शोध आलेख : छह लंबी कहानियां : समकालीन यथार्थ का साहित्यिक विवेचन / गायत्री एवं कमलेश कुमारी

छह लंबी कहानियां : समकालीन यथार्थ का साहित्यिक विवेचन 
- गायत्री एवं कमलेश कुमारी


शोध सार : वर्तमान समय अनेक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक परिवर्तनों का साक्षी रहा है। पिछले दो दशकों से भारत भी कई तरह की उथल-पुथल  से गुजरा है। समकालीन हिंदी साहित्य अपने समय की नब्ज टटोलकर  यथार्थाभिव्यक्ति की ओर उन्मुख हुआ है। वैश्विक महामारी, आर्थिक संकट, तकनीकी प्रगति, सामाजिक असमानता, सांप्रदायिक तनाव और स्त्री चेतना आदि जैसे गहन अनुभवों से गुजरते हुए समकालीन साहित्यकारों ने इन परिवर्तनों को अपने साहित्य में प्रतिबिंबित किया है। एस.आर. हरनोट द्वारा रचित कहानी संग्रह ‘छह लंबी कहानियाँ’ हमारे समय का ऐसा साहित्यिक दस्तावेज़ है, जो इन समकालीन परिस्थितियों को न केवल उद्घाटित करता है, बल्कि उनके भीतर छिपी पीड़ा, संघर्ष और संभावनाओं को भी प्रस्तुत करता है। यह शोध-पत्र इस संग्रह की कहानियों के माध्यम से आज के भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है। 


बीज शब्द : समकालीन यथार्थ, सांप्रदायिकता, जातिवाद, पर्यावरण, स्त्री, एस.आर. हरनोट


शोध आलेख : ‘छह लंबी कहानियाँ’ संग्रह छह ऐसी कहानियों को प्रस्तुत करता है, जो अपने भीतर समाज, स्त्री, पर्यावरण, राजनीति और तकनीक जैसे विविध विषयों को समेटे हुए हैं। प्रत्येक कहानी समकालीनता का प्रतिरूप बन अपने समय की गवाही देती प्रतीत होती है। जैसे कि नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि इस कहानी संग्रह में छह लंबी कहानियों को शामिल किया गया है। इन लंबी कहानियों का कलेवर इतना बड़ा है कि वे एक छोटे उपन्यास जैसी प्रतीत होती हैं। ऐसा माना जाता है कि लंबी कहानियों के लेखन की शुरुआत लंबी कविताओं की देखा-देखी हुई किन्तु कहानियों का लंबा होते जाना सामाजिक जीवन की जटिलता और उसकी द्वन्द्वात्मकता का ही प्रतीक है। ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में मुक्तिबोध लिखते हैं- “मैं छोटी कविताएँ लिख नहीं पाता और जो छोटी होती हैं वे वस्तुतः छोटी न होकर अधूरी होती हैं। (मैं अपनी बात कह रहा हूँ) ' और इस प्रकार की न मालूम कितनी ही कविताएँ मैंने अधूरी लिखकर छोड़ दी हैं। उन्हें खत्म करने की कला मुझे नहीं आती यही मेरी ट्रैजेडी है।”1


            आज के समय की ट्रैजडी यही है कि हम अपने अन्तर्द्वंद्वों को व्यक्त करने के लिए सटीक शब्द नहीं ढूंढ पाते हैं और नासमझे जाने से बचने के लिए अलग-अलग शब्दों का सहारा ले स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं। जीवन की जटिलताओं को संपूर्णता में व्यक्त करने के लिए लेखकों ने लंबी कहानियों का सहारा लिया। हिंदी कहानी की रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए सुरेन्द्र चौधरी भी यही मानते हैं- “सामयिक कहानी लेखक व्यक्ति-व्यापारों को केवल घटना के साथ जोड़कर कथावस्तु का निर्माण नहीं करता, वह ऐसा संतुलन बनाने की चेष्टा करता है जिसमें व्यापार कहानी की परिधि की ओर सहज गति से बढ़ते हुए जीवन-प्रवाह का संकेत दे सके।”2

            आज के जीवन व्यापार को व्यक्त करने के लिए कहानी की परिधि का विस्तार जैसे अपने आप ही होता चला गया। हिंदी की पहली लंबी कहानी के लेखक निर्मल वर्मा इस बात को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- “लम्बी कहानियों के लिए मेरे भीतर कुछ वैसा त्रास भरा स्नेह रहा है, जैसे शायद उन माँओं का अपने बच्चे के लिए, जो बिना चाहे लम्बे होते जाते हैं- जबकि उम्र में छोटे ही रहते हैं।”3

