शोध आलेख : युद्ध वर्णन और धर्मवीर भारती की युद्ध यात्राएँ / चन्द्र प्रकाश शर्मा

युद्ध वर्णन और धर्मवीर भारती की युद्ध यात्राएँ
- चन्द्र प्रकाश शर्मा

शोध-सार : मानव की यह प्रकृति रही है कि वह समाचारों के प्रति निरंतर उत्सुक रहता है। दुनिया के किसी भी भू-भाग में भूकंप, बाढ़, सूनामी, तूफान, अकाल, महामारी जैसी प्राकृतिक आपदाएँ तथा युद्ध, क्रांति, आतंक जैसी घटनाएँ घटित होती हैं तो साहित्यकार भी अपनी संवेदनाओें को समेटे उस घटना की जाँच पड़ताल के लिए यात्रा पर निकल पड़ता है। यह संवेदना पक्ष ही घटना की रिपोर्टिंग को रिपोर्ताज जैसी साहित्य की विधा बनाता है। हिंदी में भी युद्ध जैसी घटनाओं पर बड़ी संख्या में अनेक साहित्यकारों द्वारा रिपोर्ताज लिखे गए हैं। हिंदी में युद्ध के मोर्चे से रिपोर्ताज लेखन के लिए धर्मवीर भारती का नाम सबसे पहले लिया जाता है। युद्ध के मोर्चे पर जाकर युद्ध के आँखों देखे हाल का का जैसा वर्णन उन्होंने किया वैसा हिंदी में उपलब्ध नहीं है। उनका पहला रिपोर्ताजमुर्दों का टीला’ ‘हंसमें छप था, कुछ छिटपुट रिपोर्ताज जैसे- पार्क चिड़िया और सड़क की लालटेन’, ‘संत मुए क्या रोइएआदि भी अपनी विशिष्ट उपस्थिति को रेखांकित करते हैं परंतु उनकी ख्याति का मुख्य आधार बाँगलादेश संबंधी रिपोर्ताज हैं। सितंबर 1971 में धर्मयुग के प्रधान संपादक के रूप में भारती जी ने मुक्तिवाहिनी के सहयोग से बाँगलादेश की गुप्त यात्रा की थी। फिर दिसंबर 1971 में भारतीय थलसेना के सहयोग से भारत पाक युद्ध के वास्तविक मोर्चे पर जाकर रोमांचक अनुभव जुटाए। ये सारे रिपोर्ताज उस समय धर्मयुग के अंकों में प्रकाशित होते रहे। इनमें मुक्तिवाहिनी के अदम्य साहस, निःस्वार्थ राष्ट्रभक्ति, स्वाभिमान, मनुष्यता और युद्ध की अनूठी मिसालें दर्ज हैं। युद्ध के भयावह दृश्यों को धर्मवीर भारती ने अपनी आँखों से देखा और उसका वर्णन किया है। युद्ध के मौके पर घटित होते पूरे ब्यौरों को उन्होंने मानवीय संवेदनशीलता के साथ चित्रित किया है। 

बीज शब्द : विभीषिका, मुक्तिवाहिनी, महाकाय, आधारभूमि, अपरिहार्य, कल्पनातीत, सहभागी, मोर्चाबंदी, अभिभूतकारी, उन्मुक्त, भोक्ता, युगचेतना, मर्मांतक।

