यात्रा वृतांत: तालाब है, घाट भी हैं ,पर हर जाति का घाट अलग। / कालुलाल कुलमी

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 
अपनी माटी
 सितम्बर अंक,2013 

                   यात्रा वृतांत: तालाब है, घाट भी हैं ,पर हर जाति का घाट अलग।  / कालुलाल कुलमी



हम जब भी किसी अनजानी अनदेखी जगह पर जाते हैं तो उसके बारे में मन में तरह-तरह की कल्पनाएं पैदा होती हैं। वह जगह कैसी होगी, वहां क्या-क्या सुंदर होगा,वहां किस-किस से मिलना होगा,इस तरह की कई तरह की कल्पनाएं वहां जाने को लेकर मन में उठती रहती है। लेकिन वहां पहुंचने के बाद वहां का नजारा इस तरह से हमें मौहित कर लेता कि हम पहले की कल्पनाएं भूल जाते हैं और वहां जो देखते हैं उसके आधार पर नये यथार्थ की तस्वीर हमारे मन में बनती जाती है। मुझे जहां जाना था वहां के बारे में बहुत अजीब भ्रम पहले से मन में थे। रायपुर से सत्तर किमी की दूरी पर अरौद। गांव में पहुचते ही गांव की यादे ताजा हो गई। यह गांधी का ग्राम स्वराज नहीं था यह तो जाति के नाम पर बँटवारा करने वाला गांव था। जहां डॉ.अम्बेडकर ही याद आते हैं। गांव में तालाब बना है। घाट भी बने हैं। पर हर जाति का घाट अलग है। सरकारी खर्चे पर बना तालाब होने के कारण उसके एक घाट की दीवार ही ढह गई। शुक्र था कि दीवार रात में गिरी थी। ऐसा कई जगह हुआ है। वैसे सरकार जो करती है वह अच्छे के लिए करती है पर सरकार के नौकर उसमें अपना हिस्सा निकालने का काम करते इसी कारण पुल बनने से पहले ही टूट जाते हैं।

सुबह यहां से रेल से निकला। रायपुर जिस रास्ते पर पड़ता वह ऐसा रास्ता है कि गाड़ियों की कोई कमी नहीं हैं। वर्धा से रायपुर वहां से बस से अरौद। गांव का जीवन कितना ठहरा होता है यह तो सभी जानते हैं। पर उसमें कितनी गति होती है यह एक दार्शनिक प्रश्न है। मंथर गति हाथी की चालवाली गति। घर पहुंचा तो भाई नेरश ने चावल की रोटी बनवायी और छोटी डेस्क पर बैठ कर हम लोगों ने साथ में खाना खाया। घर, घर है कि बागान कहना कठिन है। नरेश साहू के घर में बहुत लम्बा चौड़ा दालान है। जैसे ही यहां प्रवेश किया तो अदभुत अहसास हुआ। जैसे किसी बगीचे में आ गये हो। कच्चा और पक्का दोनों तरह का घर है। घर में पौधे ही पौधे। अंगूर पपीता, केला, तमाम तरह की सब्जिया लगी है। ऐसे कहा जाए कि घर के अंदर खेत है या खेत में घर। दोनों का अनोखा संगम। बाहर की तरफ भैंसे बांध रखी है। चारों और शांति का अनोखा वातावरण। बच्चें खेल रहे हैं। पिताजी अपने काम में लगे हैं। मामाजी अपने काम में लगी हैं। धूप छन-छनकर आ रही है। चित्रों की तरह घर के साैंंदर्य को अदभुत सौंदर्य प्रदान कर रही छनछनकर आती धूप। यहां जिस तरह से सुबह का काम होता है और फिर दिन भर का खालीपन होता है वह बहुत कचोटता है। जहां शहर के जीवन में आपके पास समय नहीं होता वहीं यहां समय खत्म ही नहीं होता। यहां वक्त जरा धीरे कटता है। यहां का वक्त ही अजीब है कि उसको कैसे कहा जाए भाई जरा तो तेज चलो। 

           अपने घर में नरेश का यह आग्रह रहा कि छत्तीसगढ़ में जितने भी तरह के चावल के व्यंजन बनते हैं वह बनाये जाए। उससे मेरा परिचय ही नहीं कराया जाए उसका स्वाद भी चखाया जाए। इस तरह जितने दिन वहां रहे तरह-तरह के व्यंजनों  का आस्वाद लिया। धान का संबंध पानी से होता है। जहां बहुतायत में पानी होता है वहीं धान पैदा होता है। यह ऐसा राज्य है जहां धान सबसे ज्यादा पैदा होता है और सबसे श्रेष्ठ गुणवत्तावाला धान होता है। यहां पानी की किसी तरह की कोई कमी नहीं होने के कारण और जमीन की गुणवत्ता और पर्यावरण की अनुकूलता के कारण यह संभव होता है। 