            अपने समय के अनुभवों से हमारा साक्षात्कार कराने हेतु लेखक ने उपन्यास से छोटी और कहानी से कुछ बड़ी ‘लंबी कहानी’ विधा को चुना। इन कहानियों में उन्होंने अपने समय के यथार्थ का बखूबी चित्रण किया है और बच्चे के जैसे उनकी ये कहानियाँ भी स्वतः ही लंबी कहानियों में तब्दील होती गई; इनमें से एक कहानी ‘एक नदी तड़पती सी’ तो इतनी बड़ी हो गई कि उसने ‘नदी रंग जैसी लड़की’ उपन्यास का रूप ले लिया जो वाणी प्रकाशन से बाद में प्रकाशित हुआ।  

            अर्नेस्ट फिशर कहते हैं – “यथार्थ की सम्पूर्णता आत्मपरकता और वस्तुपरकता के साथ, न सिर्फ अतीत, बल्कि भविष्य, न सिर्फ घटनाएं बल्कि वैयक्तिक अनुभव, स्वप्न, पूर्वज्ञान, मनोभाव और फैंटेसी आदि सभी के आपसी सम्बन्धों का कुल जोड़ होती है।”

            इस कहानी संग्रह में हम वैयक्तिक अनुभव, पूर्वज्ञान, मनोभाव, कल्पना एवं समकालीन घटनाओं का सुंदर समन्वय पाते हैं। इन कहानियों में पहाड़ हैं, पहाड़ी जीवन है और पहाड़ी संस्कृति है किंतु पहाड़ के परिवेश को आधार बनाकर लिखी इन कहानियों में चित्रित समाज और उसकी समस्याएं सम्पूर्ण भारत की हैं। ऐसा लगता है कि इन पहाड़ों की कहानियों में पूरे देश की रूह बसी हुई है। इन कहानियों में सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक संघर्ष है, संवेदनहीनता है, जातिवाद है, सांप्रदायिकता है, प्रकृति पर हो रहे क्रूर अत्याचारों का चित्रण है और इन समस्याओं के बरक्स खड़ी स्त्री है, सशक्त स्त्री, विद्रोही स्त्री, जागरूक और आत्मनिर्भर स्त्री। 

संवेदनहीनता : इन कहानियों में लेखक ने वर्तमान समय में बढ़ती हुई संवेदनहीनता को चित्रित किया है। इस संग्रह की पहली कहानी है ‘डेथ लाइव’ इस कहानी में दंपति शीशपाल और उसकी पत्नी बेमी देवी की कथा के माध्यम से लेखक समाज की वर्तमान संवेदनहीनता, जो माता-पिता और बच्चों के रिश्तों में भी सिमट गई है कि परतों को मार्मिकता से उघाड़ा है। इन बूढ़े दंपति के बच्चे विदेश चले जाते हैं और अपना पूरा जीवन बच्चों के लिए खपा देने वाले हर भारतीय माता-पिता की तरह बुढ़ापे में ये दंपति भी अपने बच्चों की झलक भर को तरसते हुए असहाय रह जाते हैं। कहानी में कई मार्मिक प्रसंग आए हैं, जहां रिश्तों में कम होते संवाद और स्नेह के साथ सांस्कृतिक मूल्यों के पतन की ओर भी लेखक ने इशारा किया है- “धीरे-धीरे माता-पिता और बच्चों के बीच की संवादहीनता भी बढ़ने लगी थी। घर के जो संस्कार थे वे सादे और संस्कारित कपड़ों की तरह गायब थे। साथ-साथ बैठकर खाना खाना... अवकाश के दिनों में गांव जाना... खेती-बाड़ी की देख-भाल करना... गांव में सबसे मिलना-जुलना आदि... आदि। लेकिन दोनों बच्चों का गांव से, वहां के रहन-सहन से और संस्कृति से जैसे मोहभंग होता चला जा रहा था।”5 


            लेखक ने कहानी को यथार्थ के ऐसे धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां संवेदनाएं बिल्कुल समाप्त प्रायः हो गई हैं। बच्चे अपने असहाय माता-पिता का हाल जानने के लिए आना तो दूर उनके लिए कैप्सूल भिजवाते हैं जिनसे उन्हें भूख न लगे- “बाबा, ये जो हरा है इसे सुबह उठते पानी से निगलना है। यह आपका ब्रेकफास्ट है। दूसरा लाल रंग का है। इसे दोपहर में पानी के साथ लेना है। यह आपका लंच है। और तीसरा जो काले रंग का कैप्सूल है इसे सोने से पहले रात को खाना है और इस तरह आपका डिनर हो जाएगा। आपको कभी भूख नहीं लगेगी। किसी चीज के खाने-पीने की तमन्ना नहीं रहेगी।”6

