शोध आलेख : पत्रिकाओं के माध्यम से हिंदी नाट्यालोचना पर बात : सन्दर्भ लोकरंगमंच / प्रतिभा राणा

पत्रिकाओं के माध्यम से हिंदी नाट्यालोचना पर बात : सन्दर्भ लोकरंगमंच
- प्रतिभा राणा


शोध सार : साहित्यिक पत्रिकाओं के माध्यम से नाट्यालोचना की शुरुआत हुई थी | भारतेंदु युग से ही इन पत्रिकाओं ने नाट्य समीक्षा और रंग आलोचना के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया| इस  युग की पत्रिकाओं – आनंद कादंबिनी, कविवचन सुधा, काशी पत्रिका, क्षत्रिय पत्रिका, पीयूष प्रवाह, बिहारबंधु, ब्राह्मण, भारतजीवन, भारतेंदु, सारसुधानिधि और हिंदी प्रदीप का भूमिका महत्वपूर्ण है| इन पत्रिकाओं में किसी भी नाटक के मंचन की समीक्षा नियमित रूप से प्रकाशित होती थी| इसके साथ नए नाटकों की जानकारी भी दी जाती थी| इसी समय नाट्यालोचना के नए विमर्श का भी सूत्रपात हुआ जब बदरीनारायण प्रेमघन ने ‘आनंद कादंबिनी’ में और बालकृष्ण भट्ट ने ‘हिंदी प्रदीप’ में लाला श्रीनिवास दास के नाटक ‘संयोगिता स्वयंवर’ की समीक्षा लिखी| प्रसाद युग में आकर रंग परिवेश को निखारने और नाट्यालोचना को सिद्धांतवादी रूप देने का प्रयास किया गया | प्रसाद युग में पत्रिकाओं का मुख्य उद्देश्य अंग्रेजी शासन के विरुद्ध राष्ट्रीय जागरण की आवाज़ को देश भर में प्रसारित करना था|  इस युग में नाट्यालोचना को विस्तार देने हेतु कई प्रयास हुए| इन प्रयासों में अभिनय के विविध पहलुओं,भारतीय रंगमंच, पाश्चात्य रंगमंच आदि पर चर्चा इन पत्रिकाओं के माध्यम से हुई| पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से किसी भी विषय पर लम्बी बहसों का चलना इस युग की अन्य विशेषता थी| स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अनेक छोटी-बड़ी नाट्य पत्रिकाएँ प्रकाशित होनी आरंभ हुई| इन पत्रिकाओं ने हिंदी रंगमंच को नाट्यालोचना से समृद्ध करने का प्रयास किया | लोक और लोक रंगमंच को लिखित रूप से समृद्ध करने में पत्रिकाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है जिसमें ‘लोककला’ (1953), ‘रंगायन’ (1967), ‘नौटंकी कला’ (1983), ‘चौमासा’ (1983), ‘बिदेसिया’ (1987), ‘मड़ई’ (1999) आदि पत्रिकाओं ने अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज करवाई है | ये पत्रिकाएँ विशेष क्षेत्र एवं प्रयोगात्मक दृष्टि पर केन्द्रित होकर कार्य करती रही हैं | कुल मिलाकर लोकरंगमंच पर केन्द्रित  उपरोक्त पत्रिकाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है | ये पत्रिकाएँ एक रंग-दस्तावेज़ के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराती रही हैं|

बीज शब्द : नाट्यालोचना , साहित्यिक पत्रिकाएँ, नाट्य पत्रिकाएँ , हिंदी रंगमंच, भारतेंदु युग, प्रसाद युग , स्वातंत्र्योत्तर रंग परिवेश ,लोक, लोक रंगमंच, नाट्य समीक्षा, रंग आलेख, हिंदी रंग आंदोलन , ब्राह्मण कविवचन सुधा,कल्पना, धर्मयुग , चौमासा, रंगायन, मड़ई, नौटंकी कला, बिदेसिया, छायानट, लोककला , नाट्यम, रंगमंचीय गतिविधियाँ  |

साहित्यिक पत्रिकाओं द्वारा  नाट्यालोचना : प्रारम्भिक पृष्ठभूमि 

            नाट्यालोचना की शुरुआत साहित्यिक पत्रिकाओं के माध्यम से हुई थी| भारतेंदु युग से ही इन पत्रिकाओं ने नाट्य समीक्षा और रंग आलोचना के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया| इस युग में ‘नाट्यपत्र’ के अलावा अन्य पत्रिकाएँ आज भी अनुपलब्ध हैं| भारतेंदु युग में भारतेंदु के अलावा बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, बालकृष्ण भट्ट और प्रतापनारायण मिश्र सरीखे व्यक्तित्वों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई | इन सभी ने अनेक सामग्री और विषयों के साथ-साथ नाटक एवं रंगमंच संबंधित सामग्री को भी उचित स्थान दिया | रंग समीक्षक डॉ. महेश आनंद के अनुसार – इस युग की पत्रिकाओं का अध्ययन करें तो सभी नाटककारों ने दर्शक और पाठक में अभिरुचि पैदा करने के लिए स्वयं कई पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन-संपादन किया और नाटक मंडलियाँ बनाकर इसे एक तरह के आंदोलन का रूप दिया| दरअसल, अपने समय के वैचारिक मंथन को अभिव्यक्ति देने के लिए नाटक लेखन और रंगमंचीय गतिविधियों को विस्तार देना उनका प्रमुख उद्देश्य था |जब भी कोई उत्तेजक नाटक छपता अथवा मंचित होता तो यह सूचना पत्र-पत्रिकाओं के लिए महत्वपूर्ण बन जाती थी| संपादक इस सूचना को पाठकों तक पहुँचाने के लिए छोटी-बड़ी टिप्पणियाँ लिखते थे| अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति और सरकारी दमन के बाबजूद संपादकों ने इस पत्रकारिता को जो विश्वसनीयता प्रदान की,उसका सबसे बड़ा कर्ण यही था कि उनके लिए पत्रकारिता व्यवसाय नहीं,एक मिशन था|1 

            भारतेंदु युग की पत्रिकाओं-आनंद कादंबिनी, कविवचन सुधा, काशी पत्रिका, क्षत्रिय पत्रिका, पीयूष प्रवाह, बिहारबंधु, ब्राह्मण, भारतजीवन, भारतेंदु, सारसुधानिधि और हिंदी प्रदीप का योगदान उल्लेखनीय है| इन पत्रिकाओं में किसी भी नाटक के मंचन की समीक्षा नियमित रूप से प्रकाशित होती थी| इसके साथ नए नाटकों की जानकारी भी दी जाती थी | ‘काशी पत्रिका’ के 1875 के अंक में ‘दुर्गेशनंदिनी’  की नाट्य आलोचना इस तरह से प्रकाशित हुई – 14वीं अगस्त की रात में रेलवे थिएटर ने ‘दुर्गेशनंदिनी’ नामक नाटक का अभिनय किया था|जितने अभिनय अब तक किए हैं उन सबसे यह अच्छा हुआ| दुर्ग और कारागार दृश्य अति प्रशंसनीय थे| राजा वीरेन्द्र सिंह का रंगभूमि में बड़ी होशियारी से सिर काटा गया- विद्यादिग्गज,तिलोत्तमा,विमला और रहीम  भी अपनी-अपनी बारी पर बहुत अच्छे उतरे, परन्तु हमको बड़ा सोच है कि इन लोगों का बाजा (कन्सर्ट) अच्छा नहीं था|इस अभिनय को देखने को बहुत से लोग इक्ट्ठे हुए थे| रेलवे थिएटर बिलकुल भर गया था|अब हमको आशा है कि यहाँ के लोग भी अपने बंगाली भाइयों की तरह नाटकों का करना आरंभ करेंगे|2 

