वो रोज़ यूं ही करता ग़ुब्बारे फुलाता बादलों के और सुई चुभो देता Vaya अखिलेश औदिच्य

                          यह सामग्री पहली बार में ही 'अपनी माटी डॉट कॉम' पर ही प्रकाशित हो रही है।


(चित्तौड़ के इस युवा सृजनधर्मी का अपनी माटी में स्वागत करते हुए हमें फक्र है कि ये साहित्य का एक सजग पाठक है। रंगकर्म में गहरी रूचि है। कई नाटक मंचित और निर्देशित किये हैं। कभी अध्यापकी का चस्का लगा तो बी एड कर लिया वरना इस दोस्त के फकीरी किस्म का अंदाज़ हमें हमेशा आकर्षित करता है।एक संभावनाशील युवा रचनाकार के रूप में हम अखिलेश की नई कवितायेँ यहाँ प्रस्तृत कर रहे हैं।-सम्पादक )



युवा कवि
रंगकर्मी 
और एस्ट्रोलोजर 
साकेत,चौथा माता कोलोनी,
बेगूं-312023,
चित्तौड़गढ़(राजस्थान) 
मो-9929513862
ई-मेल-astroyoga.akhil@gmail.com



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वो रोज़ यूं ही करता
ग़ुब्बारे फुलाता बादलों के
और सुई चुभो देता
ऐसे बरस पड़ता ख़ुदा
हम हमेशा जल्दी में होते
बिना इधर उधर देखे
बस अपना काम किये जाते
हम अपनी मिट्टी खोदते
कॉन्क्रीट उकेरते
चढ़ावे भरते
वो नादान
नन्ही सी अंजुली फैलाता
और पी जाता
जब तक हम पहुंचते 
अपने गुम्बदों , मीनारों तक
वो ख़ुदा जज़्ब कर लेता...

2. पैबन्द
आसमां के स्याह , सुनसान
चितकबरे रास्ते पर
चांद का लोगो
इतने धीमे से टंगा है
जैसे डरता है
हर आहट से
कि ग़ुरबत में 
कोई दबे पांव आकर
उतार ना ले 
टांग ना ले
फटी क़मीज़ में...

3. इंतज़ार
रात की कंबल
बेआवाज़ दीवारें
नींद तन्हा
कोई रुठ गया है किसी से
और कोई
तार-तार कंबल
उधेड़ रहा है
बुन रहा है...


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