            कहानी में कहा नहीं गया लेकिन संभावनाएँ जरूर छोड़ दी गई हैं कि हो सकता है भविष्य में ऐसी दवाइयाँ भी आ जाएं कि बच्चों से मिलने की, उनसे प्यार करने की या उनसे प्यार पाने की तमन्ना भी न रहे। बच्चों ने अपने जीवन को इतना एकांगी कर लिया है कि उन्हें जीवनसाथी के बाद माता-पिता की तमन्ना नहीं रह जाती। बेटा अपनी माँ की मौत होने पर उसे मुखाग्नि देने तक नहीं आ सकता, कारण ये नहीं कि वह आ नहीं सकता अपितु वह आना नहीं चाहता। अपनी दादी की चिता को जलते देखकर पोते-पोतियों का खिलखिलाना दिखा कर लेखक ने भावी पीढ़ियों का अपने बुजुर्गों के प्रति बढ़ती दूरी का, संवेदनहीनता का ही साक्ष्य दिया है। 

संस्कृतियों की टकराहट और पीढ़ीगत अंतराल : आज का युग पाश्चात्य और भारतीय संस्कृति की टकराहट का काल है, ग्लोबल विलेज की परिकल्पना ने पूरे विश्व को एक साथ जोड़ दिया है । इस ग्लोबल गाँव में खुद को फिट करने के लिए वर्तमान पीढ़ी परंपराओं को पिछड़ा मानती है। वह स्वच्छन्द होना चाहती है। ‘माइ लाइफ माइ रुल्स’, अपने जीवन में किसी तरह का कोई दखल नहीं और इस सब के लिए अपनी जड़ों से कटकर भी वह रहना चाहती है, उड़ना चाहती है। यही कारण है कि पीढ़ीगत अंतराल बढ़ता जा रहा है। इसका जिक्र करते हुए लेखक कहता है- “नई पीढ़ी की सोच और आस्थाएं समय के साथ-साथ बदलती रहीं और देवता या गांव उन्हें अपने पिछड़ेपन के संवाहक लगने लगे। धीरे-धीरे सब पीछे छूटता गया... बच्चें पढ़-लिख कर दूर-पार निकल लिए और पीछे रह गए उनके बुजुर्ग माता-पिता...पुश्तैनी मकानों को सजाते-संवारते, रूढ़ियों और परम्पराओं को ढोते-संजोते, अपनी जगह-जमीन को देखते-संभालते... और आहिस्ता-आहिस्ता अपने जीवन की लीलाएं समाप्त करते।”7


            ये अंतराल इसी संग्रह की एक अन्य कहानी ‘लड़की गुस्से में है’ में भी देखने को मिलता है, जहां एक दादा अपनी पोती से मिलने उससे दादू सुनने के लिए बेचैन रहता है। उसकी पोती की उम्र की बच्चियों पर अपना दुलार लुटाता है। खुशी नाम की एक लड़की को देखकर उसे अपनी पोती की याद आ जाती है वह कहता है- “ पोती जैसी हो मेरी। जानती हो मेरी भी तुम्हारे जितनी एक पोती है। पर यहां नहीं रहती। विदेश में पढ़ती है। बेटा-बहू वहीं नौकरी करते हैं।-----यह भी कल कहूंगा खुशी से कि मुझे दादू बोला करे।”8

सांप्रदायिकता : इस संग्रह में संकलित कहानियाँ समाज की समस्याओं को परत दर परत उघाड़ती हुई चलती हैं। हमारा देश धर्मनिरपेक्ष देश है। सर्वधर्म संभाव की भावना से पोषित किंतु राजनीतिक वर्चस्व के इस दौर में सांप्रदायिकता इस देश की बहुत बड़ी और गंभीर समस्या बन गई है। सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाले लोगों का कोई धर्म नहीं होता और जो किसी धर्म में विश्वास रखते हैं उनके लिए मानवीयता ही सबसे बड़ा धर्म है। धर्म अलग होने से मानव मूल्य अलग नहीं हो सकते। यही बात ‘लड़की गुस्से में है’ कहानी में चरितार्थ हुई है  - “सोचो पुजारीदादा अगर वहां मेरे अब्बू और कुछ खान चाचा नहीं होते, मर जाती आपकी लड़की। बेहोश थी ये। जैसे तैसे अस्पताल पहुंचाया उन्होंने। जाते ही ऑपरेशन हुआ इसका। तीन बोतलें खून चढ़ा था इसको। किसका खून था वो... अब्बू का। मेरे मुसलमान अब्बू का। नहीं दिया होता या तुम्हारा इंतजार करते तो आज यहां न होती तुम्हारी बेटी। अब बताओ सब को ये हिन्दू है या मुसलमान...?”9


