कविताएँ:शिव कुमार गांधी,अहमदाबाद

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati )                 जनवरी-2014 
चित्रांकन:निशा मिश्रा,दिल्ली 

अहमदाबाद 1

यह उसके शब्दों से ही पता चलता था कि उसकी बेटी के जीवन में ध्वनियां न थी
पडौसियों के राष्ट प्रेम और उसके प्रति धिक्कार भी उसके शब्दों से ही पता चलता था
छह दिन तक छह हजार रूपये कमाने के लिए आटो चलाकर सिर्फ पारलेजी खाकर व चाय पीकर और मोहम्मद रफी के गाने गाकर कैसे जिया जा सकता है यह उसके शब्दों से ही पता चलता था

सांझ कुछ ऐसे ही गिर रही थी जैसे कि अंत
और अंत सदा अपनी तयशुदा शक्ल में 
अंत में निराश हो जाने की नियति में वे सभी आपस में इस तरह सोचते हुए पाये जाते थे कि                     जिम्मेदारी इसकी एक दूसरे के बारे में तय है लेकिन इस समूचे के लिए जिम्मेदार तो ईश्वर ही है जो कि पहला और अंतिम कर्ता धर्ता है
अपने एकांत में यह भी नहीं लगता था बस सन्नाटे को चीरती गोलियों की आवाज सिर में  कौधंती थी जिसकी कौंध में लगी हुई आग का पसरा हुआ वीराना था
अब ऐसे में छोटी बच्ची बिना ध्वनियों के जीवन जीती थी इतना उसे सालता नहीं था
आवाज छीने जाने की कथा सुनाने की आवाज अब उसके पास भी नहीं बची थी
बस एक वाक्य था ‘कुता अहमदाबाद’ 
और इन दो शब्दों की रेखाओं का कालापन इतना घना था
और उसके चेहरे पर इस कदर स्यापता था जो कि जीवन का गैरमुक्कमल दृश्य था और यंत्रणा का मुक्कमल


उसको अपनी बदसूरती पर तो कोई मलाल नहीं है 
व अपने बनाए गीत गाने की उनकी जिद नहीं थी
मोहम्मद रफी की नकल करते थे और छोटे छोटे कार्यक्रमों में दर्शको की तरफ इस मुद्रा में देखते थे कि अंधेरे टूकडो से रोषनी फूटने को होती थी जिसमें कि जीवन का सारा सार अपने आप से पिघलने लगता था 
इतने कर्ज के जलालत के बाद मोहम्मद रफी ही उनका सहारा होने की वजह भी गैरवाजिब नहीं थी कि मोहम्मद रफी की नकल का तो कोई कर्ज खुद पर नहीं था
और यह तो काबिले तारीफ ही बात थी कि आटो में मोहम्मद रफी साहब की तस्वीर लगी हुई थी
लेकिन इतना सब भी नाकाफी था क्योंकि कोई तो चीज थी जो रफी साहब के बूते से बाहर होती दिखती थी जीवन को खलिशनुमा बनाती थी
अब इस तरह जीने का क्या मतलब था जब वे सारी रूमानियत भी चूक जाए  और जिल्लत आपको बार बार चिढ़ाती रहे

हम उनकी इच्छाओं का अंदाजा तो बिल्कुल भी नहीं लगा सकते 
और ना ही ये कल्पना कर सकते हैं 
जिसमें कि हमें उनके इस दुनिया मे होने और 
अपना अर्थ खोजने की जदोजहद करने के संघर्ष भरे नायकत्व वाले दृश्य इतने दिखाई दें 
कि यह सारा समाज आपको किसी भिन्न
इस प्रकार की करूणा से भरा नजर आने लगे जो करूणा अमूमन अब हमारे कारोबार में शामिल नहीं है।
अब चूकिं इसलिए भाषा भी नहीं है

जिसके लिए शब्दों व घ्वनियों से किसी प्रकार का काई संप्रेषण था ही नहीं और जो लोग वे शब्द रचते थे
उसके लिए वे दूसरी दुनिया के शब्द थे

निर्जन था वहां कि अब उसे निर्जन कहना भी सही नाम नहीं था नाम नहीं होने का अवगुण
भी यूं विराजता था कि वह किसी धुधंली पड़ चुकी तस्वीर सा लगता था जिसके पीछे कोई छिपकली
घुमती थी

