शोध आलेख : चरथ भिक्खवे : इतिहास से समकालीनता की ओर / अंकित दुबे

चरथ भिक्खवे : इतिहास से समकालीनता की ओर
- अंकित दुबे

शोध सार : जीवन और जल में एक चीज़ समान है, दोनों ही अपने श्रेष्ठ रूप में तभी रहते हैं जब गतिमान होते हैं। हम कई बार जीवन में ठहराव की बात करते हैं लेकिन ठहराव भी लंबे समय तक गतिमान रहने के बाद ही आता है। इसलिए गौतम बुद्ध ने ‘चरथ भिक्खवे’ यानी चलते रहने का आह्वान किया। इस नाटक में जीवन और जल को विशेष महत्त्व दिया गया है। सिद्धार्थ सांसारिक मोह को त्यागकर घर से चले और जीवन का सार समझकर गौतम बुद्ध हुए। ज्ञान के उसी प्रकाश को उन्होंने एक स्थान से दूसरे स्थान तक फैलाया, ठीक उसी तरह से जिस तरह बहता हुआ जल रास्ते में मिलने वाले सभी जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों को लाभान्वित करते हुए चलता है। ऐसा माना जाता है कि हमारा वर्तमान हमारे इतिहास से संचालित होता है। यह नाटक इस बात को सत्यापित करता है। यहाँ हम इतिहास की पगडंडियों को पकड़कर वर्तमान समय की समस्याओं के हल तक पहुँच सकते हैं। बुद्ध का अहिंसा, मानवता, समानता, बंधुत्व का मार्ग ही ऐसा मार्ग है, जिस पर आज पूरे विश्व को चलने की आवश्यकता है। नाटक बुद्ध को किसी देवता या अवतार के रूप में नहीं बल्कि एक बेहतरीन मनुष्य के रूप में स्थापित करता है।

बीज शब्द : बुद्ध, अहिंसा, समानता, जल, श्रमिक, पूँजीवाद, पर्यावरण, इतिहास, समकालीनता, गाँधी, बहुजन।

मूल आलेख : “चरथ भिक्खवे चारिकम्, बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, लोकानुकम्पाय”1 अर्थात् भिक्षुओं! बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, लोक-कल्याण के लिए चलते रहो… चलते रहो। ये बात एक उपदेश के दौरान गौतम बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कही थी। इस साल यानी 2025 में ‘चरथ भिक्खवे’ शीर्षक से हिंदी नाट्य संसार में एक नए नाटक ने दस्तक दी है। इस नाटक के रचयिता सुप्रसिद्ध कथाकार, कवि, आलोचक, संपादक जयप्रकाश कर्दम हैं। जयप्रकाश कर्दम की मूल पहचान दलित संवेदनाओं व विचारों के संवाहक के रूप में है। उन्होंने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाई है। हालांकि साहित्य की जो विधाएं उनसे अब तक अछूती रह गई थीं, उनमें से एक नाटक विधा भी थी। संस्कृत की एक पुरानी कहावत है कि कवि के रूप में मान्यता प्राप्त करने के लिए नाटक लिखना अनिवार्य है। खैर कारण जो भी रहा हो किन्तु ‘चरथ भिक्खवे’ नाटक के साथ उन्होंने पहली बार नाट्य लेखन जगत् में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। यह नाटक गौतम बुद्ध के जीवन पर केंद्रित है। इस नाटक में कुल 4 अंक हैं। पहले अंक में 8 दृश्य, दूसरे अंक में 6 दृश्य, तीसरे अंक में 7 दृश्य व चौथे अंक में 4 दृश्य हैं। दृश्यों के आधार पर पहला अंक सबसे बड़ा अंक है और अंतिम यानी चौथा अंक सबसे छोटा अंक है। नाटक में कुल पात्रों की संख्या 18 है, जिसमें 3 स्त्री पात्र व अन्य पुरुष पात्र हैं। प्रमुख पुरुष पात्र सिद्धार्थ गौतम(गौतम बुद्ध), राजा शुद्धोधन, देवदत्त, उदायी, सेनापति आदि हैं। वहीं प्रमुख स्त्री पात्रों में गौतमी और यशोधरा का नाम उल्लेखनीय है।