            आज भी हमें ऐसी कितनी खबरें मिल जाती हैं जो दो धर्मों के परस्पर संबंधों को मधुर बनाती हैं। किन्तु कुछ लोग अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए समाज में संप्रदयिकता का जहर घोल देते हैं। आज भी हमारे देश में एक धर्म विशेष के लोगों को इस देश के सच्चे, ईमानदार और देशप्रेमी नागरिक होने का सबूत देना पड़ जाता है। अपने ही देश में शक के दायरे में रहना उनके अंदर परायापन या अलग होने की भावना को पोषित करता है। जैसे एक मुसलमान लड़की के मंदिर में चले जाने के कारण उस पर सवाल उठाए जाते हैं। ईश्वर के प्रति अपनी श्रद्धा का सबूत उसे भगवद्गीता  सुनाकर देना पड़ता है - “मैं मुसलमान लड़की। रोज गीता पढ़ती हूं।"…."पुजारीजी ये गीता है देखी होगी न। ये जो दंगा-फसाद करने लाल-लाल पटके बांधे, बड़े बड़े तिलक लगाए मुस्टंडे आए थे न जरा पूछो तो, देखी है गीता कभी। बड़े आए साले मंदिर की पवित्रता बनाने। एक श्लोक भी आता है इनको। मुझे एक नहीं सारी गीता आती है। सात सौ श्लोक कंठस्त है मेरे।”10 

            आज समाज में शिक्षित लोगों की दर बढ़ती जा रही किन्तु यह शिक्षा अभी भी विचारों को व्यापक धरातल नहीं दे पाई। आज भी शिक्षित लोगों के इस समाज में हम सांप्रदायिकता की गंध पाते हैं- “हाल ही में, गृह मंत्रालय ने संसद में कहा कि भारत में 2016 और 2020 के बीच सांप्रदायिक और धार्मिक दंगों के 3,399 मामले सामने आए, और यह डेटा काफ़ी सटीक है और एनसीआरबी के आंकड़ों से भी मेल खाता है। एनसीआरबी की गणना के आधार पर 2014 से 2020 के बीच सांप्रदायिक दंगों की 5417 घटनाएं दर्ज की गईं है।”11 

जातिवाद : संप्रदायिकता के साथ-साथ जातिवाद भी इस देश की एक भयावह समस्या है। आज इक्कसवीं सदी में जब हम सब कहते हैं कि हम जाति में नहीं मानते लेकिन सच्चाई तो यही है कि हम सबकी जाति है कि जाती ही नहीं। केवल कहने को हम जातिनिरपेक्ष, धर्मनिरपेक्ष हैं किन्तु आज भी जातिगत दर्प हम सबके अंदर है। आज भी उच्च जातियों द्वारा अपने से निम्न जाति के साथ भेद-भाव, अन्याय और अत्याचार किया जा रह है। हर दिन जाति के कारण शिक्षा, रोजगार, समाज के विविध क्षेत्रों से हिंसा, अन्याय आदि के मामले सामने आते हैं-“एनसीएससी द्वारा साझा की गई जानकारी के अनुसार , 2020-21 में 11,917 शिकायतें प्राप्त हुईं, 2021-22 में 13,964 शिकायतें दर्ज की गई, 2022-23 में 12,402 और 2024 में अब तक 9,550 शिकायतें दर्ज की गईं।”12


            लेखक ने अपनी कहानियों में इस समस्या को उठाया है। ‘मृत्यु गंध’ कहानी की नायिका देवरू मां प्रतीक है उस तबके का जिसने जातिवाद का जहर अपनी नसों में घुलते हुए देखा है- “मां रोज-रोज ऐसे कितने ही रावणों को देखती आ रही है जो जाति-धर्म के रथ पर सवार होकर अपने स्वांग की सर्वोच्चता के सहारे हर उस आदमी का चीरहरण कर रहे हैं जो दो जून रोटी के लिए अपना खून-पसीना बहा रहा है। न जाने कितने छोटे-बड़े हजारों दस-सिरे जानवर गांव से शहर तक घूम रहे हैं।”13 

