'' ‘राजधानी में एक उज़बेक लड़की’ बाजारवाद की त्रासदी को उजागर करता है ।''-डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी

(ये समीक्षा भोपाल से निकलने वाली कला समय पत्रिका के अगस्त -सितम्बर 2012 अंक में कविता में पनाह पाती थकान शीर्षक से छप चुकी है। इसके सम्पादक साथी विनय उपाध्याय से पूछते हुए साभार यहाँ छाप रहे हैं।-सम्पादक)
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“ राजधानी में एक उज़बेक लड़की: बाजारवाद की त्रासदी ”
डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी

अरविन्द श्रीवास्तव का अभी हाल ही में प्रकाशित काव्य संग्रह ‘राजधानी में एक उज़बेक लड़की’ बाजारवाद की त्रासदी को उजागर करता है । कुल 79 कविताओं का उक्त कविता-संग्रह वैश्वीकरण के दौर में भौचक्के मध्यमवर्गीय मानव की दास्तान है, जिसके रिश्ते टूट चुके हैं, संवेदना लुप्त हो गई है, स्वयं विद्रोही बनकर फड़फड़ा रहा है । यह दर्द कवि का ही नहीं, बल्कि सार्वजनीन रूप में प्रकट हुआ है ।

उक्त संग्रह की प्रथम कविता ‘एक डरी और सहमी दुनिया’ एक ऐसे दृश्य को प्रस्तुत कर रही है, जो दृश्य बिम्ब के रूप में हमारी आँखों के सामने गुजर जाती है । इस दुनियाँ में जहाँ हौंसले पस्त हो गए हों, संदेह के दायरे में प्रेम जकड़ा हुआ हों, वहाँ भय का जन्म होना स्वाभाविक है । उदय से पहले सूरज का लाल होना, पत्तों का पीलापन, बुलबुलों का फूटना आदि ऐसी ही सहमी व डरी हुई दुनियाँ के प्रतीक हैं । इन सब के बावजूद ये दृश्य कवि की कविता को जन्म देते हैं-

सुन ली जातीं हमारी प्रार्थनाएँ
तो सूर्य उदय से पहले
लाल नहीं दिखता
पत्ते कभी पीले नहीं होते
नहीं छिपाना पड़ता नारियल को अपनी सफेदी
$  $  $
एक डरी और सहमी दुनिया में
हमारी प्रार्थनाएँ सुन ली जातीं
तब शायद चूक जाता मैं
कवि होने से ।
(एक डरी और सहमी दुनिया में)

वर्तमान वातावरण इतना भयावह हो गया है कि प्रकृति मनुष्य से डर कर भाग रही है, आदमीयत नकली मशीनों के अधीन होकर अपने अन्दर की मुलायमियत से खिलवाड़ करने लग गया । कृत्रिमता के आगोश में अपनी कोमल भावनाओं को फ्रीज कर खुद भभकती आग में जल भूनकर दौड़ा-भागा जा रहा है । मानवीय त्रासदी का यह दृश्य विडम्बना है- 

जंगल आदमी का था और शब्द काँटे थे
भीड़ में स्पर्श का मतलब था
बबूल-सा तेवर झेलना
क्योंकि आदमी परखनली में जन्म ले रहा था
और प्लास्टिक भोजन का जायकेदार हिस्सा था
मज़बूत बैंक-लॉकरों में फ्रीज कर दी गयी थीं
कोमल भावनाएँ, संवेदनाएँ और मुलायमियत
सड़कों पर जला-भुना आदमी
भभकती आग बन दौड़ा जा रहा था
किधर, पता नहीं
(इस जंगल में)

हमारे जीवन की परिधि में ज्यों-ज्यों बाजार का प्रवेश होता गया, रिश्ते दरकते गए । नेह की दिवारें भरभराकर टूट गईं । रिश्तों में सदियों का भरोसा टूट गया । दूरियाँ इतनी कि पास-पास आने पर भी अलग-अलग सत्ता का आभास कराती हैं, यह यथार्थ है-

शरीर के यही कुछ हिस्से थे
हमारे रिश्तेदार
इनकी अलग-अलग पहचान थी
और अलग-अलग सत्ता
लाख आफ़त आने पर भी 
इन्होंने कभी मुझ पर भरोसा नहीं किया !
(भरोसा)