जब लोग निर्जन के बारे में कहते थे लगातार तो
वे ऐसा कहते हुए पाए जाते थे कि वे एक निर्जनता से निकलकर 
दूसरे निर्जन की ओर जा रहे हैं
वे निर्जन की दिवारों के पास रहते थे उसके पास में घूमते थे लगातार 
निर्जनता के पेड़ होते थे चारों ओर उनके पतो के नीचे उनके चूल्हे बने होते थे 
निर्जनता के सारे दृश्य उनके सपनों में आते थे लगातार उनके बच्चे अपने बचपन के साहित्य में पढ़ते थे निर्जनता और वही होते थे उनके खिलौने 
वही होती थी उनकी पतंगे निर्जनता के मैदान और निर्जनता के आसमान में वही दोस्त और वहीं आगे के रास्ते 
उन आगे के सभी रास्तों जिनपर पर अलसुबह उगते सूरज की ओर हाहाकार करते हुए नंगे बदन हाथ उठाते थे किसी आकांक्षा में और प्रतिउतर में सांझ हो जाती थी दिलोदिमाग में भौंकती हुई सी गोकि अपनी छाती कूटती हुई

अब ये बात कौन कमबख्त मानेगा कि रफी साहब की तस्वीर से अपना सिर टिकाए और उसकी आवाज में रफी का गाना सुनते हुए आटो में बैठकर शहर नामक निर्जन में हम यूं हिचकोले लेते जा रहे थे जैसे कि समुद्र में डूबते सूरज की ओर कभी ना लौटकर आने के लिए जा रहे हों
और मेरे काले झोले में रखे नशे की जरूरत अब नहीं रह गई थी 
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अहमदाबाद 2

जाने कितने हथियार छिपाए होगें कवि के घर में भी क्या कवि अपनी मूर्ति में स्थिर ही रहे होगें
षाह आलम की मजार के आगे उनके दोस्त नृसिंह के चबूतरे के आगे हर शाम दिया जलाते हुए मियां  गालिब क्या बुदबुदाते होगें
संषय में हूं 
जिससे लेता हूं सिगरेट खिजाब लगी दाढ़ी में यह जो जा रहा है अपने ठेले में सब्जियां लिए 
विस्थापितों में भी विस्थापित
माल्यार्पण करवाए लोगों के फोटो से भरा पड़ा है जो शहर का अखबार और तमाम विज्ञापन बोर्ड
एलिस ब्रिज के पास जली होटलों के पुननिर्माण और बस्तियों से मलबा हटाने के टेंडर भरते लोग
बेकरियों से ब्रेड खरीदते लोग नदी के पूलों पर भरी रात में टहलते औरत आदमी बच्चे हिन्दू मुसलमान
वह आटो में जो ठसाठस भरे हैं घर से दफतर जा रहे हैं रूके हैं रेड लाइट पर पोंछ रहे हैं पसीना
भर रहे हैं अलसबेरे पानी 
सबके चेहरे भरते थे संशय और खौफ और अजनबीयत
कि ठीक ठीक मैं किनके सामने हूं किसने पकड़ा था खंजर कौन चीखा था कौन अपने जबड़े खोल रहा  था यह पैनी लाल बती लगाए कौन किस दिशा में जा रहा है भू माफिया वकील कलाकार अध्यापक

कि साध्वियां चल रही हैं नंगे पावं जिन सड़कों पर उनमें ये निशान कैसे हैं
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अहमदाबाद 3