नाटक का कथानक ऐतिहासिक और धार्मिक तथ्यों को आधार बनाकर रचा-बुना गया है। अपने इतिहास को जानना-समझना कितना महत्त्वपूर्ण होता है, यह बात शायद ही कोई ना समझता हो। “मनुष्य का जन्म, जय-यात्रा और अंत सब कुछ तो इतिहास के साथ जुड़ा है। इसलिए इतिहास बोध हमारे विवेक के विकास का सबसे बड़ा स्रोत है।”2 नाटक का प्रारंभ जंगल के दृश्य से होता है। जहाँ देवदत्त और सिद्धार्थ के बीच शिकार करने को लेकर बातचीत चल रही है। सिद्धार्थ के मना करने बाद देवदत्त अकेले ही शिकार करने चला जाता है। कुछ देर में उसके तीर से घायल पक्षी सिद्धार्थ के पास आकर गिरता है। दोनों जन उस घायल पक्षी पर अपना अधिकार जताते हैं। कोई निर्णय ना निकलते देखकर दोनों न्यायालय जाने की बात पर सहमत होते हैं। न्यायाधीश दोनों पक्षों को सुनकर अपना निर्णय सिद्धार्थ के पक्ष में देते हुए कहते हैं- “मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि मारने वाले से बचाने वाले का अधिकार अधिक होता है। इसलिए इस पक्षी पर सिद्धार्थ का ही अधिकार बनता है।”3 नाटक अहिंसा, समानता, मनुष्यता की पुरज़ोर पैरवी करता है। बुद्ध ने भी अपने उपदेशों में सदैव अहिंसा, आत्म-संयम व नैतिक मूल्यों पर बल दिया। शाक्य गणराज्य में शाक्य संघ की भूमिका बहुत निर्णायक थी। राज्य से संबंधित सभी बड़े फैसले शाक्य सभा में संघ के सदस्यों के आपसी विचार-विमर्श से ही लिए जाते थे। बीस वर्ष की आयु पूर्ण होने के साथ ही सिद्धार्थ को इस संघ का सदस्य सर्वसम्मति से नामित किया गया। एक दिन नदी के जल को लेकर पड़ोसी कोलीय गणराज्य से चल रहे विवाद के समाधान हेतु शाक्य संघ की सभा में कोलीय गणराज्य पर आक्रमण करने का निर्णय लिया गया। किन्तु संघ के सदस्य सिद्धार्थ ने इस पर आपत्ति जताई। सिद्धार्थ ने ना केवल युद्ध का विरोध किया बल्कि प्राकृतिक संसाधनों को अपनी शक्ति से हासिल करने पर भी आपत्ति दर्ज की। उन्होंने कहा- “आज हम शक्तिशाली हैं, हम उनको पराजित कर नदी का सारा जल ले लेंगे। कल को वे शक्तिशाली हो जायें तो वे हमें पराजित कर सारे जल पर अपना अधिकार कर लेंगे। इस तरह तो इस समस्या का कोई समाधान नहीं होगा।”4 सिद्धार्थ के इस प्रस्ताव को सभा का समर्थन तो नहीं मिला, बल्कि संघ के निर्णय के विरोध का परिणाम ये हुआ कि उन्हें परिव्राजक बनकर राज्य से निष्कासित होकर जाना पड़ा। हालांकि शाक्य गणराज्य के लोगों ने सिद्धार्थ द्वारा किए गए युद्ध के विरोध का भरपूर समर्थन किया। लोगों ने शासन के विरुद्ध व्यापक आंदोलन छेड़ दिया। लोग नारा लगाते हैं-