            भारतेंदु युग की इन्हीं साहित्यिक पत्रिकाओं के माध्यम से नाट्य आलोचना का आरंभ हुआ| उनकी पत्रिका ‘कविवचन सुधा’ ( 17 अगस्त 1872 )में ही उनके ‘नाटक’ निबंध की प्रारम्भिक टिप्पणियाँ प्रकाशित हुई थी| भारतेंदु के ‘नाटक’ निबंध को नाट्य आलोचना यहाँ तक कि आलोचना का भी प्रारंभिक बिंदु माना जाता है| उन्होंने इस निबंध में नाटक के जो पाँच उद्देश्य गिनाए उसमें अंतिम दो (समाज संस्कार, देश वत्सलता ) युगीन संदर्भ से प्रेरित हैं| भारतेंदु युग में साहित्यिक पत्रिकाएँ नाट्य मंचन की सूचना भी प्रकाशित करती थीं | इस युग के अनेक नाटक पहली बार इन्हीं पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए थे|

            इसी समय नाट्य आलोचना के नए विमर्श का भी सूत्रपात हुआ जब बदरीनारायण प्रेमघन ने ‘आनंद कादंबिनी’ में और बालकृष्ण भट्ट ने ‘हिंदी प्रदीप’ में लाला श्रीनिवास दास के नाटक ‘संयोगिता स्वयंवर’ की समीक्षा लिखी| लगभग सभी हिंदी आलोचकों ने एकमत से बदरीनारायण प्रेमघन और बालकृष्ण भट्ट द्वारा की गई इस नाट्य आलोचना से ही व्यावहारिक आलोचना का आरंभ स्वीकार किया है| ‘सच्ची समालोचना’ शीर्षक से बालकृष्ण भट्ट ने ‘संयोगिता स्वयंवर’ की नाट्य समालोचना करते हुए इसके ऐतिहासिक स्थापत्य पर प्रश्न उठाया है| नाटक को अपनी सम्पूर्णता में परखने की शुरुआत इसी समीक्षा से हुई| उन्हें इस नाटक के पात्रों द्वारा विभिन्न विषयों पर उपदेश देने की प्रवृति ठीक नहीं लगी इसीलिए इस नाट्य आलोचना में वह सीधे नाटककार से कहते हैं – आप एकता, सच्ची प्रीति आदि विषयों पर अपने पात्रों के मुख से लेक्चर देना चाहते हैं तो एक सलाह मेरी है उसको सुनिये – इस नाटक कांट-छांट इस्में से आठ-दस (पैम्पलेट) छोटे-छोटे गुटके छपवा दीजिये|3 

            इसी प्रकार बदरीनारायण प्रेमघन ने ‘आनंद कादंबिनी’ में एक नए ढंग से इस नाटक के सम्पूर्ण रचना विधान का विश्लेषण करते हुए सम्पूर्ण नाटक के प्रत्येक अंक पर समग्र दृष्टि डाली है| इस नाट्य आलोचना में प्रेमघन ने सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए नाटक के संवादों और छंदों पर कालिदास,भारतेंदु और शेक्सपियर के प्रभाव को प्रमाण के साथ प्रस्तुत किया है| उपरोक्त प्रारंभिक नाट्य आलोचनाओं से उस नवीन दृष्टि के संकेत तो मिलते ही हैं जिनका उल्लेख भारतेंदु ‘नाटक’ निबंध में करते हैं| इस प्रकार पत्र-पत्रिकाओं द्वारा नाटक और रंगमंच के जिन लेखों ने जन को जागरूक बनाने का कार्य किया उनका उल्लेख अनिवार्य है –

  • दृश्य,रूपक व नाटक, बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन (लेख) आनंद कादंबिनी, खंड 1 संख्या 1,2,4,5 1881

  • संयोगिता स्वयंवर (नाट्य समीक्षा) आनंद कादंबिनी, खंड 1 संख्या 10, 11,12  1886

  • बिहार में थिएटर का ख्याल, केशवराम भट्ट (लेख) बिहारबंधु  18 दिसंबर 1884 

  • संयोगिता स्वयंवर (समीक्षा) प्रतापनारायण मिश्र, ब्राह्मण पत्रिका, खंड 3 संख्या 12-15 फरवरी 1886 

  • कानपुर और नाटक , ब्राह्मण पत्रिका, 15 अगस्त 1888 

  • पारसी थिएटर से हमारा क्या फायदा है (लेख), बालकृष्ण भट्ट, हिंदी प्रदीप 1 अप्रैल 1883 

  • सच्ची समालोचना (समीक्षा) संयोगिता स्वयंवर , बालकृष्ण भट्ट, हिंदी प्रदीप 1 अप्रैल 1886 

इन नाट्य आलोचनाओं और लेखों से मिले सूत्र बीसवीं सदी की नाट्य आलोचना के प्रेरक बिंदु बने| 

            प्रसाद युग में आकर रंग परिवेश को निखारने और नाट्य आलोचना को सिद्धांतवादी रूप देने का प्रयास किया गया| जबकि इससे पहले भारतेंदु युग में जीवन के स्वरूप और रंग परिवेश का निर्माण महत्त्वपूर्ण था| प्रसाद युग के रंग परिवेश का यह नया रूप उस समय की पत्रिकाओं – प्रभा, मतवाला,माधुरी,लक्ष्मी, विशाल भारत, सरस्वती, सुधा, हंस आदि पत्रिकाओं के रंगमंच सम्बंधित लेखों और टिप्पणियों में देखने को मिलता है| इस युग में नाट्य आलोचना को विस्तार देने हेतु कई प्रयास हुए| इन प्रयासों में अभिनय के विविध पहलुओं,भारतीय रंगमंच, पाश्चात्य रंगमंच आदि पर चर्चा इन पत्रिकाओं के माध्यम से हुई| पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से किसी भी विषय पर लम्बी बहसों का चलना इस युग की अन्य विशेषता थी|इसका प्रभाव रंगमंच के साथ नाटक लेखन और उसके विवेचन विश्लेषण पर पड़ा| इस दृष्टि से सरस्वती (फरवरी 1913) और प्रभा ( 1 अक्तूबर 1922, 1 नवम्बर 1922) के अंक देखे जा सकते हैं | इन अंकों में भास और शूद्रक के नाटकों को नई दृष्टि से परखा गया है| लेकिन साथ में महावीर प्रसाद द्विवेदी  सरीखे आलोचकों ने उस मत का भी पुरजोर खंडन किया है जो भारतीय नाटकों का उद्भव पाश्चात्य नाटकों के प्रभावस्वरूप मानता था – लोगों का यह कथन है कि भारतीय नाट्यकला पर ग्रीक लोगों का प्रभाव पड़ा असंगत प्रतीत होता है| क्योंकि प्रथम तो स्मिथ तथा मैकडोनल महाशयों ने ही उसका खण्डन कर डाला है| दूसरे हमारे यहाँ पाणिनी से भी प्राचीन काल में नाट्यकला का आदर था और नाट्यशास्त्र के ग्रंथ भी विद्यमान थे जैसाकि ऊपर दिखाया जा चुका है| भरत का नाट्यशास्त्र संग्रह ग्रंथ मात्र है|4 

