डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी का आलेख:-'कन्हैया लाल सेठिया रचित काव्य में दार्शनिक चिंतन'


“दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम्‘ या‘ दृश्यते ज्ञायतेऽनेनेति दर्शन मित्यु च्यमाने”1 अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाए, जाना जाए, उसे दर्शन कहते हैं । यह दर्शन की अनुभूति सापेक्ष परिभाषा है । दर्शन का सीधा और सरल अर्थ है- साक्षात्कार करना अर्थात् वस्तु स्वरूप का बोध करना । दूसरे शब्दों में वह सत्यानुभूति या सत्य का साक्षात्कार है ।2 

दृश्य तो सभी देखते हैं पर दृष्टि भिन्न होती है । यही दृष्टि एक सामान्य व्यक्ति से एक कवि को और एक सामान्य कवि से एक विशिष्ट कवि को अलग करती है । सेठिया जी ने जीवन को उसके मूल से शिखर तक अथ से इति तक देखा और अनुभव किया । उसमें रमे और एकाकार हुए, फलतः उनका काव्य जीवन की समग्रता का काव्य बन गया । डॉ. भगवती लाल व्यास का उक्त कथन अवलोकनीय है, “सेठिया जी के संपूर्ण काव्य पर यदि एक वाक्य में समाहारात्मक टिप्पणी का साहस किया जाय तो मेरी विनम्र मति में वह वाक्य होगा - सेठियाजी जीवन की समग्रता के दार्शनिक कवि हैं ।”३

विगत सात दशकों से निरंतर साहित्य साधना में रत कविवर सेठिया जी ने राजस्थानी और हिन्दी दोनों भाषाओं में न केवल उत्कृष्ट साहित्य का सृजन किया, बल्कि अपने जीवन में जिया भी है । अपनी आरंभिक कृतियों में, यथा- ‘वनफूल‘,‘अग्निवीणा‘, ‘आज हिमालय बोला‘, ‘मेरा युग‘ आदि के गीतों में कवि ने खण्डित समस्याओं को सामाजिक चेतना प्रदान की और राष्ट्रप्रेम का स्वर मुखरित किया । ‘दीपकिरण‘ प्रेम की पवित्रता को अभिव्यंजित करती है, जिसमें छायावादी पृष्ठभूमि का दिग्दर्शन होता है ।

‘प्रणाम‘, ‘मर्म‘ एवं ‘अनाम‘ कविताओं में कवि की आध्यात्मिक चेतना दार्शनिक गहराई के साथ प्रकट हुई है, इनमें जीवन का सत्य शाश्वत सा प्रतीत होता प्रकट हो रहा है ं उनकी दार्शनिक चेतना का भव्य रूप ‘निर्ग्रन्थ’ और ‘त्रयी‘ में बिम्बित होता है, जिसमें कवि ईश्वर से साक्षात्कार करता हुआ दृष्टिगोचर होता है । ‘स्वगत’ में कवि अन्तर्जगत की ओर उन्मुख होते हुए दिखाई देते हैं, वहीं ‘देह-विदेह’, ‘आकाश-गंगा’, ‘वामन-विराट’, निष्पत्ति’, ‘श्रेयस’ आदि रचनाओं में विराट सत्य की छवि प्रतिभासित होती है ।

श्री सेठिया जी का कवि-मन भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि से आकर्षित रहा है । उनके काव्य में समस्त भारतीय दर्शनों के मूल तत्त्व यत्र-तत्र दृष्टि में आते हैं, फिर भी उनका कवि - हृदय उनके जीवन-संस्कारों से सर्वाधिक प्रभावित हुआ है । कवि प्रवर सेठिया जी का जन्म जैन परिवार में होने से स्वाभाविक रूप से जैन-दर्शन के आध्यात्मिक तत्त्वों का प्रभाव विशेष रूप से दिखाई देता है । जैन परम्परा में ‘आचारांग सूत्र’ जैसे अति प्राचीन ग्रंथ में दर्शन शब्द सामान्यतया अनुभूति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । जैन कर्म सिद्धांत में दर्शन शब्द का प्रयोग आज भी अनुभूति के अर्थ में ही किया जाता है । सेठिया जी की काव्य-दृष्टि भी इसी रूप में प्रतिबिम्बित होती है । जिसका सम्यक् विवेचन द्रष्टव्य है । 

