समय के बही-खाते में दर्ज स्मृतियों का एक पन्ना…
- शची सिंह
जीवन के विभिन्न पड़ावों को पार करते हुए सघन स्मृतियों का कोष हमारे भीतर जमा होता जाता है, जहाँ जीवन के विकसित होने, बनने के बीज छुपे रहते हैं। मेरे बचपन की यादों में नानी का घर और स्कूल में बिताए दिनों की आनंददायक स्मृतियां हैं तो युवावस्था में गुरुवर डॉ. विमल के साथ शोधकार्य करते समय की सुखद स्मृतियां हैं।
एम.ए. करने के बाद मां की इच्छा थी कि बी.एड. नहीं कुछ और करो; इधर मेरे मन में भी अपने पैरों पर खड़े होने प्रबल इच्छा थी। तभी किसी परिचित ने पीएचडी करने का सुझाव दिया। यह अनुकूल लगा क्योंकि घरेलू परिस्तिथियों के कारण जोधपुर से बाहर जाना संभव नहीं था। अब शोध किस के साथ करूं? ये नई समस्या आ गई। नब्बे के दशक में आज की तरह कोई परीक्षा नहीं होती थी, ना ही शोध निर्देशक का आवंटन होता था। सब कुछ विभाग के अध्यापक की स्वीकृति पर ही निर्भर होता था। एम.ए. के दिनों से ही विमल सर हम सब के प्रिय अध्यापक थे तो मैंने उनके साथ कार्य करने का मन बनाया। मुझे याद है बहुत साहस कर मैंने सकुचाते हुए जब सर से शोध करवाने हेतु पूछा तो उन्होंने हंसते हुए सहज ही अपनी सहमति दे दी। संयोगवश सर के पास कुछ दिन पूर्व ही एक स्थान रिक्त हुआ था। इस तरह डॉ. विमल के साथ कार्य करने वाले शोधार्थियों की सूची में मेरा नाम भी अंत में जुड़ गया। सर के निर्देशन में शोध करते हुए लगभग एक वर्ष ही बीता था कि पश्चिमी बंगाल के बर्दवान विश्वविद्यालय में सर को ससम्मान प्रोफेसर पद पर नियुक्ति मिली। इस कारण मुझे अन्य शोधार्थियों की तुलना में सर का साथ काम करने का समय कम मिला, लेकिन थोड़े में बहुत कुछ पाया यह मेरा सौभाग्य था। काम के सिलसिले में सर बहुत अनुशासन प्रिय थे। सर के समक्ष हम पूरी तैयारी के साथ किया हुआ काम लेकर ही जाते थे क्योंकि गलती होने या लापरवाही करने पर धीमे शब्दों में जो कहा जाता वह हमें डांट से भी ज्यादा लगता था। परन्तु जो भी बेहतर कार्य करता उसे शाबाशी मिलती।
सर के साथ कार्य करते हुए उनके व्यक्तित्व को निकट से जानने-समझने का अवसर मिला। एम.ए. की कक्षाओं में पढ़ते समय मर्यादा या संकोच के कारण जो एक दूरी रहती थी वह मुझ में भी थी लेकिन रिसर्च के दौरान धीरे-धीरे सर के आत्मीय व्यवहार से मैं भी डॉक्टर विमल के गुरुकुल या कहें परिवार का हिस्सा बन गई। सर के व्यक्तित्व की अद्भुत बात यह थी कि जो भी उनके निकट आता उन्हीं का हो जाता। मजेदार बात यह थी कि आप के स्वतंत्र विचार और जीवन शैली से ईर्ष्या रखने वाले या विरोध प्रकट करने वाले सहायता मांगने आपके पास आते थे और आप सब जान कर भी अनजान बने रहते। विश्वविद्यालय के छोटे से लेकर बड़े कर्मचारियों व शिक्षकों और विद्यार्थियों से ले कर शहर की मजदूर यूनियन के लोगों के बीच आप समान रूप से लोकप्रिय रहे। आपकी विद्वता और व्यवहार के कारण ही विश्वविद्यालय के कला, विज्ञान, लॉ, तकनीकी संकायों के विद्यार्थी भी नि:संकोच अपनी जिज्ञासा को लेकर आपके निकट आते थे। यह बात हम सब जानते हैं कि राजस्थान पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से लेकर संयम लोढ़ा तक आप के प्रति सम्मान का भाव रखते हैं।
