टिप्पणी:लोक संस्कृति को बाजारवाद से बचाना जरूरी हो गया है

जुलाई-2013 अंक 

(यह समीक्षात्मक टिप्पणी , अपनी माटी के तीन वर्ष पूरे होने पर चित्तौड़ में आयोजित समारोह में हमारे साथी डॉ राजेन्द्र कुमार सिंघवी ने व्यक्त की थी।हमारे निवेदन पर इसे पाठक हित में आलेख /संशोधित रूप में यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।मुख्य रूप से ये आयोजन हाशिये पर जा चुके वर्गों पर केन्द्रित उपन्यासों की चर्चा के परिप्रेक्ष्य में  रखा गया था। ये टिप्पणी हमारे ही साथी अशोक जमनानी के उपन्यास 'खम्मा ' पर है जो उस आयोजन के लिए चयनित उपन्यासों में से एक था।-माणिक )


डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी
युवा समीक्षक
महाराणा प्रताप राजकीय 
स्नातकोत्तर महाविद्यालय
चित्तौड़गढ़ में हिन्दी 
प्राध्यापक हैं।
आचार्य तुलसी के कृतित्व 
और व्यक्तित्व 
पर शोध भी किया है।
स्पिक मैके ,चित्तौड़गढ़ के 
उपाध्यक्ष हैं।
अपनी माटी डॉट कॉम में 
नियमित रूप से छपते हैं। 
शैक्षिक अनुसंधान और समीक्षा 
आदि में विशेष रूचि रही है।
http://drrajendrasinghvi.blogspot.in/

विगत तीन दशकों से हिंदी औपन्यासिक परम्परा में दो विमर्श अत्यधिक चर्चित रहे हैं, वे हैं- दलित विमर्श और स्त्री विमर्श । दलित विमर्श के निशाने पर सवर्ण वर्ग रहा है, वहीं स्त्री विमर्श में पुरूष वर्ग कहानियों एवं उपन्यासों में ऐसे अवसरों को तलाशने पर जोर रहा है, जहाँ इन विमर्शों को और मजबूती मिले । खैर ..... अब समय आ गया है कि विमर्श की इस परिधि से बाहर निकलकर आने वाले समय में उस रास्ते की तलाश करनी चाहिए जहाँ दलित सहित किसी भी वर्ग में भेद तक नज़र न आए व स्त्री व पुरूष पूरक बनकर समाज को उन्नत दिशा दे । अशोक जमनानी कृत नवीनतम उपन्यास ‘खम्मा’ विमर्श से आगे रास्ता दिखाने वाला उपन्यास है, जिसका नायक बींझा हाशिए का वर्ग है तो उपनायक सूरज सामंत वर्ग का, एक अभावग्रस्त लोक कलाकार है तो दूसरा सुविधा संपन्न व्यक्ति, एक मुस्लिम संप्रदाय से है तो दूसरा हिन्दू राजपूत घराने का युवक । लेकिन दोनों एक दूसरे से पूरक बनकर उभरे हैं ।

नायक ‘बींझा’ का संबंध मांगणियार जाति से है, जो राजस्थान की मरूभूमि पर निवास करता है । ‘मांगणियार’ का मतलब माँगने वाला नहीं, बल्कि माडधरा की आवाज है, अर्थात् वे लोककला साधक जो मज़हब से मुसलमान, किंतु हिंदू राजपूतों के घर खुशियों के गीत गाकर जीवन-यापन करने वाली जाति है । जहाँ राजपूतों के घर उत्सव के समय इनकी उपस्थिति अनिवार्य है, तो इनके लिए जीवन-यापन का आधार राजपूतों का आश्रय है । जीवन-यापन के लिए राजपूतों पर निर्भर होने के बावजूद कला से समझौता नहीं करते और अपने स्वाभिमान को बनाये रखते हैं ।

उपनायक सूरज जो बींझा के सुरों की कद्र करता है और उसे अपना दोस्त मानता है । वह ‘हुकुम’ शब्द नहीं सुनना चाहता । वह बींझा को कहता है- “.... पर तू ये हुकुम-हुकुम बार-बार मत बोला कर । मैं कितनी बार कह चुका हूँ कि मैं तेरा दोस्त हूँ ।” (पृ.14) परन्तु प्रत्युत्तर में बींझा कहता है- “हाँ हुकुम, वो तो है, पर आप मेरा गाना सुन रहे थे और काकासा कहते हैं कि राजा-महाराजा को हुकुम न कहो तो माफी, पर कद्रदान को हमेशा हुकुम कहकर इज्जत देना ।” (पृ.14) स्पष्टतः दोनों की मित्रता में गंभीरता के साथ एक-दूसरे का सम्मान है । ऊँच-नीच का भेद नहीं । सूरज द्वारा दी गई बख्शीश पारिश्रमिक के रूप में ही बींझा स्वीकार करता है । यह स्वाभिमान अंत तक बना भी रहता है । 

