मधु कांकरिया से वर्षा सिखवाल एवं चन्द्रकान्ता बंसल की बातचीत
(9/11/2022)
वर्षा - आपकी आरंभिक लेखन यात्रा के बारे में बताइए।
मधु जी - शुरुआती रचनाएँ तो मैं हाथ साफ करने के लिए लिख रही थी; वह लोकल अखबारों में भेजती थी और छप जाती तो खुश हो जाती। धीरे-धीरे मुझे समझ में आने लगा कि मुझे अच्छी पत्रिकाओं में छपना चाहिए। उस समय हालत यह थी कि मैं इधर ‘हंस’ में भेजूं और उधर सप्ताह भर में लौट आए। मतलब मेरे ख्याल से पोस्ट एवं टेलीग्राफ डिपार्टमेंट इतना एफिशिएंट मुझे कभी नहीं दिखा। सारी रचनाएँ मेरी लौट कर आ रही थी। फिर मैंने गुस्से में कलम ही तोड़ दी कि लिखना मेरे बस का नहीं है तो लेखिका बनने के भूत से मुझे मुक्ति मिल जाए। जब कलम तोड़ दी तो देखा कि उसी सप्ताह मेरी एक कहानी के लिए किसी अच्छी पत्रिका में स्वीकृति मिल गई। फिर ऐसा होता कि फिर थोड़ी निराशा होती झटके खाती रहती, सोचती थी और नहीं लिखेंगे। पहले यह नहीं था ना कि मेल कर दिया। उस समय कहानी लिखते थे, टाइप करवाते थे फिर रिटर्न एनवलप के संग आप कहानी भेज रहे हो। लौट के आती तो सारे घर में लगता कि कहानी लौटकर आ गई। क्योंकि वह घर के एड्रेस पर ही आती न। एक बार तो मेरे पिताजी ने मजाक में ही मुझसे कहा था कि एक तो प्रेमचंद थे कि लोग उनको घर में बंद करके लिखवाते थे और एक तुम हो कि कोई छापता ही नहीं है। यह सब भी काफी चीजें थी जो मुझे परेशान कर रही थी कि मुझे लिखना चाहिए या नहीं लिखना चाहिए। बहुत झटके खाए।
चन्द्रकान्ता जी – नहीं, नहीं ये झटके नहीं थे। ये उद्वेलन थे और इन्होंने आपके उद्गारों को एक गति दी।
मधु जी - ऐसा लगता था कि मैं लिख नहीं पाऊंगी। लिखूंगी भी तो छापेगा कौन ? इसी प्रकार पहली कहानी छपी । फिर ‘हंस’ में भी छपने लगी और मजे की बात यह है कि इसी दौरान पश्चिम बंगाल, जो मेरा जन्म स्थान है; वहाँ पर स्वाभाविक रूप से एक राजनीतिक चेतना रहती है। नक्सलवादी आंदोलन हुआ था। उसमें मेरे बड़े भाई की भी कुछ भूमिका थी तो मैंने पहला उपन्यास उसी पर लिखा। जनरली होता क्या है कि लोग पहला उपन्यास प्रेम पर लिखते हैं पर मैंने पहला ही उपन्यास नक्सलवाद पर लिखा ‘खुले गगन के लाल सितारे’ और वह राजकमल से छप गया। सन् 2000 की बात है। लोगों को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि अरे राजकमल से कैसे छप गया? कुछ मित्रों ने पूछा कि क्या दिया राजकमल को और सच्चाई यह थी कि राजकमल के जो मालिक है न? माहेश्वरी जी, न मैं उनसे मिली थी और न ही उन्हें पहचानती थी। सिर्फ फोन पर बात हुई थी। फिर 2000 के बाद मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
वर्षा- आपके साहित्य पर किन-किन लेखकों का प्रभाव रहा है?