“हिंसा छोड़ो, मानव जोड़ो।
पानी चाहिए खून नहीं,
हिंसा हमें मंज़ूर नहीं।”5

अंततः जन भावनाओं को ध्यान में रखते हुए संघ को न केवल युद्ध का विचार टालना पड़ा अपितु सिद्धार्थ का राज्य से निष्कासन भी निरस्त करना पड़ा। राज्य में सभी लोग इस निर्णय से अत्यंत प्रसन्न हुए। माँ गौतमी व पत्नी यशोधरा तो सिद्धार्थ को यथाशीघ्र वापस बुलाने के लिए खुशी से व्याकुल हो उठीं। किन्तु सिद्धार्थ एक बार बुद्ध बनने की जिस राह पर बढ़ चुके थे, वहाँ से किसी भी हाल में वापस लौटने को तैयार ना हुए। जंगल-जंगल चलते-चलते अंततः वे अपनी राह पाने और समाज को राह दिखाने में सफल हुए। बुद्ध की राह सत्य की राह है, अहिंसा की राह है, समानता की राह है, मनुष्यता की राह है, नैतिकता की राह है, आपसी सद्भाव की राह है।

इस नाटक के माध्यम से नाटककार ने गौतम बुद्ध के उपदेशों के जरिए वर्तमान समय की तमाम समस्याओं व उनके समाधान को रेखांकित करने का प्रयास किया है। नाटक में जल की समस्या को केंद्र में रखा गया है। जल की महत्ता किसी से छिपी नहीं है। ऋग्वेद में जल को औषधि और अमृत के समान बताया गया है। जल को लेकर न केवल कई देशों में विवाद है बल्कि एक ही देश के भीतर कई राज्यों के बीच भी जल को लेकर घमासान होता रहा है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत और चीन के बीच ब्रह्मपुत्र नदी के जल को लेकर, तुर्की और इराक के बीच टिगरिस नदी के जल को लेकर पुराना विवाद है। इसी तरह से हमारे देश के कुछ राज्यों के मध्य भी जल को लेकर विवाद है। इनमें कर्नाटक और तमिलनाडु के मध्य कावेरी नदी जल विवाद, कृष्णा नदी के जल को लेकर चार राज्यों में विवाद व नर्मदा नदी के जल पर विवाद प्रमुख हैं। हालांकि नाटक में जल एक प्रतीक के रूप में लिया गया है। जिसके समाधान के लिए बुद्ध युद्ध की जगह आपसी संवाद को तरजीह देते हैं।

