अफ़लातून की डायरी (8) : विष्णु कुमार शर्मा

अफ़लातून की डायरी (8) 
विष्णु कुमार शर्मा 


अफ़लातून की डायरी - 160
01.06.2025

“सुख में फुर्सत से कटता है दिन
रात बाँचने को फिर भी नहीं होती कोई कहानी
दुःख था तो लिखी कविताएँ
प्रेम ने केवल जीवन को ही नहीं, दुःख को भी घिस-घिसकर
चमकाया है”
~दिव्या श्री

मेरे पास कविता कहने का हुनर नहीं। भाग्यशाली होते हैं वे लोग जो कविता करते हैं। यूँ मैं भाग्य को नहीं जानता। चूँकि नहीं जानता सो नहीं मानता। जानता तो मैं ईश्वर को भी नहीं। लेकिन उसके बारे में अभी कोई खयाल पक्का नहीं... नचिकेता बुद्धिमान बालक था, वह अड़ा रहा अपने प्रश्न पर कि क्या मृत्यु के बाद भी आत्मा जैसा कुछ बचता है। यम ने बहुतेरे प्रलोभन दिए पर वह डटा रहा। उपनिषदों के रूप में कितना अमूल्य कोष है हमारे पास। कहन की कितनी सुंदर शैली और जीवनोपयोगी सूत्र। बुद्ध चुप रहे ऐसे प्रश्नों पर। अव्याकृत कह मौन हो गए। कुछ बोल दिए होते तो अच्छा होता। मैं बात कवि के भाग्यशाली होने कि कह रहा था। भाग्यशाली इस अर्थ में कि उसके पास कम शब्दों में अधिक कह देने का कौशल होता है। अभी पिछले दिनों शिवमूर्ति का उपन्यास ‘अगम बहै दरियाव’ पढ़ा। छह सौ पृष्ठों के आसपास का मोटा उपन्यास। गोदान के बाद कृषक जीवन पर लम्बे समय बाद एक उत्कृष्ट रचना पढ़ने को मिली। इसे दलित विमर्श कि रचना भी कहा जा सकता है। कथ्य के साथ बढ़िया शिल्प। दलित विमर्श के रचनाकारों के पास भोगा हुए यथार्थ का स्वानुभूत कथ्य तो है लेकिन शिल्प में कच्चापन है, इस मिथक को तोड़ते नज़र आते हैं शिवमूर्ति। इसमें आप पाएँगे ‘मैला आँचल’ और ‘राग दरबारी’ का टेस्ट भी। इस पृथुल उपन्यास की मूल संवेदना को एक कवि बहुत कम पृष्ठों में बयां कर देता। हालाँकि उपन्यास और कविता कि कोई तुलना नहीं हो सकती। बात यहाँ गद्य और पद्य की है। गद्यकार की तुलना में मैं कवि को भाग्य का बली कह रहा हूँ। हालाँकि आज कविता सबसे उपेक्षित विधा है और सभ्यता के विकास-काल में कवि-कर्म सबसे मुश्किल। कविता के प्रति पाठकों का रुझान कम होने के एक कारण यह भी है कि इधर हर कोई ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा तुकबाज अपने कवि होने की घोषणा कर देता है। इनके कारण कविता से पाठकों का मोहभंग हो जाता है।

‘अगम बहै दरियाव’ यानी अविरल बहती नदी। जीवन भी ऐसा ही है अविरल बहती नदी जैसा। सुखमय कुछ नहीं। पर जीना तो पड़ता ही है। जीवन में भरी हैं तमाम विषमताएँ- अन्याय, गैर-बराबरी, दलन, वंचना और पीड़ा। फिर भी मनुष्य जिए चला जा रहा है। जीना तो पड़ता ही है। क्या ये हमारे लिए अभिशाप है? सबके लिए तो नहीं पर अधिकांश के लिए। यदि हम जीवन का जान सकें तो यही जीवन वरदान बन जाता है। पर जानने का अवसर सबको मिल ही कहाँ पाता है? कविता ये अवसर हमें उपलब्ध कराती है और थोड़े में समझाती है- “प्रेम ने केवल जीवन को ही नहीं, दुःख को भी घिस-घिसकर चमकाया है”। जीवन में चमक प्रेम से आती है। पर प्रेम का अंगीकार इतना सहज कहाँ? साहेब कहते हैं- “सीस उतारे भुई धरे, सो पैठे घर मांहि”। प्रेम के लिए सीस उतार कर धरना यानी अहं का विसर्जन करना पड़ता है।