मधु जी - देखिए मुझे सब लोगों ने बनाया है। सच कहूं तो मेरे पीछे एक लंबी कतार है। मैंने तो घर के काम करने वाली बाईयों पर भी लिखा है, तो नशाखोरों पर भी लिखा है। जो भी आपके जीवन में आता है न वह आपको कुछ देकर के जाता है। मैं ऐसा मानती हूं। मैं तो एक निमित्त थी। जब से मैंने लिखना शुरू किया, मैंने देखना शुरू किया। जब मैंने देखना शुरू किया तो मेरी दुनिया बड़ी होती गई। मेरा सौभाग्य था कि मुझे आदिवासी अंचलों में जाने का मौका मिला। मैं झारखंड गई। मैंने आदिवासियों पर लिखा। मेरा एक उपन्यास था ‘हम यहां थे’ वह आदिवासियों पर है। मेरे बेटे की पोस्टिंग मुंबई में हुई। मेरा सौभाग्य था कि मुझे महाराष्ट्र के गाँवों में जाने का मौका मिला। जहाँ किसान आत्महत्या कर रहे थे। मैंने उनकी जिंदगी देखी। उनके जीवन का ताप देखा तो मैंने उनके बारे में लिखा ‘ढलती सांझ का सूरज’। बहुत से लेखकों ने मुझे प्रेरित किया नाम मैं अब यहाँ क्या लूँ - मृदुला गर्ग है, ममता कालिया है, गोविंद मिश्र थे, शुरू में कमलेश्वर थे, संजीव जी थे, इन लोगों को मैं लगातार पढ़ ही रही थी। मृदुला गर्ग को पढ़ते-पढ़ते में सोचना सीख रही थी , देखना सीख रही थी और महसूस करना सीख रही थी। वही सब लेखन में आया। कल्पना शक्ति तो मेरे पास थी ही।
वर्षा – मैम, यह तो आपका बड़प्पन है कि आपने अपने सभी समकालीन साहित्यकारों के साथ-साथ संपर्क में आने वाले सामान्य लोगों के योगदान को भी याद किया है। मेरे शोध प्रबंध का विषय है ‘मधु कांकरिया के कथा साहित्य में राष्ट्रबोध एवं परिवार बोध’। इसी क्रम में मैं परिवार नामक संस्था के बारे में आपके विचार जानना चाहती हूं।
मधु जी - मैं यह मानती हूं कि मुक्ति कभी भी अकेले की संभव नहीं है। आज हम स्त्रियाँ मुक्त हो जाए तो पति तो हमें उसी समाज से ढूंढना पड़ेगा न? समाज का जो एक बेसिक ढांचा है उसे ऊपर उठाना होगा। एक दकियानूसी समाज महिलाओं को कभी भी आजादी देगा ही नहीं जिसकी वे हकदार हैं। तो मानव मुक्ति की बात मैं करती हूं और आज जिस प्रकार से सत्ता या व्यवस्था अमानवीय और क्रूर हो रही है। आज आप देखो आप अपने घर में क्या खाओगे? कैसी हवा में सांस लोगे? वह भी सत्ता और राजनीति निश्चित करती है। मैं यह जरूर मानती हूँ कि हममें राजनीतिक चेतना होनी चाहिए। पुरुष और स्त्री को मिलकर अमानवीय सत्ता का मुकाबला करना चाहिए। मैं पुरुष को दुश्मन मानती ही नहीं हूँ। आज आप देख लीजिए कि आपके हाथ में सत्ता है तो आप भी उतनी ही निरंकुश हो जाएंगी। तो मैं इस प्रकार कभी भी नारी विमर्श की बात नहीं करती हूं। मैं समय विमर्श की, सभ्यता विमर्श की बात करती हूं। मैं यह कहती हूं कि जहां भी एक निर्बल है और दूसरे हाथ में ताकत है तो वह निरंकुश होगा। तो जरूरी है - संतुलन। स्त्री पुरुष के बीच में सत्ता का संतुलन हो। मैं कहीं कहना नहीं चाहती हूं कि पुरुष और स्त्री के बीच में कहीं झगड़ा है। यह एक तरफ से शक्तिशाली लोग हैं और दूसरी तरफ जो शक्तिहीन लोग हैं उनका झगड़ा है।
वर्षा - 'सलाम आखिरी' उपन्यास में आपने वेश्यावृत्ति के संपूर्ण परिदृश्य का मार्मिक चित्रण किया है। उनके जीवन को नजदीकी से समझने के लिए आपको उन गलियों में भी खूब भटकना पड़ा है। मैं जानना चाहती हूं कि आप पहली बार इन गलियों में कब, कैसे और किसके माध्यम से पहुँच पाई और जब आपने पहली बार वहाँ किसी स्त्री से बात की तो आपने किस प्रकार शुरुआत की होगी ? किस प्रकार की मानसिक जद्दोजहद का सामना आपको करना पड़ा होगा? मैं आपके थोड़े से अनुभव जानना चाहती हूँ।