जैन दर्शन में मूलतः ‘तत्त्व’ दो ही माने गए हैं- 1.जीव तत्त्व, 2.अजीव तत्त्च ।4 एकांगी दृष्टि से इनके स्परूप को समझना आसान नहीं । इसी कारण ऋषियों ने इसे समझते हुए भी ‘नेति-नेति’ कह दिया और वैज्ञानिक जड़-चेतन के ऊहापोह में खो गए । जैन दर्शन की ‘अनेकांतवादी’ दृष्टि से ‘जीव-अजीव’ को समझा जा सकता है । कवि की पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं-

पीछे के पीछे भी कुछ हैं
आगे के आगे भी कुछ हैं ।
समझ लिया ऋषियों ने लेकिन
नेति नेति कह मौन हो गये,
जो वैज्ञानिक जड़-चेतन के
ऊहापोह के बीच खो गये,
-   -  -
आग्रह मुक्त हुए जो उन ने
अनेकांत को दर्शन माना ।
          (त्रयी)
‘मोक्ष’ जीव की उस अवस्था का नाम है, जहाँ न जन्म है न मरण । जन्म-मरण से रहित यह अवस्था बंध के कारणों के अभाव और कर्मों की पूर्ण निर्जरा से प्राप्त होती है । तत्त्वार्थ सूत्रकार ने समस्त कर्मों के क्षय का नाम मोक्ष बतलाया है ।5 कवि-मन भी जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति चाहता है, यथा-

बन न सका नवनीत, मथ रहा
कब से जाने तक्र ?
कर समग्र अब छूटे मेरा 
जन्म मरण का चक्र,
मुझे सताते हैं भव-भव के
बाँधे कर्म अनन्त !
(निर्ग्रंथ)
श्रमण के मूलगुणों में पाँच महाव्रत प्रमुख हैं । श्रमण के समस्त आचार-विचार एवं व्यवहार का नियंत्रक तत्त्व उसके महाव्रत हैं । प्राणातिपात विरमण व्रत अर्थात् अहिंसा को प्रथम महाव्रत माना गया है । दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है, कि जगत में जितने भी त्रस और स्थावर जीव हैं, श्रमण उनकी हिंसा से विरत रहता है ।6 अहिंसा को कवि ने समग्र दर्शन का पर्याय माना है-

है अहिंसा / अपने आप में / समग्र दर्शन,
नहीं बचाने का / बचने का / निर्देशन,
दया, प्रेम, करूणा / मात्र दैहिक बोध
अनुकम्पा आत्मा का / परिशोध ।
(श्रेयस)
‘सत्य’ महाव्रत के अन्तर्गत श्रमण मन, वचन और काया तथा कृतकारित और नवकोटियों सहित असत्य का परित्याग करता है । आचारांग सूत्र में सत्य के अनुसार प्रवृत्ति करने की प्रेरणा दी गई है ।7 कवि ने सत्य का परिधान रत्न-त्रयी (चारित्र,दर्शन व ज्ञान) को माना है-

नहीं होता सत्य
किसी का अनुयायी
वह अपने में पूर्ण इकाई
वह दिगम्बर/उसका परिधान
चारित्र - दर्शन -ज्ञान ।

(त्रयी)
पाँचों इन्द्रियों के शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध- ये पाँच प्रकार के विषय हैं । इनमें राग-द्वेष नहीं करना- ये ‘अपरिग्रह’ महाव्रत की भावनाएँ हैं ।8 कवि ने अपरिग्रह को ‘कैवल्य’ की भूमिका के रूप में स्वीकार किया है-