जल उन सभी प्राकृतिक संसाधनों का प्रतीक है जिनका उपभोग करने का सभी मनुष्यों का समान अधिकार है किन्तु पूँजीवादी व्यवस्था अपने धनबल व राजनीतिक गठजोड़ के बलबूते इसको नियंत्रित करके इसका लगातार दोहन कर रही है। प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से पर्यावरण को कितना नुकसान पहुँच रहा है, इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है। छत्तीसगढ़ का हसदेव अरण्य और हैदराबाद विश्वविद्यालय परिसर की घटना इसका ताजा उदाहरण है। इसके लिए हम गाहे-बगाहे भूमंडलीकरण को दोष देते रहते हैं। असल में भूमंडलीकरण बुरी चीज़ नहीं है लेकिन इसका प्रयोग जिस तरह हुआ और इसके जो परिणाम हमारे सामने आए, उनसे इसकी छवि बुरी ही बनती है। इसका सबसे बड़ा कारण है पूँजी का भूमंडलीकरण। पूँजी के साथ अगर श्रम का भी भूमंडलीकरण होता तो समाज में गरीब और अमीर के बीच इस तरह का असंतुलन पैदा ना होता, जैसा आज के समय में है। सुप्रसिद्ध इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा लिखते हैं- “पूँजीवाद, जनवाद, राष्ट्रवाद और मानवतावाद का एक ही साथ प्रादुर्भाव हुआ था। वे एक दूसरे के सह यात्री और प्रोन्न्नायक थे। पर पूँजीवाद ने अपने संकट से उबरने के लिए अन्य सभी को नुकसान पहुँचाया है।”6 नाटक में श्रम के इस विभाजन और श्रमिकों की स्थिति की ओर ध्यान दिलाया गया है। राजकुमार सिद्धार्थ अपने सेवक व मित्र छंदक के साथ भ्रमण करते हुए कुछ श्रमिकों को खेतों में काम करते हुए देखते हैं। वे लोग तपती दोपहर में नंगे पाँव व शरीर पर नाम मात्र के कपड़े होने के बाद भी पूरी मेहनत से काम कर रहे थे। इतना श्रम करने के बाद भी उन्हें ऐसी दयनीय स्थिति में देखकर सिद्धार्थ को आश्चर्य होता है। जब वे श्रमिकों की इस स्थिति के कारण का पता लगाते हैं तो उन्हें मालिकों द्वारा श्रमिकों के शोषण के बारे में पता चलता है। वे अत्यंत दुखी व विचलित होते हुए कहते हैं- “दुनिया श्रम पर टिकी है और श्रमिकों की ही यह दुर्दशा?... बहुत दुखद है। श्रमिकों का यह शोषण क्यों?... क्या वे मनुष्य नहीं हैं?... उनको मनुष्यों की तरह जीने का अधिकार क्यों नहीं है?”7 आज के दौर में बढ़ते औद्योगीकरण ने श्रमिकों की स्थिति और भी बदतर कर दी है। मशीनों के इस दौर में उनको काम तक मिलना मुश्किल हो गया है। ‘हर खेत को पानी, हर जीव को पानी’ की बात करने वाले गौतम बुद्ध किसानों के अधिकारों के प्रति भी अधिक सजग थे। नाटक में इस ओर विशेष ध्यान दिलाया गया है। यही कारण था जब बुद्ध को युद्ध का विरोध करने के बाद भी अपने राज्य के लोगों का समर्थन मिला। “बौद्ध धर्म ने कृषि की समकालीन आवश्यकतों के प्रति अधिक सजगता दिखलाई इसलिए यह ग्रामीण लोगों को स्वीकार्य हुआ।”8 आज के समय में कृषि पूरी तरह से पूँजीवादी व्यवस्था के अधीन हो चुकी है। जिसमें किसान अपने ही खेतों में मज़दूरों की तरह काम करने को मजबूर हो चुका है।

नाटक में जिस चीज पर सर्वाधिक ज़ोर दिया गया है वो है अहिंसा। अहिंसा का नाम सुनते ही सबसे पहले हमारे मन में जो छवि निर्मित होती है वो बापू यानी महात्मा गाँधी की होती है। निश्चित रूप से छठी शताब्दी में गौतम बुद्ध अहिंसा का उपदेश दे चुके थे। किन्तु ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी से राष्ट्र को आज़ाद कराने के लिए अहिंसा का सफलतम प्रयोग करके बापू ने ही दिखाया। ‘बापू’ नाटक में इस बात का उल्लेख है कि काँग्रेस के विधान में ‘सत्य’ और ‘अहिंसा’, इन दोनों शब्दों को जुड़वाने में असफल रहने पर बापू ने सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। वे कहते हैं- “स्वराज के लिए हम साथ हैं- वे जब चाहें उसके लिए मेरी सलाह, मेरा सहयोग ले सकते हैं। पर मैं उस संगठन का सदस्य नहीं रह सकता जो ‘सत्य’ और ‘अहिंसा’ को स्वीकार नहीं करता हो।”9 अहिंसा के मजबूत सिपाही के रूप में बापू अंतिम समय तक खड़े रहे। अहिंसा और नैतिकता का ये बोध हिंदी नाटकों में तो दर्ज हुआ ही है लेकिन हिंदी नाटकों की परंपरा से पहले संस्कृत नाटकों में भी दर्ज होता रहा है। श्रीहर्ष देव कृत ‘नागानंद’ नाटक इसका उदाहरण है, जिसका कथानक बौद्ध धर्म से ही ग्रहण किया गया है। बौद्ध धर्म से प्रभावित होकर ही सम्राट अशोक ने अपने अंतिम समय में अपना संपूर्ण राजकोष धर्म के प्रचार प्रसार में खर्च कर दिया था। जिसके कारण उसे अपने पद से हाथ धोना पड़ा। ‘सम्राट अशोक’ नाटक में मगध का महामंत्री अशोक से कहता है- “बढ़ती आयु के साथ तुम्हारे लिए तुम्हारी प्रजा में केवल धम्म और संघ था। वैदिक, जैन, आजीवक तथा अन्य तो तुम्हें दिखाई ही नहीं पड़ते थे। इसीलिए राज्य का धन दोनों हाथों से धम्म और संघ के प्रचार में लुटाने लगे।”10 बुद्ध का मार्ग समानता का मार्ग है, यह बात सम्राट अशोक सही मायनों में नहीं समझ पाया। प्रजा के लिए प्रयोग में लाया जाने वाले राजकोष को सिर्फ धम्म के प्रचार के लिए व्यय कर देना कहीं से भी प्रजाहित का कार्य नहीं था। “बौद्ध धर्म किसी भी मूलतः अपरिवर्तनशील और शाश्वत तत्व को, फिर वह पार्थिव हो अथवा आध्यात्मिक, इस संसार का मूल कारण नहीं मानता था। बौद्ध सिद्धांतकारों ने एक ऐसा सिद्धांत प्रस्तुत किया था जिसमें किसी भी वस्तु के निश्चित अस्तित्व तक से इनकार किया गया था।”11 इस आधार पर बुद्ध द्वारा कहीं गईं बातों को भी परिवर्तनशील माना जा सकता है।