मधु जी - पहली बात तो मैं यह समझ गई थी कि यदि आपको वेश्याओं से बात करनी है तो आपको उनके लेवल पर उतरना पड़ेगा ताकि वह आपको अपना माने। आप अपने आप को एलिट क्लास का दिखाकर वहाँ नहीं जा सकते। तो मैं अपने आप को डी क्लास कर सकती थी। मैं बिल्कुल साधारण वेशभूषा में जाती थी। वहाँ बैठकर आप उनसे तुरंत बात नहीं कर सकते। कईं-कईं सिटिंग में बात करना होता है। धीरे-धीरे उनका मन लेना, विश्वास दिलाना होता है। एक ने कहा कि आप मेरी फोटो छाप दोगे, नाम छाप दोगे। मैंने कहा कि देखो मेरे पास कैमरा भी नहीं है। मैं चाहती हूँ कि वेश्याओं के लिए कुछ हो। इस प्रकार धीरे-धीरे मैं बात करती थी। एक बार तो एक वेश्या उत्तेजित भी हो गई थी। उसने कहा कि आप मेरा नाम छाप दोगे। तो बात यह है कि जो इज्जत बेच कर खा रही है उसके अंदर भी इज्जत का ही डर है। वह नहीं चाहती थी कि उसका नाम आए क्योंकि उसके परिवार वालों को और मां-बाप को नहीं पता था वह वेश्यावृत्ति कर रही है। कुछ तो ऐसी थीं जो अपनी बच्चियों को हॉस्टल में रखती थी और बड़ी उच्च किस्म की महिलाएँ दिखाती थी जो परिवार के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा रही थी। कुछ तो पति की नॉलेज में करती थी लेकिन वह अपनी बच्चियों को हॉस्टल में रखती थी ताकि वह ऐसे एनवायरमेंट में ना रहे। उनमें से अधिकांश 80% तो मेरिड थी।
चन्द्रकान्ता जी – ऐसी क्या विवशता थी उन महिलाओं की?
मधु जी - भुखमरी, पति कमाते नहीं है, उनके पास बेकारी है, बेरोजगारी है।
चन्द्रकान्ता जी – जो अपने बच्चों को हॉस्टल में रख सकती है। फिर और भी आजीविका के अनेक साधन है तो वह क्यों ऐसी आजीविका की शिकार होती है?
मधु जी - उनमें से एक लड़की थी; मुझे कोठे की मालकिन ने ही बताया कि जब उसे कोठे पर लेकर आए तो शुरू-शुरू में वह छुप जाती थी कभी परदे के पीछे तो कभी सोफे के नीचे। फिर धीरे-धीरे उसकी मालकिन ने उसे प्रोत्साहित किया कि देखो तुम एक बार हमारे यहाँ आ गई हो तो अब तुम्हें कोई नहीं अपनाएगा इसलिए अब तुम कुछ कमाकर खाओ। वह अपने बारे में कहती थी कि हम तो खराब हो गई हैं। उनकी ऐसी मानसिकता बना दी जाती है और पहली बार कोई भी वेश्यावृति को अपनी इच्छा से नहीं चुनती। मैंने जिनसे भी बात की उनमें से किसी को तो कोई नौकरी के लिए लेकर आ गया। मैंने बांग्लादेश और ढाका में देखा कि नौकरी का झांसा देकर ले आते हैं, कईं लोग शादी का झांसा देकर ले आते हैं , प्रेम का झांसा देकर ले आते हैं। फिर यदि एक बार वह वेश्याओं के एरिया में चली गई तो फिर उन्हें लगता है कि अब ना तो पति मिलेगा ना प्रेमी मिलेगा इससे तो अच्छा है कि अब मैं यही करूँ। जो बहुत ही गरीबी से लाचार हो गई है, खाने के लाले पड़ गए हैं तो फिर जो सामने आ रहा है , जो मौका मिल रहा है उसी से फायदा उठाती है। नौकरी तो मिलेगी तब मिलेगी। कभी-कभी तो पति ही ले आते हैं ग्राहक। जब भुखमरी कगार पे हो तब पति ही ग्राहक ले आया , पति बाहर खड़ा है और वो वेश्यावृत्ति कर रही है। तो क्या करोगे आप?
चन्द्रकान्ता जी – उस स्त्री की छटपटाहट का क्या ?