अफ़लातून की डायरी - 161
05.06.2025

“जब मैं उनकी भाषा में लिखता था तो उन सबका प्रिय लेखक था
लेकिन जैसे ही मैंने अपनी मातृभाषा में लिखा,
मुझे गिरफ्तार कर लिया गया।
तब मेरी समझ में आया कि
आजादी तक
सिर्फ अपनी भाषा के जरिए ही पहुँचा जा सकता है।”
– न्गूगी वा थ्योंगो

कवि मित्र विजय राही ने न्गुगी वा थ्योंगो की कविता का यह पोस्टर शेयर करते हुए उनके निधन का समाचार दिया तो लगा कि अचानक से भीतर कुछ दरक गया। लेकिन न्गुगी वा थ्योंगो से मेरा क्या संबंध? पिछली साल जामिया से जब रिफ्रेशर कोर्स किया तब वहाँ किसी क्लास में इनका नाम और काम सुना। 1938 में केन्या में इनका जन्म हुआ। 1970 तक इन्होंने अंग्रेजी भाषा में लिखा जो उन तमाम देशों की भाषा बन चुकी थी जो ब्रिटेन के उपनिवेश रहे थे। बाद में अपनी मातृभाषा गिकुयु में लिखने लगे। अपना नाम भी जेम्स न्गुगी से बदलकर न्गुगी वा थ्योंगो कर लिया और अफ्रीकी समाजों पर औपनिवेशिकता के कारण उपजे सांस्कृतिक संकट के विरोध का बड़ा चेहरा बनकर उभरे। केन्या के मूल निवासियों के खिलाफ उत्तर-औपनिवेशिक सत्ता संरचना द्वारा किए जा रहे अन्यायों के खिलाफ जब उन्होंने नाटक मंचन किया तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, उनके नाटक मंचन का तरीका कुछ इस तरह होता था कि उसमें दर्शक भी भाग लेते थे। इससे पूरे देश में एक आन्दोलन खड़ा हो गया। इस पूरे आन्दोलन में उन्होंने अपनी मातृभाषा को केंद्र में रखा। उनकी इस कविता की आखिरी पंक्ति मुझे सीधे भारत की आजादी की लड़ाई से जोड़ देती है। ठीक यही बात यहाँ गाँधी कहते रहे-

“आजादी तक सिर्फ अपनी भाषा के जरिए ही पहुँचा जा सकता है।”