समकालीन समय साहित्य में विमर्शों का काल है। इसमें स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, थर्ड जेंडर विमर्श, बाल विमर्श, वृद्ध विमर्श जैसे अनेक मुद्दों पर लगातार लेखन किया जा रहा है। इसके अलावा पर्यावरण भी हमारे समय का प्रमुख मुद्दा है। इन सबके मूल में एक ही चीज़ है, वो है असमानता। नाटक में इन सभी समकालीन विमर्शों को एक साथ समेटने का प्रयास किया गया है। नाटक के अंतिम अंक में गौतम बुद्ध अपने भिक्षुओं को उपदेश देते हुए कहते हैं- “आज पर्यावरण खतरे में है। दुनिया खतरे में है। मनुष्यता खतरे में है। इन सबको बचाओ। जाओ भिक्षुओं। मंगल भावना के साथ लोक का मंगल करने के लिए जाओ।... किसी एक स्थान पर अधिक समय तक मत रुको। तुम्हें अधिक से अधिक लोगों का कल्याण करना है। अधिक से अधिक लोगों के जीवन को सुखी बनाना है। इसलिए हर दिशा में, हर गाँव और नगर में जाओ।”12 पर्यावरण को लेकर चिंता पिछले वर्ष प्रकाशित हुए नाटक ‘हिडिंबा’ में भी व्यक्त की गई है। नाटककार सुमन केशरी ने इस नाटक को हसदेव और दुनियाभर में नष्ट हो रहे वन-प्रान्तरों को समर्पित किया है। नाटक के एक दृश्य में हिडिंबा जमीन पर गिरा एक पत्ता उठाकर कहती है- “कल तक यह पत्ता पेड़ पर लगा होगा... अब यह नीचे गिरा, पाँवों से कुचला जा रहा है…”13 इसी पत्ते की तरह हम रोज़ पर्यावरण को कुचलते जा रहे हैं। इन सब समस्याओं के समाधान बुद्ध के पास है। इसीलिए नाटक के अंत में एक गीत के माध्यम से बुद्ध का आह्वान किया गया है-

“गौतम एक बार फिर आओ।
धम्म, ध्यान, निर्वाण ज्ञान का अमृत देते जाओ।।
मानवता के चीत्कार को
नैतिकता के मूल्य ह्रास को
पथ-विचलित संस्कृति, सभ्यता
वैमनस्यता के विचार को
जन-मन से दूर भगाओ।
गौतम एक बार फिर आओ।।”14