मधु जी - लिखा है मैंने। देखिए, आप जो एकदम मुर्दा है वहाँ आप प्रेम ढूँढने जा रहे हैं। जो एकदम मुर्दा शरीर है कोई उत्तेजना नहीं, उससे आप सेक्स की माँग कर रहे हो। यह सारे प्रश्न उठाए हैं मैंने। जो सेक्स वर्कर यह माँग कर रही है कि इसे भी एक वर्क का दर्जा दिया जाए तो फिर तो इस समस्या का अंत ही नहीं होगा। यह कैसा श्रम है जिसमें पसीना ना हो। मान लीजिए कि यदि हम कहते हैं कि यह हमारा श्रम है तो श्रम के माध्यम से तो हम उत्पादन बढ़ाते हैं तो यह कैसा श्रम है? क्या इसके माध्यम से हम और वेश्याएं पैदा करेंगे? सबसे जरूरी है कि आप महिलाओं को जागरूक बनाएँ उनके पाँव पर खड़ा करें, उनमें एक चेतना हो। सबसे जरूरी है वीमेन एजुकेशन।
वर्षा - इस उपन्यास के अंत में आपने इसके दूसरे भाग को लिखने का संकेत भी दिया है तो क्या आप इसका दूसरा भाग लिखना चाहेंगी या लिखेंगी?
मधु जी - पता नहीं। अभी इस बारे में मैं कुछ नहीं कह सकती।
वर्षा - आपने अपने उपन्यास ‘पत्ताखोर’ में नशे के तीन मुख्य कारण बताए हैं :- अकेलापन, अवसाद और बेरोजगारी। वर्तमान एकल परिवारों में जहाँ पति पत्नी दोनों नौकरीपेशा है उनके बच्चे भटकाव का शिकार ना हो इसके लिए आप हमें क्या सुझाव देना चाहेंगी।
मधु जी - मैं यह हमेशा कहती हूं कि आप वर्तमान की उपेक्षा करके भविष्य को नहीं बना सकते। आजकल महिलाओं को लगता है कि यदि हम नौकरी नहीं करेंगे तो हम आजादी का उपभोग नहीं कर पाएंगे या हम नौकरी नहीं करेंगे तो हमें कोई इज्जत नही मिलेगी। वह आधुनिकता और स्त्री समानता को पुरुषों के मापदंडों से देखती है। उस चक्कर में क्या होता है कि जब पति-पत्नी दोनों ही नौकरी पर जा रहे हैं तो बच्चे किसके हवाले होंगे। मैंने जितने भी केस देखे हैं उनमें बच्चे दर्द के शिकार हो रहे हैं। पूरी पहाड़ सी दोपहरी और अकेलेपन के कारण बच्चे गलत संगत के असर में आ जाते हैं। उन्हें पता भी नहीं होता कि वह क्या कर रहे हैं। पहली बार जब ड्रग्स लेते हैं तो मजा मिलता है फिर जिंदगी भर वह उसी मजे को ढूंढते हैं। लेकिन होता क्या है कि जो ड्रग्स है - ब्राउन शुगर, हेरोइन आदि, यह इस प्रकार से आपकी बॉडी को अट्रैक्ट करते हैं कि दोबारा आप उसे लिए बिना नॉर्मल नहीं हो सकते। फिर आपको विड्रोल के सिंपटम्स आने लग जाएंगे। इसलिए मैंने उसमें यही लिखा है कि जब पति-पत्नी दोनों ही पास ना हो तो बच्चा किस प्रकार से इसका शिकार हो जाता है और उन्हें पता भी नहीं लगता है और जब तक उन्हें पता लगता है तब तक वह ड्रग्स का एडिक्ट हो चुका होता है।
जीवन में संतुलन बहुत जरूरी होता है। आप बच्चे को लेकर आए हैं इस संसार में तो यह आपका दायित्व है कि आप अपने बच्चों को सही गाइडेंस दे। सबसे बड़ी बात यह है कि आजकल जॉइंट फैमिली टूट रही है। मैं यह मानती हूँ कि बच्चों की जिम्मेदारी महिलाएँ ही ज्यादा उठाती है। बच्चा माँ के संपर्क में ही ज्यादा रहता है और उससे ही ज्यादा प्रभावित होता है। आज जब महिलाएँ नौकरी कर रही है तो हो क्या रहा है कि वह बॉस की फुल टाइम है, पति की हाफ टाइम है, बच्चों की पार्ट टाइम है। यह बहुत बड़ी विडंबना है। यदि आपको बच्चों के भविष्य की कीमत से अपना वर्तमान सुधारना है तो मुझे यह स्त्री स्वाधीनता नहीं लगती। मैं यह मानती हूं कि थोड़ा विवेक, थोड़ा संतुलन होना चाहिए।