लेखक अशोक जमनानी
प्रकाशक श्रीरंग प्रकाशन,होशंगाबाद
मुल्य-250/-
इस बीच सूरज की शादी हो जाती है । एक दिन सड़क दुर्घटना में उसकी पत्नी, माँ और होने वाले बच्चे की मौत हो जाती है । गहरे अवसाद में डूबा सूरज अपनी सुध-बुध खो बैठता है । उसे मुंबई जाने की सलाह दी जाती है । मुंबई प्रस्थान से पूर्व वह बींझा के घर एक लाख रूपये का लिफाफा दे जाता है । बींझा को जब यह बात पता लगती है तो उसके मन को बड़ी ठेस लगती है । उसे यह बख्शीश प्रतीत होती है । उस रूपये से काकासा अपना पुराना कर्ज़ चुका देते हैं । किंतु बींझा की पत्नी जब उन रूपयों से खरीदा हुआ नया जोड़ा दिखाती है तो बींझा का स्वाभिमान क्रोध बनकर सोरठ पर टूट पड़ता है- “बींझा उठा और बाहर से जूता लाकर उसने सोरठ को पीटना शुरू कर दिया । सोरठ चीखती रही, फिर उसने बींझा के पैर पकड़कर माफ़ी माँगना शुरू की, लेकिन बींझा जिस आँधी की गिरफ्त में था, वो तो जैसे कोई तबाही लेकर ही आई थी । बींझा के कानों में उड़ती रेत चीख रही थी और आँखें खोलने का मतलब होता, हमेशा के लिए नूर खो देना । जब वो आँधी रूकी, तब तक सोरठ की देह लगभग तबाह हो चुकी थी, उसकी सिसकियाँ खत्म हो चुकीं थी और निर्जीव-सी देह धरती पर पड़ी थी ।” (पृ.39) 

बींझा बहुत पछताता है वह सोरठ से माफी माँगता है और कहता है- “ तू शायद यह बात समझेगी नहीं, लेकिन मैं जानता हूँ कि बिना मेहनत के उनसे उनकी दया दिखाने वाले रूपये अगर मैंने अपने पास रख लिए तो वे मेरे दोस्त नहीं रहेंगे, वो हुकुम हो जाएंगे ...... सुना सोरठ, वो हुकुम हो जाएंगे ।” (पृ.39) सूरज के मुंबई जाने से उदास बींझा काम की तलाश में जोधपुर जाता है, वहाँ उसका साला बिलावल जो पर्यटकों के गाइड का काम करता है, उसके माध्यम से सुरंगी और झांझर से मुलाकात करता है । ये दोनों नर्तकियाँ अपने प्रेमियों से धोखा खाकर रेगिस्तानी पीवणे साँप की तरह नर्तन रूपी तमाशे में अपने मन के आक्रोश को व्यक्त करती है ।

सुरंगी ने अपने जीवन-यापन के लिए सपेरे पति के साथ नृत्य कर लोगों को लुभाने का काम किया था । उस कारण उसका बेटा जो भूख से तड़प-तड़प कर मर गया । सिक्कों की बारिश में उसका बेटा चला गया । तमाशा देखने वाले गोद में बेटे की लाश को ऐसे देख रहे थे, मानों वह भी कोई तमाशा हो । उसके बाद उसका विद्रोही चरित्र प्रकट होता है । वह कहती है- “... बस मैंने सोच लिया जैसे उस तमाशे ने मेरी साँस-साँस में जहर भर दिया वैसे ही जैसे पीवणा भरता है ।” (पृ.61) झांझर का प्रेमी भी धन के लालच में दूसरा विवाह कर नशीले पदार्थों की तस्करी के आरोप में जेल चला जाता है और उसके माफी चाहने पर भी झांझर उसे माफ नहीं कर पाती । 

सुरंगी व झांझर के साथ सम के रेतीले धोरों पर सैलानियों को गाना सुनाने के बहाने बींझा को क्रिस्टीन नामक युवती उसे छल से अपने प्रेम-पाश में बाँध लेती है । बींझा कुछ समझ पाता उससे पहले वह एक लाख रूपये का लिफाफा देकर विदेश चली जाती है अपने पति व बच्चों के साथ । बींझा यह एक लाख रूपये स्वीकार न कर सुरंगी व झांझर को दे आता है । घर आकर अपने अपराध के लिए सोरठ से माफी मांगता है, पर सोरठ की पीड़ा उसे माफी नहीं देती । 