इसी गीत के साथ नाटक का समापन हो जाता है। नाटक में नाटकीय तत्त्वों को बखूबी ध्यान में रखा गया है। अंकों व दृश्यों का सुंदर संयोजन, पात्रों की निश्चित संख्या, व पात्रों के अनुकूल भाषा इस नाटक को विशेष बनाती है। नाट्य भाषा के विषय में आलोचक गोविंद चातक कहते हैं- “नाटक की भाषा, अन्य साहित्यिक विधाओं की तुलना में, कुछ अलग संस्कारों से युक्त होने को बाध्य है। यथार्थ के आग्रह के कारण उसका सामान्य जीवन और बोलचाल के निकट होना अनिवार्य होता है। सामान्य भाषा के भीतर से ही वह अपने को संरचित-संस्कारित भी करती है और इस रूप में नाट्यवस्तु के लिए तथ्य ही नहीं जुटाती वरन् संपूर्ण रचना तंत्र का निर्माण भी करती है।”15 हालांकि किसी भी नाटक की भाषा दो स्तरों पर विकसित होती है। पहली बार तब जब उसे नाटककार द्वारा रचा जाता है और दूसरी बार तब जब निर्देशक द्वारा उसका मंचन किया जाता है। मंचन के दौरान नाटक के विभिन्न नए पहलू निकलकर सामने आते हैं। इसलिए ऐसा माना जाता है कि मंचन के दौरान नाटक का दूसरा जन्म होता है। मंचन की कसौटी पर अभी इस नाटक को परखा जाना शेष है। नाटक के नायक रूप में बुद्ध की बेहद सहज उपस्थिति है। कहीं पर भी उन्हें जबरन नायकत्व की ओर धकेला नहीं गया है। नाटक में घोषित तौर पर तो कोई खलनायक नहीं है किन्तु शाक्य गणराज्य के सेनापति के कार्य-व्यापार को देखते हुए उसे खल की श्रेणी में रखा जा सकता है। इस तरह से यह नाटक सभी नाटकीय तत्वों को ध्यान में रखकर रचा गया है।