            उस समय के महत्वपूर्ण नाटककार जयशंकर प्रसाद और उनके नाटकों के बारे में आधुनिक रंग आलोचक सत्येन्द्र कुमार तनेजा लिखते हैं- “रचना और आलोचना के सम्बन्ध एक-दूसरे से टकराने और खोजने के हैं| इस निरंतर प्रक्रिया में कुछ भी निर्णायक नहीं है| रंगमंचीयता के प्रश्न को लेकर मतभेद जरुर है परन्तु उनके नाटकों के अंतर्निहित पाठ के विश्लेषण से कई पक्ष और तथ्य प्रकाश में आते हैं|”5 

            अनेक महत्त्वपूर्ण लेख और नाट्य समीक्षाएं प्रसाद युग में साहित्यिक पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आई |जैसे हंस पत्रिका में लाइगी पिरादेलो (फरवरी 1935),मोलियर का नट जीवन (अप्रैल-मई 1934), ईरान में नाट्यकला (फरवरी 1936), वीणा पत्रिका में जापानी नाटक ‘नो’(जनवरी 1940) पर विचार विमर्श हुआ,सरस्वती पत्रिका में महावीरप्रसाद द्विवेदी का चर्चित लेख  ‘कालिदास की निरंकुशता’(जनवरी 1911) और शेक्सपियर के नाटक ‘हेमलेट’ (जून 1906) पर भी विस्तृत चर्चा उस समय हुई |

            पत्र-पत्रिकाओं का असर जनता और जनमानस पर कितना प्रभावशाली होता था इस सन्दर्भ में अनीस आजमी अपनी पुस्तक ‘आगा हश्र कश्मीरी के चुनिंदा ड्रामें’ में लिखते हैं|उस समय की प्रसिद्ध जुबली थिएट्रिकल कम्पनी के लिए मुंशी अहसन नाटक लिखा करते थे और अमृतलाल उन नाटकों का निर्देशन किया करते थे| एक बार इसी कम्पनी के प्रसिद्ध नाटक ‘चन्द्रावली’ का प्रदर्शन देखने  आगा हश्र अपने साथियों के साथ गये थे| वहाँ उन्होंने विद्यार्थियों के लिए टिकिट में रियायत मांगी लेकिन उनकी बात को न मानकर उन्हें पूरा टिकिट पर नाटक देखना पड़ा| लेकिन आगा हश्र चुप रहने वालों में नहीं थे उन्होंने अगले ही दिन कम्पनी पर एक लेख लिख डाला| यह वो समय था जब किसी ड्रामे या कंपनी पर अगर कोई टीका-टिप्पणी प्रकाशित हो जाती थी तो उसका सीधा असर कंपनी के व्यवसाय पर पड़ता था| इस कारण मुंशी अहसन ने कंपनी की ओर से उस लेख का उत्तर लिख दिया| इससे कंपनी वाले घबरा गए और हश्र से कहा – भाई ! तुम रोज़ाना, मुफ़्त तमाशा देखो|6 

            प्रसाद युग में पत्रिकाओं का मुख्य उद्देश्य अंग्रेजी शासन के विरुद्ध राष्ट्रीय जागरण की आवाज़ को देश भर में प्रसारित करना था| इसी रूप में ये पत्रिकाएँ नाट्य विमर्श से जन आंदोलन को दिशा देने का प्रयास करती रहीं|

            भारतेंदु युग और प्रसाद युग की इन सभी पत्रिकाओं का उद्देश्य एक नए रंग-परिवेश का निर्माण करना था| इनका लक्ष्य उन रंग संभावनाओं को तलाशना भी था जो सही मायनों में हिंदी रंगमंच को दिशा दे सके| इन युगों की सभी पत्रिकाएँ नाटकों के प्रकाशन,मंचन की समीक्षाओं, टिप्पणियों द्वारा हिंदी रंग आंदोलन की मजबूत पृष्ठभूमि बना रही थीं| साहित्यिक पत्रिकाओं की इन्हीं भूमिकाओं के साथ आगरा से ‘अभिनय’ (1956) पत्रिका के नाटक और रंगमंच संबंधी पत्रिका का प्रकाशन का प्रारंभ हुआ|

            आधुनिक रंग समीक्षक डॉ. सुरेश अवस्थी नाट्यालोचना संबंधित अपने अनुभव को साझा करते हुए लिखते हैं-  “जब श्रीकांत वर्मा द्वारा संपादित ‘कृति’ मासिक पत्रिका में और फिर ‘कल्पना’ और ‘धर्मयुग’ में नाट्य-प्रदर्शनों की समीक्षाएं लिखना शुरू किया तो एक-दूसरे प्रकार की शब्दावली और भाषा के संकट का अनुभव हुआ| आलोचना की भाषा में तो आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है, और वह परिवर्तन तभी आएगा जब हमारी आलोचना वर्णनात्मक न होकर विश्लेषणात्मक हो,और नाट्यालेख की रंगमंचीय प्रदर्शन की अनिवार्यता और प्रदर्शन-आलेख की बहु-आयामी, चिह्नों और प्रतीकों की परा-भाषा के प्रति वह जागरूक हो |”7 

            कुल मिलाकर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अनेक छोटी-बड़ी नाट्य पत्रिकाएँ प्रकाशित होनी आरंभ हुई| इनमें नटरंग, रंग प्रसंग, कलावार्त्ता, नाट्यवार्त्ता, अभिनय अन्तेर्देशीय नाट्य पत्र, श्रीनाट्यम पत्रिका, रंगभारती, भरतरंग,हिन्दुस्तानी,कालिदास,नुक्कड़,रंग अभियान , कला वसुधा, संगीत अकादमी बुलेटिन आदि पत्रिकाओं का नाम सम्मिलित किया जा सकता है|

            इन पत्रिकाओं ने हिंदी रंगमंच को लेकर एक सुगबुगाहट पैदा कर दी | इनमें कुछ पत्रिकाएँ प्रदेश विशेष को आधार बनाकर निकली| वास्तव में इन पत्रिकाओं का मुख्य उद्देश्य क्षेत्रीय रंगमंच को राष्ट्रीय रंगमंच से जोड़ने का रहा है| यहाँ ये उल्लेख करना आवश्यक है कि “कैसे रंगमंच नाट्यालोचन का दिशा-निर्धारण करता है| स्वातंत्र्योत्तर रंगकर्म में आकार और प्रकार की दृष्टि से गुणात्मक परिवर्तन आए| .......बदलाव के इस वातावरण में मई से अगस्त 1960 में ‘कल्पना’ में वीरेन्द्र्नारायण ने लम्बी समीक्षात्मक टिप्पणियों से ‘स्कन्दगुप्त’ नाटक के दृश्य-अनुभव को स्पष्ट और साकार किया |”

            अत: कह सकते हैं कि हिंदी रंगमंच को प्रदर्शनकारी कलाओं के साथ जोड़कर इसे नया स्वरूप प्रदान करने का प्रयास इन नाट्य पत्रिकाओं ने किया है| आधुनिक नाटकों, रंगमंच, संस्कृत रंगमंच, बाल रंगमंच, पारम्परिक रंगमंच, बाल रंगमंच, नुक्कड़ नाटक आदि को आधार बनाकर निकली अनेक नाट्य पत्रिकाएँ हिंदी रंगमंच का ही प्रतिनिधित्व करती हैं|

