- जमनाशंकर सुमन
भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित युवा कवि ओम नागर की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक “उस्तरे की धार से कटती उदासी’’ की विषय वस्तु इतनी रोचक, पठनीय और नवीन है कि इसे एक बैठक में पूर्ण करने के मोह से शायद ही कोई बच सके। इस पुस्तक की भूमिका में इसे ‘दुर्लभ विषय पर दुर्लभ पुस्तक’ कहा है। दुर्लभ विषय तो इसलिए कि इसके केन्द्र में सैलून और उससे जुड़े लोगों के जीवन और उसमें आने वाली कठिनाइयों को रखा गया है और दुर्लभ पुस्तक इसलिए कि किसी भी साहित्यकार द्वारा अब तक ऐसी पुस्तक नहीं लिखी गई है। अतः इसे इस श्रेणी की प्रथम पुस्तक भी कहा जा सकता है। यह पुस्तक नापितों और सैलून वालों की परम्परागत छवि को तो ध्वस्त करती ही है साथ ही सैलून वालों के जीवन में और गहराई से झांकने का अवसर भी प्रदान करती हैं। लोक से रस लेकर उसे अपने ग्राहकों पर लुटा देने का साहसिक कार्य किस हुनर और सादगी से सैलून वाले कर देते है, उसे इस पुस्तक में जीवंत रुप में देखा जा सकता है।
पुस्तक के पहले अध्याय का शीर्षक वही है जो इस पुस्तक का भी है। इस पुस्तक का पहला और दूसरा अध्याय क्रमशः ‘उस्तरे की धार से कटती उदासी’ और ‘स्वच्छता के ब्रांड एम्बेसेडर और मुकेश के बाउजी’ हैं। इन अध्यायों में हम केशकर्तनालयों की जिंदादिली, जीवटता, किस्सागोई जीवनशैली और मस्ती मजाक में छूटते हँसी के फव्वारें जिनसे सैलून वाले अपने दिनभर की उदासी को काटते हैं, पढ़ने को मिलते हैं। हास्य-व्यंग्य और मस्ती मजाक से प्रारंभ होने वाली यह पुस्तक जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, जीवन के गहरे यथार्थ बोध से जुड़ती जाती है। प्रत्येक अध्याय पढ़ने के बाद पाठक को पुस्तक की गंभीरता, लेखक की संवेदनशीलता और समकालीन परिस्थितियों में जीवन की गहरी समझ से परिचय बढ़ता चला जाता है। पुस्तक में लेखक ने 2015 से लेकर 2020 तक के वर्षों के किस्से कहे हैं और जब जीवन की दीर्घ कालावधि को पुस्तक में समेटा जाता है तो निश्चित रूप से परिस्थितियों में बड़ा उतार चढ़ाव भी देखने को आता है। यह पुस्तक साल 2020 तक अपना विस्तार रखती है जब कोरोना महामारी आई थी और जिसने किसी न किसी रूप में सभी के जीवन को प्रभावित किया था। सैलून वाले भी इससे अछूते नहीं रहे थे, बल्कि यह कह सकते हैं कि उनके जीवन को कोरोना ने बुरी तरह झकझोर दिया था। मास्क, सेनिटाइजर, दो गज की दूरी आदि अनेक प्रोटोकोल की पालना के पश्चात भी कोरोना महामारी ने सैलून वालों के प्रति गहरी उपेक्षा और संदिग्धता का भाव आमजन के मन में उत्पन्न किया हैं। जिससे सैलून खुलने के बाद भी ग्राहक नहीं आ रहे थे और उनको जीवन निर्वाह से संबन्धित अनेक आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। इन्हीं केशकर्तनालयों की करुण गाथा ओम नागर ने इस पुस्तक में कही है।
“सैलून में सारे इंतजाम करने के बावजूद मुकेश को ग्राहकों की धीमी गति के कारण पुराने दिन लौट आने की फिलहाल कोई उम्मीद नहीं है। दो महीने से मकान का किराया नहीं गया। जैसे-तैसे पेट के लिए मुँह में रोटी के निवाले जा रहे हैं। दुपहर से तीसरे पहर तक की कुल कमाई सत्तर रुपए हैं।’’1