            कहानी ‘मृत्यु गंध’ और ‘देव खेल’ पूर्ण रूप से इस जातिवाद की समस्या पर आधारित है। ‘मृत्यु गंध’ में एक ही परिवार की दो जातियों में बंट जाने की कहानी है - “एक ब्राह्मण परिवार से कैसे दो बिरादरियां हो गईं। एक तो ब्राह्मण ही रही और दूसरी बाहर की बिरादरी हो गई। दो भाईयों में दरार। धोखे का खेल।”14  दो भाई एक ही मंदिर पर देवता की पूजा किया करते थे। एक मृत जानवर को उठाकर बाहर करने के कारण बड़े भाई ने छोटे भाई को जाति बाहर कर दिया और उनका मंदिर के गर्भगृह में जाना बंद कर दिया ताकि मंदिर से होने वाली कमाई पर केवल बड़े भाई का ही हक रहे। उनकी जाति को केवल मंदिर के प्रांगण को साफ करने, ढोल बजाने आदि जैसे काम दिए गए थे। ये कहानी पाठकों का ध्यान जहां एक तरफ जातियों के निर्माण की ओर ले जाती है कैसे स्वार्थवश एक ही परिवार दो जातियों में बंट गया। स्वयं में सर्वोच्च सत्ता बने रहने का स्वार्थ जाति विभाजन का आधार बना और आज भी सत्ता की राजनीति, शक्ति का आधिपत्य जाति के बने रहने का कारण है। प्राचीन समय में भारत में केवल- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र केवल यही चार वर्ण थे और इन वर्णों का विभाजन भी कर्म के आधार पर किया गया था, किन्तु आज इन वर्णों के अंतर्गत भी कई-कई जातियाँ हैं और हर जाति से नीची एक जाति है, जिससे उसका शोषण किया जा सके। जब कोई इस व्यवस्था का विरोध करने के लिए उठ खड़ा होता है तो उसे या तो मरवा दिया जाता है या पागल और समाज में रहने के लिए अन्फिट घोषित कर दिया जाता है। यही होता है इस कहानी के पात्र गणपत पाधा के साथ जब वह अन्य जाति की धोखे से रहन राखी हुई जमीने लौटा देता है, जब वह उन्हें मंदिर में प्रवेश करवा देता है तब - “एक विशाल देव पंचायत बुला ली गई जिसमें देव-गूरों और कारदारों ने कोई भयंकर देवदोष बता कर गणपत पाधा को पागल घोषित कर दिया।”15

            इसी तरह की कहानी है ‘देव खेल’। यह कहानी निम्न वर्ग के लड़के संतोष की है जो पढ़-लिख कर वकील बन  जाता है और अंबेडकर जी के सिद्धांत ‘पे बैक टू सोसाइटी’ का अनुसरण करता हुआ प्रत्येक शोषित व्यक्ति के साथ खड़ा होता है चाहे फिर वह किसी भी जाति या वर्ण का क्यों न हो। इस कहानी में लेखक ने पत्रकार की भांति ऐसी अनेक घटनाओं का जिक्र किया है जो आज के समय में भी व्याप्त जातिगत अन्याय और अत्याचार की क्रूर तस्वीर दिखाती हैं- “हम उच्चकोटि के ब्राहमण हैं। एक ही तार से यदि दलित के घर बिजली जाएगी तो हम भ्रष्ट हो जाएंगे।”16  

            “तर्क यह था कि उनका देवता नहीं मानता कि कोई दलित परिवार का आदमी उनकी ब्याह-शादियों में नाचे।”17 “देवता का पुण्य केवल सवर्णों को ही प्राप्त हो। जैसे ही वह फूल उसके (निम्न वर्ग के लड़के) हाथ में आया, कुछ लोगों ने देख लिया। फिर क्या था उसे घसीट कर अधमरा कर दिया...”18 

            इस तरह की न जाने कितनी घटनाएँ इस कहानी में आई हैं जहां इंसान के प्रति इंसान की नफरत का जिक्र है। ये घटनाएँ जो कहानी में चित्रित हैं वास्तविक घटनाओं का अंश मात्र हैं। 

पर्यावरण की समस्या : एस.आर. हरनोट ने पर्यावरण की समस्या को भी उठाया है। उनकी कहानी ‘एक नदी तड़पती है’ में विकास के नाम पर नदियों पर बन रहे बांधों की घटना का वर्णन किया गया है। नदी पर बांध बनाना न कवेल नदी के पर्यावरण के लिए अपितु मानव पर्यावरण के लिए भी उचित नहीं है। बांध बनाने की इस प्रक्रिया में ना जाने कितने लोग अपनी जगह, अपनी जमीन, अपनी जड़ों और अपनी संस्कृति से विस्थापित होते हैं। इस विस्थापन की भरपाई कोई विकास योजना नहीं कर सकती। यदि कहा जाए कि भारतीय संस्कृति नदी संस्कृति रही है तो गलत नहीं है। नदियों की धाराओं में केवल जल नहीं प्रवाहित होता एक सम्पूर्ण युग, समाज और वहाँ की संस्कृति प्रवाहित होती है। नदियों को बांधना संस्कृतियों को बांधना है और इस तरह अगर होता रहा तो नदियों के साथ-साथ मानव सभ्यता भी एक दिन समाप्त हो जाएगी। विकास के नाम पर प्रकृति का निरंतर दोहन हो रहा है। नियोजित विकास के अभाव में हम दिन-प्रतिदिन प्राकृतिक संसाधनों से वंचित होते जा रहे हैं। मनुष्य की स्वार्थांधता ने स्वच्छ जल, जलवायु, जमीन, जंगल सबको लील लिया है । इस संग्रह की कहानियों में मानव की पर्यावरण के प्रति इस क्रूरता का चित्रण मिलता है - “जैसे अपने शहर में नहीं किसी दूसरी जगह आ गया हूं। सड़कों के दोनों ओर से हरियाली गायब है। देवदार और बुरांश गायब है। सड़कों को लोहे की भारी भरकम रेलिंग ने जकड़ लिया है। जैसे शहर लोहे पर बना दिया गया हो। पहाड़ियों पर कोई पेड़ नहीं है। कंक्रीट के जंगल उग आए हैं। पेड़ों की जगह छोटी बड़ी गाड़ियां पार्क है। पगडंडियां लोहे के पथों में तबदील हो गई हैं।”19