लोकरंगमंच की नाट्य पत्रिकाएँ

            नाटक और रंगमंच के किसी एक हिस्से को केंद्र में रखकर कुछ संस्थाओं और नाट्य मंडलियों ने विशिष्ट नाट्य पत्रिकाओं का प्रकाशन किया है| इस कड़ी में पारम्परिक रंगमंच की पत्रिकाओं पर ध्यान केन्द्रित किया जाए तो राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश आदि की पत्रिकाओं का  विशेष उल्लेख किया गया है| उससे पहले लोकनाट्य शैली के महत्त्व और आवश्यकता को जान लेना आवश्यक है; प्रख्यात रंग निर्देशक देवेन्द्रराज ‘अंकुर’ के शब्दों से इसे समझा जा सकता है- 

            लोक-नाट्य शैलियों के प्रदर्शन की सबसे पहली पहचान यही है कि वे किसी बंद प्रेक्षागृह के लिए नहीं बनी हैं| आज भले ही हम इन शैलियों का बंद प्रेक्षागृह में आयोजन कर लेते हैं लेकिन जब से इनका आरंभ हुआ तब से इनका प्रदर्शन खुले में होता रहा है| मात्र अपवाद के रूप में असम की अंकिया नाट और केरल की कुडियट्टम शैली को छोड़ा जा सकता है, जिनका मंचन-प्रदर्शन मन्दिर के प्रांगण में बने बंद सभागार में किया जाता है,जिसे क्रमश: भाओना घर और कुतम्बलम  कहा जाता है| 9  

            स्वतंत्रता के पश्चात् लोक रंगमंच को समृद्ध करने में नाट्य पत्रिकाओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही है | लोक रंगमंच पर केन्द्रित इन पत्रिकाओं ने प्रदेश के लोक रंगमंच को भारत के अन्य क्षेत्रों के रंगमंच से जोड़ा है| लोक-रंगमंच का सीधा सम्बन्ध लोकमानस से है जिसकी उत्पत्ति लोक की उत्पत्ति से जुड़ी हुई है | अध्ययन की इस कड़ी में लोकरंगमंच की पत्रिकाओं से पहले इसी लोक और उसके विविध रूपों पर विचार करना ज़रूरी है | जब हम लोकनाटकों की बात करते हैं तो लोकमानस से ओत-प्रोत लोकनाट्य अनादि प्रागैतिहासिक काल से जन्म लेकर काल के विशाल अवरोधों को चीरता हुआ आज तक लोक में प्रचलित है और उसी लोकनाट्य के ऊपर नाटक और उसका नाट्यशास्त्र खड़ा होता है |10

            इस लोक और लोक रंगमंच को लिखित रूप से समृद्ध करने में पत्रिकाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है जिसमें लोककला (1953), रंगायन (1967), ‘नौटंकी कला (1983), ‘चौमासा (1983), ‘बिदेसिया’ (1987), ‘मड़ई (1999) आदि पत्रिकाओं ने अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज करवाई है | ये पत्रिकाएँ विशेष क्षेत्र, विशेष विधा पर केन्द्रित होकर कार्य करती रही हैं | इस सन्दर्भ में प्रोफ़ेसर रमेश गौतम का कथन जोड़ा जा सकता है अनेक पत्रिकाएँ तो किसी विशेष विधा को केंद्र में रखकर ही कार्य कर रही हैं | इससे उस विधा विशेष का तो विकास होता ही है साथ ही पाठकों को भी रुचि के अनुरूप चयन की सुविधा मिल जाती है |11 

            उपरोक्त पत्रिकाओं का मुख्य उद्देश्य क्षेत्रीय रंगमंच को राष्ट्रीय रंगमंच से जोड़ने का रहा है | हिंदी रंगमंच को प्रदर्शनकारी कलाओं के साथ जोड़कर इसे नया स्वरुप प्रदान करने का प्रयास इन पत्रिकाओं ने किया | 

            विस्तृत विचार करने की श्रृंखला में लोकरंगमंच की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में पहला नाम लोककलापत्रिका का आता है | (त्रैमासिक/अर्धवार्षिक, उदयपुर, जनवरी 1953 देवीलाल सामर एवं महेंद्र भानावत) लोककलामुख्यतः परम्परागत राजस्थानी कलारूपों की पत्रिका है | इसमें राजस्थान के विभिन्न लोकरंगों, लोकसंगीत, रीतिरिवाज और त्यौहार, लोककला, लोकगीत, लोकनृत्य, लोकनाट्य और कठपुतली कला आदि से सम्बंधित जानकारियाँ दी गई हैं | 

            लोकनाट्य सम्बन्धी सामग्री प्रमुख रूप से राजस्थानी ख्याल परम्परा, रासधारी ख्याल, लोकनाट्य गवरी, भवई, कठपुतली नाट्य, रासलीला व रामलीला पर मिलती है | इसमें इन लोकनाट्यों की विभिन्न शैलियों, रंगतों, विशेषताओं तथा जीवन में इनकी उपयोगिता पर विचार किया गया है | इन विषयों पर अधिकांश लेख मुख्यतः देवीलाल सामर, गींडाराम वर्मा, महेंद्र भानावत, रामशरणदास गुप्त द्वारा लिखे गए हैं | लोकनाट्य व उनकी परम्परा को समझने की दृष्टि से कुछ लेख हैं - 

  • ख्यालों की पूर्व परम्परा’ : अगरचंद नाहटा, भाग-1, अंक-2, 1953 

  • लोकनाट्यों का विकास-क्रम’ : देवीलाल सामर, अंक 12, 1966 

  • राजस्थान की ख्याल संपदा’ : महेंद्र भानावत, अंक 12, 1966  

  • प्रदर्शनकारी कलाएँ : समन्वय और सुझाव’ : जगदीशचंद्र माथुर, अंक 19, 1970 

  • कठपुतलियाँ और मानसिक रोगोपचार’ : देवीलाल सामर, अंक 20, 1970

  •  ‘देहाती मनोरंजन का शहरीकरण : जगदीशचंद्र माथुर, अंक 25, 1973  

        लोककलापत्रिका में लोकनाट्यों की उत्पत्ति, उनके इतिहास, भारतीय लोकनाट्यों की विशेषताएँ, प्रस्तुतीकरण, रंगदर्शन, कथाशिल्प, इत्यादि से सम्बंधित अनेक पक्षों की जानकारी के साथ बच्चों की शिक्षा, सामाजिक जागरूकता तथा मानसिक विकास के लिए कठपुतली नाट्य किस प्रकार उपयोगी होता है, इसकी विशिष्ट जानकारी मिलती है | अपने इसी रूप के कारण यह पत्रिका लोककलाओं के उन्नयन तथा समसामयिक सन्दर्भों में उनकी भूमिका को स्पष्ट करती है

