शोध आलेख : संस्कृत की आधुनिक संदर्भों में प्रासंगिकता : जितेंद्र थदानी

संस्कृत की आधुनिक संदर्भों में प्रासंगिकता
- जितेंद्र थदानी

शोध सार : संस्कृत परिशुद्ध व्याकरणादिदोषों से रहित अत्यंत ही वैज्ञानिक जो भाषा है वह संस्कृत कही जाती है‌। वस्तुतः संस्कृत भाषा विश्व की प्राचीनतम भाषा है जिसे सभी आर्य भाषाओं की जननी भी कहा जाता है। विश्वसाहित्य का प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद भी संस्कृत भाषा में ही लिपिबद्ध है। न केवल वेद अपितु ब्राह्मणग्रंथ, आरण्यक, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, पुराण-उपपुराण, सूत्रसाहित्य, दर्शनग्रंथ इत्यादि सभी संस्कृत की अमूल्य निधि के रूप में विद्यमान है। संस्कृत ही विश्व की कल्याणकारिणी लोकमंगलदायनी विश्वशांति विधायिनी भाषा है। संस्कृत में वह सामर्थ्य है वह शक्ति है कि यह विश्वभाषा बनने के योग्य है। वर्तमान समय में आंग्ल भाषा का सर्वत्र प्राधान्य विद्यमान है इस कारण लोगों का चिंतन है कि संस्कृत भाषा की क्या आवश्यकता है? संस्कृत के अध्ययन से क्या उपलब्धि प्राप्त होगी? इसके अध्ययन का क्या प्रयोजन है? इस भाषा की क्या उपयोगिता है? इस वैज्ञानिक युग में संस्कृत की क्या प्रासंगिकता है?

            संस्कृत की इसी प्रासंगिकता की समीक्षा इस आलेख में की जाएगी। 

बीज शब्द : संस्कृत, प्रासंगिकता, निरुद्योगिता, संगणक युग, आतंकवाद, आधुनिकता, अर्थप्रधान, पर्यावरण प्रदूषण, वृक्षारोपण, एकल परिवार, आत्महनन, त्रिविधताप, फेलिसिटेटर, वैज्ञानिक, आविष्कार, शल्यचिकित्सा, समाधान। 

मूल आलेख : वस्तुत: आधुनिक संदर्भ में संस्कृत की महती प्रासंगिकता है। प्राचीन काल में संस्कृत भाषा जन भाषा थी संस्कृत के कारण संस्कार थे संस्कारों के कारण संस्कृति थी संस्कृति के कारण प्रगति थी और प्रगति के कारण भारत विश्वगुरु था यद्यपि वर्तमान में भी प्रगति है लेकिन जो प्राचीन कालीन प्रगति थी जिसके कारण भारत विश्वगुरु के रूप में पूज्य था वह स्थिति वर्तमान में नहीं है। वर्तमान समय में संस्कृत की उत्तम स्थिति नहीं है लोगों का व्यवहार संस्कृत भाषा के माध्यम से नहीं होता। संस्कृत के अभाव में संस्कार नहीं हैं संस्कारों के अभाव में संस्कृति नहीं है तथा संस्कृति के अभाव में प्रगति नहीं है। यदि हम भारत को पुन: विश्व गुरु के पद पर स्थापित करना चाहते हैं भारत की प्रगति चाहते हैं तो ऐसे समय में संस्कृत की उपयोगिता हमें स्वीकार करनी है। 

            वर्तमान युग ही संगणकयुग हैसंप्रति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कंप्यूटर अर्थात् संगणक का एक विशेष स्थान है। इस युग में कोई भी कार्य संगणक के बिना संभव नहीं है ऐसी परिस्थितियों में विश्व के वैज्ञानिकों ने भी प्रतिपादित किया है कि कंप्यूटर के संचालन हेतु संस्कृत से अतिरिक्त अन्य कोई भाषा उपयुक्त नहीं है। 

          भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या है निरुद्योगिता”। भारत देश में युवावस्था योग्यता की समस्या से नहीं निरुद्योगिता से पूर्णरूपेण ग्रस्त है इस निरुद्योगिता के कारण अनेक समस्याएं उत्पन्न होती हैं। संस्कृत में आजीविका के विभिन्न क्षेत्र विद्यमान है। विभिन्न क्षेत्रों में संस्कृत रोजगार के अवसर प्रदान कर इस समस्या का समाधान प्रदान करती है। संस्कृत में उद्योगिता के विभिन्न स्रोत हैं जैसे अध्यापन के क्षेत्र में, योग, आयुर्वेद, ज्योतिष, वास्तु, चिकित्सा, समाचारवाचन, पुस्तक लेखन, कविताकर्म, रचनात्मककर्म, संस्कृत-संभाषण, पौरोहित्यकर्म, व्याकरणशास्त्र, पुराण-इतिहास, अनुसंधानक्षेत्र, पांडुलिपि-संरक्षण, सामुद्रिकशास्त्र, प्रवचन क्षेत्र, भाषा-विभाग, धर्मशास्त्र, मीडिया और कंप्यूटर क्षेत्र में इन विविध क्षेत्रों में संस्कृत आजीविका प्रदान कर रही है और बेरोजगारी की समस्या का समाधान भी कर रही है।

              संप्रति न केवल भारतवर्ष अपितु संपूर्ण विश्व की एक समस्या से ग्रस्त है जिसका नाम है आतंकवाद। यह आतंकवाद असंतोष, विद्रोह, अनुशासनहीनता की प्रक्रिया है। आतंकवादी किसी भी राष्ट्र की एकता अखंडता का नाशक, सत्य और शांति का  विनाशक, मानवता का रोधक, विश्वबंधुत्व का अवरोधक, सामाजिकता का विरोधक होता है। इस समस्या का समाधान भी संस्कृत के माध्यम से संभव है संस्कृत में हमेशा ही अपनी सूक्तियों और श्लोकों के माध्यम से लोगों को सन्मार्ग पर चलने का उपदेश ही दिया है तथा हृदय परिवर्तन भी किया है। कहा भी गया है-

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥(1)
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।।(2)

            आधुनिकता की अंधी दौड़ में प्रतिस्पर्धा के इस युग में प्रत्येक राष्ट्र अपने आप को अधिक सक्षम, अधिक समर्थ और अधिक बलवान् दिखाने का प्रयास कर रहा है। संपूर्ण विश्व में अस्तित्व का संघर्ष चल रहा है। एक देश दूसरे देश पर आक्रमण करके अपनी श्रेष्ठता को स्थापित करने का तथा दूसरे राष्ट्र में अशांति उत्पन्न करने का प्रयास कर रहा है। अत्यंत महत्वाकांक्षी एवं प्रतिवेशी राष्ट्र से द्वेष करने वाले देश आतंकवाद को प्रोत्साहन देते हैं। न केवल इतना अपितु अन्य देश के विनाश के लिए षड्यंत्र करते हैं ऐसी परिस्थिति में विश्वशांति की स्थापना के लिए सहयोग की भावना के विस्तार के लिए हमारी संस्कृत उपदेश करती है-

संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।।(3)

         

            अर्थप्रधान इस संसार में धन संपत्ति का लोभ इतना अधिक बढ़ गया है कि लोगों ने अपने रिश्तों और धन में से धन को प्राथमिकता देना प्रारंभ कर दिया है। धन के कारण लोग रिश्तों का त्याग करने में भी संकोच नहीं करते हैं। भाई ही भाई का शत्रु बनकर अपराध कर रहा है बहन बहन की दुश्मन बन गई है। धन संपत्ति के लिए संतान माता-पिता की शत्रु होकर कि उनका वध कर रही है। जबकि यह धन संपत्ति किसी की नहीं होती है यहाँ तक की जो अचल संपत्तियां मकान इत्यादि हैं उनके विषय में भी वास्तुशास्त्र में कहा गया है कि कोई भी जमीन 100 साल से अधिक अपने स्वामी को नहीं टिकने देती। 100 वर्ष से पूर्व प्रत्येक भूमि अपने स्वामित्व का परिवर्तन कर लेती है। इसी धन संपदा के कारण भाइयों में आपस में द्वेष उत्पन्न हो रहा है ऐसी स्थिति में संस्कृत उपदेश करती है कि-

