकेला जा रहा है। ऐसा जब होता है तब क्या पहनना है, कैसे पहनना है, क्या देखना है, क्या नहीं देखना... जैसे जीवन के सामान्य क्रियाकलाप में भी सत्ता निर्धारित करने लगती है। “जब सत्ता धार्मिक कट्टरपंथियों के हाथ में आ जाती है तो सबसे पहले वह स्त्री विरोधी होती है।”(3) ईरान और अफगानिस्तान ताज़ा उदाहरण हैं। यहाँ लेखिका फ़िल्म निर्माता, कवि और चित्रकार योनस मेकस को उद्धृत करती हैं-
ऐन इस मक़ाम पर सभ्यताएँ मरती हैं,
क्योंकि वे अपने राजनीतिज्ञ को सुनती हैं
और अपने कवियों को नहीं।
बांग्लादेश में कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत भारत से दोगुना है, वहाँ का रेडीमेड कपड़ों का व्यवसाय तो लगभग उनके भरोसे ही है। वहीं लेखिका बांग्लादेश की एक दूसरी तस्वीर हमारे सामने लाती हैं कि यहाँ से लड़कियों को नौकरी, शादी या प्रेम-प्रसंग के बहाने दिल्ली, मुंबई, नेपाल या सऊदी अरब जैसी जगहों पर वेश्यावृत्ति के लिए बेचा जाता है। भारत की ही तरह बेटे की चाह लेखिका को यहाँ भी देखने को मिली। उनकी हाउस हेल्प फ़ातिमा की बहन को तीसरी बेटी होती है। जबकि उसकी सास तो पोते की चाह लिए बैठी थी। भारत की तरह यहाँ अल्ट्रासाउंड द्वारा लिंग जाँच पर पाबंदी नहीं है। गर्भ के दौरान लिंग की जाँच कराई जाती है लेकिन डॉक्टर के झूठ से उस नन्हीं जान की जान बच जाती है।
लेखिका लिखती हैं “मैंने कई बार लक्ष्य किया कि बांग्लादेशी युवक और युवती कई बार बांग्ला कल्चर और इस्लाम के बीच कन्फ्यूज्ड होकर झूलते रहते हैं, बांग्ला कल्चर उन्हें खुलापन देता है, तो इस्लाम दरवाजे बंद कर देता है। रवींद्र संगीत गुनगुनाने वाला बांग्ला, नज़रुल इस्लाम की कविताएँ गाने वाला बांग्ला, आमार सोनार बांग्ला, दुर्गा पूजा के सुन्दर पांडालों से सजा बांग्ला, मुजीब का सेकुलर बांग्ला... उस बांग्लादेश में आज हर ऑटोरिक्शा के पीछे लिखा मिलेगा ‘अल्लाह सर्व शक्तिमान’ या ‘नमाज़ कायम रखून’, स्कूल बस के पीछे ‘अपनी संतान को कुरान की शिक्षा दीजिए’। हिजाब, बुर्का, टोपी, दाढ़ी यहाँ आम दृश्य हैं जिसका चलन दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। लेखिका के ड्राइवर महमूद भाई जिनके माध्यम से उन्होंने ढाका और इस्लाम को बहुत कुछ जाना; एक जगह कहते हैं- “बांग्लादेश तो क्या सारी दुनिया में बढ़ रही है यह मज़हबी नफ़रत। हम सब ज्वालामुखी के मुहाने पर खड़े हैं।”(4) महमूद भाई आगे जोड़ते हैं- “एक बात और है मैडम, इस्लाम को सौ प्रतिशत मानकर चलना मुसलमानों के लिए संभव भी नहीं है। इसलिए हम सब आधे ही मुसलमान हैं। सब कोई अपनी सुविधानुसार चुन लेते हैं कि क्या मानना है और क्या नहीं मानना है। इस्लाम में तो चोरी करने पर हाथ काट लेने की बात कही गई है, पर क्या यह हो रहा है? क्या मुस्लिम व्यवसायी टैक्स चोरी नहीं कर रहे? ख़ुद मुस्लिम मर्द इस्लाम का पालन नहीं कर रहे, पर औरतों पर इस्लाम थोपे जा रहे हैं, क्योंकि यह आसान है।”