            लोकरंगमंच पर अगली महत्वपूर्ण पत्रिका राजस्थान से ही प्रकाशित रंगायन (उदयपुर, मई 1967, देवीलाल सामर/महेंद्र भानावत/पीयूष दईया) है राजस्थान की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को सहेजने में भारतीय लोककला मंडल, उदयपुर का योगदान अग्रणीय है | इस मंडल की पत्रिका रंगायनने इसी परम्परा में अपनी सांस्कृतिक भागीदारी निभाई है जिसमें इस प्रदेश की लोककलाओं के प्रत्येक रूप का उल्लेख पत्रिका की सामग्री में मिलता है | लोककला मंडल की गतिविधियों की विस्तृत जानकारी के साथ राजस्थान के रीति-रिवाजों, कहावतों-मुहावरों, आभूषणों, प्रचलित विवाह के विभिन्न रूपों, विविध गीत शैलियों, लोकनृत्यों, भांड (जोधपुरी), ख्याल ( शेखावटी) की लोक नाट्य परम्परा और इन विषयों पर लिखी पुस्तकों (परंपराशील नाट्य’: जगदीशचन्द्र माथुर, ‘लोकनाट्य गवरी’ : महेंद्र भानावत, ‘संगीत :एक लोकनाट्य परम्परा’: रामनारायण अग्रवाल) पर विचार-विमर्श होता रहा है |  

            इसी प्रकार शोधयात्रास्तम्भ में चितौड़ की तुर्राख्याल परम्परा, लुप्तप्राय लोकनाटकों की खोज, कठपुतली नाट्य शैली के उन्नयन तथा यात्रा-सर्वेक्षणमें समृद्ध लोक परम्परा के विवरणों द्वारा राजस्थान की लोकनाट्य परम्परा और लोकनाटकों की अवधारणाएँ स्पष्ट हुई हैं | इसमें प्रकाशित अधिकांश लेख लोक का जीवन-दर्शन से सम्बन्ध, कुचामणि शैली का ख्याल, भांड-पाथर का उद्भव और विकास, लोक-जन संस्कृति की संकल्पना, देशज संस्कृति, भरतपुर की रसिया सिकड़ी जापान और रोमानिया की कठपुतलियों, पारम्परिक एवं आधुनिक सभ्यताओं का संस्कृति विधान राजस्थानी ख्याल में हो रहे नवीन प्रयोग, मुखौटों, लोकनाट्यों की प्रासंगिकता, उदयपुर एवं भोजपुरी लोकनाट्य परम्परा इत्यादि विषयों पर लिखे गए हैं | 

            लोकनाट्य अध्येता देवीलाल सामर ने अपने कई लेखों में लोकनाट्यों द्वारा राष्ट्रीयता के बजाय क्षेत्रीयता को बढ़ावा देने वाली प्रवृति का विरोध किया है | उन्होंने इन लेखों के माध्यम से लोक संपदाओं को सांस्कृतिक उपलब्धि मानते हुए उसकी खोज व उन्नयन के लिए विश्वविद्यालयों में इसके पठन-पाठन की आवश्यकता को उभारा है | विषयों की दृष्टि से उन्होंने रंगमंच का सामाजिक प्रगति में योगदान, लोकनाट्यों के रंगदर्शन एवं प्रयोग, आधुनिकता बनाम पारम्परिकता एवं मनोरंजन के नाम पर बढ़ते हुए कुरुचिपूर्ण प्रदर्शनों पर अनेक लेख लिखे हैं | विशेष रूप से सामर जी ने अस्पतालों में पुतली नाटिका द्वारा रोगियों को मानसिक शांति व शिक्षा देने, सुर-लय और ताल का मानव से सम्बन्ध आदि पर लिखा है और उनका अंतिम लेख12 भी लोकनाट्यों को समर्पित रहा

            मौखिक परम्परापर पुपुल जयकर का चिंतन उल्लेखनीय है | इसमें उन्होंने भारत में महाभारतएवं रामायणमहाकाव्यों, पौराणिक कथाओं तथा कृष्ण को मिथक के रूप में दर्शाने वाली कथाओं की सुदीर्घ मौखिक परम्परा माना है | चारण परम्परा में वह अगस्त्य, अंगी रस, भृगु, वशिष्ठ इत्यादि मुनियों को वैदिक युगीन चारण13 कहा है | इसलिए उन्होंने नाथ एवं सिद्धों के योगदान पर विचार करते हुए उनकी घुमक्कड़ प्रवृति को जन-प्रचार का सशक्त माध्यम माना है, जिसके द्वारा वे हीर रांझा’, ‘पूरण भगत’, ‘राजा रसालूआख्यायिकाओं को गाँव-गाँव में घूमकर गाते थे

            रंगायनपत्रिका के विभिन्न अंकों में लोकनाट्यों व कठपुतली कला पर केन्द्रित लेख प्रस्तुत हुए हैं | हालांकि इसके प्रारंभिक बुलेटिन अंक राजस्थान विशेष पर केन्द्रित रहे हैं लेकिन 1970 के आस-पास पत्रिका रूप में आने से राजस्थान के साथ-साथ अन्य प्रदेशों की लोक संस्कृति को भी पर्याप्त स्थान मिला है | कह सकते हैं राजस्थान की तरह अन्य प्रदेशों में इस तरह की बहुमुखी पत्रिकाएँ बहुत कम प्रकाशित हुई हैं

            लोकनाट्य का महत्वपूर्ण अंग उत्तर भारत की नौटंकी भी है| समय के साथ इसके रूप और लोकप्रियता में बदलाव आया है| उसमें कहीं-कहीं अश्लीलता का भी समावेश हुआ है लेकिन प्रतिबद्ध कलाकारों के माध्यम से नौटंकी कला का डंका देश-विदेश में बज रहा है | नाट्य अध्येता रीतारानी पालीवाल के शब्दों में - भारतेंदु नाटक केंद्रलखनऊ ने प्रथम नौटंकी समारोह आयोजित किया| देशभर की  प्रख्यात नौटंकी प्रतिभाओं को बुलाकर अनेक प्रदर्शन कराये गये| आधुनिक नौटंकी की सूत्रधार गुलाबबाई ने अनारकलीका प्रदर्शन किया| इस प्रदर्शन में लोकनाट्य की सभी विशेषताएँ साकार होकर प्रस्तुत हुईं| हमारी लोकधर्मी नाट्य-परम्परा आज भी कितनी जीवन्त है,इस तथ्य को अस्वीकार करने का मानों अवसर ही न रहा |14  

          लोकरंगमंच केन्द्रित पत्रिकाओं पर ध्यान दिया जाए तो पाएँगे कि पारंपरिक नाट्यों को केंद्र बनाकर लोककला, ‘रंगायनऔर चौमासा आदि कई पत्रिकाएँ प्रकाशित होती रही हैं | लेकिन किसी एक पारंपरिक नाट्यरूप को आधार बनाने वाली नौटंकीकला (त्रैमासिक, लखनऊ, अगस्त 1982 :कृष्णमोहन सक्सेना/कामेश्वरी श्रीवास्तव) हिंदी की पहली पत्रिका है | बुलेटिन के रूप में निकलने वाली यह पत्रिका नौटंकी कला केंद्र (लखनऊ) से प्रकाशित हुई | इस पत्रिका के सम्पादक कृष्णमोहन सक्सेना की दृष्टि उपेक्षित नौटंकी को पुनः पहचान देने की रही है जो उनके इस कथन से भी स्पष्ट है - नौटंकी के क्षेत्र में न तो अपनी सरकार और न किसी व्यक्ति ने व्यक्तिगत स्तर पर समर्पण भाव से ऐसी कोई पहल की, जिससे कि नौटंकी विषयक संपदा को एक स्थान पर एकत्रित किया जा सके | जो भी बचे कलाकार हैं, उनके जीवनयापन की समुचित व्यवस्था करके उनसे तथा प्रशिक्षण स्तरीय प्रदर्शन का कार्य लिया जाए |15  