वैसे तो यह पुस्तक डायरी शैली में लिखी गई हैं जो दैनिक रुप में न होकर प्रसंग विशेष को केन्द्र में रखकर लिखी गई है जिससे इसका रूप नियमित डायरी जैसा न होकर किस्सागोई शैली के हास्य-व्यंग्य के रूप में ही पाठक के सामने आता हैं। जिन्हें संस्मरणात्मक रेखाचित्र भी कहा जा सकता है। आदरणीय कृष्ण कल्पित जी ने इसकी भूमिका में लिखा है- ‘‘मुझे यह पुस्तक डायरी से अधिक रेखाचित्र के अधिक नजदीक लगती है। संस्मरणों से तो यह पुस्तक बनी ही है। विधा विन्यास से परे यह एक बेहद संवेदनशील गद्यकार की पुस्तक है।’’ यहीं आगे लिखते हैं कि- ‘‘विधाओं के विलोपन के दौर में यह पुस्तक भी कई विधाओं में आवाजाही करती है। अंत में यही कहा जा सकता है कि यह एक दुर्लभ विषय पर लिखी गई दुर्लभ पुस्तक है।’’
इस पुस्तक का एक पात्र मुकेश मोरवाल है जिसकी दुकान का नाम भव्य मेन्स पार्लर है। वैसे तो मुकेश मोरवाल, यशवंत, गुड्डु भाई, जफर/गफ्फार और एक दो अन्य केशकर्तनालयों का भी उल्लेख इस पुस्तक में आता है परन्तु समग्र रूप से देखा जाए तो मुकेश मोरवाल पुस्तक के प्रारंभ से अन्त तक बराबर बने रहते हैं। उनके बिना लेखक का कोई भी किस्सा आगे बढ़ना नामुमकिन सा जान पड़ता है। मुकेश मोरवाल लेखक के अत्यन्त स्नेही मित्र हैं। अतः लेखक को केशकर्तनालयों के प्रति सहानुभूति, संवेदनशीलता और नवीन दृष्टिकोण से विचारशील होने की प्रेरणा जिसकी चरम परिणिति यह पुस्तक है, भी मुकेश मोरवाल से निजी व्यक्तिगत संबंधों के कारण ही मिली होगी। ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि अगर यह पुस्तक कोई उपन्यास होती तो मुकेश मोरवाल उसका नायक ही ठहरता। पुस्तक में कुल 22 अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय का शीर्षक बेहद रोचक है। कृष्ण कल्पित ने इसका उल्लेख भी भूमिका में कर दिया है कि यह पुस्तक पाठक के ऊपर कुछ थोपती नहीं, बल्कि उसे उसके गुजरे हुए जीवन को याद दिलाती है। इसके हर अध्याय में पाठक अपनी शक्ल देख सकता है और अपने बीते हुए दिनों को याद कर सकता है। प्रथम अध्याय- ‘उस्तरे की धार से कटती उदासी’ से लेकर 13वें अध्याय ‘जिंदगी क्या है एक फलसफे के सिवा’ तक पुस्तक अपनी गति से और अपनी शैली में बड़ी मौज के साथ पाठक को पूरा आनंद और हास्य-व्यंग्य के किस्सों के साथ आगे बढ़ाती है परन्तु चौदहवें अध्याय- ‘सैलून पर संकट’ से अन्तिम 22वें अध्याय- ‘बड़ें दिनों के दुःख’ तक यह पुस्तक जीवन की गंभीरता, अनिश्चितता और जीवन की भयावहता का जीवंत चित्रण प्रस्तुत करती है। जो व्यक्ति उस विकट समय को भोगकर आज इस पुस्तक को पढ़ रहा है उसे ये अन्त के अध्याय कोरोना के विनाशकारी स्वरूप को पुनः उसकी दृष्टि के सामने जीवंत कर देते है। ‘सैलून पर संकट’, ‘लॉकडाउन’, ‘सैलून कथा’, ‘स्वयं केशकर्तन कथा,' ‘पॉजिटिव का निगेटिव’, ‘अद्वितीय सैलून कथा : डर की छँटाई’ आदि अध्यायों में कोरोना महामारी के कारण उत्पन्न परिस्थितियों का सजीव और प्रामाणिक विवरण लेखक ने प्रस्तुत कर दिया है। इस पुस्तक का साहित्य समाज का दर्पण बनकर