परसों एक यूपीएससी एस्पिरेंट्स से बात हुई। पाली जिले के एक छोटे गाँव की लड़की इन दिनों दिल्ली में यूपीएससी की तैयारी कर रही है। उसने अपनी पढ़ाई हिंदी माध्यम से की। विकास दिव्यकीर्ति सर को यूट्यूब पर सुना, प्रेरित हुई और कम समय में बेहतर रिजल्ट देने का वादा अपने परिवार से कर दिल्ली आ गई। लड़कियों के पास समय हमेशा कम होता है। शादी उनका इंतजार कर रही होती है। हमारे यहाँ शादी अनिवार्य सेवा सरीखी है। क्या हम लड़कियों को थोड़ा वक्त और नहीं दे सकते? हमारे लड़के पैंतीस-चालीस की उम्र तक बस तैयारी कर रहे हैं। घर वाले घर से खर्चा भेजे जा रहे हैं कि एक दिन बेटा सरकारी नौकर बनकर आएगा और सब वसूल कर लेंगे। कि ये खर्चा नहीं था इन्वेस्टमेंट था। यहाँ आने पर उसे पता चला कि विकास सर अब पढ़ाते नहीं हैं। साल में कोई एकाध क्लास ले लें तो गनीमत। उनका सेटअप जम चुका है। अब उनकी अपनी प्राथमिकताएँ हैं। दृष्टि की बेहतरीन फैकल्टी ने अब संस्कृति के नाम से अलग संस्थान खोल लिया हैं, वहीं वह अपनी कोचिंग ले रही है। बताने लगी कि हिंदी माध्यम के एस्पिरेंट्स की संख्या ही यहाँ ज्यादा है। हालाँकि उनका सलेक्शन रेशो तीन से चार फ़ीसदी ही है। फिर भी बड़ी संख्या में इसे उम्मीदवार हर साल आते हैं। लाखों उम्मीदवार सालों से यहाँ टिके हैं कि काश कुछ हो जाए। मेरी बेटी के बाबत पूछा तो मैंने बताया कि उसने अभी RBSE से पाँचवी बोर्ड का एग्जाम पास किया है। तब बोलने लगी कि सर, यहाँ आकर मुश्किलें पता चलती है, आप नाइंथ या इलेवंथ से उसका मीडियम चेंज करा देना। हिंदी वालों का सर्वाइव करना बहुत मुश्किल है।

मेरे दोनों बच्चे हिंदी माध्यम से पढ़ रहे हैं। जब भी मुझे कोई इस तरह कहता है तो फिर यह द्वंद्व खड़ा हो जाता है। लगता है कहीं मैं अपनी जिद में कुछ गलत तो नहीं कर रहा। क्या मैं समय के साथ नहीं चल रहा? लेकिन मैंने तो बी.एड. के दौरान शिक्षा मनोविज्ञान में यह पढ़ा कि बच्चे अपनी मातृभाषा में बेहतर सीखते हैं। सारी रिसर्च यही कहती है। मैंने अपनी बेटी की पढ़ाई के दौरान यह सूत्र व्यावहारिक रूप में काम करते देखा भी है। नई शिक्षा नीति में केंद्र सरकार प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में दिए जाने की बात कर रही है। हालाँकि मुझे पता है कि यह सिर्फ सरकारी स्कूलों में लागू होगा। निजी स्कूल इसे कभी लागू नहीं करेंगे। वे बाजार की माँग के अनुरूप वस्तु या सेवा परोसेंगे। बाजार में डिमांड अंग्रेजी की है। पैसा भी अंग्रेजी में है। राज्य में पिछली सरकार ने गाँव-देहात के सरकारी स्कूलों को बिना सोचे समझे अंग्रेजी माध्यम में बदल दिया (या हो सकता है कुछ गहरा सोचा हो जो जनता को समझ नहीं आता)। ऊपर से नाम और महात्मा गाँधी के नाम पर रख दिया। गाँधी के नाम पर अपनी दुकान चलाने वालों ने गाँधी को पढ़ लिया होता तो शायद ऐसा निर्णय नहीं करते।

हिंदी पट्टी के राज्यों में सरकारी नौकरी का चार्म है। ये चार्म गुजरात और महाराष्ट्र और दक्षिण के कई राज्यों में देखने को नहीं मिलेगा। वहाँ व्यापार-व्यवसाय करने को अच्छा माना जाता है। नौकरी सरकारी हो या मल्टी नेशनल कंपनी की, आप वहाँ स्वतंत्रता अनुभव नहीं करते, न कुछ रचनात्मक किए जाने का वहाँ ज्यादा स्कोप होता। आप चाहे कितने ही बड़े पद पर क्यों न हों। आपको सिस्टम के अनुरूप चलना होता है। मैं नहीं चाहता मेरे बच्चे नौकरी करें। मैं चाहता हूँ वे उद्यमी बनें। कभीकभार मैं अपनी पत्नी को मजाक में कहता हूँ कि पुरु को कथावाचक बनाएँगे। धर्म का धंधा सबसे बढ़िया है। यूपीएससी, नीट, जेईई में क्यों बच्चों की जान लेनी? सारे आईआईटीयन तो बाबाओं के फॉलोवर बने घूम रहे हैं। आईआईएम वाले गीता बेच रहे हैं। विराट कोहली कभी नीम करौली बाबा के दरबार में हाजिरी दे रहे हैं तो कभी प्रेमानंद महाराज के। असली ताकत या तो राजनीति में है या धर्म के धंधे में।