मूल आलेख : साहित्य की विधा के रूप में रिपोर्ताज का विकास द्वितीय विश्व युद्ध (सन् 1939) के आसपास माना जाता है। इससे पहले इसे पत्रकारिता की रिपोर्ट के रूप में ही जाना जाता था। द्वितीय विश्व युद्ध के समय अनेक साहित्यकारों ने युद्धक्षेत्रों से महायुद्ध की विभीषिका का ऐसा जीवंत वर्णन प्रस्तुत किया कि पूर्व प्रचलित रिपोर्ट अपनी विधागत सीमाओं को तोड़कर रिपोर्ताज के रूप में अपना स्वरूप गढ़ती दिखाई पड़ती है। डॉ. कृष्ण देव झारी का मानना है कि-द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिकाओं हीरोशिमा और नागासाकी के विनाश का जो मर्मांतक विवरण पत्रकारों और साहित्यकारों ने प्रस्तुत किया, वही इस विधा के प्रादुर्भाव और विकास की कहानी है।1 युद्ध की इन विभीषिकाओं को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करने वाले इन लेखकों ने एक ओर मनुष्य की संवेदनाओं को झकझोरा तो दूसरी ओर राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत अपने देश के साहसी योद्धाओं के पराक्रम एवं बलिदान का आँखों देखा ऐसा जीवंत वर्णन प्रस्तुत किया जो पाठकों को  प्रत्यक्ष महसूस हुआ। रूसी साहित्यकारों ने इस विधा को बडे़ मनोयोग से अपनाया। रूसी साहित्यकारएत्निया एहरनबर्गसन 1936 के आसपास रिपोर्ताज लेखक के रूप में बहुत प्रसिद्ध हुए। 


अमेरिका केडौंस पैसोस’, फ्रांस केआंद्रे मेलरीज’, इंग्लैंड केक्रिस्टोफर इथरवुडआदि प्रसिद्ध पश्चिमी रिपोर्ताज लेखक हैं जिन्होंने इस विधा को पश्चिम में बढ़ावा दिया। इनके साथ ही रूस के एक अन्य लेखकजान डीनहैं, जिन्होंने रूस की समाजवादी क्रांति पर रिपोर्ताज लिखे जो किटैन डेज दैट शुक द वर्ल्डपुस्तक में संगृहीत हैं।2 प्रथम महायुद्ध के दिनों मेंरिने मारियाद्वारा लिखा गया महाकाय रिपोर्ताजआँखों देखा महायुद्धरिपोर्ताज की पहली पुस्तक होगी, जिस पर कई फिल्में भी बन चुकी हैं। इसके पश्चात प्रख्यात कथाकारअर्नेस्ट हेमिंग्वेके द्वारा स्पेनिश सिविल वार की रिपोर्टिंग के रूपटोरेंटों स्टारऔरलुत्फ अतके लिए लिखी गई रिपोर्टिंग, मूलतः रिपोर्ताज के रूप में लिखी गई थी, जिससे पहली बार हेमिंग्वे को विश्वख्याति प्राप्त हुई थी। स्पेनिश सिविल वार के अतिरिक्त ये रिपोर्ताज प्रथम महायुद्ध से भी संबंधित हैं। यद्यपि तब इन्हें रिपोर्टिंग ही कहा गया था, किंतु ये रिपोर्टस्, रिपोर्ताज नाम की नई गद्य विधा को ही जन्म दे रही थीं। ये रिपोर्ताज उनकीबाईलाइननाम की पुस्तक में संकलित हैं।3 


हिंदी रिपोर्ताज के प्रारंभ के विषय में डॉ. हरिमोहन ने जो सूचनात्मक विवरण दिया है उसमें इस विधा को युद्धों की रिपोर्टिंग से जोड़कर लिखा है कि- “रिपोर्ताज विशुद्ध रूप से पत्रिकारिता जगत से आकर साहित्य के क्षेत्र में प्रतिष्ठित हुईघटनापरकविधा है। .....फ्रांस में प्रयुक्त होने वालारिपोर्ताजशब्द भारत में आया और अंग्रेजी कारिपोर्टशब्द समाचार पत्रों के माध्यम से इस ओर संकेत करने लगा। फलतः इस विधा को द्वितीय विश्व युद्ध की घटना से जन्म लेने वाली विधा माना जाता है, क्योंकि उस समय युद्ध की विभीषिका के समाचार रिपोर्ट के रूप में समाचार पत्रों में छपते थे।4 