हमारे सामने आता है। इस आधार पर यह पुस्तक बाद के शोधार्थियों के लिए सदियों बाद भी समाजशास्त्रीय अध्ययन तथा ऐतिहासिक अध्ययन हेतु आधार सामग्री के रूप में उपयोग करने योग्य है। कुछ रोचक अध्याय भी है जिनमे प्रेम, मस्ती के साथ लेखक की जिंदादिली दिखाई देती है। जैसे- ‘मेघनगर का मजनूँ’, ‘कोई यूं ही फन्ने खां नहीं होता’, ‘आई एम ए डिस्को डांसर’, ‘चाय सोने की हो गई’ आदि अध्याय पाठक को अपने प्रेम की याद दिलाने के साथ ही उसके चित्त में प्रसन्नता का भी प्रसार करते हैं।
इस पुस्तक की एक मुख्य विशेषता यह है कि इसमें लेखक की संवेदनशीलता के साथ मित्रता मूल्य की स्थापना भी पुरजोर ढंग से हुई है। लेखक का पहला ठिकाना अटरू के पास है जिससे अटरू के हाटचौक वाली दुकान के मालिक यशवंत से उनका परिचय हुआ होगा और आज यह परिचय इतना प्रगाढ़ और अंतरंग हो गया है कि लेखक साहित्य की अग्रिम पंक्ति में शामिल होने और साहित्य अकादमी नई दिल्ली में अच्छे ओहदे पर होते हुए भी उनसे पूर्ण सहानुभूति रखता है और उनके निजी दुःखों और जीवन की मुश्किलों में शामिल होता है। दूसरे मित्र कोटा निवास के दौरान मुकेश जी मोरवाल रहे जिनसे जुड़ाव किताब के प्रारंभ से लेकर अन्त तक हमें दिखाई देता है और मित्रता की प्रगाढ़ता तो ऐसी कि रविवार को सैलून पर अच्छी दुकानदारी होने के कारण पान लाने का दायित्व मुकेश स्वयं ओढ़ लेता है। इनके किस्सों में दोस्ती का वह रूप देखा जा सकता है जिनमें छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब, सामान्य-प्रतिष्ठित आदि सांसारिक भ्रम अवरोध नहीं डाल पाते हैं। कोटा से मुम्बई जाते समय मुकेश का लेखक को स्टेशन छोडने जाना, पूरा सामान खुद उठाना और अपने मित्र को मुम्बई के लिए विदा करते समय आँखों का गीलापन उस सात्विक बन्धन की पराकाष्ठा की घोषणा करता है।
‘‘मुकेश को तो जब से मेरे कोटा से विदा लेने की खबर लगी, रोज पूछता था कि जाने का दिन तो बता देना, तुम्हें रेलवे स्टेशन मैं छोड़ने चलूँगा। ऑटो में साथ गया मुकेश। रास्ते में कितना कम बोल रहा था, बैग भी जबरदस्ती उसी ने अपने कंधे पर टाँगे। ऑटो, पसरा सन्नाटा और रुलाई, याद करता हूँ तो आज भी आँखें डबडबा जाती हैं।’’2
लेखक को मुकेश मुम्बई में भी बराबर याद रहता है। लेखक जब कोई सैलून देखता है, सैलून में कटिंग करवाने जाता है अथवा कोरोना के दौरान स्वयं केशकर्तन करता है और खिजाब लगाता है तब पहले-पहल लेखक को मुकेश की ही याद आती है।
‘‘मुकेश वही अपना दोस्त, जिसकी कोटा के संतोषी नगर में भव्य हेयर डेसर के नाम से सैलून की दुकान है। यहाँ मुंबई में तो दुकान का नाम भी सोनू कर्तनालय है। शहर छूटने पर दोस्त ही नहीं छूटे, वो नाम भी छूट गए जिनसे रोजमर्रा का वास्ता रहा। यूँ मुकेश जैसा कौन होगा। गुजरे दस बरसों में मेरे सिर के बालों की सार संभाल उसी के भरोसे रही। उसके सिवा कोई रुचा भी नहीं।’’3
मुकेश इस पुस्तक में तो महत्त्वपूर्ण पात्र है ही, लेखक के निजी जीवन में भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसलिए ही कृष्ण कल्पित जी ने इसकी भूमिका में लिखा है- ‘‘ऐसी किताब बिना अपने परिवेश, अपने लोगों से बेपनाह मोहब्बत के नहीं लिखी जा सकती।"