(5) इस्लाम में औरतों के लिए बनाव-शृंगार की मनाही है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि जो औरतें शृंगार करती हैं अल्लाह उनकी नमाज कबूल नहीं करता। इस्लाम में अभिनय की मनाही है इसी के चलते भारत में अभिनेत्री जायरा को अपना अच्छा-खासा कैरियर छोड़ना पड़ा क्योंकि वे कश्मीर में रहती थीं। इस्लाम में हाथ मिलाने की मनाही है। इस्लाम में नाचना-गाना मना है। इस्लाम के साफ़ तौर पर कहा गया है कि दो औरतों की गवाही को एक मर्द के बराबर। लेखिका ढाका में गुलशन नाम की रेजीडेंसी में रहती थी जो कि एम्बेसी एरिया था। जहाँ सभी देशों के दूतावास थे, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के ऑफिस थे, जहाँ विदेशी लोग बड़ी संख्या में रहते थे। जहाँ जींस-टॉप और लिपस्टिक में विदेशी बालाएँ आपको दिख जाएँगी लेकिन इस एम्बेसी एरिया के बाहर इन विदेशी बालाओं को भी ऐसे कपड़े पहनने होते हैं जिससे पूरा शरीर ढका रहे। “कहते हैं इस्लाम रूहानी तौर पर कम्युनिज्म का हायर फॉर्म है। इस्लाम का भाईचारा, इस्लाम की जीरो इंटरेस्ट बैंकिंग, ब्याज हराम है, लालच बुरी बात है, मिल-बाँट कर खाओ, खाने के पहले निश्चित करो कि पड़ोसी तो भूखा नहीं है... सारे निर्देश बेहद सुन्दर हैं, पर विडम्बना है कि यह किस कदर असुन्दर में लिपटा हुआ है।”(6) गुलशन पार्क में जब लेखिका की मुलाकात कुछ कॉलेज छात्राओं से हुए जो बिना बुर्के और हिज़ाब के थीं, पूछने पर कि क्या आप इस्लाम को नहीं मानती क्योंकि बुर्का तो आपने पहना ही नहीं, उनमें से “एक ने हँसकर कहा, क़ुरान में कहीं भी बुर्का या नक़ाब का जिक्र है ही नहीं, हिज़ाब का जिक्र जरूर है, वह भी हदीस में।”(7) महमूद भाई ने अपनी बेटी का रिश्ता एक अच्छे परिवार में तय कर दिया। कुछ दिन बाद वे परेशान नज़र आए। लेखिका द्वारा पूछने पर बताया कि बेटी की होने वाली सास अपनी बहू से नौकरी नहीं कराना चाहती। उसका कहना था कि “यदि आपकी बेटी को इस्लाम में यकीन है, तो उसे भी नौकरी की जिद नहीं करनी चाहिए।”(8) धर्म की कैसी-कैसी व्याख्याएँ कर बैठते हैं लोग? यहूदियों के सिनेगोग में औरतों को मर्दों से अलग पर्दे की आड़ में बिठाया जाता है।
लेखिका ने वहाँ ढाका यूनिवर्सिटी की यात्रा की और पाया कि जिस तरह लगभग हर देश का युवा सोचता है, उन्मुक्त जीने की चाह रखता है कुछ-कुछ वैसा ही नज़ारा वहाँ का था। कुछ लड़कियाँ हिजाब में जरूर थीं लेकिन बातचीत और व्यवहार में एकदम उन्मुक्त। एक दीवार पर टैगोर और नजरुल इस्लाम बतिया रहे थे। एक दीवार पर हुँकार भरते मुजीब थे तो एक पर ‘जय बांग्ला’ लिखा था। वहीं एक दीवार पर मार्क्सवाद, लेनिनवाद, माओवाद ज़िंदाबाद। ढाका यूनिवर्सिटी के जगन्नाथ हॉल में हर वर्ष सरस्वती पूजा मनाई जाती है। वैचारिकी, सभ्यता