संवेदना पक्ष ही घटना की रिपोर्टिंग को पत्रकारिता से अलग स्वरूप प्रदान करते हुए रिपोर्ताज जैसी साहित्य विधा बनाता है। हिंदी में भी युद्ध जैसी घटनाओं पर बड़ी संख्या में अनेक साहित्यकारों द्वारा रिपोर्ताज लिखे गए हैं। 1966 में भारत-पाकिस्तान युद्ध की आधारभूमि पर शिवसागर मिश्र नेलडेंगे हजार सालशीर्षक से रिपोर्ताज लिखे। भदंत आनंद कौसल्यायन की कृतिदेश की मिट्टी बुलाती है’ (1966) में कई महत्त्वपूर्ण रिपोर्ताज हैं।


शंकर दयाल सिंह ने भारत-पाक के 1965 और 1971 के युद्धों को लेकर कई महत्त्वपूर्ण रिपोर्ताज लिखे हैं।युद्ध के चौराहे तक’ (1969) में पहलेयुद्धऔरयुद्ध के आस-पाससंग्रह में दोनों युद्धों से संबद्ध रिपोर्ताज हैं। इसके अतिरिक्त रेणु ने 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध परयुद्ध की डायरीतथा बाँगलादेश के मुक्ति संग्राम परश्रुत-अश्रुत पूर्वनाम से रिपोर्ताज लिखे हैं। पाकिस्तानी पत्रकार महमूद शाम का एक रिपोर्ताजयुद्ध छिड़ता है तो खून दोनों ओर बहता है! शीर्षक सेसारिकामें छपा जिसमें युद्ध तथा दोनों देश के लोगों के अमन पसंद स्वभाव और सद्भावना को व्यक्त किया गया है।5 


भारती जी के रिपोर्ताज संग्रहयुद्ध-यात्रा’ की भूमिका मेंपुष्पा भारती’ ने लिखा है कि- “वहाँ जो कुछ देखा और सुना उसे दुनिया को दिखाने और सुनाने के लिए बालकृष्ण के द्वारा लिए गए चित्रों और अपनी कलम को हथियार बनाकर धर्मयुग के पृष्ठों को एक अनोखी अभूतपूर्व लड़ाई का मैदान बनाकर दिखा दिया।........इसके पहले भी इतिहास में अनेक युद्ध हुए हैं और पत्रकारों ने युद्ध की रिपोर्टिंग भी की है- जनता ने सब जाना है उनके लिखे रिपोर्ताज के माध्यम से। पर सभी ने देश की सीमा पर जाकर युद्धभूमि से मिलते समाचारों के आधार पर अपने लेख लिखे थे। धर्मवीर भारती नाम का यह पत्रकार तो ठान बैठा था कि ऐसे नहीं-उसे जो अपनी खुली आँखों से युद्ध होते हुए देखना और लिखना है- आँखों देखा हाल! अपनी जान का जोखिम लेकर उस दृढ़निश्चयी  पत्रकार ने वह कर दिखाया जो कल्पनातीत था, असंभव दीखने वाला अनोखा रोमांचक सत्य था।“6 


मनुष्यता और बर्बर पाशविकता के भीषण खेल को भारती जी ने अपनी आँखों से देखा। यह भयावह जोखिम गहन आस्था और अटूट मनुष्य निष्ठा के बिना असंभव था। दिसंबर 1971 की यात्रा के सहयात्री विष्णुकांत शास्त्री ने इस जोखिम को रेखांकित करते हुए लिखा है शायद ही इससे पहले किसी हिंदी पत्र के प्रधान संपादक ने अपने प्राणों को बाजी पर लगाकर इस प्रकार का आँखों देखा, अपने पर बीता युद्ध संस्मरण लिखा हो। शास्त्री जी ने अपने रिपोर्ताजबाँगलादेश में भारती जी के साथ’ में लिखा है कि युद्ध के मोर्चे पर जाने का कैसा उत्साह भारती जी में था कि भारतीय सेना के अधिकारियों के द्वारा एक बार रोक दिए जाने पर उनका मन व्यथित हो गया था- “हम लोग भारी मन से अपने होटल लौटे। भारती जी बहुत क्रुद्ध और क्षुब्ध थे। उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा किहम लोगों को रोकने का इन्हें कोई हक नहीं है। हम लोग इनके बुलाने पर आए हैं, इनके अनुमतिपत्र से हम बाँगलादेश में कोई सुविधा प्राप्त करेंगे।“7 