पुस्तक का पूर्वार्द्ध हमें वह सब कुछ पुनः दिखाता है जो हम नित्य जीवन में देखते हैं, सुनते हैं। आदरणीय कृष्ण कल्पित जी ने कहा भी है कि इस पुस्तक में पाठक अपनी शक्ल देख सकता है और अपने बीते हुए दिनों को याद कर सकता है। परन्तु इसका उत्तरार्द्ध हमें उससे अवगत करवाता है जिससे बहुत से लोग अनभिज्ञ होंगे। कोरोना से जो हालात उत्पन्न हुए उससे बाकी सब तो धीरे-धीरे खुल गया परन्तु सैलून सबके बाद खुले। इसके फलस्वरूप सैलून वालों पर जितने भी संकट आए, उसका चित्रण लेखक ने बहुत शानदार ढंग से किया है। चाहे मुकेश की दुकानों का किराया बाकी होने का, गुड्डू भाई की 10×10 की दुकान में तीन जनों का दिन-रात रहना आदि परिस्थितियों का वर्णन लेखक ने पूर्ण सत्यता के साथ किया है। कोरोना की तीव्रता के कुछ कम होने के बाद भी जब सैलून खुले तो ग्राहक भय के कारण कई दिनों तक नदारद रहे। हाल यह था कि एक तरफ तो ग्राहक कम आ रहे थे, दूसरी तरफ कोरोना प्रोटोकॉल के कारण सेनिटाइजर, गलब्ज, डिस्पोजल कपड़ा आदि के उपयोग के कारण खर्च में वृद्धि हो गई थी। सैलून वालों को इस दोहरी मार से शीघ्र उबरने की उम्मीद भले न थी परन्तु लेखक अपने मित्रों को पूरी सहानुभूति और हमदर्दी के साथ ‘अच्छे दिन पाछे भय’ कहते हुए दिलासा देता नजर आता है।
‘‘जिंदगी अचानक से इतनी जल्दी और इतनी रफ्तार से बदल जाएगी, किसी ने नहीं सोचा था। मुकेश बता रहा था कि शुरू-शुरू में एक दो दिन तो दो-चार लोग घर पर आकर चोरी चुपके बाल कटवा कर गए भी, लेकिन सख्ती बढ़ी तो वो थोड़ी-सी शेष उम्मीद भी जाती रही। जो घर में है उसी से दो वक्त कट रहा है। मकान का किराया है, लॉकडाउन के दिनों की उधारी है, सब का चुकारा भी सिर चढ़ रहा है, लेकिन मनुष्य की हिम्मत, उसकी मुसीबत से कई गुना बड़ी है। वो इन दिनों को भी जैसे तैसे काट ही लेगा।’’4
‘‘उस्तरे की धार से कटती उदासी’’ में उदासी सैलून वालों की भी है, लेखक की भी है और ग्राहकों की भी है। जो पाठक केवल पुस्तक के शीर्षक से यह अनुमान लगाते हैं कि इस पुस्तक में केवल ग्राहकों की उदासी को ही सैलून वालों के द्वारा अपने रोचक किस्सों या बातों की वाक्पदुता से दूर किया जाता होगा तो इस भ्रम का निवारण इस पुस्तक को पढ़ने के दौरान हो जाता है। लेखक की इस पुस्तक में ऐसा प्रवाह है कि जब पाठक इस पुस्तक को पढ़ाना शुरु करेगा तो वह उसके हर अध्याय को पढ़ता चला जाएगा और पूरी रुचि और जुड़ाव के साथ इसे एक बैठक में पूरी पढ़ लेगा। इसी जुड़ाव के आकर्षण के कारण यह पुस्तक समकालीन साहित्य में महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त करें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। लेखक को इस उत्कृष्ठ कृति के लिए बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाऐं!
संदर्भ :
उस्तरे की धार से कटती उदासी, ओम नागर, पृ.सं.-92
वही, ओम नागर, पृ.सं.-52
वही, ओम नागर, पृ.सं.-51
वही, ओम नागर, पृ.सं.-84
सहायक आचार्य, हिन्दी, राजकीय महाविद्यालय, बून्दी (राज.)
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