            इस पत्रिका में विभिन्न नगरों में होने वाली नौटंकियों की चर्चा, इसकी वर्तमान स्थिति पर सर्वेक्षण, इस विधा से जुड़े कलाकारों का परिचय एवं साक्षात्कार, नौटंकियों के आलेख आदि के प्रकाशन से नौटंकी के बारे में प्रामाणिक जानकारी मिलती है | इसमें प्रकाशित अधिकांश लेखों द्वारा नौटंकी के इतिहास, उसके स्वरुप आदि से परिचय होता है | इसके एक महत्वपूर्ण लेख में  प्रसिद्ध रंगालोचक नेमिचंद्र जैन ने नौटंकी में परम्परा के साथ नवीनता के आग्रह को स्वीकार करने से परहेज न करने पर जोर डाला है : परिवर्तन की प्रक्रिया में बहुत कुछ स्वाभाविक रूप से नष्ट हो जाता है या बदलता जाता है | परम्परा के साथ सही रिश्ता जोड़ने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि हम उसका सही मूल्यांकन करें और उसमें जो कुछ जीवंत और स्थायी है उसे आगे ले जाने की कोशिश करें, लेकिन साथ ही जो कुछ जीर्ण हैं, उसे छोड़ दें |16

          इस तरह विलुप्त होती जा रही है नौटंकी कला को इस पत्रिका के माध्यम से जीवंत करने का प्रयास सराहनीय है

            परम्परागत लोककला एवं मंच रूपों पर आधारित अगली पत्रिका चौमासा (1983, कपिल तिवारी) है जो मध्यप्रदेश आदिवासी लोककला परिषद (भोपाल) की पत्रिका है | लोककलाओं के अनेक रूपों लोकनाट्य, लोकसंगीत, लोकगाथाएँ, लोकगीत चित्रकारी, लोकशिल्प इत्यादि से परिचय करवाना इसका प्रमुख उद्देश्य रहा है | 1983 से निरंतर प्रकाशित चौमासाके विविध विषयों पर केन्द्रित 100 से अधिक अंक प्रकाशित हो चुके हैं वर्तमान में यह ई-बुक’(edujhar.com) के रूप में भी उपलब्ध है | इसके विभिन्न अंकों में माच, ख्याल, कठपुतली कला, नाचा, तमाशा, छतीसगढ़ी रहस, रासलीला, रामलीला, नौटंकी, काठी, निमाड़ी नाट्य, जात्रा इत्यादि पर सामग्री है जो इन लोकनाट्यों की परम्परा, प्रयोग और महत्व को रेखांकित करती है एवं हिंदी रंगान्दोलन और पारम्परिक लोकमंच की उपयोगिता को सामने लाती है | 

            चौमासाके प्रवेशांक में हबीब तनवीर का नया थिएटरपर आधारित लेख छतीसगढ़ी लोकमंच में उसके अवदान को स्पष्ट करता है|17  हबीब तनवीर से सम्बंधित ऐसी सामग्री पत्रिका के अन्य अंकों में भी समय-समय पर प्रकाशित होती रही है जिसमें हबीब के बारे में कारंत का साक्षात्कार विशेष रूप से पठनीय है |18  ‘बहसस्तम्भ में लोकमंच, लोकसंस्कृति, लोककलाओं के भविष्य आदि विषयों से जुड़े प्रश्नों पर विचारोत्तेजक लेख हैं | किसी एक लेख के बाद अगले अंक में उस लेख पर विभिन्न लोगों की प्रतिक्रियाएँ एक साझा मंच के रूप में उभरी हैं |  

            इनके अलावा रामलीला का विविध क्षेत्रों (अयोध्या, दिल्ली, मथुरा, रूस) में रूप, बस्तर का भतरा नाट, मिथिला के लोकनाटक, बुंदेलखंड की लोकनाट्य परम्परा, वाचिक परम्परा का अर्थ, पंडवानी के रूप में महाभारत, बुन्देलखंडी वाचिक काव्य परम्परा, लोक साहित्य में मिथक, मिस्त्री कला, ब्रज की रासलीला, पंडवानी पाबूजी की पड़इत्यादि पर कई सारगर्भित लेख और विभिन्न नगरों में होने वाले नाट्य समारोहों की सूचनाएँ भी मिलती हैं |

            चौमासाका अंक-2 (जून-सितम्बर 1983) लोकनाट्यों पर केन्द्रित विशेषांक है | इस अंक में जगदीशचन्द्र माथुर ने लोकरंगमंच के विभिन्न रूपों और उसके शिल्प पर गंभीरता से चिंतन किया है जो शोधार्थियों के लिए लाभदायक है|19  कारंत जी के साक्षात्कार में लोकनाट्यों में हो रहे प्रयोगों, इसके स्वरूप आदि पर गंभीरता से विचार किया गया है | इस अंक के अन्य लेखक हैं सई परांजपे (तमाशा’), ब.व. कारंत (यक्षगान’), आर.गोपालकृष्णन (कूडीअट्टम : केरल का पारंपरिक रंगमंच’) और श्याम परमार | ‘चौमासाअनेक वर्षों से देर-सवेर, निरंतर प्रकाशित हो रही है | नवीन अंक (नवंबर 2019-फरवरी 2020) में मध्य प्रदेश ही नहीं; छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, अरुणाचल प्रदेश आदि अन्य प्रदेशों की लोकसंस्कृति पर भी उपयोगी सामग्री मिलती है |

            संक्षेप में कहें तो लोककलाओं के समस्त रूपों के उन्नयन और लोकनाट्यों के प्रति जागृति लाने के उद्देश्य से यह पत्रिका केवल मध्यप्रदेश की ही नहीं, भारत के अन्य अंचलों की संस्कृति से भी साक्षात्कार करवाती है | इसी प्रयास में विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित रासलीला’, ‘रामलीला’, ‘जात्रा’, ‘तमाशा’, ‘भवई’, यक्षगान’, ‘कूडीअट्टमइत्यादि अनेक लोकनाट्य रूपों की विविध शैलियों का परिचय मिलता है |

            लोकरंगमंच और लोककलाओं को आधार बनाकर निकलने वाली अन्य महत्वपूर्ण पत्रिका मड़ई (1999, कालीचरण यादव) है | यह रावत नाच महोत्सव समिति (विलासपुर) की पत्रिका है | इस पत्रिका के कई अंकों में लोक शब्द की व्याख्या और इसके अंतर्गत आने वाले कलारूपों का विवेचन मिलता है | विशेष रूप से उत्तर-आधुनिकता के दौर में बाज़ार के दबावों को झेलते समाज में लोककी व्याख्या इस पत्रिका को सार्थक बनाती है | इस बारे में सम्पादक कालीचरण यादव का मानना है कि लोककलाओं की जीवन्तता बनी रही | वह अधिक प्रासंगिक बन सके इसके लिए यह आवश्यक है कि समाज में साहित्य के समानांतर लोक का भी विमर्श होना चाहिए | लोक के प्रति हमारी उदासीनता के कारणों पर विचार होना चाहिए | 20