            जंगलों का विनाश हो रहा है, जलवायु परिवर्तन हो रहा है, अब पहाड़ों पर बर्फ नहीं गिरती, नदियों में पानी नहीं बहता, विकास की रस्सी से बंधी हुई घाटियां, नदियां तड़प रही हैं, घुट रही हैं और इस घुटन को कहानी में बड़ी मार्मिकता से दिखाया गया है – “जब नदी पर बांध नहीं बनी थी तो नाव बहते पानी और लहरों पर तैरती थी।...नदी नहीं है न, बस गधला खारा पानी ही पानी है। खड़ा पानी। मरा हुआ पानी। वह अब नहीं हिलता। अभिश्रापित जैसा। मानो किसी तपस्वी ने उस नदी को श्रापित कर दिया हो।”20  

            इक्कीसवीं सदी में पर्यावरणीय समस्याओं को लेकर लेखन बढ़ रहा है और एस. आर. हरनोट की कहानियाँ इस लेखन परंपरा को समृद्ध करती हुई ही नजर आ रही है। 

समसामयिक घटनाक्रम : हरनोट की कहानियों से पता चलता है कि वे अपने समय के सजग लेखक हैं। उनके समय का संपूर्ण घटनाक्रम उनकी कहानियों में वर्णित है । उनकी कहानी ‘फ्लाइंग मशीन’ नोटबंदी के दौरान सामान्य जनता द्वारा उठाई गई समस्याओं को केंद्र में रखकर लिखी गई। एक रिटायर्ड अधिकारी कैसे रोज अपने ही पैसे बदलवाने के लिए सुबह घर से निकलता है, लाइन में लगता है और शाम को अपने पुराने नोटों की गड्डी का बोझ लिए थका हारा घर पहुंचता है। इस कहानी में इस दौरान लाइन में लगे रहने के कारण हुई मौतों का भी जिक्र है- “चलते-चलते किसी ने उसे बताया कि जिस अधेड़ महिला को उसने अस्पताल भिजवाया था वह अब नहीं रही। 'वह बेचारी अपने सांजे हुए पैसे के लिए मर गई।”21 और ये घटनाएँ कहानी को रोचक बनाने के लिए नहीं आई है, अपितु नोटबंदी के दौरान लाइन में लगने के कारण कई लोगों की मौत की खबरें सामने आई थी-बैंकों के बाहर लंबी कतारों के बीच अब तक 12 लोगों की मौत”22 यह खबर द इंडियन एक्सप्रेस अखबार की हेडलाइन थी। उन दिनों ऐसी कितनी खबरें अलग-अलग जगह से अखबारों में आ रही थी जिसका यथार्थ चित्रण हरनोट ने अपनी कहानियों में किया। नोटबंदी ही नहीं लेखक ने अपनी इन कहानियों कोरोना महामारी के समय प्रवासी मजदूरों की समस्या का भी जिक्र किया है। भारत लगभग डेढ़ अरब की आबादी का देश है किन्तु हमारे पास संसाधनों का अभाव है , अगर संसाधन हैं भी तो उनका उपयोग या वितरण समान रूप से नहीं है। काम की तलाश में, जीविका की तलाश में लाखों लोगों को अपनी जमीन अपनी जन्मभूमि छोड़ कर विस्थापन करना पड़ता है। 2011 की जनगणना के अनुसार, “भारत में 307 मिलियन लोग हैं जो अपने जन्म से पलायन कर गए थे, जिनमें से 41 मिलियन (13%) अंतरराज्यीय प्रवासी थे। इन 307 मिलियन प्रवासियों में से 140 मिलियन काम की तलाश में जाते हैं।”23