उपरि वर्णित इस दौर में कवि का मरना तय है और यह मरण भी चुपचाप हत्या के रूप में, अपनी ही बिरादरी के लोगों से । क्योंकि सब कुछ वैश्वीकरण की चकाचौंध में इस तरह बिक गए थे कि, उनके द्वारा किए गए सब गुनाहों पर भी आश्चर्य नहीं होता, फटी आँखों से जो घट रहा है, उसको देखना नियति बन गई-

नहीं थी धमाके की कोई आवाज़
उठा पटक के निशान भी नहीं थे
क्योंकि हत्या बड़ी साफगोई से हुई थी
एक कवि की
$  $  $
मारा गया कवि चुपचाप
बड़ी बारीकी से
किसी बड़े कवि के हाथों !
(कवि की हत्या)


वैश्वीकरण की उड़ान में सभ्यता और संस्कृति का सर्वाधिक मजाक बना है । सोवियत गणराज्य से पृथक राष्ट्र बना उजबेकिस्तान, जहाँ संस्कृति के उच्चतम आदर्श, वहाँ की लड़कियों की नैसर्गिक लालिमा, जिनके पूर्वज़ कभी महान योद्धा रहे थे, उन योद्धाओं के घोड़ों की टापों से दुनिया थर्राती थी, आज वे लड़कियाँ बाजारवाद की प्रतीक बनकर जब कवि को राजधानी में नज़र आती है, तो वह बयां करता है-

वैश्वीकरण की उड़ान में अन्दर ही अन्दर
सहमी थीं मुस्कुराती हुई उज़बेक लड़कियाँ
समय की त्रासदी को वे चाहती थीं दरकाना
हमारे गाँव-कस्बे से राजधानी गयी लड़कियों के साथ,
जिनकी सबसे बड़ी विवशता थी
बाजारवाद में
अपनी-अपनी त्वचा बचाने की ।
(राजधानी में उज़बेक लड़की)

बाजारवाद संवेदना शून्य तो होता ही है, जो केवल निचोड़ना जानता है, किंतु उसका मुकाबला प्रेम की मुलायमियत से अवश्य किया जा सकता है, क्योंकि प्रेम का पहाड़ पिघलना भी जानता हे, जहाँ रस का स्रोत बनना है । बाजार और प्रेम की तुलना कवि ने ‘क्षणिकाओं’ के माध्यम से इस प्रकार की हैं-

बाजार-
पहले दबोचा
फिर नोचा कुछ इस तरह
कि
मज़ा आ गया !
प्रेम-
अच्छा लगा
प्रेम में पहाड़ बनना
और अच्छा लगा
उस पहाड़ का
प्रेम में
पिघल जाना ।

कवि की कविताओं में अंतिम स्वर आशावादी है, वह इन झंझावातों से निराश होकर हार नहीं मानता । वह चाहते हैं कि पृथ्वी पर प्रेम के गीत बारिश की तरह आएँ और संगीत की स्वर लहरियाँ बनकर मनुष्य की स्वाभाविक वृत्तियों को जगा जाए, यथा-

काव्यवाचक सुनाता है पृथ्वी प्रेम के गीत
और तभी गर्भित बादल करते हैं प्रसव
बूँदें/ फूस की छप्परों पर
अँधेरी रातों में
उठती है जुगल बंदी बूँदों की 
किसी खाली बर्तन में
संगीत की स्वर-लहरियाँ
टप टपा टप टपाटप ............. ।
(बूँद)

कविता के प्रति सृजनधर्मियों का अक्सर अनुदार रवैया रहता है, उसकी सारी थकान कविताओं में दिखाई देती है । जबकि वह जानता है कि अवसाद भाव और सम्मोहित करते शब्द कविताओं में ढलकर समग्रता प्राप्त करते हैं । इसके बावजूद कविताओं को राजधानी की मंडियों में बिकने के लिए भेज देते हैं-

हमारी सारी थकान कविता बन निखरती है
और अक्सर हम
कविताएँ लिख 
भेज देते हैं
राजधानी की मंडियों में !
(कविताओं के प्रति हमारी उदारता)