चावल की खेती से यहां के खेल लहलहा रहे हैं। पानी ही पानी और हरा ही हरा। ऐसा हरापन कहां देखने को मिलेगा। जहां पानी होगा, और जहां के लोग श्रम करते हैं वहीं ऐसा संभव होगा। यहाँ  जिधर जाओं उधर चावल का संसार है। जिसको ऐसे कहा जाए कि समृद्धि का अनोखा सौंदर्य है। जहां एक एकड़ से तीस क्विंटल चावल पैदा होता हो वहां का समाज गरीब कैसे हो सकता है? वहां ऐसा कैसे हो सकता कि विदर्भ जैसे हालात हो। यहां ऐसा नहीं है। यहां गरीबी नहीं है। यह धान का कटोरा है। जहां देश का सबसे अच्छा चावल पैदा होता है। जिससे यहां का समाज अपने को समृद्ध करता है। एक आदमी के पास जमीन है तो एक के पास श्रम है। फिर यहां का आदिवासी गरीब कैसे हैं? उसके पास अभाव ही अभाव कैसे हैं? बस्तर के जंगलों में कैसा हाहाकार मचा है? उसका जवाब किसी के पास क्यों नहीं है? कौन यहां की जमीन हड़प रहा है? कौन यहां के संसाधनों का खत्म कर रहा है और कौन है जो यहां बंदूक की नाल पर विकास कर रहा है। इस सब के बीच ये निहत्थे और निर्दोश आदिवासी कैसे फंसते जा रहे हैं। आखिर क्या कसूर है इनका जो इनको इतनी बेरहमी से उजाड़ा जा रहा है।

पैर छूने का रिवाज

नरेश के मामा के गांव गुदगुदा गये। घर में जाते ही मामा और मामाजी आये और नरेश साहू के पैर छुए। फिर पानी के दो लौटे लाये और पैर धोने की रस्म निभायी। उसके बाद दूसरे मामा के घर गये तो वहां भी यही हुआ। इस तरह यह चलता रहा। आसपास में जहां भी गये इस तरह की रस्मे होती रही। लेकिन जिस घर में भी गये वहां अदभुत बागान था। बाहर पेड़ ही पेड़ और ठण्डी बयार का अनोखा आनंद। जैसे किसी सुंदर बागान में आ गये हो। जहां सब तरफ हरा भरा प्राकृतिक सौंदर्य। एक तरफ घर और बाहर आते ही प्रकृति का साथ। मनुष्य और प्रकृति का साहचर्य। प्रकृति के साथ मनुष्य का सहज रिश्ता। 

यहां मेधा में आयुर्वेद के डॉ. गुप्ता रहते हैं। वे बस्तर में काम करते थे। पांच साल वहां काम किया और उसके बाद सरकारी नौकरी छोड़कर अब मेधा में अपना प्राइवेट क्लिनिक चलाते हैं। बहुत व्यवहार कुशल और स्वभाव से सरल डॉ. गुप्ता पहली मुलाकात में परिचित हो गए। बात निकली तो अपने बारे में बताने लगे। अपने बस्तर के अनुभव बताते हुए कहते हैं कि नक्सली डॉ. और अध्यापक को कुछ नहीं करते, बाकी किसी को नहीं छोड़ते। मैं वहां रहा और काम भी किया पर एक दिन मन हुआ और सरकारी नौकरी ही छोड़ दी। कोई इतनी आसानी से सरकारी नौकरी नहीं छोड़ता? अपने पांच बरस के अनुभव उनके लिए यह जानने में काफी सहायक रहें होंगे कि सरकारी नौकरी की जाए या न की जाए। बस्तर के भयंकर जंगल जहां केाई नहीं जा सकता, वहां नक्सली अपना काम करते हैं। उनका संचार माध्यम बहुत तगड़ा है। सरकार वहां कुछ नहीं कर सकती। गांववालों से अपना काम कराते और कहते कि जंगल बचाने के लिए आपको यह संघर्ष करना ही होगा। आप नहीं करेगे तो कौन करेगा। डॉ. से मिलकर बहुत कुछ जाना। जहां हम सरकारी नौकरी के लिए रोते हैं वहां नक्सली लोग गांववालों से उनका एक बच्चा मांगते हैं। वह लड़की या लड़का केाई भी हो। उसको अपनी धरती के लिए देना होगा। यहां कबीर याद आते हैं कि चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोय। दोउ पाटन के बीच साबूत बचा न कोय!

देशी शराब और आदिवासी

लक्ष्मण कमार आदिवासी है। जब हम उसके घर पहुंचे तो वह सो रहा था। उसके पास कोई काम नहीं है ऐसा नहीं है। वह तीर धनुष चलाता है और शिकार करता है। जमीन उसके पास नहीं है। क्योंकि जिस जमीन पर उसके पिता रहते थे उसका कोई पट्टा नहीं था, पट्टा नहीं था तो सरकार ने वह जमीन उससे हड़प ली। वह बार-बार यही कह रहा था कि नरेश भाई कैसे भी करके मुझे ऐसा कोई रास्ता बताओं जिससे मुझे मेरी जमीन वापस मिल जाए। मैं रायपुर जाता हूं तो वहां यही कहा जाता कि जमीन का पट्टा लेकर आओ। तुम्हीं बताओं जब उस जमीन का पट्टा मेरे पिता के पास भी नहीं था तो मैं उसको कहां से बनाकर ला सकता हूं। जब लक्ष्मण के घर पहुंचे तो वह महुआ पीकर सो रहा था। हमने उसे जगाया और बात की। उसने अपना तीर-धनुष निकाला और दिखाने लगा। उसको कैसे चलाते हैं, चलाकर बताया। कोई काम नहीं होने के कारण भी वह अपना समय काट रहा था। वैसे वह महुआ से देशी शराब बनाता है। यह इन लोगों का खानदानी धंधा है। पर अब यह काम नहीं कर सकते। सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा रखा है। ऐसे में जाहिर है ये लोग चोरी-चोरी देशी शराब बनाते हैं। लक्ष्मण के साथ वहां के आसपास के इलाके में गए। जहां एक विशाल डेम बना हुआ है। वहां से कमारों की बस्ती में गए। जहां से लक्षमण महुआ लेकर आया। 