समाजवादी विचारों के हिमायती सर ने सदैव सादा जीवन और उच्च विचार वाली शैली में जीवन जिया। जोधपुर विश्वविद्यालय के क्वार्टर में रहते समय सर के पास कमरे में दो तख्त, कुछ कुर्सियां, खाने की टेबल और विलासिता के नाम पर मात्र एक फ्रिज था। बाकी पुस्तकों से ही पूरा घर सुसज्जित था। मैं जब पहली बार सर के घर पढ़ने गई तो दो चीजों की ओर विशेष ध्यान गया। एक, घर की दीवारें एकदम खाली थीं, कोई चित्र या सजावट नहीं थी। ऐसे घर को देखने का मेरा पहला अनुभव था। दूसरा, करीने से लगी रसोई में लाल मिर्च जैसी कोई चीज नहीं थी। बिना रंगरूप वाली स्वादहीन सब्जी भला कोई कैसे खाता होगा, मेरे मारवाड़ी मिर्चीबड़ा प्रेमी मन के लिए यह कल्पना करना कठिन था। सर के परिवार के सदस्य जयपुर और कानपुर में रहते थे अतः अधिकांश समय सर यहाँ अकेले ही रहते। पोकरण से पढ़ने आया गोवर्धन साथ रहता था लेकिन सर अपना भोजन स्वयं बनाते थे। एक दिन जब आपके हाथों से बनी दाल, चावल के साथ भुनी सब्जी का स्वाद लिया तो मेरी सारी धारणा ध्वस्त हो गई। मैं, संध्या दी, माला दी... पुस्तकालय से दोपहर में जब सर के पास जाते तो हमें बहुत स्नेह से बनी स्वादिष्ट खीर खाने को मिलती थी। जहाँ हमारे अन्य मित्र अपने शोध निर्देशकों के साथ के कटु अनुभवों को दुखी हो कर सुनाते तब ममत्व से भरे प्रगतिशील गुरु के प्रति हमारा मन अधिक श्रद्धा से भर जाता।
विमल सर को यात्रा करना बहुत पसंद था। कमरे में स्टूल पर जब अटैची दिखाई पड़ती तो सब समझ जाते कि बाहर जाने का कार्यक्रम बन गया है। वे लगभग हर महीने जोधपुर से बाहर यात्रा पर जाते थे। राजस्थान से लेकर उत्तरप्रदेश तक साहित्यिक मित्रों के साथ निरंतर गोष्ठियों में सक्रिय रहते। मधुमती के संपादक डॉ. प्रकाश आतुर, संस्कृत पुरातत्व के विद्वान सोहनलाल पटनी, लोककला मर्मज्ञ जीवन सिंह, कवि हरीश भादानी, मदन डागा आदि मित्रों से उनका निरंतर जुड़ाव बना रहा। जब दोपहर में शोध चर्चा करते तब वे कई साहित्यकारों के संस्मरण सुनाते। अज्ञेय और नामवर सिंह जी ने तो थोड़े समय के लिए जोधपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन भी किया था। अज्ञेय के मौन व औदात्य और नामवर जी द्वारा जब पाठ्यक्रम में शानी के ‘काला जल’ उपन्यास को सम्मिलित किया गया तो बहुत विरोध हंगामा हुआ उस समय की घटनाओं को सुनाते, कभी दर्शन के गूढ़ रहस्यों को सरलता से समझाते, किसी कविता का पाठ करते या हमारे आग्रह पर कनुप्रिया का ऐसा सुंदर वाचन करते कि सब रसमग्न हो जाते। तब एक-एक शब्द