प्रेम और संवेदना की अतुल भावनाओं पर केन्द्रित इस कविता संग्रह की सभी कविताएँ प्रकृति से संवाद चाहती है, बाजारीकरण में बिकते मनुष्य को बचाना चाहती है, भय से मुक्त मानवीय रिश्तों को फिर से जोड़ना चाहती है और कवि यह महसूस करता है कि दुनिया में उम्मीद कायम है, देह के अन्दर देह और साँस के अन्दर साँस होने की आशा ही उसे सृजन-पथ पर बनाये रखती है । अपने भावों को कविता की भाषा में उकेरते समय कवि ने कई रंगों का सहारा लिया है। प्रेम व संवेदना के दर्द में भाषा मुलायम व गंभीर है तो आक्रोश के समय सुलगती चिनगारी भी है । भाषा व भाव एक दूसरे के साथ चल रहे हैं । शब्दों का नया प्रयोग जैसे- ‘मुलायमियत’ तथा प्रतीकों का नवीन प्रयोग इस संग्रह को संग्रहणीय बना देता है ।

अरविन्द श्रीवास्तव
(जन्म तिथि: 2 जनवरी 1964)
शिक्षाः एम. ए. द्वय (इतिहास और राजनीति विज्ञान) पी-एच. डी. 

प्रकाशितः  वागर्थ, वसुधा, परिकथा, दोआबा, पांडुलिपि, पाखी, हंस, उद्भावना, साक्ष्य (बिहार विधान परिषद), वर्तमान साहित्य, अक्षर पर्व, कृति ओर, एक और अंतरीप, प्रतिश्रुति, शेष, जनपथ, साक्षात्कार, देशज, दस्तावेज, उत्तरार्द्ध, सहचर, कारखाना, अभिघा, सारांश, सरोकार, प्रखर, संभवा, कथाबिंव, योजनगंधा, औरत , आकल्प, शैली, अपना पैगाम, कला-अभिप्राय सहित दैनिक हिन्दुस्तान, प्रभात खबर, पंजाब केसरी, आज आदि समाचार पत्रों में।

कृतियाँ ‘कैद हैं स्वर सारे’, ‘एक और दुनिया के बारे में’ एवं ‘अफसोस के लिए कुछ शब्द’ (राजभाषा विभाग-मंत्रिमंडल सचिवालय, बिहार सरकार द्वारा आर्थिक अनुदान से प्रकाशित) संपादन और संयोजन - कारखाना ( जर्मन साहित्य पर केन्द्रित अंक-27) का संयोजन। ’सिलसिला’ पत्रिका एवं ‘सुरभि’ का संपादन। हिन्दी,उर्दू एवं मैथिली पुस्तक एवं पत्रिकाओं में रेखाकंन- आवरण

प्रसारणः आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से काव्य व आलेख ।

सम्मानः स्थानीय स्तर पर कई सम्मान सहित सह्स्राब्दी विश्व हिन्दी सम्मेलन, नई दिल्ली में सम्मानित, ’हिन्दी ब्लोग प्रतिभा सम्मान-2011’ (उत्तराखंड के मुख्यमंत्री-  द्वारा नई दिल्ली में सम्मानित) अनेक प्रसारण केन्द्रों - रेडियो बर्लिन इन्टरनेशनल, रे. ताशकंद, रे.बुडापेस्ट आदि द्वारा पुरस्कृत
सम्प्रति - लेखन, अध्यापन, कम्पयूटर एवं सांस्कृतिक कार्य से संबद्धता ब्लॉग- ‘जनशब्द’
संपर्क - कला-कुटीर अशेष मार्ग, मधेपुरा, बिहार-852113 (बिहार) फोन रू 094310 80862


डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी


कोलेज प्राध्यापक हिन्दी
सी-79,प्रताप नगर,
चित्तौड़गढ़

महाराणा प्रताप राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय

चित्तौड़गढ़ में हिन्दी प्राध्यापक हैं।
आचार्य तुलसी के कृतित्व और व्यक्तित्व पर शोध भी किया है।
स्पिक मैके ,चित्तौड़गढ़ के उपाध्यक्ष हैं।
अपनी माटी डॉट कॉम में नियमित रूप से छपते हैं। 
शैक्षिक अनुसंधानों और समीक्षा आदि में विशेष रूचि रही है।
ब्लॉग
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मो.नं. +91-9828608270

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