मा गृध कस्य स्विद्धनम्|(4)
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा।
सम्यञ्च सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।|”(5)

       

            पर्यावरण प्रदूषण इस युग की एक मुख्य समस्या है। मानव अपने जीवन में भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के लिए कुछ भी करने के लिए समर्थ है। भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के लिए वृक्षों को काटकर वनों का विनाश कर रहा है वनों के विनाश से, खनिजों की अवैध दोहन से, पर्वतों के उत्खनन से, विविध यांत्रिकालयों के कारण से, विविध औद्योगिक संस्थानों के कारण से पर्यावरण का प्रदूषण दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इस समस्या के समाधान के लिए संस्कृत ने सदैव वृक्षारोपण की प्रेरणा दी है। वेदों में भी वृक्षारोपण के लाभों का वर्णन किया गया है तथा पौराणिक साहित्य में तो विविध वृक्षों की पूजा के माध्यम से वृक्षों की रक्षा करने के प्रयास का भी सार्थक रूप दृष्टिगोचर होता है। कहा भी गया है-

वृक्षाणां कर्तनं पापं, वृक्षाणां रोपणं हितम्।
सुवृष्टिः जायते वृक्षैः उक्तं विज्ञानवादिभिः।।
सेचनादपि वृक्षस्य रोपितस्य परेण तु।
महत्फलमवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा।।(6)

          

             प्रगतिशील इस संसार में लोग अत्यंत महत्वाकांक्षी हो गए हैं। उनकी महत्वाकांक्षाएं इतनी अधिक बढ़ चुकी हैं कि उन पर नियंत्रण  प्राप्त करना संभव नहीं है। लोकेषणा से युक्त महत्वाकांक्षी लोग अत्यंत ही शीघ्र सब कुछ प्राप्त कर लेना चाहते हैं। संसार में जो कुछ भी विद्यमान है वह सब हस्तगत करना चाहते हैं जब कभी उनकी इच्छाओं की प्राप्ति हो जाती है तो उनके अंदर लोभ बढ़ता है मोह बढ़ता है आसक्ति बढ़ती है किंतु जब कभी भी इच्छाओं की पूर्ति मनोवांछित प्राप्ति नहीं होती है तो लोग हताश निराश तनावग्रस्त हो जाते हैं ऐसी परिस्थितियों से निकलने का उनको एक ही मार्ग नजर आता है वह है आत्महत्या। हताश और निराश मनुष्य आत्म हनन करने के लिए प्रेरित हो जाते हैं किंतु वह यह नहीं जानते हैं की आत्महत्या किसी भी समस्या का समाधान नहीं है अपितु आत्महत्या के पश्चात् जिस आसुरीलोक में जीव को प्रवेश मिलेगा वह यहाँ से अधिक भयावह स्थिति का सामना करेगा ऐसी स्थिति में ईशावास्योपनिषद् में कहा गया है-

असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः।
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः॥(7)

         

            आधुनिकता के प्रभाव में समाज में एकल परिवार प्रथा का प्रारंभ हो गया है संयुक्त परिवारों का विघटन हो चुका है। नवविवाहित युगल शीघ्र ही अपने परिवार से अलग होकर के एक नई दुनिया में जीना चाहते हैं। प्रारंभिक अवस्था में तो वह स्वतंत्रता बड़ी ही अच्छी लगती है लेकिन धीरे-धीरे वस्तुस्थिति जब सामने आती है तब अत्यंत ही परेशानियों का सामना उस युगल को करना पड़ता है। हमारे ऋषि मुनि अत्यंत दूरदर्शी थे वे संयुक्त परिवार के लाभ और एकल परिवार की हानियों को जानते थे उन्हें पता था कि संयुक्त परिवारों का जब भी विघटन होगा तो अनेक प्रकार की समस्याएं उत्पन्न होगी सामंजस्य में समस्या होगी। अतः उन्होंने हमेशा ही समूह, संयुक्त परिवार में रहने का उपदेश दिया कहा भी गया है-