स्वतः ध्वनित होता सुनाई पड़ता। विद्यापति आप के प्रिय कवि थे, प्रायः उनके पद गुनगुनाते रहते। आप की आवाज को रिकॉर्ड ना कर पाने का मलाल हमें आज भी है। सबके साथ बैठने का यह आनंद और बढ़ जाता जब छुट्टी में पुरानी शिष्य मंडली आईदान जी, हरिदास जी, मधुलिका जी, शकुंतला जी आदि का जमावड़ा होता... तब एक से एक पुराने किस्से सुनने को मिलते। आईदान जी की कविता और बतरस में बैठ जाते तो समय का पता ही नहीं चलता। सर का नाता अपने शिष्यों से ही नहीं बल्कि उनके परिवार से भी गहरा जुड़ा रहा है। मेरे परिवार में सभी रिश्तेदार सर से परिचित हैं। सब के परिवार में सुख-दुख के क्षणों में सर साथ रहे हैं। मुझे याद है मेरे छोटे भाई का एक्सीडेंट हो गया था और उसे सिर में चोट आई थी। इस कारण मैं शोध कार्य में समय नहीं दे पा रही थी। आप इस मुश्किल वक्त में हमारे साथ खड़े रहे और बाद में अवकाश में अतिरिक्त समय दे कर नियत समय पर शोध कार्य पूर्ण करवाया। जीवन में आज जो कुछ पाया है उसमें सब से बड़ा दाय सर का है, यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है। सर ने अपने शिष्यों से निरंतर प्रगति करने के अतिरिक्त कोई मांग नहीं रखी और तो और वायवा लेने जब कोई आता तो उनके लिए भी किसी प्रकार की अतिरिक्त व्यवस्था से इंकार कर देते। ऐसे गुरु का मिलना जीवन की सब से बड़ी निधि है।
आपकी आकांक्षा के अनुरूप हम जीवन में कुछ कर पाएं यही कोशिश रहती है। आपके गुरुकुल से पाए संस्कार के बीज हम अपने विद्यार्थियों-शोधार्थियों में रोप सकें इसकी कोशिश रहती है। रिसर्च की दुनिया में जहाँ अधिकतर शोधार्थियों के अपने गाइड के साथ कटु अनुभव रहते हैं, हम कोशिश करते हैं कि अपने शोधार्थियों को आप जैसा नहीं तो कम से कम उसका कुछ हिस्सा भर स्नेह दे सकें। असली सुख संबंध में निहित है, आपकी इस सीख को गांठ बांधे हम निरंतर इसी कोशिश में रहते हैं कि अपने विद्यार्थियों-शोधार्थियों को इस बात के लिए प्रेरित कर सकें कि वे अपने विद्यार्थियों-शोधार्थियों के साथ स्नेह-संबंध का निर्वाह करें। विमल सर से जुड़े हुए लगभग तीस वर्ष से अधिक का समय हो आया है पर लगता है कल की ही तो बात है। लेकिन समय रुकता कहां है? अतीत स्मृति बन कौंधता रहता है। जोधपुर में सर के अधीन लगभग पंद्रह से बीस शोधार्थियों ने डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है। सर के प्रति सभी की अपनी-अपनी श्रद्धा भावना है। मैंने विमल सर के जोधपुर प्रवास की यादों को कुछ शब्दों में व्यक्त करने की एक अदद कोशिश की है। मुझे और सर का सान्निध्य पाए लोगों को पता है कि एक संस्मरण में उनके बहुआयामी गहन व्यक्तित्व को लिखना मुश्किल काम है लेकिन समय के बही-खाते में मेरे हिस्से में जो दर्ज हुआ है उसको लिख पाना मेरा अपना सुख है।
शची सिंह
प्रोफ़ेसर, राजकीय महाविद्यालय सिरोही, राजस्थान
9414524372