और संस्कृति का अद्भुत संगम। जीवंत परिवेश। युवा पीढ़ी की असहमति, अस्वीकार, विद्रोह और बैचेनी का प्रतीक होती हैं रैलियाँ। लेखिका ने एक रोज ढाका में धान मंडी से गुजरते हुए एक छात्र रैली देखी। अगले दिन के अख़बारों के पृष्ठ बांग्लादेश इंजीनियरिंग और तकनीकी विश्वविद्यालय के छात्र अबरार की हत्या की ख़बरों से भरे थे। अबरार ने भारत सरकार और शेख हसीना की बीच फेनी नदी के पानी को लेकर हुए सौदे को अपने देश के हितों के विरुद्ध बताते हुए एक फेसबुक पोस्ट लिखी थी। शेख हसीना की पार्टी आवामी लीग के छात्र संगठन बीसीएल (बांग्लादेश छात्र लीग) के एक गुट ने अबरार का संबंध प्रतिबंधित ज़िहादी संगठन इस्लामी छात्र शिविर से संबंध का आरोप लगाकर क्रिकेट स्टंप्स से इतना मारा कि उसकी मौत हो गई जबकि अबरार का इस संगठन से कोई संबंध नहीं था। पूरा देश उबल पड़ा। मीडिया ने सवाल उठाए। तीन दिन के अन्दर 18 अभियुक्त पकड़े गए, चार्जशीट दाखिल की गई, फास्ट ट्रायल हुआ। शेख हसीना पीड़ित के परिवार से मिली, न्याय का आश्वासन दिया। लेकिन सवाल आख़िर यह था कि उन 18 लड़कों को किसने अधिकार दिया? किसने उन्हें इतना बेखौफ़ बनाया? सरकार की नीतियों की आलोचना करना नागरिकों का लोकतांत्रिक अधिकार है, फिर कैसा लोकतंत्र बना रहे हैं हम? लेखिका को अपने देश के रोहित वेमुला, नज़ीब अहमद, पायल तड़वी।।। याद आए। लेखिका बताती हैं कि सलमान रश्दी हो या तस्लीमा नसरीन या गौरी लंकेश।।। दुनिया के लगभग हर हिस्से में अन्धविश्वास और कट्टरता के ख़िलाफ़ लिखने वाले लोग कट्टरपंथी ताकतों के निशाने पर हैं। लेखिका ने एक बार अपने टीवी चैनल के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर अफज़ल हसन से पुछा कि प्रगति और डेमोक्रेसी में से आप किसे चुनना पसंद करेंगे? उन्होंने जवाब दिया- “यही तो विडम्बना है कि आज ऐसी स्थितियाँ बना दी गई हैं कि हमें दो में से एक को ही चुनना पड़ रहा है।”(9)
बांग्लादेश में जब पाकिस्तान से मुक्ति के लिए संघर्ष चल रहा था तब यहाँ का एक वर्ग पाक समर्थित था जिसे रज़ाकार कहा जाता था। ये बिहारी मुस्लिम थे। इन पर आरोप था कि इन्होंने पाकिस्तान की मदद की और कई मुक्ति योद्धाओं की हत्या की। पाक समर्थित उर्दू का समर्थन किया क्योंकि ये बिहार (भारत) सी आए थे और हिन्दी-उर्दू बोलते थे। उनका दर्द है कि उन्होंने पाकिस्तान की कभी सूरत भी नहीं देखी लेकिन उन्हें बाबर की औलाद कहा जाता है। इनको सबक सिखाने के नाम पर इनका क़त्लेआम शुरू हो गया। बाद में इन्हें जेनेवा समझौते के तहत कैम्पों में रखा गया। इन कैम्पों को जेनेवा कैम्प या बिहारी कैम्प कहा जाता है। इनमें अधिकतर शिया मुसलमान हैं जो मुम्बई की कच्ची बस्ती सरीखी जगहों पर बदहाल जीने को मजबूर हैं। ये बांग्लादेश में अब शरणार्थी के रूप में जीने के लिए अभिशप्त हैं। जेनेवा