पञ्चभिः सह गन्तव्यं स्थातव्यं पञ्चभिः सह |
पञ्चभिः सह वक्तव्यं  न  दुःखं पञ्चभिः सह  ||(8)

        

            एकल परिवार भाग-दौड़ वाली जिंदगी के कारण आज के मानव की दिनचर्या इतनी व्यस्त हो गई है अतिथि देवो भव की परंपरा का निर्वहन करने की स्थान पर अतिथि तुम कब जाओगे का अनुसरण कर रहा है। पहले के समय में अतिथि के आने पर ईश्वरीय कृपा समझा जाता था। लेकिन आज अतिथि को एक आफत के रूप में देखा जाता है ऐसी स्थिति में कठोपनिषद् का यम-नचिकेता-आख्यान अतिथिसत्कार का महत्व उसके लाभ तथा अतिथियों के अनादर की हानियों का भी विवेचन करता है। 

              जिस व्यक्ति के घर में अतिथि भूखा-प्यासा रहता है उसे अल्प मेधा वाले पुरुष की आशा प्रतीक्षा संगत तारा पूर्ति पुत्र पौत्र सभी को वह भूखा प्यासा अतिथि नष्ट कर देता है इसलिए सभी के द्वारा अतिथि सत्कार करना चाहिए। 

आशाप्रतीक्षे संगतं सूनृतां चेष्टापूर्वे पुत्रपशूंश्च सर्वान्।
एतद् वृङ्क्ते पुरुषस्याल्पमेधसो यस्यानश्नन्वसति ब्राह्मणो गृहे ॥(9)

       

            महत्त्वाकांक्षा से भरे इस युग में प्रत्येक मानव दु:खी है, हैरान है, परेशान है, चिंताग्रस्त है, आध्यात्मिक आधिभौतिक आधिदैविक त्रिविधताप से त्रस्त है। संचित-प्रारब्ध-क्रियमाण कर्मों का बंधन, स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर का बंधन, अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष-अभिनिवेश पंच क्लेशों का कष्ट और न जाने कितने प्रपंच एवं खुद के बनाए हुए दु:खों से दु:खी है। प्रत्येक मनुष्य शांति की खोज में लगा हुआ है शांति कहां मिले, कैसे मिले यह ज्ञात नहीं है। इंद्रियों के सुखों में ही शांति की तलाश की जा रही है। प्रत्येक मनुष्य इंद्रियों के सुख को ही वास्तविक सुख मान रहा है इसी सुख की अभिलाषा मनुष्य के पतन का मार्ग अग्रसर करती है। मनुष्य विभिन्न प्रकार के विषयों का निरंतर चिंतन करता रहता है और विषयों के चिंतन करते रहने से उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है विषयों के प्रति आसक्ति ही  मानव के दुःख का कारण बनती है जबकि इंद्रियों के विषय शीत और उष्ण अर्थात अनुकूलता एवं प्रतिकूलता देने वाले हैं, विपरीत स्वभाव वाले हैं, सुख और दु:ख देने वाले हैं, आने और जाने वाले हैं, अनित्य हैं, जो व्यक्ति इंद्रियों के सुख की इस प्रकृति को जान लेता है वह निश्चय ही सुखी हो जाता है, शांति को प्राप्त हो जाता है क्योंकि इंद्रियों के सुखों से  तृष्णा की वृद्धि तो हो सकती है किंतु शांति की प्राप्ति नहीं हो सकती। ऐसी स्थिति में भगवान श्रीकृष्ण का गीता उपदेश जनकल्याण के लिए शांति के मार्ग का ही पथप्रदर्शित करता है-

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।(10)

         