          इस पत्रिका में प्रकाशित अधिकांश लेख इसी लोकके अनेक रूपों की व्याख्या करते हैं | भारतीय लोकनाट्य परम्परा के विभिन्न रूपों को जानने-समझने में ये लेख सशक्त माध्यम बने हैं | इनमें भारतेंदु और भिखारी ठाकुर के रचनाकर्म में छिपे लोकतत्वों एवं उनके सृजन की सार्थकता पर गंभीर विचार किया गया है क्योंकि इन दोनों ने ही समाज में फैली समस्याओं को अपने नाटकों की अंतर्वस्तु बनाकर नारी उत्पीड़न, अंध विश्वास जैसी कुरीतियों का डटकर विरोध किया है | बाढ़ या सूखे की कुदरती विभीषिका पर ठाकुर के गीत संवेदन की हदें पार कर जाते हैं | ऐसे ही नौटंकीमें आई विकृतियों, नौटंकी का महत्व व रामलीला की परम्परा पर प्रकाश डाला गया है | राजस्थानी लोकनाट्य ख्याल व उसके विभिन्न रूप, कोसी अंचल के लोकनाट्य जट-जटिन, छतीसगढ़ की पंडवानी, राजस्थान की गवरी जातियों में लोकनाटकों की परम्परा, माच आदि पर भी लेख मिलते हैं | पठनीय सामग्री में रामनिहाल गुंजन21 , ऊषा वैरागकर आठले22 एवं आशीष त्रिपाठी23 आदि के लेखों को शामिल किया जा सकता है | 

            कुल मिलाकर मड़ईपत्रिका लगभग दो दशक से अधिक समय से लोकनाट्यों से सम्बंधित उल्लेखनीय सामग्री अपने लेखों के माध्यम से उपलब्ध करवा रही है | ये लेख रंगअध्येताओं के लिए भी उपयोगी साबित हो रहे हैं |

        लोकरंगमंच की उपरोक्त महत्वपूर्ण पत्रिकाओं के अलावा उत्तरप्रदेश से छायानट (सं. मुद्राराक्षस/रविन्द्रनाथ बहोरे/ शरद नागर 1977 और बिहार के लोकनाट्य बिदेसिया पर आधारित पत्रिका बिदेसिया (त्रैमासिक, राँची, दिसम्बर 1987) का उल्लेख करना अनिवार्य है | छायानट उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी से प्रकाशित होती है| इसी कारण इस पत्रिका में सभी कला रूपों पर ध्यान दिया जाता है| उत्तर प्रदेश के रंग परिदृश्य को उभारने में इस पत्रिका की भूमिका प्रशंसनीय है | लोकरंगमंच विषयक सामग्री में नौटंकी का उदय, विकास और वर्तमान स्थिति (रामनारायण अग्रवाल, अंक 14, जुलाई-सितंबर 1980 ), लोक परम्परा के आधुनिक संदर्भ( उर्मिलकुमार थपलियाल, अंक 25-26 अप्रैल- सितंबर 1983 ), कश्मीरी लोकनाट्य परम्परा (मोतीलाल कामू, अंक 29-30 अप्रैल- सितंबर 1984), हिंदी पारम्परिक रंगमंच में विदूषक ( इंदुजा अवस्थी, अंक 33 1985), पारम्परिक नाट्य और समकालीन रंगकला (नेमीचंद जैन, अंक 37 अप्रैल-जून 1986 ) , नाट्य रचना : परम्परा और प्रयोग (जगदीशचन्द्र माथुर, अंक 39 अक्तूबर- दिसंबर 1986) और राष्ट्रीय रंगमंच की बुनियाद : लोकमंच (विनोद रस्तोगी, अंक 54 जुलाई – सितंबर 1990) आदि लेख विशेष उल्लेखनीय हैं| छायानट के विविध अंको – विशेषांकों में उत्तर प्रदेश के लोकनाट्यों के साथ-साथ बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, कश्मीरी  और मिथिला के लोकनाट्यों का भी परिचय मिलता है | 

            बिदेसिया (अश्विनी कुमार पंकज) पत्रिका के केवल दो ही अंक प्रकाशित हुए हैं | ये दोनों अंक भिखारी ठाकुर पर केन्द्रित हैं | इन सीमित अंकों में भिखारी ठाकुर के रंगकर्मी व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला गया है | उनकी बहुरूपी प्रतिभा नाटककार, अभिनेता, गीतकार, संगीतकार, मंच और रूप-सज्जा विशेषज्ञ के रूप में दिखाई देती है जिसे पत्रिका ने विशिष्टता के साथ उभारा है |बिदेसियाके अंक-1 में राम सुहाग सिंह द्वारा उनका दुर्लभ साक्षात्कार और जगदीशचन्द्र माथुर का संस्मरण महत्वपूर्ण है | इसके अलावा उनके रंगकर्म पर लेख मिलते हैं | कह सकते हैं कि बिदेसियापत्रिका ने भिखारी ठाकुर से जुड़े महत्वपूर्ण पहलुओं पर विचार करते हुए समाप्त होते जा रहे लोकनाट्य रूपों की पंक्ति में बिदेसियाको बचाने का प्रयास किया है लेकिन इस पत्रिका का दो अंकों के बाद ही बंद हो जाना कहीं-न-कहीं हिंदी भाषी क्षेत्रों की उदासीनता को भी दर्शाता है | इसके अलावा सागर से प्रकाशित नाट्यम (त्रैमासिक, 1978, राधावल्लभ त्रिपाठी) पत्रिका में भी परम्परागत रंगमंच के माध्यम से लोकरंगमंच पर चर्चा मिल जाती है | हालांकि यह पत्रिका संस्कृत नाटक और रंगमंच पर केन्द्रित है लेकिन लोकरंगमंच को बचाए रखने की चिंता यह पत्रिका भी अपनी सामग्री द्वारा जाहिर करती है | इसमें प्रसिद्ध रंगसमीक्षक नेमिचंद्र जैन ने पारंपरिक रंगमंच की विशिष्टता को आधुनिक सन्दर्भों में परखते हुए जो प्रश्न उठाए हैं वे विचारणीय हैं | जिसमें वह आधुनिक युग में औद्योगिक व्यवस्था के विस्तार के साथ पारम्परिक रंगमंच की सार्थकता और प्रासंगिकता24 का प्रश्न उठाते हैं |  

            वर्ष 2000 से लोकरंगमंच पर केन्द्रित पत्रिका लोक मड़ई (छत्तीसगढ़) नाम से प्रकाशित हो रही है | इस पत्रिका में छत्तीसगढ़ की लोकसंस्कृति, लोककला और कलाकारों का परिचय मिलता है | प्रदेश विशेष की लोक संपदा को जानने की दृष्टि से यह पत्रिका निश्चित रूप से उल्लेखनीय है |