आउट आफ फोकस

पीले रंग पांव वाली चिड़िया वहां साइकिल के हैंडल पर आ बैठी थी हैंडल पर के छोटे गोल शीशे में उसकी पीली चोंच दिखती थी, पीछे के हल्के से आसमान के नीले से भरी, 
शीशे के पास हैंडल को थामे वह हाथ था जो स्थिर था कि ‘बैठी है चिड़िया यहां अपनापे के जाने किस अन्जाने में’
हाथ में की गुलाबी नीली नब्ज षिराओं से होती हुई दिल की धड़कन को धीमें किए हुए थी, गुलाबी दिल जिस पर उम्रदराज सफेद रोएं झांकते थे उपर ओढ़ी हुई खादी में, चेहरा बहुत मुलायम था काले रंग के गोल चष्में के भीतर की आंखे एकटक चिड़िया के पावं और चोंच में भरे आसमान दोनों को एक साथ देखती सी दिखती थी, अंगूठे वाली चप्पल में का मिटटी से भरा अंगूठा अपनी जगह से थोड़ा उठा था चलने और रूक जाने की बिल्कुल ठीक मध्य अवस्था में लेकिन अविचलित धुंधला सा, इस तरह दृश्य में वह साइकिल के पिछले पहिए के कोने में ठीक ऐसे दिखता था जैसे कि पहिए का चक्र अंगूठे के इषारे से घूमता हो,
चेहरे के ठीक उपर पतझड़ के पत्ते गिरते हुए स्थिर थे जैसे कि कुदरत ने अभी अभी अपने सारे काम स्लोमोषन में करना तय किया हो, हवा कम थी नहीं तो पत्तें सीढ़ीयों से उतरते हुए से दिखते,
न साइकिल का कोई नाम था ना उनका नाम हम जानते थे जो आकर ठहरी हुइ चिड़िया के इस सारे दृष्य में अपनी साइकिल और नब्ज को  थामे खड़े थे
और अब इससे आगे क्या कहें जिसे कहने में जाने कितने दिन लग गए, या यह एक इतफाक था, या एक फोटाग्राफिक दुर्घटना।
वह जो कि कुछ इस तरह हुई
साइकिल के ऐन उपर लगे विज्ञापन बोर्ड जिसका कि फोटो लेने फोटोग्राफर मुस्तैदी से अपना कैमरा सम्हाले फोकस कर रहे थे कि जाने कहां से एक नन्हीं सी गिलहरी उनके पांव पर से गुजरी, फिर क्या था कैमरा थोड़ा नीचे की ओर झुका और हड़बड़ाहट में आटोफोकस के साथ क्लिक कर गया।
जो फोटो में नहीं था और विज्ञापन बोर्ड पर था वह लिजलिजा दृष्य नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री और उसके सहयोगियों का था जो अपने हाथ उठाए आसमान की ओर उंगलिया दिखाते हंसोड़ शैली में अपने द्विआयाम में सपाट थे।
अब जाने यह इतफाक था या कमबख्त गिलहरी, चिड़िया व उनके दिल के धड़कने का कोई अन्दरूनी रिष्ता था। न जाने। जो हुआ मेरे माने भला हुआ यह आउट आफ फोकस। 

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कुछ विषयगत सूचनाएं

उन्होंने नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री को वोट नहीं दिया था।
दृष्य में जहां ठीक उपर फोटो से बाहर गुजरते हवाई जहाज की आवाज गूंज रही थी उसी समय एक दिन पहले उनके दोनों बेटे हमेशा  के लिए विदेश जा चुके थे। जिनमें कि छोटे बेटे से उन्होंने उस दिन चेहरे पर वह बेहोश कर देने वाला थप्पड़ खाया था जब दंगो के दिनों में दरवाजे पर किसी मुस्लिम दोस्त की तेज दस्तक पर उन्होंने दरवाजा खोला था।
वे मुझे अंतिम बार शाम के धुंधलके में मिले थे जब पार्क में शाम की सैर का उस दिन आधा चक्कर ही लगाकार अपनी छड़ी हाथ में लिए पार्क के हर पेड़ हर पौधे हर बेंच को छड़ी छुआकर जा रहे थे गेट के ठीक पास वाली बेंच पर आकर छड़ी उन्होंने मेरी ललाट पर लगाई मुस्कुराए और चल दिये कहते हुए जैसे कि अंतिम बार विदा।
शिव कुमार गांधी
(चित्रकार,छायाकार,कवि)
धरती के कई हिस्सों पर
उनके सृजन की प्रदर्शनियां प्रसिद्धी पा चुकी है
गैर सरकारी संगठनों के साथ मिलकर
प्रकाशन आदि जनपक्षधर कार्यों में संलग्न हैं
 जड़ें जयपुर में है हाल मुकाम अहमदाबाद है
कुछ समय से बच्चों को लेकर
पुस्तकों पर काम करे हैं
ई-मेल:
shivkumargandhi@gmail.com

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