            आधुनिक शिक्षा प्रणाली में गुरु को फेलिसिटेटर के रूप में प्रतिष्ठापित करके गुरु के गुरुत्व को न्यून किया गया है। गुरु का स्थान पथप्रदर्शक मार्गदर्शक से हटकर परिस्थितियों को सहज और सुगम बनाने वाला एक अध्यापक के रूप में परिणत कर दिया गया है। छात्रों की गुरुओं के प्रति श्रद्धा एवं आस्था न्यून हुई है। शिष्यों द्वारा गुरुओं के प्रति हो रहे हिंसक अत्याचारों में भी वृद्धि हुई है। कोरोनाकाल के पश्चात तो गूगल को ही अपना गुरु मानने की होड़ सी लगी हुई है। वस्तुतः गूगल से ज्ञान की वृद्धि तो कर सकते हैं किंतु अज्ञान की निवृत्ति बिना गुरु के नहीं हो सकती है तथा ज्ञान तो किसी ज्ञानी और तत्त्वदर्शी गुरु से ही मिल सकता है लेकिन गुरु के सान्निध्य में जाने की भी कुछ मर्यादा हैं कि उनकी सेवा प्रणिपात और परिप्रश्न की प्रक्रिया को अपनाने हेतु गीता कहती है कि-

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: ||(11)

        

            एक बार एक समाचार पत्र में एक चिकित्सक का लेख पढ़ते हुए ज्ञात हुआ कि आज की दिनांक में चिकित्सकों के पास शारीरिक रोगों की अपेक्षा मानसिक रोगों से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या अधिक है। मनुष्य विविध प्रकार की कामना और चिंताओं एवं व्यर्थ चिंतन के कारण विविध रोगों से ग्रस्त हो रहा है। विनाश को प्राप्त हो रहा है। ऐसी परिस्थिति में गीता बता रही है कि विषयों का पुनः पुनः चिंतन करने से मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न होती है, आसक्ति से कामना, कामना से क्रोध, क्रोध से सम्मोह, सम्मोह से स्मृति विभ्रम, स्मृतिभ्रम से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से सर्वनाश अवश्यंभावी है। अतः हमें अपने विनाश से बचने के लिए विभिन्न प्रकार के विषयों का पुनः पुनः चिंतन करने से बचना चाहिए- 

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।(12)

          

            इन दिनों भाषा के विषय में भारत में एक नई प्रवृत्ति दिखाई दे रही है जिसमें किसी राज्य विशेष में बोली जाने वाली भाषा के प्रति लोगों का इतना आग्रह होता है कि वे चाहते हैं कि उस राज्य में कार्य करने वाले, भ्रमण करने वाले, किसी भी कार्य वश आने वाले लोग या निवास करने वाले लोग भी उसी भाषा में ही व्यवहार करें। जिसका ज्वलंत उदाहरण इन दिनों सोशल मीडिया पर देखा जा रहा है कि एक व्यक्ति किसी राज्य में कार्य करता है लेकिन वह वहाँ की भाषा को बोलने में असमर्थ रहता है तो कुछ भाषाग्रही लोगों के द्वारा उनसे मारपीट की जाती है। इसी प्रकार से एक उदाहरण और दृष्टिगोचर होता है कि एक दंपति किसी ऐप के माध्यम से कुछ सामान मंगवाते हैं जब डिलीवरी बॉय वह सामान देने आता है और सामान देने के पश्चात्‌‌ मूल्य प्राप्त करना चाहता है तो वे उससे कहते हैं कि वह वहाँ की स्थानीय भाषा में वार्तालाप करें जब वह डिलीवरी बॉय उस भाषा में बात करने में असमर्थ रहता है तो वह उसे पैसा तक नहीं देते हैं। ये उदाहरण हैं जो बता रहे हैं कि धीरे-धीरे यह समस्या विकराल रूप लेती जा रही है। उत्तर भारत को अंग्रेजी स्वीकार नहीं है दक्षिण भारत को हिंदी स्वीकार नहीं है ऐसी परिस्थिति में संस्कृत का विरोध कहीं पर भी होना संभव नहीं है इस राष्ट्रभाषा की समस्या का समाधान करने के लिए भी संस्कृत के माध्यम से किया जा सकता है। 