ज्ञान का नवनीत
दर्शन का अमृत
चरित्र की कौस्तुभ मणि
तप की उपलब्धि
भूति की विभूति
कैवल्य की भूमिका
अपरिग्रह ।
(निर्ग्रंथ)
जैन-दर्शन अनेकांतवादी दर्शन है । एक ही वस्तु में अनेक विरोधी धर्मों को स्वीकार करने वाले सिद्धान्त के निरूपण की पद्धति है- स्याद्वाद । अस्ति-नास्ति, नित्य-अनित्य, एक-अनेक, सम-विषय, वाच्य-अवाच्य ये वस्तु में निश्चित रूप से पाये जाने वाले विकल्प हैं । इन विरोधी युगलों को समझकर स्याद्वाद का स्वाद चखा जा सकता है ।9 कवि ने भी इसी   दृष्टि को अपनी कविता में प्रकट किया है- 

अस्ति - नास्ति हैं जुड़वाँ दोनों
सहज सत्य यह द्वन्द्व नहीं है,
नीड़ नहीं कारा है खग की 
पंखों पर प्रतिबंध नहीं है ।।
(त्रयी)
‘द्वैत-अद्वैत’ पर विचार करते हुए कवि ने अभिव्यक्ति और अनुभूति से उसका संबंध व्यक्त करते हुए स्मृति-विस्मृति का पर्याय बताया-

अभिव्यक्ति / दिवस की / जला हुआ दीप,
अनुभूति / निशा की / बुझा हुआ दीप,
स्मृति द्वैत / विस्मृति अद्वैत ।।
(आकाश गंगा)
जैन-दर्शन में ‘कैवल्य’ को चरम ज्ञान माना गया है । इस हेतु ‘रत्नत्रय’ की साधना पद्धति है । रत्नत्रय की साधना से अभिप्राय है- सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान ओर सम्यक् चारित्र की आराधना । इसे उमास्वाति ने मोक्ष मार्ग भी बताया है ।10 कवि-प्रवर सेठियाजी ने भी कैवल्य को प्रज्ञा की क्रिया के रूप में स्पष्ट किया-

नहीं / बुद्धि की / प्रतिक्रिया
कैवल्य / वह क्रिया
प्रज्ञा की !
(आकाश गंगा)

रत्न त्रय / हुये उद्भासित
दिव्य अतिशय में
आत्मा के
अनंत चतृष्ट्य !
(निर्ग्रंथ)
‘णमोकार’ मंत्र को जैन-दर्शन में महामंत्र माना गया है । जिसमें अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व लोक के समस्त साधुओं की वन्दना है । कवि ने भी इस मंत्र के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की है- 

नहीं किसी / याचक की प्रार्थना
कि देवता / पूरी करें कामना
-  -  -
केवल नमन / उनको
जो अरिहंत / जो संत
भले ही उनका
कोई धर्म / कोई पंथ
मात्र समर्पण की / वर्णपासना
णमोकार मंत्र !
(निर्ग्रंथ)
जैन-दर्शन के अनुसार ईश्वर विशुद्ध आत्मा है । प्रत्येक आत्मा में परमात्मा रूप बनने की शक्ति है । विष्णु, परम ब्रह्म, ईश्वर, सुगत, शिव और जिन इत्यादि सभी उसके ही नाम हैं।11 कविवर सेठिया जी के कवि मन में उस परम तत्त्व की कल्पना अवश्य है, इसी कारण वे लिखते हैं-

मैं अनादि हूँ मुझे व्यापता,
कभी नहीं इति-अथ का संशय,
मैं अरूप अनुभूत चिरंतन,
पूर्ण मात्र ही मेरा परिचय ।
(प्रणाम)
‘द्वन्द्व’ यदि जीवन का अभिशाप है, तो उससे ‘निर्द्वन्द्व’ होने का मार्ग भी दिखाई देता है। अर्थात् द्वन्द्व परमानंद का माध्यम भी बन सकता है । मुक्ति का द्वार भी कारा से अलग नहीं है, यथा-