निष्कर्ष : मेरे लेख का केन्द्रीय विषय हिंदी नाट्यालोचना के संदर्भ में लोकरंगमंच की पत्रिकाएँ  हैं लेकिन इससे लोक और लोककला को अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि इन पत्रिकाओं के माध्यम से प्रामाणिक रंग-सामग्री प्राप्त होती है | पत्रिकाओं के महत्व पर प्रसिद्ध रंग-निर्देशक देवेन्द्रराज अंकुरका कथन उल्लेखनीय है हालांकि यह उन्होंने नटरंग’(नेमिचंद्र जैन) पत्रिका के लिए कहा लेकिन अन्य पत्रिकाओं के सन्दर्भ में भी यह सटीक बैठता है | उनके अनुसार- ज़रा कल्पना कीजिए बिना किसी को बताए, बिना किसी प्रचार-प्रसार के कम-से-कम एक शहर में मंचित और प्रदर्शित नाटकों का इतिहास तैयार है नाटक का नाम, नाटककार का नाम, प्रदर्शन की तिथियाँ, प्रेक्षागृह का नाम, मंच एवं पार्श्व में काम कर रहे कलाकारों की सूची और अंततः निर्देशक | इतना ही नहीं यदि एक नाटक उस बीच कई नाट्य मंडलियों और निर्देशकों के द्वारा किया गया तो उसके भी अलग-अलग विवरण | कोई भी शोधकर्ता जब चाहे इन विवरणों से गुज़र कर एक समय-विशेष के रंग-इतिहास को पकड़ सकता है|25

            कुल मिलाकर उपरोक्त पत्रिकाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है | ये पत्रिकाएँ एक रंग-दस्तावेज़ का कार्य करती हैं | इस सन्दर्भ में रंगालोचक महेश आनंद का कथन विचारणीय है- रंग दस्तावेज़ का अभिप्राय पत्र-पत्रिकाओं अथवा अन्य स्रोतों से उपलब्ध सामग्री को एक जगह संजोना नहीं है वरन् तत्कालीन रंगपरिदृश्य का अन्वेषण करना है | यह प्रक्रिया सांस्कृतिक परिवेश की उस गति से भी परिचित कराती है जो रंगकर्मियों, दर्शकों और रंगअध्येताओं को सजग करती हुई लौटकर रंगपरिवेश को ही समृद्ध करती है |26 

            कह सकते हैं लोकमानस के बिना लोकमंच और लोककला को नहीं जाना जा सकता | परंपराशील रंगमंच की ये पत्रिकाएँ उसी लोकतत्व को समग्र रूप में सामने लाने का कार्य करती आ रही हैं | इनमें से कुछ पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद हो चुका है तो कुछ आज भी बाज़ार के तमाम दबावों को झेलती हुई प्रकाशित हो रही हैं | अपने लेख के माध्यम से इन्हें एक मंच पर लाकर सुधीजनों से साक्षात्कार करवाना मेरा प्रयास रहा है | इस प्रयास में मैं कितना सफल हो पाई; यह कला मर्मज्ञ ही तय करेंगे |  

सन्दर्भ :

1. महेश आनंद, रंग दस्तावेज:सौ साल, खंड-1 , राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय , प्रथम संस्करण 2007 भूमिका, पृष्ठ-15 
2. काशी पत्रिका, भाग-1, संख्या 6, 31 अगस्त 1875 
3. नंदकिशोर नवल, हिंदी आलोचना का विकास, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली,प्रथम संस्करण 1981 पृष्ठ 31 
4. भरत यायावर, महावीरप्रसाद द्विवेदी, ग्रन्थावली, खंड 8, किताबघर नई दिल्ली, संस्करण 1995 पृष्ठ 592 
5. सत्येन्द्र कुमार तनेजा ,प्रसाद का नाट्य कर्म ,सन्मार्ग प्रकाशन दिल्ली ,प्रथम संस्करण 1988   भूमिका, पृष्ठ 17
6. अनीस आजमी, आगा हश्र कश्मीरी के चुनिंदा ड्रामें, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्ली, संस्करण 2004  पृष्ठ 26-28
7. सुरेश अवस्थी, हे सामाजिक,राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय,प्रथम संस्करण 2000,पृष्ठ 210 ,
8. सत्येन्द्र कुमार तनेजा, प्रसाद का नाट्य कर्म, सन्मार्ग प्रकाशन दिल्ली ,प्रथम संस्करण 1988,  भूमिका से पृष्ठ 12 
9. देवेन्द्रराज ‘अंकुर’,रंगमंच की कहानी, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2021,पृष्ठ  61 
10. सं. डॉ.सत्येन्द्र, लोकवार्ता की पगडंडियाँ, भारतीय लोककला मंडल, उदयपुर प्रथम संस्करण 1974, पृष्ठ-1 
11. प्रोफेसर रमेश गौतम , पत्र-पत्रिकाओं का इतिवृत और विकास, इन्टरनेट से साभार 
12. रंगायन, सं. देवीलाल सामर/महेंद्र भानावत/पीयूष दईया, आधुनिक नाट्यों में लोकनाट्य तत्व, देवीलाल सामर, जनवरी-फरवरी, 1982
13.रंगायन, सं. देवीलाल सामर/महेंद्र भानावत/पीयूष दईया, मौखिक परम्परा, पुपुल जयकर, वर्ष 30, अंक-2, अप्रैल-जून, 1997 
14. रीतारानी पालीवाल, रंगमंच : नया परिदृश्य, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2018  पृष्ठ 269
15. नौटंकीकला, सं. कृष्णमोहन सक्सेना, सम्पादकीय, अंक-1, अगस्त 1982, पृष्ठ-13 
16. नौटंकीकला, सं. कृष्णमोहन सक्सेना, नौटंकी लोकनाट्य: सही चिंतन ज़रूरी, नेमिचंद्र जैन, अंक-2, अप्रैल 1983, कवर पर प्रकाशित सामग्री से उद्धृत 
17. चौमासा, सं. कपिल तिवारी, एक समुदाय पूरी दुनिया बन जाता है, हबीब तनवीर, अंक-1, फरवरी, 1983 
18. चौमासा, सं. कपिल तिवारी, हबीब तनवीर: दृष्टि से दर्शन की प्रक्रिया, ब.व.कारन्त, वर्ष-3, अंक-7, फरवरी-जून, 1985 
19. चौमासा, सं. कपिल तिवारी, लोकरंगमंच का रूप और संगठन:जगदीशचंद्र माथुर, अंक-2, जून-सितम्बर, 1983 
20. कालीचरण यादव, लोकसांस्कृतिक जड़ों की तलाश में ‘मड़ई’ की अलग पहचान, इन्टरनेट से साभार 
21. मड़ई, सं.कालीचरण यादव, लोकसंवेदना और लोकनाटक की अवधारणा: रामनिहाल ‘गुंजन’, 1999 
22. मड़ई, सं.कालीचरण यादव, हिंदी रंगकर्म में लोकतत्व और लोकशैलियाँ: ऊषा वैरागकर आठले, 2004
23. मड़ई, सं.कालीचरण यादव, हिंदी की लोकरंग परम्परा: आशीष त्रिपाठी, 2004 
24. नाट्यम, सं. राधावल्लभ त्रिपाठी, पारम्परिक रंगमंच का वैशिष्ट्य:नेमिचंद्र जैन, अंक-14, फरवरी 1986, पृष्ठ 70 
25. नटरंग, सं.नेमिचंद्र जैन, हिंदी रंगसंसार में नेमिजी, देवेन्द्रराज ‘अंकुर’, अंक 74-76, सितम्बर 2005, पृष्ठ 20
26. महेश आनंद, रंग-दस्तावेज़: सौ साल, भाग-2,भूमिका, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, 2007, पृष्ठ-13 

प्रतिभा राणा
एसोसिएट प्रोफेसर हिंदी विभाग, स्वामी श्रद्धानंद महाविद्यालय , दिल्ली विश्वविद्यालय
pratibha@ss.du.ac.in

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( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी

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