युद्ध की भीषण विनाशलीला को धर्मवीर भारती ने अपनी आँखों से देखा और उसका वर्णन किया है। युद्ध के मौके पर घटित होते पूरे ब्यौरों को उन्होंने मानवीय संवेदनशीलता के साथ चित्रित किया है।धर्मवीर भारती ग्रंथावलीमें भारती जी की जो भूमिका छपी है उसमें उन्होंने इस विषय को उठाते हुए लिखा है कि- “और इससे भी ज्यादा रोमांचक और अर्थवान होता है किसी देश की क्रांतिकारी उथल-पुथल में स्वयं सहभागी रहना और वहाँ की जनता के मुक्ति आंदोलन का एक भाग बन सकना। यह मेरा भाग्य ही समझिए कि बाँगलादेश के मुक्ति संग्राम में साक्षी बनने का अवसर मिला। हवाई हमलों, फूटते बमों, गरजती तोपों, बरसती गोलियों, जलती जीपों और खेतों में बिखरी लाशों के बीच से गुज़रना-उफ् ! कहाँ गया था भय उस समय ?”8 


इस युद्ध के समूचे संघर्ष के भयावह परिणामों और बचे जीवन की त्रासदी की ओर भी भारती जी ने जहाँ -तहाँ अवसर पाते ही ध्यान दिलाया है। ये वर्णन कोरे ब्यौरे नहीं हैं, बल्कि संवेदना पर झेले गये प्रत्यक्ष आघात हैं। भारती जी की संवेदना के अनेक साक्ष्य इन रिपोर्ताजों में भरे पड़े हैं। एक अंश यहाँ उद्धृत है-“... बाहर अंधेरा, अंदर एक उदासी। आते ही आते आत्मीय बन जाने वाले इस क्षेत्र से लौटते समय कैसा तो लग रहा है और अगर अक्टूबर नवंबर में फिर सब ओर से असहाय अकेले लोगों पर पाकिस्तानी टैंक और बमबार टूट पड़ेंगे तो! इनकी स्वाधीनता को स्वीकार कर इनके साथ कंधा मिलाकर कोई खड़ा हुआ तो! एक-एक व्यक्ति ने चलते समय इसरार किया है कि फिर आइएगा। लेकिन अगर हम फिर आये भी तो जिन्होंने बुलाया है, ये मिलेंगे क्या? कितना गाढ़ा, कितना अपरिहार्य अँधेरा है।9 और लेखक ने मुक्तिवाहिनी के इस स्वाभिमान को अपने रिपोर्ताजों में इस तरह दर्ज किया है- “कैप्टेन उसी शांत भाव से मेरी ओर बहुत विश्वास से देखकर कहते हैं, फैक्ट्स, नथिंग बट फैक्ट्स। तथ्य के अलावा कुछ भी नहीं। आप जो कुछ देख रहे हैं केवल वही लोगों तक पहुँचाइए। वे तथ्य ही हमारी बात कह देंगे। हम कोई रियायत नहीं चाहते, कोई अतिरिक्त ग्लोरिफिकेशन (प्रभामंडल) नहीं।10 


युद्ध के समय वातावरण किस तरह का होता है, हर तरफ आश्चर्यचकित कर देने वाली घटनाएँ घटित होती हैं और प्रत्येक क्षण कौतुहल बना रहता है। इसका चित्रण  भारती जी के रिपोर्ताज में देखा जा सकता है - "गोधूलि वेला और भी बेचैन कर जाती है हमेशा। आज तो और भी! यों! क़रीब 6 बजे सारी बत्तियाँ गुल हो जाती हैं। सायरन बजने लगते हैं चारों ओर अन्धा घुप्प! यह हुआ क्या? बात क्या है?"11 