मेरी एक रिश्तेदार हैं। एमए, बीएड कर शादी हो गई। बेटा हो गया। उसके बाद भी तैयारी जैसा कुछ करती रहीं। सलेक्शन हुआ नहीं। इस बीच एंकरिंग का कोर्स कर लिया। आज बड़ी-बड़ी शादियों में संगीत, हल्दी-मेहंदी होस्ट करती हैं। बर्थ-डे पार्टीज होस्ट करती हैं। अच्छा पैसा कमाती हैं। इस सबके बाद उनकी सास कहती है- “यह सब तो ठीक है पर सरकारी नौकरी लग जाती तो बुढ़ापा सुरक्षित हो जाता। कितने दिन करेगी यह?”

मेरे बच्चे भी कुछ न कुछ तो कर ही लेंगे। हम कुछ नहीं जानते बूझते भी यहाँ तक पहुँच गए तो ये तो कुछ न कुछ कर ही लेंगे। हमें तो कोई गाइड करने वाला भी नहीं था।

अयोध्या प्रसाद खत्री ने अपना पूरा जीवन और संपत्ति खड़ी बोली हिंदी को प्रतिष्ठित करने में लगा दी। औपनिवेशिकता के विरोध में हम एक कदम इस रूप में तो टिकाए रख ही सकते हैं कि हमारे बच्चे अपनी भाषा में पढ़ें। बाद में सीख लेंगे फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना जब ऐसे माहौल में रहेंगे कहीं। अभी से क्यों जी हलकान करें उनका। भाषा ही नहीं बची तो हमारी कलाएँ, साहित्य, संस्कृति और दर्शन कैसे बचेगा? भाषा तो इन सबकी मूल है।

राजेश जोशी लिखते हैं- “असहमति में उठा हाथ हमारे समय का सबसे सकारात्मक बिम्ब है”।

यह मेरी असहमति है।


अफ़लातून की डायरी - 162
08.06.2025

‘पूछरी के लोठा की जै’
मानसी गंगा श्री हरिदेव, गिरिवर की परिकम्मा देव
कुंड कुंड चरणामृत लेव, अपनो जनम सफल कर लेव