मुक्ति / का / द्वार
अभिन्न अंग है
कारा
का !
(अनाम)
समग्रतः सेठियाजी कवित्व दार्शनिक पृष्ठभूमि पर उतर कर रहस्यमय सा हो गया है, परन्तु यह अनुभूत सत्य है, उससे विस्मृत होना संभव नहीं । कवि प्रवर का दार्शनिक मन न केवल जीवन की अर्थवत्ता सिद्ध कर रहा है, बल्कि जीवन के उस पार की भी मधुमय कल्पना कर रहा है । इसकी आधारभूमि में जैन-दर्शन की समग्रता भी उनके चिंतन का केन्द्र बन गई है, फलतः कविता की रस-धारा में दर्शन अथवा दर्शन के शुष्क धरातल पर काव्य की रसधारा प्रवाह मान है, यह निर्णय करना भी अकल्पनीय है । यह अवश्य कहना समीचीन होगा कि ‘जीवन’ व ‘मनुष्य’ के साथ ‘भारतीय संस्कार’ उनके काव्य के चरम विषय हैं, जो कि दर्शन की पृष्ठभूमि पर भारतीय ऋषि-परम्परा की भाँति मानवता के पथ का संधान कर रहे हैं । इसी कारण वे मनुष्य की नियति को रेखांकित कर पाते हैं और जीवन का गंतव्य निर्दिष्ट कर देते हैं, यथा-

नहीं / जा सकेंगे
शब्द / और आगे
करनी होगी । अकेले
सतोपंथ की यात्रा 
नहीं रहेगा साथ
लेने परीक्षा
कोई श्वान
नहीं आएगा स्वर्ग से
कोई रथ
होगा / वहाँ पहुँच
अनुभूत
केवल / असंग !
(निष्पत्ति)

-संदर्भ ग्रंथ सूची-
1. बड़दर्शन समुच्चय- हरिभद्र सूरि, पृ. 2/18, उद्धृत जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग-2, पृ. 405-406
2. डॉ. सिसोदिया, सुरेश, जैन धर्म संप्रदाय,पृ. 121
3. उद्धृत- कन्हैया लाल सेठिया, समग्र भाग-2, संपादक- जुगल किशोर जैथलिया, पृ.660 
4. (क) स्थानांग सूत्र, 2/1  (ख) प्रवचन सार, 2/35
5. तत्त्वार्थ सूत्र- 10/3
6. दशवैकालिक सूत्र- 4/42, 6/9
7. आचारांग सूत्र-1/3/3/127
8. डॉ. सिसोदिया, सुरेश, जैन धर्म संप्रदाय,पृ. 168
9. डॉ. राजेन्द्र, आचार्य तुलसी की काव्य-साधना, पृ.228
10. “सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्ग”- तत्त्वार्थ सूत्र- 1/2
11. वृहद् द्रव्य संग्रह, संस्कृत टीका, गाथा- 14


योगदानकर्ता / रचनाकार का परिचय :-

डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी
(अकादमिक तौर पर डाईट, चित्तौडगढ़ में वरिष्ठ व्याख्याता हैं,आचार्य तुलसी के कृतित्व और व्यक्तित्व पर ही शोध भी किया है.निम्बाहेडा के छोटे से गाँव बिनोता से निकल कर लगातार नवाचारी वृति के चलते यहाँ तक पहुंचे हैं.वर्तमान में अखिल भारतीय साहित्य परिषद् की चित्तौड़ शाखा के जिलाध्यक्ष है.शैक्षिक अनुसंधानों में विशेष रूचि रही है.'अपनी माटी' वेबपत्रिका के सम्पादक मंडल में बतौर सक्रीय सदस्य संपादन कर रहे हैं.)

ई-मेल:singhvi_1972@rediffmail.com
मो.नं.  9828608270
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