      विज्ञानप्रधान इस युग में वैज्ञानिक विविध आविष्कार करते हैं। अविष्कार करते समय विविध कष्टों एवं समस्याओं का अनुभव करते हैं। उनके कष्टों और समस्याओं का समाधान भी वैदिक वाङ्मय में पौराणिक शास्त्र और संस्कृत साहित्य में विद्यमान हैं। प्रायः वैज्ञानिक जो भी अविष्कार वर्तमान में कर रहे हैं संस्कृत साहित्य में गूढ़ रूप में विद्यमान है। जैसे कुछ समय पहले हमने जाना की वैज्ञानिकों ने क्लोनिंग की प्रक्रिया के द्वारा डॉली नाम की भेड़ का निर्माण किया इस प्रक्रिया में एक रक्त की कोशिका से उसी के जैसे शरीर का निर्माण किया गया। यह प्रक्रिया शास्त्रों से पूर्व में ही वर्णित है रक्तबीज नाम का एक राक्षस है जब दुर्गा देवी रक्तबीज का संहार करती है तो रक्तबीज के रक्त की बूंद से एक नया रक्तबीज उत्पन्न हो जाता है यह प्रक्रिया हमारे शास्त्रों से पूर्व में ही उल्लिखित है।(13) इसी प्रकार से चिकित्साशास्त्र में शल्यचिकित्सा का प्राधान्य है। विभिन्न माध्यमों से ज्ञात होता है कि मानव शरीर में विभिन्न प्रकार के पशुओं के अंगों को प्रत्यारोपण किया जा रहा है ऐसी शल्य चिकित्सा हमारे यहाँ शास्त्रों में उल्लिखित है। इसके अंतर्गत भगवान शिव को एक श्रेष्ठ चिकित्सक के रूप में स्थापित किया गया है जिन्होंने अपने पुत्र गणेश का सिर काट करके उसके स्थान पर गज का मुख स्थापित कर दिया तथा अपने श्वशुर का मुख काटकर अज का मुख प्रत्यारोपित कर दिया। इससे ज्ञात होता है कि अंगप्रत्यारोपण रूपी शल्यचिकित्सा प्राचीन कालीन भारत में भी विद्यमान थी। इसी प्रकार दूरदर्शन पर लाइव टेलीकास्ट (सीधा प्रसारण) भी आजकल प्रचलन में है आज से 100  वर्ष पूर्व तक किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि ऐसा भी कुछ संभव है क्या किंतु महाभारत के युद्ध में ही लाइव टेलीकास्ट का उदाहरण विद्यमान हैं जब भगवान श्रीकृष्ण संजय को ऐसी दिव्य दृष्टि देते है की वहाँ हस्तिनापुर अर्थात् दिल्ली में बैठकर के भी कुरुक्षेत्र हरियाणा में होने वाले उस युद्ध को बिना किसी तकनीकी सहायता के वही देख करके धृतराष्ट्र को आँखों देखा हाल बताते हैं।(14) एक उदाहरण भोजप्रबंध नाम के ग्रंथ में भी प्राप्त होता है जहाँ पर देवताओं के चिकित्सक अश्विनी कुमार  राजा भोज के मस्तिष्क की शल्यचिकित्सा करके उनको शिरोवेदना से मुक्त करते हैं।(15) यही अश्विनी कुमार च्यवनऋषि को वृद्धावस्था से मुक्त करते हैं। ऋजाश्व को नेत्र के रोग से मुक्त करते हैं। इसी प्रकार श्रोण के घुटनों का उपचार करते हैं जो कि वर्तमान में हो रहा है।(16) ऐसा ही एक उदाहरण रघुवंश में मिलता है जहाँ राजा दिलीप स्वर्ग से पृथ्वी की ओर लौट रहे होते हैं और वे कामधेनु को प्रणाम नहीं करते हैं।(17) अन्य उदाहरण अभिज्ञानशाकुन्तलम् में मिलता है कि राजा दुष्यंत देवासुर संग्राम हेतु स्वर्ग में जाते हैं।(18) ये उदाहरण यह बताते हैं कि प्राचीन काल में भी विभिन्न ग्रहों पर गमनागमन संभव था वर्तमान में भी वैज्ञानिक चन्द्रमा और मंगल इत्यादि ग्रहों पर पहुँच चुके हैं तथा अन्य ग्रहों पर जाने की प्रक्रिया चल रही है जबकि यह प्राचीन काल में विद्यमान था। अनेक ऐसे आविष्कार और अनुसंधान कार्य जिनमें विश्व के वैज्ञानिक समस्याओं का अनुभव कर रहे हैं तो उन सभी समस्याओं का समाधान संस्कृत साहित्य में विद्यमान ज्ञान राशि के माध्यम से वर्तमान में किया जा सकता है। 