इधर सूरज मानसिक अवसादों से उबरकर नई जिन्दगी प्रतीची के साथ शुरू करता है । एक दिन वह बींझा को अपने साथ मुंबई ले जाता है और उसकी कला को सही मुकाम पर पहुँचाने के लिए ब्रजेन से मिलवाता है । ब्रजेन एक मणिपुरी गायक था, किंतु अभी वह कलाकारों को विदेश भिजवाता है और दलाली की मोटी रकम प्राप्त करता है । बींझा के गीतों को सुनकर उसे अपना अतीत याद आ जाता है और कहता है- “..... संकीर्तन में गाने वाला ब्रजेन, जिसकी आवाजों में पहाड़ों का नूर था, वो दलाल बन गया । (पृ.154) स्पष्टतः बाजारवाद के प्रभाव से उसकी कला का पतन हुआ, यह दर्द वह भूल नहीं पाता और अपने व्यक्तित्व को बींझा की कला में ढूँढ़ता है और उसकी कला को बाजार की उपभोक्तावादी संस्कृति से बचाने का प्रयास करता है । वह बींझा से कहता है- “ लेकिन तुम्हारे भीतर एक ब्रजेन है ..... मणिपुर का संकीर्तन गाने वाला, भोला-भाला ब्रजेन । मैं उसे बचाना चाहता हूँ ....... हर कीमत पर बचाना चाहता हूँ । बींझा हो सके तो तुम अपनी धरती से रिश्ता मत तोड़ना ।” (पृ.156) 

‘खम्मा’ शीर्षक राजस्थानी संस्कृति का प्रतिनिधि शब्द है, जो ‘क्षमा’ का राजस्थानी रूप है। लेखक ने मरूधरा की लोक संस्कृति व रंग-रंगीली धरा से अभिभूत होकर तथा मांगणियारों के गीतों में इस शब्द की मीठी तान से प्रभावित होकर यह शीर्षक दिया है । ‘भूमिका’ में लेखक श्री जमनानी यह स्पष्ट कर देते हैं कि ‘खम्मा’ मांगणियार और राजपूतों के संबंधों की मिठास को आप तक पहुँचाने की एक कोशिश है और रंग-रंगीली माडधरा को मेरी खम्मा ....... घणीं खम्मा है । 

अशोक जमनानी
इस उपन्यास में जहाँ दो परस्पर विरोधी वर्गों में सामंजस्य और पूरक भाव दृष्टिगत होता है, वह विशिष्ट है । भविष्य की रूपरेखा भी तय करता है कि अब वर्गवाद से परे ‘मानवतावाद’ की प्रतिष्ठा होनी चाहिए । साथ ही लोक संस्कृति को बाजारवाद से बचाना जरूरी हो गया है । यद्यपि ब्रजेन दलाल बन गया, किंतु बींझा को बचाकर उसने यह संदेश भी दे दिया कि धन-दौलत के आगे कला नहीं बिकनी चाहिए । ‘खम्मा’ उपन्यास के स्त्री पात्र सोरठ, सुरंगी, झांझर अपने पुरूष प्रेमियों से पीड़ित रही हैं । सभी अंदर ही अंदर सुलग रही हैं । वे मात्र हालात से समझौता नहीं करती, बल्कि शोषण का प्रतिकार भी करती है । सोरठ ने बींझा की गलती को माफ नहीं किया, सुरंगी अपने बेटे की मौत को भूल नहीं पाई तो झांझर ने अपने पांखडी प्रेमी का परित्याग कर दिया। ‘स्त्री-विमर्श’ की दृष्टि से इसमें और अधिक विद्रोह दिखाया जा सकता था, किंतु लेखक ने राजस्थानी परिवेश की यथार्थता को भी ध्यान में रखा, जहाँ स्त्रियाँ अभी भी सामाजिक घेरे को तोड़ नहीं पाई है । 

पात्र-योजना की दृष्टि से ‘खम्मा’ उपन्यास के पात्र यथा- बींझा, सोरठ, सुरंगी, झांझर, बिलावल आदि नाम लोककथा, लोक संगीत अथवा लोकवाद्य से जुड़े हैं, तो सूरज, प्राची व प्रतीची शब्द रेगिस्तान के महानायक ‘सूर्य’ व दोनों दिशाओं के नाम पर है । यथार्थ- बोध से संपृक्त माडधरा की मीठी गंध से भरे हुए गीत इस उपन्यास को राजस्थान की रंगीली धारा में अभिसिक्त कर देते हैं । धूमालड़ी गान का यह पद द्रष्टव्य है- 

कैजो रे कैजो रे धुमालड़ी म्हारां राज 
घोड़ला धीमा-धीमा खेड़ो म्हारां राज

राजे मोरे हिन्दूपत राज नो घणीं खम्मा
राज मोरे राजा रे खम्मा खम्मा खम्मा
खम्मा खम्मा खम्मा ।

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