सम्पादकीय : बातें बीते दिनों की (अंक-60) / माणिक

बातें बीते दिनों की
- माणिक


(1) इसी साल जून माह में मुझे 'जीवन विद्या' के आठ दिवसीय मध्यस्थ दर्शन शिविर में भीलवाड़ा जाने का मौक़ा मिला। आई.आई.टी. कानपुर से डॉक्टरेट श्याम भैया प्रबोधक के रूप में आए हुए थे। शिविर की ख़ासियत यह थी
 कि इसमें मेरे साथ अपनी माटी ‘मण्डली’ के छह विद्यार्थी भी मेरे साथ प्रतिभागी थे। चीनू बैरागी, पायल आर्य, राधिका बैरागी, रेखा कुंवर, अंशिका शर्मा और पूजा जाट। सभी सोलह से आठारह बरस की उम्र के। एक नज़र में मुझे युवतर के साथ रहने का अवसर था। असल में यह एक युवा शिविर था मगर हम जैसे चालीस पार के कई व्यक्ति और परिवार वहां आए हुए थे। वर्ष में एक बार ऐसी ऊर्जा पानी बड़ी ज़रूरी होती है। समझकर फिर जीने का आनंद विलग है। यहाँ से मिली समझ के आधार से कुछ बातें साझा करना चाहता हूँ। हमें किसी को सीधा-सपाट हल देने के बजाय उसे चिंतन करने और सोचने हेतु एक आरम्भ देकर खुद उत्तर टटोलने के लिए प्रेरित करना चाहिए। रेडीमेड उत्तर बहुत दूर तक साथ नहीं देते हैं। जीवन में जब भी कोई समस्या आए यह देखना श्रेयकर है कि इसमें मेरा भाग कहाँ तक है। मैं अपने लेवल से कैसे इसे ठीक कर सकूंगा इस बात पर फोकस रहना, यही बेहतर रहता है। होता अमूमन यही है कि हम समस्या के लिए अन्य में खोट देखने के आदी हैं। विद्यार्थियों के लिहाज़ से पता चला कि पढाई और मनोरंजन में हमें बैलेंस करना अति आवश्यक है। दीगर प्रश्न बनता है कि रूचि किसे कहें? तो पता चला कि जिसमें अपना मन लगे मतलब जिस काम को करने के बदले अगर तीन महीने तक तनख्वाह न भी मिले तो उसे कर सकें यही रूचि पहचानने का तरीका है। जिसे करने के बदले कोई ईनाम न मिले तो भी निभ सके। जिसे निभाते हुए रत्तीभर भी थकान नहीं आवे वही रुचिकर घोषित हो।

अक्सर देखा गया है कि सम्बन्ध बहुत नाजुक होते हैं। निर्वाह करने में हमें अपना भाव ठीक रखने के साथ ही भाषा भी सही रखनी होती है। संबंधों पर गहरी चर्चा हुई तो जाना कि हमारे बीच बिगाड़ का ज्यादा बड़ा कारण सुविधाएं नहीं है बल्कि संबंधों को दिए गए समय में कमी है। ज्यादतर लोग हमें दुखी दिखाई देते हैं। कारण स्पष्ट है कि हमने दुःख को बहुत अच्छे से स्वीकार लिया है। अपने ही चुनाव पर पुनर्विचार करने की बेला आ गयी है। दूजी एक और बात यह साझा करनी है कि हमें छानकर सुनना चाहिए। आधी से ज्यादा लड़ाइयों के मूल में सुनने और कहने के बीच का अंतराल होता है। मतलब विवेक के साथ सुनना। गैर-ज़रूरी कचरा हमारे मानस में न जाए इसका बंदोबस्त करना होगा। बड़े दाने वाली जाली के बजाय बारीक छलनी वापरनी होगी। नकारात्मकता अपने आप में बीमारी का एक प्रकार है। जब हर तरफ आपको समस्याएँ दिखे तो एक उदाहरण बड़ा सटीक लगा कि हमारे पाँव में जूते पहनना ज्यादा ठीक निर्णय है बजाय इसके कि सारे ज़माने में सड़क पर चमड़ा बिछाते फिरें।