बस्ती में एक जगह सात बाई सात बीस घरों में तीन घरों के बीच एक साझा गैस चूल्हा देख लेखिका दंग रह गई। साथ ही एक चीज जिसकी ओर लेखिका पाठकों का ध्यान दिलाती हैं वह यह कि दुनिया के अधिकांश देशों की तरह यहाँ भी चहुँओर आपको बस निर्माण, निर्माण और निर्माण कार्य देखने को मिलेगा। पर्यावरण को धता बता कर किया जा रहा अंधाधुंध विकास। पर्यावरण की कीमत पर विकास या कहें कि जीवन की कीमत पर विकास।
लेखिका के ढाका प्रवास के दौरान ही वैश्विक महामारी कोरोना का आना होता है। पहली लहर के शुरुआती तीन महीने उनका परिवार ढाका में ही रहता है। विदेशी होने के कारण वहाँ उन्हें वैक्सीन नहीं लग पाती; वैक्सीनेशन की प्राथमिकता में वे सबसे अंत में आएँगे। भारत व बांग्लादेश की सीमा सील कर दी जाती है। ऐसे में वे अगरतला (त्रिपुरा) के रास्ते कोलकाता आते हैं। कोरोना ने भारत में आम जीवन में कैसी तबाही मचाई इसका जीवंत दस्तावेज है यह डायरी। बेहिसाब पैसा भी लोगों को अस्पताल में बेड और ऑक्सीजन नहीं दिला पाया, ऐसे समय में भी सबक न लेकर कुछ लोग कालाबाजारी और लूट में लगे थे। व्यवस्थागत असफलता ने किस तरह आम आदमी को भगवान भरोसे छोड़ दिया? और सच बात तो यह है कि भगवान भी ताले में बंद थे। ऐसे भगवान, अल्लाह या गॉड से भी उस समय बहुतेरे लोगों का विश्वास डिग गया था। कोरोना ने हमें एक नया दर्शन सिखाया। “कोरोना सेकुलर है और साम्यवादी भी। उसने समझा दिया है कि केवल एक ही धर्म है। न कोई जाति है, न उपजाति, न कोई धर्म है, न कोई वर्ण है, न कोई सन्त है, न कोई गोत्र है, है तो बस एक ही प्रचंड शक्ति, एक ही ईश्वर, एक ही शरणदाता, एक ही धर्म, एक ही देश और एक ही नागरिकता, एक ही योनि, एक ही रिश्ता और वह एक ही धरती और योनि से जन्म लेने वाली मानव जाति।”(10) पर विडम्बना है कि ज्यूँ ही कोरोना की लहर समाप्त हुई हम अपनी क्षुद्रताओं में लौट आए। विश्व धर्म से हम फिर अपने लघु धर्मों में लौट आए। गोत्र, जाति, वर्ण, धर्म, हमारा गुरु, हमारा ग्रंथ, हमारा ईश्वर... असल में “दुनिया को धर्म की नहीं करुणा की जरूरत है।”(11)
ढाका प्रवास के दौरान लेखिका ने वहाँ के प्रसिद्ध ढाकेश्वरी मंदिर, काली मंदिर, इस्कॉन मंदिर आदि की यात्राएँ की। दुर्गा पूजा के पांडालों में गईं। दीवाली पर खरीदी हेतु शान्खारी बाजार गई जिसे छोटा हिंदुस्तान कहा जाता है। हिन्दुओं और उनके मंदिरों पर बढ़ते हमलों के मद्देनज़र वहाँ के लोगों से बात की और जाना कि मंदिरों को तोड़े जाने का कारण कोरा इस्लाम नहीं है बल्कि आर्थिक कारण अधिक हैं। बहुसंख्यक लोग उनकी संपत्ति पर कब्ज़ा जमाना चाहते हैं, उनके रोजगार हथियाना चाहते हैं। भारत में केंद्र सरकार द्वारा एनआरसी, सीएए के लिए बनाए जा रहे पुरजोर माहौल का असर यहाँ के अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर पड़ रहा है। बहुत से