चन्द्रकान्ता जी - संयुक्त परिवार तो खत्म ही हो रहे हैं एकल परिवार में भी अब सिंगल चाइल्ड का जो चलन हो रहा है तो इस चलन को भी तोड़ना होगा। सिंगल चाइल्ड इतना अकेला होता है कि वह किसी से नहीं लड़ता वह अन्ततोगत्वा अपने आप से ही लड़ता है। और वह बिखर जाता है। छोटे बच्चों का मन बहुत नाजुक होता है। बचपन में जो बच्चे ने खोया है उसी की प्रतिक्रिया हमें उसके भविष्य में देखने को मिलती है।
मधु जी - एक वाकया सुनाती हूँ। मैं एक बच्चे को हिंदी पढ़ाने जाती थी। मैंने उस बच्चे को कहा कि तुम एक वाक्य बनाओ मौत के ऊपर। तो उस बच्चे ने वाक्य बनाया कि मेरी माँ मरने वाली है। मैंने पूछा कि तेरी माँ तो बहुत हेल्दी है तूने ऐसा क्यों लिखा। तब उसकी माँ ने बताया कि मैं बाहर जाती हूँ वह इसे बिल्कुल पसंद नहीं। बच्चे इसी प्रकार अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हैं।
चन्द्रकान्ता जी - अभी एक ऐसे ही अवसर पर मुझे बच्चों को मोटिवेशनल स्पीच देने के लिए पैरेंट्स टीचर मीटिंग में बुलाया गया। मैंने बच्चों से सामान्य गुफ्तगू की। वहाँ बच्चे बिल्कुल स्पष्ट भाषा में बोल रहे थे कि हमें ऑफलाइन माँ चाहिए। वहाँ बच्चों ने मुझे मैडम कहकर संबोधित नहीं किया, आंटी कहकर बुलाया। हम बच्चों को पैदा होते ही इतना सिखा देना चाहते हैं कि वह आसमान ही छू ले। यह आज की पीढ़ी का ज्वलंत प्रश्न है कि हम उनका IQ तो बढ़ा रहे हैं लेकिन EQ कम होता जा रहा है जो कि सामाजिक संरक्षण के लिए अति आवश्यक है। मैं चाहती हूं कि आप जैसी लेखिका जो परिवार, समाज से संबंधित इतना महत्वपूर्ण लेखन करती है आपकी आगामी रचनाएँ इन समस्याओं का भी समाधान प्रस्तुत करें।
मधु जी - आजकल हम बच्चों को केवल इनफार्मेशन दे रहे हैं। मेरी पोती है उसको पता है कि रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण किया। इतने छोटे बच्चों को इतनी इनफॉरमेशन की जरूरत ही कहाँ है? आप बताइए कि हम जो इतनी इनफॉरमेशन बच्चों को दे रहे हैं क्या कोई भी एक सामाजिक एक्टिविटी पैदा की है हमने? जो सहज प्रतिभा होती है, बुद्धि होती है वह अलग है जो उनकी कल्पनाशीलता से आती है। मैं देखती हूँ कि एक 6 साल के बच्चे को उसकी माँ दिन भर कभी उस क्लास में ले जा रही है, कभी इस क्लास में। सारी इनफार्मेशन उसके दिमाग में ठूँस रहे हैं और जो समय उसका बचता है उसमें टीवी, नेट सब कुछ है। कल्पनाशीलता के लिए जगह कहाँ बचती है? हमारे पास कहाँ इतनी इनफॉरमेशन रहती थी लेकिन एक सहज, स्वाभाविक बुद्धि थी, सोचने का अपना ढंग था कल्पना थी।
चन्द्रकान्ता जी - बिल्कुल यह वर्तमान का एक ज्वलंत प्रश्न है। मोबाईल, ट्विटर , फेसबुक इत्यादि सूचना का नहीं हस्तक्षेप का साधन बन गया है। आपकी एक कहानी भी है ‘बुलंद हस्तियों के बीच एक शाम’। उसमें वह बच्चा इन भौतिक सुख सुविधाओं के बीच बिल्कुल असुरक्षित महसूस करने लगता है।
मधु जी - आजकल की माएँ बच्चों को सब कुछ दे रही है। वह समय की भरपाई पैसों से, सुख सुविधाओं से कर रही है। लेकिन बच्चों को तो माँ चाहिए।
चन्द्रकान्ता जी - बिल्कुल सही माँ का विकल्प कोई नहीं होता। महत्वाकांक्षा और अति महत्वाकांक्षा के मध्य एक बैरियर बनाना जरूरी है।