बचपन से दीवाली के अगले दिन गोवर्धन पूजा पर गाय के गोबर से कृष्ण स्वरूप गोवर्धन की बड़ी व छोटी परिक्रमा बनाकर परिक्रमा देते समय उच्चारते चले आ रहे हैं- ‘मानसी गंगा श्री हरिदेव, गिरिवर की परिकम्मा देव... बोल पूछरी के लोठा की जै’। करीब पंद्रह साल से अधिक समय गोवर्धन जाते हुए हो गया, परिक्रमा देते हुए। पहली बार गुप्ता जी ले गए थे 2008 में। फिर सालों उनके साथ ही जाता रहा। नब्बे फ़ीसदी उनके साथ ही गया। गुप्ता जी यानी बांदीकुई वाले हनुमान जी गुप्ता। वे वहाँ की हर छोटी बड़ी जगह से परिचित हैं फिर यह स्थान कैसे छूट गया और वह भी इतना महत्त्वपूर्ण स्थान। इस बार विज्जू (विजय) और उसके दोस्तों के साथ गया। गोवर्धन जी की परिक्रमा की, मानसी गंगा में स्नान किया। तब ये लोग चले हरिदेव मंदिर में दर्शन के लिए। मानसी गंगा के पास ही भीतर एक गली में विराजमान हैं ठाकुर हरिदेव जी। हमारे साथी शेखर और अज्जू (अजय) ने बताया कि हरिदेव जी के दर्शन परिक्रमा का अहम हिस्सा है। लाल बलुआ पत्थर से बना ऊंचा मंदिर। सीढ़ियाँ चढ़कर भीतर प्रवेश किया तो जीर्णोद्धार कार्य चल रहा था। हम छह लोगों के अतिरिक्त चार-पाँच दर्शनार्थी और थे। मंदिर में शांति पसरी थी। सामने काले पत्थर से बना सुंदर विग्रह। ठाकुर जी का पीला पटका। हमने दर्शन किए। शीश नवाया, तुलसी दल का चरणामृत लिया। शेखर ने बताया कि इसका निर्माण जयपुर के राजा भगवान दास ने कराया था। आज भी इसके रखरखाव का जिम्मा जयपुर के पूर्व राज-परिवार के पास है। गिरिराज जी की परिक्रमा करने के बाद हरिदेव जी के दर्शन अवश्य करने चाहिए। और उसने दीवार पर टंगा एक छोटा बैनर दिखाया जिस पर लिखा था- ‘मानसी गंगा श्री हरिदेव, गिरिवर की परिकम्मा देव’। इसमें जो हम बोलते हैं न श्री हरिदेव... वे श्री हरिदेव जी ये ही हैं। ये ही हैं... तभी अज्जू बोला- देखो, गर्भगृह में विग्रह के पीछे के बैकग्राउंड का भी काम कराया गया है। पिछले महीने आए थे तब नहीं हुआ था। शेखर की बात में अपनी बात जोड़ते हुए वह बोला- “गुरूजी, श्री कृष्ण के पोते ब्रजनाभ ने अपनी दादी रुक्मणी से सुने वर्णन के आधार पर कृष्ण के जो चार विग्रह बनवाए थे, ये उनमें से एक है। औरंगज़ेब ने जब हिन्दू मंदिरों में तोड़फोड़ की तब इसे लेकर भी यहाँ के गोस्वामी जी चले गए थे। बाद में इसे पुनः प्रतिष्ठित किया गया। मैं हैरान था। इत्ते सालों से गिरिराज जी के आ रहे हैं और यहाँ नहीं आए और न इस उक्ति का अर्थ पता था। बस दोहराए चले जा रहे थे- ‘मानसी गंगा श्री हरिदेव, गिरिवर की परिकम्मा देव...