युद्ध के मोर्चे को पाठक के समक्ष जीवंत कर देने वाले ये वर्णन ही धर्मवीर भारती के रिपोर्ताज लेखन कौशल की विशेषता हैं। नाना प्रकार के अभावों के साथ लड़ते हुए मुक्ति सैनिकों की अंततः विजय की आधार भूमि मनुष्यता का चरम मूल्य इस अंश में द्रष्टव्य है, जो अपने कमांडर को भी सैल्यूट करने के लिए विवश कर देता है, दो पाकिस्तानी सैनिक पेट्रोलिंग कर रहे थे अचानक उनका  सामना भारतीय सैनिक से हो जाता है दोनों तरफ से गोली चली, एक को गोली लगी और वह गिर पड़ा, दूसरा भागता है और  वह फिर लौट कर आता है। वह पास आकर पहले वाले मृत सैनिक को उठाकर कंधे पर लाद कर ले जाना चाहता है। भारती जी ने इस दृश्य को कितनी संवेदना के साथ  लिखा है वह देखने लायक है-“मैंने बंदूक साधी, पर फिर नीची कर ली। उस वक्त मुझे लगा कि वह तो सिर्फ अपने दोस्त का दोस्त है। उस समय दुश्मन नहीं। मैंने गोली नहीं चलायी। मैं कसूरवार हूँ। आप जो सजा दें, कबूल है। मैंने उसकी ओर देखा। फिर खड़ा हुआ और उसे मैंने सैल्यूट दी। उससे कहा, आई एम प्राउड ऑफ यू। बात यह है कि बहादुर आदमी घृणा भी बहुत बड़े दिल से करता है, डरता नहीं।12 


भारती जी के ये रिपोर्ताज अब उनकी ग्रंथावली में संकलित हैं। ग्रंथावली के संपादक डॉ. चंद्रकांत बांदिवड़ेकर द्वारा सातवें भाग मेंयुद्ध यात्राएँनाम से इन्हें संकलित किया है। इस खंड़ में इन रिपोर्ताजों को तीन उपभागों में बाँटा गया है- ’मुक्तिक्षेत्रे : युद्धक्षेत्रे’, ’युद्ध यात्रा’, औरयुद्धोपरांत धर्मवीर भारती ग्रंथावली के संपादक चंद्रकांत बांदिवड़ेकर ने ग्रंथावली की भूमिका में भारती के इस यात्रा लेखन पर उनकी इस सृजन कला को इस प्रकार शब्दबद्ध किया है- “यथार्थ कैसे रोमांचक होता है, प्रकृति कैसे मानवीय संस्पर्श से सप्राण होती है, अदम्य साहसिकता कैसे सहज क्रीड़ा बनती है, बौद्धिक तलाश कैसे सुखमय और बहु-प्रसवा होती है, नए लोक, नए प्रदेश, नए रीति-रिवाज, नई विचारधाराएँ कैसे आत्मीयता के घेरे में आकर आलोकित करती हैं, इस सबका अनुभव ओतप्रोत है इस में।13  जो रिपोर्ताज उन्होंने लिखे वे बेजोड़ हैं और हिंदी रिपोर्ताज के उत्कर्ष को सिंचित करते हैं। युद्ध पर रिपोर्ताज लेखन भारती जी के उत्साही लेखन के लिए उठाये गए साहसिक प्रयत्नों का फल है। निश्चय ही युद्ध की पृष्ठभूमि पर साहित्य लिखना एक कवि के लिए साहस का काम है।


विष्णुकांत शास्त्री भारती जी की दूसरी बाँगलादेश यात्रा में उनके सहचर थे। उनके रिपोर्ताजबाँगलादेश के संदर्भ में’ (1973) शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुए। वैसे ये रिपोर्ताज अपने लिखे जाने के साथ ही धर्मयुग में प्रकाशित होते रहे। इन्हें देश की जनता का अभिभूतकारी स्नेह मिला। उस समय को याद करते हुए उन्होंने पुस्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा है- कैसे अद्भुत थे वे दिन ! उत्तेजना, विक्षोभ और उत्साह का जैसा अनुभव उन दिनों हुआ वैसा कभी नहीं हुआ था, कहाँ विश्वविद्यालय का शांतिपूर्ण प्राध्यापक जीवन और कहाँ, युद्ध के मोर्चों पर अर्द्धसैनिक वेश में गोलों के धमाकों के बीच मुक्ति योद्धाओं का साहचर्य! शरणार्थियों की दुर्दशा देखकर कलेजा मुँह को आता था, तो बाँगलादेश के नौजवान कार्यकर्ताओं की निष्ठा और लगन आश्वस्त करती थी कि स्थिति पलट कर रहेगी।14 