वर्षा - आपके लगभग सारे उपन्यासों के पात्र जीवंत एवं वास्तविक है। आपके हाल ही में प्रकाशित उपन्यास ‘ढलती साँझ का सूरज’ के पात्र अविनाश के बारे में कुछ बताइए जो 20 वर्षों बाद स्विट्जरलैंड से अपने देश अपनी माँ से मिलने आता है और अपनी माँ की खोज के साथ-साथ अपने जीवन की सार्थकता, अर्थवत्ता एवं लक्ष्य की खोज करता है।
मधु जी - मैं स्विट्जरलैंड गई थी वहाँ मैंने देखा कि आत्महत्याएँ बहुत हो रही है। मुंबई भी गई थी। वहाँ किसान आत्महत्या कर रहे थे। फिर दिमाग में आया कि क्या दोनों आत्महत्या में कोई संबंध है या अंतर है? वहाँ लोग आत्महत्या कर रहे हैं क्योंकि वहाँ बहुत सुख है। वहाँ जीवन के रंग बहुत ज्यादा चटकीले है। जब जीवन में बहुत ज्यादा रंग होते हैं तब भी जीवन बेरंग हो जाता है। वहाँ आत्महत्या व्यक्ति का स्वयं का चुनाव है और यहाँ व्यवस्था की देन है क्योंकि यहाँ किसानों का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है। वह लड़का अविनाश आता है 20 साल बाद स्विट्जरलैंड से भारत। वह अपनी माँ की खोज करता है। दूसरे शब्दों में कहे तो वह भारत की ही खोज करता है। उसकी माँ मर जाती है तब उसे लगता है कि वह भारत मर रहा है जिसे वह छोड़कर गया था। फिर वह अपनी माँ को किसानों में पाता है क्योंकि उसकी माँ भी किसान थी। वह किसानों के उद्धार में लग जाता है।
चन्द्रकान्ता जी - यह एक कड़ी है। आपने समाधान दिया है उस बच्चे को भारत लाकर और वापस अपनी भारत माँ से मिलवाकर। यहीं आपका साहित्य परिपक्व होता है। यहीं हमारे शोध का विषय राष्ट्रबोध हमें मिलता है।
मधु जी - अविनाश स्विट्जरलैंड जाता है 1989 में। तब तक भूमंडलीकरण या नव उदारवादी व्यवस्था की शुरुआत नहीं हुई थी। तब तक ग्लोबलाइजेशन नहीं हुआ था और जब वह लौट कर आता है तब तक भूमंडलीकरण का एक दौर पूरा हो चुका होता है। वह देखता है कि जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था है, ग्रामीण संस्कृति है, वह मर चुकी है। वह देश भी मर रहा है जिसे वह छोड़कर गया था।
चन्द्रकान्ता जी - वह अपने परिवार को छोड़कर जाता है और पुन: आकर राष्ट्र को ही अपना परिवार बना लेता है।इस प्रकार वह बड़े परिवार का हिस्सा बन जाता है। यह उपन्यास परिवार बोध को राष्ट्रबोध में परिवर्तित करने का एक सुंदर उपक्रम है।
मधु जी - उस समय लोग दनादन विदेश जा रहे थे तब मेरे मन में था कि मैं कुछ ऐसा लिखूँ जिससे बच्चे अपने देश में रुचि ले।
वर्षा - क्या 20 वर्षों के बाद स्विट्जरलैंड से भारत लौटे अविनाश की अपनी माँ को खोजने की यात्रा स्वयं को खोजने के साथ-साथ भारत माता को खोजने की अंतः यात्रा भी कहीं जा सकती है ?
मधु जी - जी बिल्कुल।
वर्षा - ‘चूहे को चूहा ही रहने दो’ शीर्षक कहानी की नायिका अपने शंकालु पति के व्यवहार से पीड़ित होकर गैंगटोक की यात्रा के दौरान किसी सैलानी से दोस्ती करती है और इसके बाद वह उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने की दिशा में भी आगे बढ़ती है परंतु चरमोत्कर्ष के क्षणों में वह स्वयं को उस ऐंद्रिक जाल से मुक्त कर लेती है और कहती है कि “बस…. इससे आगे बढ़ना मेरे एजेंडा में नहीं था। आज की रात मेरे प्रतिशोध की रात थी।” उस नायिका द्वारा लिए गए इस प्रकार के प्रतिशोध के बारे में आपकी क्या राय है ?