            एक ही देश में रोजगार के लिए इतने सारे लोगों का विस्थापन भारत की सामाजिक व्यवस्था की दुर्बलता को दिखाता है। किसी भी आपदा के समय सबसे ज्यादा समस्याओं का सामना करना पड़ता है, अपने स्थान से उखड़े हुए इन विस्थापित मजदूरों को। सबसे पहले रोजगार इन्हीं का छीना जाता है, न ही इन्हें खड़े रहने के लिए जमीन मिलती है, न पेट भरने के लिए रोटी। हरनोट ने ‘एक नदी तड़पती है’ कहानी में समाज के इस रूप को दिखाया है कि कोरोना महामारी के समय किस तरह मजदूरों को काम से निकाल दिया गया, न ही उन्हें पिछली मजदूरी दी गई। किस तरह पैसे के अभाव में, भूख से त्रस्त मजदूर अपने घरों को लौट रहे थे- “ख़बरों में बताया जा रहा था कि बहुत से मजदूर तो मीलों लम्बा सफर पैदल ही तय कर रहे हैं। उन्हें जगह-जगह पुलिस के डंडे खाने पड़ रहे हैं। उनके पास अब खाने और कमाने को कुछ भी नहीं बचा है। वे महामारी के बजाए अब भूख से मरने को विवश हैं।”24 

            और यह खबर कहानी की कपोल कल्पित खबर नहीं अपितु अपने समय का दारुण सच था, कोरोना के समय  एक अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (SWAN) की एक रिपोर्ट के मुताबिक “मौजूदा लाचारी में फंसे करीब 64 फीसद मजदूरों के पास 100 रुपए से भी कम बचे थे।”25

            इस हालत में अपने गांव लौट कर वे कितने दिनों तक पेट भर पाएंगे? कितने दिनों तक सम्मान से जी पाएंगे? साहित्य अपने समय का दस्तावेज होता है पंक्ति को चरितार्थ करती हैं हरनोट की ये कहानियां। ये कहानियां अपने समय का चलता फिरता अखबार है। 

सशक्त स्त्री-चित्रण : आज की स्त्री जागरूक स्त्री है। वह शोषण के विरुद्ध, कुरीतियों के विरुद्ध, अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना जानती है। इस संग्रह में चित्रित स्त्रियां भी डरी, सहमी नहीं हैं वह नायिका बनकर सामने आई हैं चाहे सांप्रदायिकता के खिलाफ आवाज उठाती ‘लड़की गुस्से में है’ कहानी की  खुशी हो, चाहे जातिवाद के दंश के विरोध में खड़ी ‘देव खेल’ की देवरू माँ या फिर तड़पती हुई नदी की संरक्षिका बनी ‘एक नदी तड़पती सी’ की दादी सुनमा। इसलिए ही प्रो. सूरज पालीवाल ने संग्रह की भूमिका में ही लिख दिया था – “उनके यहाँ स्त्रियाँ अपने पूर्ण स्त्रीत्व से परिपूर्ण होने के वावजूद विद्रोही हैं। यह कहना अधिक उचित होगा कि हरनोट की कहानियों की स्त्रियाँ अधिक ओजस्वी और चैतन्य हैं।“


            लेखक अपने समय के प्रति तटस्थ नहीं रहे जहां उन्हें लगा जहां आवाज उठानी चाहिए उन समस्याओं को उन्होंने इंगित किया और कहानियों के माध्यम से अपनी आवाज को बुलंद किया। जॉर्ज लुकाच यथार्थवादी साहित्यकार की साहित्य के प्रति कर्तव्यनिष्ठा की बात करते हुए कहते हैं कि- “सच्चे यथार्थवादी साहित्यकार की विशेषता यह है कि वह बिना किसी भय या पक्षपात के ईमानदारी के साथ जो कुछ भी देखता है, उसका चित्रण करे।”26  

            लेखक अपनी लेखकीय दायित्व का निर्वहन करने से कहीं नहीं चूकते। अपनी कहानियों में लेखक ने राजनीतिक दुर्बलताओं पर भी बेखौफ लिखा। जहां उन्हें सरकार की नीतियों और निर्णयों से असहमति हुई उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से उसे उद्धृत किया। जैसे एक जगह अपनी कहानी में वे लिखते हैं - “1990 के बाद जिस तरह की परिस्थितियां देश में उत्पन्न हुईं, उसने अब तक लाखों किसानों को आत्महत्या करने पर विवश कर दिया। सत्ताएं अपने स्वार्थ और अतिजीविता के लिए कितनी क्रूर और आततायी हो सकती हैं, ये रिपोर्ट उसका अभूतपूर्व उदाहरण थीं।”27 

            उनकी इन कहानियों में राजनीतिक व्यंग्य मुखर होकर आए हैं। ‘फ्लाइंग मशीन’ कहानी में वे सत्ता के मक्खीमार मशीन में परिवर्तित होने की बात करते हैं - “उसने देखा कि सत्ता और पूरी व्यवस्था एक मक्खीमार मशीन में परिवर्तित हो गई है, जिसमें ग़रीब किसान, मजदूर, दलित और सच बोलने-लिखने वाले लोग चट की आवाज के साथ खून के कतरों में बदल रहे हैं।”28 

