कविताएँ:विमला किशोर

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 
अपनी माटी
 सितम्बर अंक,2013 

विमला किशोर की तीन कविताएं
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रुकली

खुद को निहारती
कभी फूलते हुए पेट पर टिकी आँखें
आइने में अपना वजूद तलाशती रुकली
अपने अजन्में बच्चे से सवाल पूछती रुकली

कौन है इसका पिता ?
कौन है इसका जिम्मेदार ?
यह समाज या इसके ठीकेदार......
जो आदमी की खाल में पूरे भेड़िये

रुकली को नहीं मिलता कोई जवाब
निणर्य अनिर्णय से गुजरती है
कभी हँसती है
कभी रोती है
प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है

और....और....और...
कितनी रुकलियाँ
उसकी जैसी बलात्कार की शिकार
देह व्यापार करने को मजबूर
न्याय माँगती
पर किससे ?

रुकली पूछती अपने आप से
थाने या अदालत में 
जहाँ किया जाता है जिस्मों को और तार-तार ???

प्रश्नों के चक्रव्यूह में उलझती रुकली
रंगों के कोलाज में बदलता उसका चेहरा
सख्त कठोर होता
प्रश्नों का हल ढूँढता  
आइने का प्रतिबिम्ब
मानो कह रहा हो

रुकली लड़ेगी .....जरूर लड़ेगी
उनके लिए 
जिनकी दाँव पर लगी हैं ज़िंदगियाँ 
उनके वजूद के लिए 
जो अजन्में हैं अभी
अन्तिम साँस तक लड़ेगी 
रुकली लड़ेगी........जरूर लड़ेगी......
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रिक्शावाला

मेरे सामने से हर रोज गुजरता है
रिक्शावाला
टुन टुन घंटी बजाता
कभी सवारी होती
कभी खाली होता
और खाली रिक्शा देख
हमारे बच्चे
खेलते कूदते लटक लेते

वह झिड़कता
डाँटता
भगाता
हमसे शिकायत करता
पर ढीठ शरारती
कहाँ मानने वाले 

और वह भी
इनसे एक अनजान रिश्ते की डोर में
बँध जाता
हँसी ठिठोली करता

रोज ही ऐसा होता
और बच्चे
उसे ‘टा टा....बॉय....बॉय’ कर लौट आते

रात जब चढ़ जाती
वह लौटता
नहीं होता अपने आपे में
उसके ऊपर चढ़ा होता नशा
डगमगाता
वह आता
मैं सोचती
आखिर क्यों पीता है
कौन सी खुशी मिलती है उसे
कौन से गम मिटते हैं इससे

मैं समझाती और
वह बहनजी या मेम साहब कह हँस देता
मेरे समझाने की क्रिया जारी रहती
उसे सब ‘पर उपदेश’ से लगते
और टुन टुन करता उसका रिक्शा
आगे बढ़ जाता

वह चला जाता
पर मेरे सोचने की क्रिया जारी रहती
सोचती कि किसी दिन ऐसी न चढ़ जाय
कि वह उतारे भी न उतरे
वह जिसे पीता है
कहीं वही न पी ले उसकी ज़िंदगी 
मैं झुँझलाती
कि क्यों नहीं समझता वह जिन्दगी का मोल 

और एक दिन ऐसा ही हुआ
देर रात टुन टुन करता
आया उसका रिक्शा
उसके साथी खींच रहे थे
और वह पड़ा था अपने ही रिक्शे पर निढ़ाल

शोर उठा
भीड़ जुटी
एक कहानी खत्म हुई
और बन्द हो गई टुन टुन की आवाज
पर नहीं बन्द हुआ जहर का व्यापार
न बन्द हुईं दुकानें
न बन्द हुए कारखाने
बढ़े धंधे
इस लोकतंत्र में फलाफूला कारोबार