जो जब सरकार विजय माल्या को पैटेंट का अधिकार देकर यह धंधा दे सकती है वह इन लोगों को भी इनका धंधा दे सकती है कि नहीं। देशी शराब के सारे अधिकार इनके पास हो और सरकार भी यहीं से इसकी खरीददारी करे, तब इन लोगों के जीवन में किस तरह का परिवर्तन आएगा? अभी तो इनको कुछ पता नहीं है। ये लोग शराब के गुलाम है, लेकिन यही शराब इनका व्यवसाय बन जाएगी तब इससे इनको रोजगार भी मिलेगा और इनका जीवन स्तर भी बेहतर होगा। इस पर किसके पास विचार करने का समय है? राज्य आदिवासी लड़ाकू तैयार कर रहा है, फिर वह हिंसा की समस्या खत्मकर आदिवासी जीवन को बदलने का ऐतिहासिक कार्य करने जा रहा है। यह वही राज्य है जो एक महिला आदिवासी को नक्सली बनाता है और फिर उसके साथ अमानवीय हद तक जाता है। उसकी यौनी में पत्थर! सुनकर ही रुंह कांपती है!

कालुलाल कुलमी (मो-08875541925)
देश की तमाम साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं 
में प्रकाशित है।
केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं पर 
वर्धा विश्वविद्यालय में शोध पूरा किया है.
मूल रूप से गांव-राजपुरा,
महादेवजी के मंदिर के पासपोस्ट-कानोड़,
जिला-उदयपुरराजस्थान-313604 का वासी है।
हिन्दी लेखन में अपने ढंग से दस्तक 
देता हुआ हस्ताक्षर है।
खासकर पुस्तक समीक्षाएं,आलेख 
में हाथ साफ़ है
 कभी कभार कविता करता है।
इस युवा मेधा से उपजी रचनाएं 'अपनी माटी
पर यहाँ क्लिक कर पढी जा सकती है।
यहां के जंगलों में  नक्लसी निवास करते हैं तो यहां की संस्कृति में गायत्री मंत्र और हनुमान की पहुंच हो गई है। यहां नवरात्री का त्यौहार अभी कुछ ही वर्षों से मनाया जाने लगा है। यहां धर्म और अध्यात्म का कार्यक्रम चलता रहता है। जिसको जाहिर है संस्कृति के वाहक लोग चलाते हैं। जिस कार्य को आज तक बेकार समझा जाता रहा उसको करते हुए संस्कृति के कुव्याख्याकार समाज के वास्तविक वाहक बनते चले गए। जब आदिवासी जीवन की अपनी संस्कृति है तब फिर दुर्गा की संस्कृति कैसे उनकी संस्कृति बनती गई। आर्य अपनी विजय पताका फैलाते हुए जिस समय यहां आते हैं वे यहां के मूलनिवासियों को मारते हैं और उसमें जो लोग बचकर जंगलों में चले गए वहीं तो ये लोग है। इनका जिस तरह से सांस्कृतिकरण किया जा रहा है वह हर तरह से उनके लिए खतरनाक है। यहां के आदिवासी बच्चे प़ढ़ने के बाद क्या करे? उनके पास कोई रोजगार नहीं है वे तेन्दुआ पत्ता तोड़ते हैं। शहर जाते हैं तो वहां पहचान न होने के कारण आगे की शिक्षा में बाधा आती है और वापस यहीं काम करते हैं। 

यहां नदी के पार एक मंदिर है जहां मैला चल रहा था। हम लोग भी मैला देखने गए। एक बच्ची रस्सी पर नाच रही थी। लय के साथ। मुझे ईदगाह का हामिद याद आया। वह अपनी बूढ़ी अम्मा के लिए चिमटा लेना चाहता था और यह बच्ची अपने परिवार का पेट पाल रही थी। हमने इतने वक्त में इतना ही सफर तय किया है? दोनों ही बचपन में जवान हो गए है। लोग कहते हैं वक्त बदल गया है। पर वक्त के शिकार लोग कैसे बदलेंगे। यह सवाल आज भी वैसे ही खड़ा है! अरुण असफल की कहानी पांच का सिक्का भी यहां याद आती है। इन्हीं यादों को लेकर वापस वर्धा लौट आए


Post a Comment

और नया पुराने