उनके मुक्तियोद्धाओं के शिविर मेंरिपोर्ताज का यह अंश वर्ण्य विषय के प्रति उनकी गहरी समझ और आत्मीय प्रेम का अनूठा साक्ष्य है जिसमें वे एक बाँगला गीत का उल्लेख करते हैं- “चाँद अभी तक निकला नहीं था। घोर निस्तब्धता और घने अँधेरे के बीच उस ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर दौड़ रही थीं दो जीपें,...... और यह हवा-यह उन्मुक्त प्राकृतिक विस्तार। सामने से कोई जंतु दौड़ गया। ब्रेक के झटके ने विचारधारा को भी झकझोर दिया। लगा ऐसा ही अँधेरा बाँगलादेश के उपर भी छा गया है, क्या वह दूर होगा? और तभी मेरे मन में कौंध गयीं नसीमुन आरां की पंक्तियाँ आमार कूलप्लावी कत क्षण डूबे, तिमिर हननेर गान आमार कंठे’ (किनारों को डुबा देने वाला यह अँधेरा टिक सकेगा कितनी देर, अँधेरे को चीर देने वाला गान है मेरे कंठ में) कैप्टेन रशीद और उनके साथी अँधेरे को चीर देने की साधना में ही तो लगे हैं।15बाँगलादेश के संदर्भ में’ के  रिपोर्ताज संग्रह के अलावा भी उनके और कई रिपोर्ताज पत्र पत्रिकाओं में छपे। 


रिपोर्ताज का उद्देश्य मार्मिक घटनाओं के माध्यम से संवेदनाओं को जाग्रत करना और कटु सत्य को सामने लाना होता है। किसी घटना के ब्यौरों की प्रधानता तो होती ही है साथ ही रिपोर्ताज में युगचेतना, मानवीय विषमताओं का चित्रण, जीवन मूल्यों के द्वंद्व का वर्णन, जनसामान्य परिवेश से जुड़ाव भी होता है जो किसी भी रिपोर्ताज को श्रेष्ठ बनाता है। वर्तमान में रिपोर्ताज विधा केवल किसी बड़ी घटना पर ही आधारित नहीं रह गई है। अब छोटी-छोटी घटनाएँ प्रसंग भी रिपोर्ताज के विषय बनने लगे हैं। अब इस विधा का विषय विस्तार भी व्यापक हुआ है, गाँव से लेकर शहर तक तथा पुराने विचारों से लेकर नवीन तकनीक तक विषय बनकर इसमें स्थान पाने लगे हैं। स्वाधीनता के बाद जीवन अधिक घटना संकुल और विविधतापूर्ण हो गया है। अकाल भुखमरी, बाढ़ और युद्ध से आगे बढ़कर विकास, प्राकृतिक एवं मानवकृत आपदाएँ विभिन्न प्रकार की दुर्घटनाएँ, गरीबी, विषमता, प्रकृति-सौंदर्य, बाँध, औद्योगिकीकरण, विस्थापन आदि विभिन्न विषय क्षेत्रों तक विस्तार होता चला गया है। यह बात सही है कि रिपोर्ताज का लेखन सामान्यतः वर्तमान-कालिक घटनाओं पर होता है किंतु यह भी सच है कि यह मानव जीवन के निकट का साहित्य है जो उसे वास्तविकता के करीब बनाये रखता है। जो रिपोर्ताज भारती जी ने लिखे वे साहस के पर्याय हैं तथा शिल्प की दृष्टि से भी बेजोड़ हैं और हिंदी रिपोर्ताज के उत्कर्ष को सिद्ध करते हैं। युद्ध पर रिपोर्ताज लेखन भारती जी के उत्साही लेखन के लिए उठाए गए साहसिक प्रयत्नों का फल है। कभी-कभी रचनाकार घटनाओं का दर्शक मात्र रहकर स्वयं भोक्ता भी बनता है जैसा कि बंगाल के अकाल के समय रांगेय राघव ने, स्वतंत्रता आंदोलन के समय कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने, पटना जलप्रलय के समय रेणु ने जैसा देखा और भोगा उसका मार्मिक वर्णन प्रस्तुत किया । उसी तरह से बाँगलादेश युद्ध के समय धर्मवीर भारती विष्णुकांत शास्त्री ने स्वयं भोक्ता तथा साक्षी बनकर युद्ध की घटनाओं को पाठक के सामने जीवंत किया है। युद्ध क्षेत्र के मोर्चे से ऐसा सजीव वर्णन भारती जी जैसे साहसी लेखक ही कर सकते हैं। युद्ध जैसी इन हृदय विदारक घटनाओं पर जो रिपोर्ताज का अत्यंत संवेदनशील विषय हो सकता था, पता नहीं क्यों रिपोर्ताज-लेखन प्रायः के बराबर हुआ है। इसी तरह की और भी अनेक घटनाएँ जैसे भोपाल गैस त्रासदी, कारगिल युद्ध, कर्ज में डूबे किसानों के द्वारा की जा रही आत्महत्याएँ, जंगलों से आदिवासियों का विस्थापन, भूस्खलन की केदारनाथ जैसी त्रासदियाँ आदि पिछले कई सालों दशकों के दौरान भारत में घटित हुई हैं जिन पर रिपोर्ताज लेखन की आधिक संभावनाएँ थीं लेकिन उन पर उस प्रकार का लेखन नहीं हुआ।