इस दौरान कई नए पुराने दोस्त मिले मगर किसी नए को फोन करके नहीं बुलाया। एकदम अज्ञातवास में रहने की ठानी। खुद में विचार-मग्न। आश्रमनुमा दिनचर्या। घर की नाई बंदोबस्त। मनुहारों से भरी आवभगत। करने योग्य और न करने योग्य कामों की सूची को धूप दिखाई यहाँ भले से संभव हो सकी। युवामन को खूब करीब से सुना। युवाओं के प्रश्न और उनकी उलझने आसन्न संकट के संकेत लगे। वहीं युवाओं की जिज्ञासावृत्ति और बोलने का टेक्ट बड़ा मनोरम। गज़ब की शार्पनेस और साफगोई। करिअर को लेकर स्पष्टता बनी कि इसके कारण विवाह में देरी करना बेकार है। नौकरी और व्यवसाय वही हो जो प्रकृति को नुकसान न पहुंचाए। पैसा उतना कमाना है जितनी हमारी आवश्यकताओं को निश्चित करने के बाद ज़रूरी लगे। सीमित करने के बजाय निश्चित करने पर ज़ोर देना है, जैसी दर्ज़नभर से भी ज्यादा बातें सूत्रों की तरह अनुभूत हुईं। एक फिल्म बड़ी लाभदायक रही 'राइट हिअर राइट नाउ'। इसमें जो भी व्यक्ति धक्का दे रहा है वह पहले कहीं न कहीं से चोटखाकर आया हुआ है। इसी तरह जो खुशियाँ बाँट रहा है वह भी कहीं न कहीं से खुशी पाकर आया है। हम हर बार रिएक्ट करने के मानस के साथ होते हैं जबकि हमें हर दफा रेस्पोंड करना होता है। रिएक्शन की चैन को रोकना हमारी समझदारी है। अमूमन हम गैस सिलेंडर की तरह हो जाते हैं जहां कोई लाइटर की तरह थोड़ी सी टिक-टिक करके चला जाए तो हम भभक पड़ते हैं। यह मन:स्थिति ठीक नहीं है। बातें बहुत सी है पर फिलहाल श्याम भैया की यही बात लिखनी है कि हमें कौन सही है और कौन गलत है के बजाय क्या सही है और क्या गलत है पर खुद को शिफ्ट करना चाहिए ताकि बहस का कोई सार्थक हल निकल सके। वरना आरोप-प्रत्यारोप से सर- फुटौव्वल तय है। खाली समय में सामरी के बच्चों के साथ आइसक्रीम खाने और टहलने के दौरान हुई बातें गुरु-शिष्य सम्बन्ध को प्रगाढ़ कर सकी, यही कहना है।

(2) बीते दिनों जोधपुर वाले सत्यनारायण जी का संभावना प्रकाशन से छपा डायरी संग्रह 'इस मिनखाजूण में' (यायावर की डायरी) और सवाईमाधोपुर वाले विनोद पदरज जी का बोधि प्रकाशन से आया कविता संग्रह 'देस' पढ़ा। हालांकि अब यह दोनों मेरे प्रिय लेखकों में शामिल हैं; वैसे भी इन्हें राजस्थान का प्रतिनिधि स्वर माना जाए। दोनों की विधा न्यारी-न्यारी है मगर मुझे दोनों की भाषा और विषय से लेकर बहुत हद साम्यता अनुभव हुई। मानवीय संबंधों के बीच छीजती हुई संवेदनाओं पर ध्यान दिलाने में दोनों रचनाकार उस्ताद हैं। उनके लिखे में शामिल देशज गंध मेरी आत्मा के बेहद करीब है। घर पर जब भी कोई मित्र एवं रिश्तेदार आते हैं तब मैं इनकी कविता और डायरी का जिक्र ज़रूर करता हूँ। लगे हाथ कभी-कभार उन्हें अपने लहजे में बाँचकर सुनाना पसंद करता हूँ। पाठ करना मुझे सुहाता है। जब भी कोई कविता उतार-चढ़ाव के साथ सस्वर सुनाता हूँ तो मुझे वह अनुभूति आकाशवाणी चित्तौड़गढ़ में एक दशक तक काम करने के दिनों की उद्घोषणाओं में लेकर चली जाती है। हाल में मैंने पदरज जी की एक कविता स्कूल की प्रार्थना-सभा में सुनाई 'भादवे की रात'। क्या अद्भुत बिम्ब है। अतीत में कहीं दूर ले जाता हुआ। एक-एक पंक्ति में नित-नए शब्द हैं। पूरा वातावरण बुनकर फिर धीरे से कोई मनोभाव परोसते हैं पदरज जी। अनजान व्यक्ति के हित बुजुर्ग जोड़ा किस दिली आवभगत से भोजन बनाता और खिलाता है। हमें वर्तमान समाज के खाली-खट्ट दिल वालों की तंगाई वाली जीवन-शैली पर ले जाकर टिकाता है। फाकाकशी में भी बूढ़ा और बुढ़िया समृद्धि का अहसास करवाते हैं। यथाशक्ति बिछावना करते हैं। नींद आने तक बातों का ढेर लगाते हैं। सवेरे फिर भरपूर प्रेम के साथ चाय पिलाकर राह बताकर अलविदा करते हैं। यह स्नेह कहीं खो-सा गया है। इसी संग्रह की अन्य कविताओं में जो मुझे रिझाती हैं उनमें हैं- भाषा, माँ की भाषा, नंदिनी गाय, नाते की, गुलाम मोहम्मद, गीत, पीहर में बेटी, अस्सी वर्षीय वृद्धा। 'नाते की' कविता में स्त्री स्वाभिमान और उसके सशक्तीकरण की अद्भुत अभिव्यक्ति है। कविताओं में आया परिवेश हमें अपनी जड़ों की तरफ इशारा करता है। संवेदनाओं के बगैर सबकुछ सूनेपन की राह लेना है। दोनों लेखकों के यहाँ स्मृतियाँ बहुत लड़ालूम हैं। सत्यनारायण जी की डायरी में उनका बचपन, यौवन और एकाकीपन उभरकर पाठक को अपनी बाहों में भर लेता है। उन्होंने अभिव्यक्त और अनभिव्यक्त प्रेम की आवाजाही बड़ी शिद्धत से उकेरी है।