मधु जी - राय तो कुछ नही है। उसके पति को लगता था कि उसके शरीर पर भी मेरा हक है इसलिए वह शरीर को ही प्रतिशोध का साधन बनाती है। वह दिखाना चाहती है कि ठीक है तुम मुझे पाकीजा रखना चाहते हो तो अब देखो मैं कितनी पाकीज़ा हूँ। अंत तक आते-आते फिर भी वह चरमोत्कर्ष तक नहीं पहुंच पाती है। स्त्री मन का जो द्वंद है, अंतर्द्वंद है, बदलता अंतःकरण है, उसमें जो भारतीय संस्कार है, जो जद्दोजहद है, थोड़ी हाँ भी है, थोड़ी ना भी है, थोड़ा पति से घृणा भी करती है, कुछ उसके अपने संस्कार भी है । वह अपनी देह को प्रतिशोध का माध्यम बनाती है फिर नहीं भी बना पाती है। इस प्रकार इसमें स्त्री मन का चित्रण है। जीवन ऐसा ही है। इसमें आप कुछ भी निर्णय नहीं ले सकते। कभी दो कदम आगे … तो कभी तीन कदम पीछे। बस इन सभी का मिला-जुला रूप है यह कहानी।
वर्षा - आपके कथा साहित्य में राजस्थान के परिवेश का चित्रण भी आया है। मैं यह जानना चाहती हूँ कि राजस्थान से आपका कैसा और क्या संबंध है?
मधु जी - राजस्थान से ही हम निकले हैं। हम मूलतः राजस्थान के ही हैं। हमारी एक पीढ़ी जोबनेर जयपुर से निकल कर ही कोलकाता गई। आज भी हमारे सारे सगे संबंधी राजस्थान में ही है। कई बार मुझे लगता है कि मैं बंगाल की हूँ या झारखंड की हूँ या महाराष्ट्र की। राजस्थान तो मेरा पैतृक राज्य है। सारे राज्य मेरे अंदर घूमते रहते हैं। मुझे नहीं पता चलता कि मैं कहाँ की हूँ ?
चन्द्रकान्ता जी - भारतीयता के संदर्भ में आपका जो लेखन है वह क्षेत्रीयता को कहीं पीछे छोड़ता है। भारतीय मूल का जो भाव है वह आपके साहित्य के केंद्र में भी है और आज की हमारी चर्चा के केंद्र में भी।
वर्षा - मैं आपकी कहानी ‘विरासत’ के बारे में भी बात करना चाहूंगी। इस कहानी की नायिका दीपा, कुलभूषण नामक शादीशुदा पुरुष से प्रेम करती है लेकिन वह उसे धोखा देकर अपनी पत्नी और पुत्रियों के पास वापस चला जाता है और यही इतिहास उसकी पुत्री आभा के साथ भी पुनः दोहराया जाता है। आज हमें ऐसी घटनाएं अपने आसपास देखने को मिलती है। आप ऐसी स्त्रियों और पुरुषों बारे में क्या कहना चाहेंगी ?