            सर्वत्र विश्व में वातावरण युद्धमय, संघर्षमय, कलाहमय, विवादमय, अशांतिमय, असंतोषमय हो चुका है ऐसी अवस्था में ही संस्कृत मानवता, सरलता, बंधुता, सहृदयता  और उदारता की शिक्षा देते हुए कहती है-

सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया:
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत् ||

         

            संस्कृत में वह शक्ति विद्यमान है कि यह नूतन विचारों में पुरातन परंपराओं में सामन्जस्य स्थापित करने में समर्थ है। वैश्विक राजनीति शास्त्र, धर्मशास्त्र, मोक्षशास्त्र, नीतिशास्त्र, कामशास्त्र और अर्थशास्त्र इत्यादि सभी शास्त्र संस्कृत में ही विद्यमान हैं। संस्कृत  न केवल भौतिक  सुख-सुविधा देती है अपितु आत्मज्ञान भी देती है। यह न केवल भौतिक उन्नति प्रदान करती है अपितु आध्यात्मिक ऊंचाइयों तक भी ले जाने में समर्थ है। संस्कृत में वह समर्थ विद्यमान है कि वह संपूर्ण विश्व को एक सूत्र में बांधने का अधिकार रखती है। संस्कृत संस्कारों की शिक्षा प्रदान करके वास्तविक अर्थो में मानव को मानव बनाती है  किसी कवि ने कहा भी है-

मानस तन धार धार संस्कृत पढ़ो बार-बार |
यह कोटीन वनमानुषों को मानुष बनाती है ||

        

            वर्तमान समय में मानव मात्र की संपूर्ण समस्याओं का समाधान केवल संस्कृत के माध्यम से ही संभव है। संस्कृत भारत को पुनः विश्व गुरु के पद पर स्थापित कर सकती है। आतंकवाद, अलगाववाद, संप्रदायवाद, भाषावाद, जातिवाद, धर्मवाद इत्यादि समस्याओं का भी समाधान करने में समर्थ है। वस्तुत: संस्कृत इस संसार में साक्षात् कामधेनु है जो जीव मात्र की समस्त कामनाओं की पूर्ति करने में, सभी समस्याओं का समाधान करने में, आध्यात्मिक पथप्रदर्शन करने में तथा विज्ञान का उपकार करने में समर्थ है निश्चित रूप से वर्तमान संदर्भ में भी संस्कृत की अत्यंत ही प्रासंगिकता है। 

विस्तार के भय से इति अलम्.....

भूतले संस्कृता भाषा कामधेनुः प्रकीर्तिता। 
जननी विश्वभाषाणां विज्ञानस्योपकारिणी।। 


सन्दर्भ :

1. महोपनिषद् 4/31
2. शुक्ल यजुर्वेद 36/18
3. ऋग्वेद 10/191/2
4. ईशावास्योपनिषद् 1
5. अथर्ववेद 3.30.3
6. विष्णुधर्मोत्तरपुराण 3/297 
7. ईशावास्योपनिषद् 3
8. संकलित 
9. कठोपनिषद्
10. श्रीमद् भागवत गीता 2/14
11. श्रीमद् भागवत गीता 4/34
12. श्रीमद् भागवत गीता 2/62,63
13. दुर्गा सप्तशती 
14. महाभारत
15. भोज प्रबंध 87 
16. ऋग्वेद 1/117
17. रघुवंश एक 1/75 
18. अभिज्ञानशाकुंतलम् 7


जितेंद्र थदानी
सह आचार्य, सम्राट पृथ्वीराज चौहान राजकीय महाविद्यालय, अजमेर
9214523505, jitenderthadani27@gmail.com

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी
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