संदर्भ :


1. 1. डॉ. कृष्णदेव झारी डॉ. सुरेश गौतम, साहित्य सिद्धांत और साहित्य विधाएँ,  शारदा प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1999, पृ.सं.-142
2. अरुण प्रकाश, गद्य की पहचान, अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद, पहला सं. 2012, पृ.सं.- 169
3. डॉ. श्रीनिवास शर्मा, साहित्यिक विधाएँ : सिद्धांत और विकास, के. एल. पचौरी प्रकाशन, गाजियाबाद, प्रथम संस्करण, 2002, पृ.सं.- 210
4. डॉ. हरिमोहन, साहित्यिक विधाएँ : पुनर्विचार, दिवि पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रिब्यूटर्स, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1999, पृ. सं. - 273
5. सारिका वर्ष-15, अंक-162, अगस्त 1975
6. धर्मवीर भारती, युद्ध यात्रा, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्र. सं. 2020, भूमिका भाग
7. सं. जुगल किशोर जैथलिया, विष्णुकांत शास्त्री:चुनी हुई रचनाएँ, खण्ड 2, श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय, कोलकाता, प्र. सं 1973, पृ. सं. 176
8. सं.चंद्रकांत बांदिवडेकर, धर्मवीर भारती ग्रंथावली, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, सं. 1998, खंड-7, भूमिका भाग
9. वही, पृ. सं.-146
10. वही, पृ. सं.-146
11. धर्मवीर भारती, युद्ध यात्रा, युद्ध:अप्रत्याशित आरंभ, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्र.सं. 2020, पृ. सं.-25
12. सं.चंद्रकांत बांदिवडेकर, धर्मवीर भारती ग्रंथावली, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, सं. 1998, खंड-7, पृ. सं.- 151
13 . वही, खंड-7, भूमिका भाग
14 . विष्णुकांत शास्त्री - बाँगलादेश के संदर्भ में, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, प्र. सं 1973, भूमिका भाग
15 . सं.प्रेमशकर त्रिपाठी, विष्णुकांत शास्त्री रचना संचयन, मुक्तियोद्धाओं के शिविर में , साहित्य आकादेमी, नई दिल्ली, प्र.सं 2024, पृ. सं.291.
चन्द्र प्रकाश शर्मा
सहायक आचार्य, राजकीय महाविद्द्यालय, दौसा
cpshell.prashant@gmail.com, 9414638256

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( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी
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