पर अब भी
वह रिक्शावाला मेरे सामने से गुजरता है
टुन टुन घंटी बजाता
मेरे सपने में आता है
अचकचा कर उठ बैठती हूँ
बेचैन होती हूँ
और अपनी बेचैनी में रात भर चलती रहती हूँ
यह कौन सा रिश्ता है
जो मुझे बेचैन करता है 
रात रात भर सोने नहीं देता........                        
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खेल का बाजार

(यह कविता कॉमनवेल्थ गेम 2010 के समय लिखी गयी)

हमने बचपन में खेले 
कई कई खेल
लूडो से ले कैरम तक
खो...खो...से ले कबड्डी तक
रस्सी फाँदने से ले बैडमिंटन तक

हमारे बच्चों ने भी खेले
कई कई खेल
स्कूल के तोड़े कई रिकार्ड
बनाये नये नये रिकार्ड
जीते मेडल और शील्ड
चमकते-दमकते
रोशन है आज भी मेरा घर उनसे

पर अब
खेल खेल नहीं रहा 
वह गेम बन गया
कॉमन भी कुछ नहीं रहा
सब वेल्थ बन गया

दिल्ली रंगरोगन विहीन
बेरौनक लगने लगी
स्टेडियम छोटे पड़ गये 
कोर्ट यार्ड बेढ़ंगा लगा
सड़कें पतली

फिर क्या ?

ऐसा सजा यह खेल का बाजार
कि नये नये स्टेडियम बने
सड़के चौड़ी हुई 
और लटका दी गईं हवा में
दिल्ली तो डिजनी लैण्ड बन गई
हजारों गाँव उजड़ गये
नामोनिशान मिट गये नक्शे से
पर बस गया खेल गाँव

बड़े गर्व से हम कहते
यह देश किसानों का देश
नारा लगाते
‘जय जवान जय किसान’
पर यह क्या ?
लाखों ने डाल ली 
अपने गले में ही फँसरी
बीस रुपये भी रोज नसीब न हो
वहाँ उड़ाये गये चालीस करोड़ के गुब्बारे

आई बरसात
जमकर हुई बारिश
छोटे से बड़े सब नहाये
अघाये
नाचे गाये लोट पोट हुए

हाँ, बरसात की बात आई
तो याद आया
कि इसी बरसात में 
हजारों लोग भी बेघर हुए

नागिन बनी यमुना की फुफकार में
घर बहा
टासरा गया
जान कहाँ बचाये
इधर उधर भागते लोग
देखते अपनी सरकार की ओर आस भरी नजरों से
पर धुँआ-धुँआ होती सारी उम्मीदें
तार-तार होती अपनी इज्जत

कैसा सजा यह खेल का बाज़ार 
कि इधर बरसात ने तबाह की हजारों जिन्दगियाँ
ढाया कहर
तो उधर ठीकेदार से व्यापारी तक
मंत्री से ले मुख्यमंत्री तक
सब हुए तर बतर
ऐसा सजा यह खेल का बाजार।


विमला किशोर
(आत्मकथ्य:जन्म: 14 दिसम्बर 1954,पटना,बिहार,बचपन से ही साहित्य पढ़ने में अभिरुचि। साथ में कुछ लिखना भी चलता रहा। वामपंथी महिला आंदोलन से जुड़ी हैं तथा प्रगतिशील महिला एसोसिएशन (एपवा) की सक्रिय कार्यकर्ता हैं। कविताएं, कहानियां, यात्रावृतांत, लेख आदि भी आंदोलन से जुड़ाव की ही अभिव्यक्ति है। कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित होती रही है। हजारीबाग,झारखण्ड में आयोजित राष्ट्रीय काव्य संगोष्ठी में अपनी कविताओं का पाठ किया। आंदोलन हो या रचना कर्म सभी समाज को बदलने और एक बेहतर व बराबरी का समाज बनाने के उपकरण हैं। इन दिनों लखनऊ से निकलने वाली त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘रेवान्त’ की सहायक संपादक हूँ।संपर्क-एफ-3144, राजाजीपुरम, लखनऊ - 226017, मो - 07499081369)

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