कल निर्जला एकादशी थी। यूँ आधे लोगों ने परसों भी मान ली। हम रात को करीब साढ़े ग्यारह बजे यहाँ पहुँचे। दान घाटी मंदिर में बाहर से ही दर्शन किए और परिक्रमा शुरू कर दी। रास्ते में जगह-जगह प्याऊ लगी थी। और कई जगह शरबत पिलाने का इंतजाम था। शरबत की स्टाल के पास जमा था प्लास्टिक डिस्पोजल वेस्ट का ढेर। ऐसे ही कई जगह भंडारे चल रहे थे। आयोजक परिक्रमा करने वालों से प्रसादी ग्रहण करने का अनुरोध कर रहे थे। वहाँ भी झूठे पत्तल-दोनों प्लास्टिक वेस्ट जमा था। सैंकड़ों दोने हलवे से भरे जूठन में पड़े थे। एक तरफ अन्न का दुरुपयोग और दूसरी और प्लास्टिक वेस्ट से प्रकृति का नाश। काल्पनिक देवता इंद्र के भय से मुक्ति दिलाकर गोवर्धन पुजवाने वाले पर्यावरण कार्यकर्ता श्रीकृष्ण की भक्ति के नाम पर आयोजित भंडारे के माध्यम से हम कैसा धर्म कर रहे हैं? कृष्ण का संदेश साफ था- गोवर्धन पर्वत ही हमारा देवता है। इसी से हमारे गोवंश का वर्धन होता है, यही हमारी अर्थव्यवस्था का आधार है, इसका संरक्षण करेंगे तो न अकाल पड़ेगा और न अतिवृष्टि होगी। प्रकृति के साथ सहजीवन। क्योंकि सह-अस्तित्व में ही हमारा अस्तित्व है। हम प्रकृति का जितना दोहन करेंगे, उसे भोगवादी दृष्टि से बरतेंगे तो हमारा विनाश तय है। आज समूचे ब्रज में कंक्रीट के जंगल उग आए हैं और लगातार उगते चले जा रहे हैं। वृंदावन में वन बचे ही नहीं। कालिंदी का जल फैक्ट्रियों के केमिकल वेस्ट से आचमन योग्य नहीं बचा। कई नगरीय प्रशासन सीवेज वेस्ट हमारी पवित्र नदियों में छोड़ रहे हैं। असल कालिया नाग ये ही लोग हैं जो जमुना को प्रदूषित कर रहे हैं। हम फूल-पत्ते और पशु-चर्बी से निर्मित शुद्ध देशी घी का दीपक प्रवाहित कर, जमुना जी को चुनरी ओढ़कर अपनी भक्ति दृढ़ कर रहे हैं। हम भी कालिया न सही उसके परिवार के छोटे-मोटे नाग तो हैं ही।

मेरे लिए ब्रज सूरदास, नंददास और हरिदास की भूमि है। यहीं बड़ी परिक्रमा मार्ग में महाप्रभु वल्लभाचार्य की बैठक है। पूछरी के लोठा और जतीपुरा में ही कहीं सूर गाते रहे होंगे- ‘प्रभु जी मेरे अवगुन चित न धरौं’। सैयद इब्राहिम रसखान इसी ब्रज भूमि के सानिध्य की प्रार्थना टेरते रहे हैं- ‘या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहुँ पुर को तजि डारौं’। बाबा कुंभनदास से उनके शिष्यों के पूछे जाने पर कि बाबा कैसी रही फतेहपुर सीकरी की यात्रा और बादशाह सलामत से मुलाकात, यहीं कहीं बोले होंगे कि ‘संतन कहाँ सीकरी सो काम, आवत जात पन्हैया टूटी बिसर गयो हरिनाम। जिनको देखे दुख उपजत है तिनको करिबो परे सलाम’। इसी कृष्ण की भक्ति के आलंबन से एक अदना-सा आदमी हिन्दुस्तान के बादशाह शान में गुस्ताखी करने की हिम्मत पाता है और कह पाता है- ‘संतन कहाँ सीकरी सो काम’। ये है गिरिराज की परिक्रमा से उपजा साहस। क्या हम ऐसा साहस अपने पाते हैं? ज्ञान और भक्ति के इसी बल से कबीर विद्वानों और ब्राह्मणों की नगरी काशी में खड़े होकर बाम्भन-पांडे और मुल्ला-तुरक संबोधन का साहस पाता है। और सवाल पूछता है- ‘गंगा में नहाए कौ नर तरिगै...? इसी आत्मबल के भरोसे अंत समय निकट आने पर काशी छोड़ मगहर की राह पकड़ता है। उसी काशी में मृत्यु एक व्यवसाय बन चुका है, बस हमारी नासमझी के कारण। काशी तो मुक्ति का पर्याय इस अर्थ में थी कि वहाँ के परिवेश में एक तो हिमाचल की पुत्री पावन गंगा प्रवाहित है और दूजी संतों-मुनियों के श्री-मुख से नित्य प्रवाहित होती ज्ञान गंगा। वहाँ रहने वाला व्यक्ति थोड़ा भी सचेत हो तो मुक्त हो ही जाता था। मुक्ति तो जीते-जी संभव है। मृत्यु तो आपसे वह अंतिम अवसर भी छीन लेती है गर समझ नहीं आई तो। हम गंगा स्नान से पाप मुक्त नहीं होते बल्कि ज्ञान गंगा में डुबकी लगाने से पाप मोचन होता है। गीता की गंगा में, उपनिषदों की गंगा में, सूर-कबीर और तुलसी की ज्ञान-गंगा में। और सबसे बड़ा पाप यही है कि हम इस शरीर यात्रा में ज्ञान को न पा सकें, अज्ञान के अंधकार में डूबकर प्रकृति का (यानी स्वयं का) विनाश करते रहे। आखिर हम भी प्रकृति का ही हिस्सा हैं। पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं के अस्तित्व से ही हमारा अस्तित्व संभव है। गौरया और चींटी नहीं रहेगी तो हम भी नहीं रहेंगे।