हिन्दू परिवारों ने इस्लाम अपना लिया है तो बहुत से अपने गाँव-क़स्बे छोड़कर पलायन कर गए। ढाका के एक-दो मोहल्लों को छोड़ दें तो वहाँ कोई इलाका हिन्दू बहुल नहीं है। लेखिका से बात करते हुए ढाका विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर रहे संदीप दा कहते हैं- “दुनिया में जो जहाँ बहुमत में हैं, उसने अल्पमत का जीना हराम किया हुआ है... आज से दस-पंद्रह साल पहले तक यह डर नहीं था, क्योंकि तब बांग्लादेश में सूफ़ी मार्का इस्लाम था...मैंने अपने घर में काम करने वाले बंगाली मुसलमान के गले में ख़ुद दुर्गा का लॉकेट देखा था।”(12) संदीप दा जोड़ते हैं कि सब लोग ऐसे नहीं हैं लेकिन हवा ऐसी चल रही है कि हुए जा रहे हैं। लेखिका के ड्राइवर महमूद भाई सूफ़ियाना मिजाज़ के थे।
लेखिका यद्यपि स्वयं के स्त्रीवादी होने से सदैव इनकार करती रही हैं लेकिन इस डायरी में उनकी नज़र बराबर स्त्रियों पर रहती है। वे अपनी डायरी में उनकी बराबरी को लेकर, उनकी अस्मिता को लेकर, उनके गरिमापूर्ण जीवन को लेकर बराबर सुचिंतित विचार करती चलती हैं। सलमा, फौजिया, नूरजहाँ, नुसरत, दिलावर, मीरा... की कहानियों के बिना उनकी डायरी पूरी नहीं होती। वहीं अपने बेटे या बहू के साथ जब वे हाई क्लास सोसायटी की पार्टियों में जाती हैं तो देखती हैं कि उस वर्ग की महिलाएँ भी कैसा यंत्रवत जीवन जी रही हैं जिसमें न कोई उमंग है न कोई रस। अपनी भाषा को लेकर वे सजग हैं। अंग्रेजी माध्यम में पढ़े अपने बेटे में भी उन्होंने अपनी भाषा के बीज रोपे; लेकिन उनकी पोती नविका के अमेरिकन इंटरनेशनल स्कूल में दाखिले की बात आती है तो उन्हें बेटे-बहु द्वारा कह दिया जाता है कि वे अगले पंद्रह दिन उससे केवल अंग्रेजी में ही बात करें। बेटे का ढाका से ट्रांसफर होने पर लेखिका फिर से भारत लौट आती हैं। लौटते वक्त महमूद भाई के पूछने पर कि हमारे देश से क्या लेकर जा रही हैं आप, वह कहती हैं- मुट्ठी भर भाईचारा और भरोसा। वहीं उनका बेटा भी स्वीकार करता है कि मुंबई की तुलना में उसका यहाँ का कार्यकाल सुकून भरा रहा और वह एक बेहतर मनुष्य बनकर लौट रहा है। ढाका डायरी के माध्यम से सार में कहें तो दुनिया के हर मनुष्य के लिए स्वतंत्रता, समता और गरिमापूर्ण जीवन लेखिका का ध्येय है।
सन्दर्भ :
2. मधु कांकरिया : मेरी ढाका डायरी, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, 2025, पृष्ठ संख्या 14
3. वही, पृष्ठ संख्या 228
4. वही, पृष्ठ संख्या 30
5. वही, पृष्ठ संख्या 31
6. वही, पृष्ठ संख्या 39
7. वही, पृष्ठ संख्या 66
8. वही, पृष्ठ संख्या 80
9. वही, पृष्ठ संख्या 113
10. वही, पृष्ठ संख्या 157
11. वही, पृष्ठ संख्या 29
12. वही, पृष्ठ संख्या 212
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र दीपक चंदवानी
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