            इन कहानियों में समकालीन यथार्थ, त्रास, घुटन, निराशा व्यक्त हुई है तो कहानियों का अंत आशापूर्ण तरीके से हुआ है। हरनोट ने अपने समय के यथार्थ को अभिव्यक्ति दी किंतु यथार्थाभिव्यक्ति से अभिप्राय समाज की समस्याओं का चित्रण करना ही नहीं है। प्रत्येक सिक्के के दो पहलू होते हैं, जीवन में संघर्ष है तो संघर्ष में सौंदर्य भी है। समाज में समस्याएं हैं तो उन समस्याओं के समाधान के लिए आशान्वित होना समाज का सौंदर्य है। धीरेन्द्र वर्मा कहते हैं -“अपने पारिभाषिक अर्थ में यथार्थवाद जीवन की समग्र परिस्थितियों के प्रति ईमानदारी का दावा करते हुए भी प्रायः सदैव मनुष्य की हीनताओं तथा कुरुपताओं का चित्रण करता है। यथार्थवादी कलाकार जीवन के सुंदर अंश को छोड़कर असुंदर अंश का अंकन करना चाहता है। यह एक प्रकार से उसका पूर्वाग्रह है।”29 

            यथार्थवाद के साथ-साथ एक आदर्श स्थिति की परिकल्पना कर हरनोट इसी पूर्वाग्रह को समाप्त करते हैं। इस संग्रह की प्रत्येक कहानी परिवर्तन की आशा का, उम्मीद का दामन थाम कर चली है। पहली कहानी ‘डेथ लाइव’ में बुजुर्ग दंपति का अपनी संतान का मोह त्याग कर साथ मिलकर अपने पुराने ख्वाबों को पूरा करने निकल जाना, ‘लड़की गुस्से में है’ में मुसलमान लड़की का अधिकारी बनकर उसी मंदिर में आना जिसमें मुसलमान होने के कारण उसे आने से रोका गया था, कहानी ‘मृत्यु गंध’ में गणपत पाधा का हृदय परिवर्तन दिखाना, ‘देव खेल’ कहानी में सवर्ण लड़के का निम्नवर्गीय वकील संतोष का कृतज्ञ होना उसे गुरु स्वीकार कर उसका अभिवादन करना, ‘एक नदी तड़पती सी’ में कहना – “नहीं नहीं दादी नदी अभी भी है। हर जगह। मेरे और तुम्हारे भीतर। ऊपर आसमान में। धरती के नीचे। ये जो आर-पार हरी भरी डालियां है न, इन सभी में। मछलियों के भीतर। चिड़ियां की चोंचों में। और ये जो बांध है न इसके पानी के भीतर श्री तो नदी ही है। हमें लगता है न दादी वह मर गई है। नदी कभी नहीं मरती।”30 यह दर्शाता है कि लेखक को उम्मीद है कि एक नदी अभी बची है हम सबके अंदर, संवेदनाओं की नदी जो अभी पूरी तरह मरी नहीं है। संवेदनाएं इंसान की इंसान के प्रति, पर्यावरण के प्रति अभी भी शेष बची हैं। 

            डॉ. कमलेश्वर लिखते हैं- “यथार्थ कोई स्थिर तत्व नहीं है, वह निरंतर गतिमान है और इसके हजार पहलू हैं, जो आदमी को बदलते जाते हैं। विचार, परिवेश, भौतिक आधार और सम्बन्धों का निरंतर संक्रमण होते रहने की तरल स्थिति ही यथार्थ की स्थिति है।”31 समकालीन यथार्थ की यही तरलता हमें हरनोट के इस कहानी संग्रह ‘छह लंबी कहानियाँ’ में देखने को मिलती है। जब हम कहते हैं कि एक समय विशेष को समझना हो तो उस समय के साहित्य को पढ़ना चाहिए। हरनोट का यह ‘संग्रह’ इस तथ्य को प्रमाणित करता है। ‘छह लंबी कहानियाँ’ में पिछले दो दशकों का संपूर्ण घटनाक्रम जैसे शब्दों के माध्यम से कागज पर उतर आया है। वर्तमान भारत की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं तकनीकी परिवर्तनों को बड़ी सूक्ष्मता से इस संग्रह में साहित्यिक रूप प्रदान किया गया है। 

संदर्भ :

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    डॉ. कमलेश्वर ; नई कहानी की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015 ; पृ. सं. – 83



गायत्री

शोधार्थी, हिंदी-विभाग, हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय, महेंद्रगढ़।

gayatridixit113@gmail.com


कमलेश कुमारी

सह-आचार्य, हिंदी-विभाग, हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय, महेंद्रगढ़।

kamlesh@cuh.ac.in


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( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
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