बनारस का बाशिंदा कैसा मुक्त जीता था (कुछ लोग अभी भी बचे हैं उस परंपरा के) इसकी एक झलक देखनी हो तो ‘काशी का अस्सी’ उपन्यास में देखी जा सकती है। आज हम बाहर से सीख रहे हैं- ‘गो स्लो, टर्न स्लो’। बनारस का आदमी स्लो ही जीता आया है। कोई हड़बड़ी नहीं, कोई जल्दबाजी नहीं। पान की गिलोरियाँ मुँह में दबाए। मौज में जीता। ‘गुरू’ संज्ञा और ‘भोसड़ी वाले’ विशेषण से युक्त वाक्य उच्चारता। ‘जो मजा बनारस में हैं, न पेरिस में हैं न फ़ारस में है।’

मेरे शहर दौसा में जो पुराना या मूल शहर है उसे हम शहर कहकर ही संबोधित करते हैं। आज की इस यात्रा में मेरे सभी सहयात्री शहर के ही बाशिंदे हैं। विज्जू ने अभी दो महीने पहिले नई कॉलोनी में मकान बना लिया है बाकि सभी अभी वहीं रहते हैं। शहर के लोग भी ऐसे ही हैं बनारस वाली फक्कड़ी में जीने वाले। बात-बेबात ठहाका लगाने वाले। स्लो जीने वाले। विज्जू, अज्जू, शेखर, जोनी, निक्की पंडित उस परंपरा की आखिरी निशानी है। मैं मंदिर और धार्मिक यात्राओं में जाने से कतराता हूँ फिर भी बार-बार गोवर्धन जाता हूँ। क्यों? क्योंकि इस बहाने दोस्तों से मिलना हो जाता है। इस बहाने सात कोस यानी इक्कीस किमी पैदल चलना हो जाता है। इस बहाने नए लोग मिलते हैं। विज्जू तो मेरा मित्र है ही लेकिन मित्रों के मित्र मिल जाते हैं। नए मित्र बन जाते हैं। हमारा ड्राइवर मोनू भी इनकी ही गैंग का आदमी निकला। नई गाड़ी लाया था मारुति की एक्स एल सिक्स। जिसे हमारे मित्र पान की पीक से लाल किए जा रहे हैं। कहते हैं अगली बार सफ़ेद नहीं लाल रंग की गाड़ी लाना। ये लोग बार-बार सीसा नीचे करते हैं, गाड़ी रुकवा कर जगह-जगह चाय पीते हैं। अलंकार (गालियों) के बिना बात नहीं करते। मोनू इनके मजे लेता हुआ मजे से ड्राइव करता है। “कोई बात नहीं गुरुजी, गाड़ी गंदी होगी तो धुल जाएगी।”


विष्णु कुमार शर्मा
सहायक आचार्य, हिंदी, स्व. राजेश पायलट राजकीय महाविद्यालय बांदीकुई, जिला- दौसा, राजस्थान

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी
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