(3) हाल के वक़्त में 'हिन्दवी' के 'संगत' कार्यक्रम की सौवीं कड़ी के नाम पर आदरणीय ज्ञानरंजन जी से अंजुम शर्मा की बातचीत बड़ी बहसतलब रही। मैंने ज्ञान जी को पढ़ा बहुत मगर पहली दफा बोलते हुए सुना। 'पहल' पत्रिका के लिए उनके समर्पण और सम्पादकीय गाम्भीर्य को लेकर राजेश चौधरी जी से बहुत किस्से सुने थे।राजस्थान में ही उच्च शिक्षा में हिंदी के सहायक आचार्य रहे राजेश जी ने चित्तौड़ से जयपुर शिफ्ट होते समय अपनी अलमारी से कई पुस्तकें यहीं दान कर दी थी मगर वे 'पहल' के लगभग सभी अंक अपने साथ जयपुर लेकर गए। 'पहल' सम्मान से लेकर उनके कथा-संसार के बारे में चौधरी जी अकसर चर्चा किया करते थे। वे 'पहल' के अंकों से ज़रूरी आलेखों पर टैग लगाकर रखते थे। कक्षा में जाने से पहले कई बार सन्दर्भ के नाम पर पत्रिकाओं का सहारा लेना नहीं भूलते थे। तीन और पत्रिकाएँ थीं जिन्हें बेहद मोहब्बत के साथ तवज्जो देते हैं। हंस, आलोचना और तद्भव। मुझे ज्ञान जी की कहानी 'पिता' मेरे अपने पिताजी को याद करने में बड़ी मदद करती रही। मेरी कलम से 'ज्ञान जी' निकलने की आदत में अंजुम भाई का पूरे इंटरव्यू में 'ज्ञान जी' कहना मूल कारण माना जाए। देखा गया कि सोशल मीडिया पर मेधावी युवा साथी अंजुम को खूब ट्रोल किया गया; वहीं ज्ञान जी को भी कई पूरक प्रश्नों का सामना करना पड़ा। निश्चित रूप से कोई बात चली है तो फिर उससे नई बातें निकलना स्वाभाविक ही है। बहरहाल उनकी बेबाकी पसंद आई।

