अप्रैल 2013 अंक (यह रचना पहली बार 'अपनी माटी' पर ही प्रकाशित हो रही है।)
(1)नहीं जाना छोड कर यह ठौर
न जाने क्या है यहां
क्यों यहां रहना ऐसा लगता है कि
यही है
जिसे रहना कहते हैं
दिन भर की व्यस्तता अपने आप
जीवन राग अपने आप
एक संगीत
जो लगातार बजता रहता है
किसी ने आकर फूंक दी है बांसुरी
इसे छोड् कहीं और रहने की बात
कैसे हो सकता है
यहां सुबह सुबह सात बजे पीछे दूर एक मंदिर में बजती है घंटी
बाल्टी हंडों के टकराने की आवाज नियमित
पीछे मोहल्ले में पानी भरने को लेकर घमासान
तब तक एक स्कूल की बस आ जाती हैं पीछे
नाश्ते के पहले पहले एक आवाज आती है कहीं दूर से
एक रेल गाडी निकलती है
उसकी लंबी सीटी
कुकर की सीटी और इस सीटी में जैसे कोई मुकाबला
कभी रेल पहले कभी कुकर
सामने मैदान पर आ गए हैं हल्ला मचाते बच्चे पीछे की झुग्गी में रहने वाले
बकरियां उनके बच्चों के साथ
लोहे के फाटक खोल रहे हैं बार बार बच्चे कि बाल आ गया है भीतर
बकरियां खोल रही है फाटक कि भीतर है हरियाली
दोनों की सोच में शायद हो
यह फाटक बंद करने की परम्परा ही गलत
हरियाली है तो यह सबके लिए
और बच्चे यदि भगवान है तो यह फाटक क्यों
दुपहरी का यह काम
कोई कहे गैरजरूरी पर ऐसा नहीं
यही नहीं नए शहर के नए मकान में
या उसके आसपास
न सामने मैंदान न पीछे कोई सड्क
न मंदिर की घंटी सात बजे
न उतनी दूरी पर रेल लाइन
यह सब मिल कर लगता है कोई एक राग बन गया है
जीवन जीने का राग
एक कठिन शास्त्रीय संगीत सा
इसी कठिन शास्त्रीय संगीत में काम वाली बाई की मां बीमार रहती है
इलाज के लिए महिना के बीच मे पगार मांगती है बाई
सब्जी वाली आती है और जानती है कि घर में
कौन कौन सी सब्जी खाई जाती है
भिंडी एक किलो कहने से पूछती है मेहमान हैं
तय है इस घर के काम काज
तय है बाई के आने का समय
सब्जी वाले का ,अखबार वाले का समय
आम के मौसम में साल के साल एक कोयल बिना नागा आती है
कू कू करती
यहां सुबह उठते ही पता है सूरज पेड् के उस पार से उगता है
चौथ की रात चांद ढूढने पूरा आसमान झांकने की जरूरत नहीं
बेटा कहता है अकेले यहां कहां रहोगी
अकेले कहां
यहां सब कुछ है जो और कहीं नहीं ।
(2)एक गरीब बीमार के लिए जरूरी है एक गरीब चिकित्सक
एक गरीब बीमार के लिए
जरूरी है एक गरीब चिकित्सक
जो सस्ती दवाईयों के नाम जानता है नब्ज पर हाथ धर
जान ले मर्ज पूछे न सुबह क्या खाया
चिकित्सक पर तरस खाए
गरीब बीमार
कि हम फीस देंगे तब तो उसका चलेगा घर
क्या खाएगा
जो रख दो
देखता नहीं कितना है
कि सोच समझ कर देना चाहिए फीस
मोहल्ले भर ने ले ली है एक तरह से जिम्मेदारी
गरीब चिकित्सक की
मोहल्ले की बैठक में
सौ की तय कर दी है फीस
और यह भी कि कोई चिकित्सक से न कहे
कि यह तय फीस है कि उनको लगे यह है अपने आप
गरीब चिकित्सक ने देखा
आखिर में रात को
तो देखे सौ सौ के नोट
उसे याद आ गए चेहरे
उस दिन थे जो बीमार
याद हो आया कि
कैसे संभल संभल कर रखते गए थे ये नोट
कि और दिन की तरह
किन्हीं चेहरों पर मासूमियत कम थी
वह चेहरों पर मासूमियत चाहता था
फिर से वही होना चाहता था
गरीब चिकित्सक
एक गरीब चिकित्सक के लिए जरूरी है
गरीबों के चेहरे पर मासूमियत
गरीब मोहल्ला
के लिए जरूरी है पास एक गरीब चिकित्सक
सच जानें
इस चिकित्सक की समझ से अलग
और इस चेहरे की मासूमियत के बरक्स
कोई अमीर नहीं होना चाहता
यहां मालकौंस का अलाप चल रहा था
सब एक साथ गा रहे थे
एक कवि मुग्ध सुन रहा था ।
यहां मालकौंस का अलाप चल रहा था
सब एक साथ गा रहे थे
एक कवि मुग्ध सुन रहा था ।