चन्द्रकान्ता जी - यह कहानी शाश्वत सत्य का दर्शन करती है। मनुष्य क्षण में जीता है। जब वह अपनी प्रेमिका के साथ होता है तब वह सोचता है कि यही सत्य है और जब वहाँ से अपने परिवार में लौट कर आता है तो वहाँ लगता है कि यही सच है।
मधु जी - जहाँ बेसिक स्ट्रांग नहीं होती है वहीं भटकन ज्यादा होती है। एक बार बेसिक स्ट्रांग हो जाएगी कि यही मेरा जीवन है। बाकी दिल तो है कि अंत तक भी आप किसी के प्रति चाहत फील करते रहोगे। एक सच्चाई यह भी है कि जीवन में सब कुछ मिले और एक से ही मिले यह संभव नहीं है लेकिन इंसान और जानवर में यही अंतर है कि इंसान के पास विवेक है। एनिमल कांट अवॉइड सेक्स बट आदमी कर सकता है क्योंकि उसको ईश्वर ने विवेक दिया है। अंत में मैं यही कहूँगी कि भटकन तो आती है जिंदगी में क्योंकि ईश्वर ने मन भी ऐसा ही दिया है। आपको कोई अच्छा लग सकता है। कई लोग हमें मिलते हैं , पसंद भी आते हैं, मित्रता भी होती है परंतु सीमा रेखा भी हमें निर्धारित करनी पड़ेगी। मैं हर विवाहिता को कहती हूँ कि अपने घर की खिड़की खुली रखिए क्योंकि आपको दुनिया को तो देखना ही है परंतु उसमें से आने वाली हवा को अंधड़ मत बनने दीजिए। आपका अपना विवेक भी रखिए। मान लीजिए कि आपके पति किसी दूसरी रुचि के हो और आप साहित्यिक रुचि के हैं। आपके मित्र हो सकते हैं जो कविता लिख रहे हैं या और कुछ कर रहे हैं। उसमें कोई असुविधा नहीं है और उसमें कोई बुराई भी नहीं है। आप उनके प्रति आकर्षित भी हो सकते हैं लेकिन एक सीमा रेखा आपको तय करनी होगी जिससे कि आपका घर भी बचा रहे है और दिमाग भी ऊर्जावान रहे।
वर्षा - अपनी इन दिनों की सामाजिक सक्रियता के बारे में कुछ बताइए।
मधु जी - अब इसके बारे में मैं क्या बताऊँ? देखिए लेखक को यदि समृद्ध है तो सामाजिक कार्य करने ही चाहिए। लौटाना ही चाहिए समाज को। जब मेरा बच्चा पढ़ लिख कर बड़ा हो गया तब मेरे मन में आया कि अपने बच्चों को तो सभी पढ़ाते हैं मैं समाज के बच्चों को पढ़ाऊँ। तब मेरे बेटे के मुँह से निकला कि तुम एक नहीं कईं बच्चों को पढ़ाओगी। जब मैंने पूछा कि यह कैसे हो सकता है ? तब हम दोनों ने सोचा कि मैं एक स्कूल खोलूँगी बच्चों के लिए। तब इतना पैसा तो था नहीं मेरे पास। संयोग ऐसा था कि एक बच्चा आता था मेरे पास खाना लेकर। मैंने सोचा कि स्कूल के समय में यह मेरा खाना लेकर आ रहा है। तो पता चला कि पिताजी का बिजनेस डाउन हो गया तो उसकी माँ कैटरिंग कर रही है। मन में था कि इस बच्चे का कुछ करूँ। खुद के पास तो पैसे थे नहीं। मेरा कजिन इंग्लैंड में था उससे मांगा मैंने। तो उसने दो बच्चों का खर्चा दे दिया। तो एक बच्चे का एक्स्ट्रा पैसा तो मुझे बैंक में जमा करवाना था। तब मैंने सोचा कि एक अकाउंट खोलते हैं। तब मैनेजर ने कहा कि ऐसे अकाउंट नहीं खुलता हैं। आपको रजिस्ट्रेशन करवाना पड़ेगा। इस चक्कर में मैं रजिस्ट्रेशन करवाने गई और रजिस्ट्रेशन भी हो गया। जो भी एक्स्ट्रा पैसे थे मैं उसमें डालती गई। फिर मैं किसी से डोनेशन मांगने गई थी तो उन्होंने कहा कि मैं डोनेशन तो दे दूंगा लेकिन तुम पहले 80G करवाओ 80G मतलब गवर्नमेंट एक सर्टिफिकेट देती है जिससे आयकर में छूट मिलती है। उस चक्कर में 80G हो गया। फिर उसके बाद बच्चे जुड़ते गए। अपने दोस्त जुड़ते गए और डोनेशन मिलने लगा। मैंने स्कूल खोली कोलकाता में 89 स्टूडेंट है, तीन क्लासरूम है, तीन टीचर भी है। बच्चों को स्नेक्स भी देते हैं।
वर्षा- बहुत अच्छा काम कर रही हैं आप। आपने हमें समय दिया, इसके लिए बहुत शुक्रिया। आपकी सामाजिक सक्रियता, रचनात्मकता और स्वास्थ्य उत्तम बना रहे। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ फिर से धन्यवाद।
चंद्रकांता जी- धन्यवाद!
मधु जी- मुझे भी आप दोनों से मिलकर अच्छा लगा।
वर्षा सिखवाल
सहायक आचार्य (हिन्दी), से.मु.मा.राजकीय कन्या महाविद्यालय भीलवाड़ा।
varshasikhwal1992@gmail.com, 9079274224
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र दीपक चंदवानी
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