दूसरा मसला महाराष्ट्र में भाषा विवाद को लेकर चला। मराठी को तरजीह देने के नाम पर अन्य उत्तर भारतीय भाषाओं को गरियाया गया। अंग्रेजी और हिंदी आज तेज़ी से फ़ैल रही है मतलब वह लोगों की चॉइस है। हमें यह सत्य स्वीकारना पड़ेगा। केन्द्रीय विश्वविद्यालय गुजरात के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. संजीव दुबे ने इस वर्ष के सी.यू.ई.टी. प्रवेश परीक्षा के बाद विद्यार्थियों द्वारा कॉलेज में पढ़ने के लिए चुनी जाने वाली भाषाओं की प्राथमिकता के आंकड़े बताए तो जाना कि बच्चे हिंदी, अंग्रेजी और विदेशी भाषाओं को ज्यादा पसंद कर रहे हैं। भारतीय प्रादेशिक भाषाओँ की स्थिति संतोषजनक नहीं है। युवामन को यह टटोल ही बहुत कुछ कहती है। इस बीच दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. अपूर्वानंद के लम्बी बातचीत के सिलसिले 'कड़वी कॉफ़ी' नामक यूट्यूब श्रृंखला में मैंने प्रो. कृष्ण कुमार को सुना तो तस्वीर और साफ़ हुई। दक्षिण भारतीय राज्यों में भी भाषा को लेकर त्रि-भाषा फार्मूले पर पहले भी बहस होती आयी है। असल में भारत एक देश नहीं बल्कि महादेश है, यह बात हमें समझनी होगी। भाषा किसी दबाव में भला कब तक बोली और सहेजी जाएगी? व्याकरण तक किसी समाज को चला नहीं पाता है। कानून से समाज नहीं चलता है। समाज की अपनी गति और चाल होती है। वह भाषा हो या बोली अपने ढंग से उपयोग करता है। हर आदमी अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ भाषा को सीने से लगाता है। मेवाड़ी मेरे बचपन में घर-परिवार की भाषा रही। स्कूल देखा तो हिंदी सुनते और फिर बोलते हुए बड़े हुए। अंग्रेजी कॉलेज में विषय के तौर ली तो कुछ देखा-देखी में औसत योग्यता पा ही ली। संस्कृत भी उच्च शिक्षा में विषय रहा मगर बोलना कभी नहीं आया। हिंदी को ऐच्छिक विषय के तौर पर सीधे स्नातकोत्तर में पढ़ा। तीन भाषाओं के साहित्य से परिचित होने के कारण समझ ठीकठाक है। नौकरी राजस्थान में ही है तो किसी अन्य प्रादेशिक भाषा से संसर्ग का मौक़ा मिला नहीं। हाँ, दोनों में पंजाबी, सिन्धी, गुजराती खूब सुनी मगर कभी बढ़िया अवसर नहीं मिला कि आगे बढ़ें। हर भाषा अपनी-सी लगी। कोई माँ नहीं, कोई मौसी नहीं। भारतभर की अन्य भाषाओं को मैंने जब भी महसूसा है तो वह ज़रिया था शास्त्रीय और लोक संगीत की स्पिक मैके प्रस्तुतियां। मौका मिले तो इसी जीवन में अन्य भाषाएँ सीखें। हालांकि जीवन के उत्तरार्द्ध में तो हिंदी को ही ठीक से जी लें फिलहाल यही एक चयन है। भाषाएँ अपने ढंग से बहती हैं उसमें जब भी राजनीतिक गोंचेबाजी होगी तो भाषा-प्रेमियों का मन ख़राब ही होगा। भाषाओं की सीमाबंदी ठीक नहीं। उन्हें धर्म विशेष से जोड़ने की कोशिशें पहले भी हुईं और फिर सब नाकाम हुए। बहता हुआ झरना अपना मार्ग खुद बना लेता है।

(4) सामान्य अंक-60 आपके बीच साझा कर रहे हैं। इसे समीक्षा अंक के रूप में लाने के लिए हम उतनी मेहनत नहीं कर सके, उसके लिए माफी चाहते हैं। विशेष सामग्री के लिए थोड़ा श्रम करना होता है जो हमसे न हो सका। कथेतर की समस्त रचनाएं भाई विष्णु कुमार शर्मा के कुशल हाथों में चयन से लेकर सम्पादन तक बढ़िया ढंग से आ सकी हैं। अंक में शामिल चित्र डॉ. दीपक चंदवानी की फोटोग्राफी से सम्बद्ध हैं। वे हमारे अभिन्न मित्र हैं। सन्डे ट्रेकिंग से लेकर चित्रकारी, गायन, ग़ज़ल लेखन और महाविद्यालय शिक्षा में सतत नवाचार करते हुए अलवर में न्यारे ढंग से काम कर रहे हैं। पत्रिका का आवरण इस बार भी कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय हरियाणा के शोधार्थी योगेश शर्मा ने तैयार किया है। आलेखों की श्रृंखला में केन्द्रीय विश्वविद्यालय गुजरात, वडोदरा के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. संजीव कुमार दुबे से हमने आग्रह किया। मधु कांकरिया जी से वर्षा सिखवाल की बातचीत अंक की ख़ासियत मानी जाए। प्रियंवद जी की नई पुस्तक का परिचय देना उनके प्रति आदर भाव समझा जाए। प्रो. विजय लक्ष्मी सिंह और प्रो. प्रभात कुमार सहित डॉ. शशिभूषण मिश्र का लेखन अंक को गरिमा देगा ऐसा मेरा मानना है। हमारे भक्तिकालीन हिंदी और प्रतिबंधित साहित्य जैसे विशेषांकों के अतिथि सम्पादक रहे प्रो. गजेन्द्र पाठक का आलेख लम्बे समय बाद शामिल कर पाए हैं, इसकी हमें बेहद खुशी है। इस अंक से दो नए कॉलम शामिल किए हैं। 'पाठकों का स्नेह' में हमें प्राप्त पाठकीय टिप्पणियाँ हैं वहीं 'साझेदारी का अनुभूति-पक्ष' में अपनी माटी के ही साथियों की इस पत्रिका के साथ अपनी यात्रा पर थोड़ी सी रोशनी है। हेमराज और नीरज श्रीमाली जैसे नए रचनाकारों को शामिल करने की भी एक तसल्ली तो है ही। मशहूर कथाकार अमरकांत और जानेमाने आलोचक नामवर सिंह को उनकी जन्मशताब्दी के अवसर पर 'अपनी माटी' की तरफ हार्दिक नमन।

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी
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