निष्कर्ष : वास्तविकता और संभावना के द्वन्द्व से किसी भी साहित्य का जन्म होता है। नाटक हिंदी साहित्य की महत्त्वपूर्ण विधा है। नाटक के सभी पक्षों पर गौर करने पर यह कहा जा सकता है कि गौतम बुद्ध के जीवन और उनके उपदेशों के माध्यम से समकालीन समस्याओं को संबोधित करने का नाटककार ने सराहनीय प्रयास किया है। आज संपूर्ण विश्व में ना केवल असमानता और अशान्ति व्यापक रूप लेती जा रही है बल्कि विश्व के लगभग सभी देश किसी ना किसी रूप में हिंसा की चपेट में हैं। दुनिया के कई देश युद्ध से जूझ रहे हैं तो कई देशों के आंतरिक हालात गृहयुद्ध जैसे हैं। जब विश्व के प्रभावशाली देश आपसी शांति बनाने की जगह हथियारों का व्यापार करने में मशगूल हों, ऐसे समय में बुद्ध का मार्ग कितना कारगर हो सकता है, इस पर विचार करना आवश्यक है। चाहे बुद्ध हों या गाँधी, दोनों वैचारिक जड़ता के समर्थक कभी नहीं रहे। वैचारिक रूप से स्वयं को समृद्ध करते रहना ही दोनों का मकसद रहा और संदेश भी। इसलिए जब गौतम बुद्ध अपने भिक्षुओं से चरथ भिक्खवे चारिकम्, अर्थात चलते रहने की बात कहते हैं तो इसका अर्थ केवल शारीरिक रूप से एक स्थान से दूसरे स्थान पर चलते रहना ही नहीं है बल्कि समय और स्थिति के अनुसार स्वयं को वैचारिक रूप से भी गतिमान बनाए रखने से है। नाटक में जल को यूँ ही प्रतीक नहीं लिया गया है। जल की भी यही विशेषता होती है कि जब तक वो बहता रहता है तब तक उपयोग करने लायक बना रहता है किन्तु जैसे ही वो ठहर जाता है, सड़ने लगता है और किसी काम का नहीं रहता है। ठीक यही बात विचारों के बारे में भी कही जा सकती है। वैचारिक जड़ता किसी भी विचारधारा को बहुत दूर तक नहीं ले जा सकती। हालांकि यह बात बहुत स्पष्ट है कि बुद्ध द्वारा दिखाया गया अहिंसा का मार्ग कायरता का मार्ग कतई नहीं है। नाटक अपने कहन में सशक्त है, नाटककार बुद्ध के माध्यम से जो संदेश देना चाह रहे थे, उसमें सफल रहे हैं। हालांकि नाटक में स्त्री पात्रों के लिए बहुत स्पेस नहीं रखा गया है, वो कहीं भी किसी निर्णयात्मक स्थिति में दिखाई नहीं देती हैं। मंचन के हिसाब से ये पहलू भी नाटक के पक्ष में ही जाता है। आज संपूर्ण विश्व को बुद्ध द्वारा दिखाए गए अहिंसा, समानता, मानवता व प्रेम के मार्ग की सर्वाधिक आवश्यकता है। इस नाटक की विशेष बात यह भी है कि ये बुद्ध को देवता घोषित करने का प्रयास नहीं करता बल्कि एक बेहतरीन मनुष्य के रूप में स्थापित करने का प्रयास करता है। नाटक हमारे जीवन के कठिन प्रश्नों के सरल उत्तर लेकर उपस्थित होता है। नाटक की भाषा व पात्र संयोजन भी रंगमचीय दृष्टि से उपयुक्त है। ऐसे समय में जब नाटक बहुत कम लिखे जा रहे हैं, हमारे इतिहास के अत्यंत महत्त्वपूर्ण व्यक्ति पर केंद्रित नाटक लिखने की पहल स्वागत योग्य है।

संदर्भ :
  1. विनयपिटक, महाबग्ग, 32, मारकथा
  2. ब्रजरत्न जोशी: अनुभव और उत्कर्ष, लोकभारती प्रकाशन, संस्करण 2023, पृष्ठ संख्या 44
  3. जयप्रकाश कर्दम: चरथ भिक्खवे, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2025, पृ. सं. 15-16
  4. वही, पृ. सं. 40
  5. वही, पृ. सं. 81
  6. लाल बहादुर वर्मा: आधुनिक विश्व का इतिहास, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, संस्करण 2022, पृ. सं. 464
  7. जयप्रकाश कर्दम: चरथ भिक्खवे, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2025, पृ. सं. 17
  8. डी. एन. झा: प्राचीन भारत का इतिहास, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, संस्करण 2016, पृ. सं. 79
  9. नन्दकिशोर आचार्य: बापू, नटरंग, अंक-77, मार्च 2006, पृ. सं. 8
  10. दया प्रकाश सिन्हा: सम्राट अशोक, वाणी प्रकाशन, चतुर्थ संस्करण 2019, पृ. सं. 122
  11. के. दामोदरन: भारतीय चिंतन परम्परा, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस (प्रा.) लिमिटेड, छठा संस्करण 2018, पृ. सं. 120
  12. जयप्रकाश कर्दम: चरथ भिक्खवे, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2025, पृ. सं. 111
  13. सुमन केशरी: हिडिंबा, बोधि प्रकाशन, संस्करण 2024, पृ. सं. 15
  14. जयप्रकाश कर्दम: चरथ भिक्खवे, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2025, पृ. सं. 112
  15. गोविंद चातक: नाट्य भाषा, तक्षशिला प्रकाशन, द्वितीय संस्करण 2010, पृ. सं. 11
अंकित दुबे
शोधार्थी, हिंदी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-221005

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( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी
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