साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati ) जनवरी-2014
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चित्रांकन:निशा मिश्रा,दिल्ली |
(कविता के प्रति)
कविता शून्य के प्रति एक प्रार्थना और अनुपस्थिति के साथ एक संवाद है.वह यात्राओ पर निकल जाने का निमंत्रण और घर की ओर लौटने की तड़प है.कविता मनुष्य होने की बुनियादी शर्त है.कविता मनुश्य को जीने का तर्क और मक़सद देती है. कविता दिल से उठती है और दिल में उतरती हुई मतिष्क को झकझोर देती है.कविता रिश्तों की गरमी, प्रेम की कोमलता और संवेदना की गहराई संजोए हुए एक जिद की तरह मनुष्यता को बचाए रखने की लड़ाई लड़ रही है.कविता साहित्य की सामाजिक भूमिका एवं लोकतांत्रिक चिन्तन के क्षेत्र में एक धारदार औजार की तरह काम करती है.
चयनित कविताएँ
खौफ के साये में प्रेम
नीम के पेड़ के नींचे
रात के अंधेरे में
हम दोनों मिलते हैं
बिना बोले बिना छुए.
हमारे मूक प्रेम संवाद का
साक्षी है
यह नींम का पेड़
और उसके नीचे गिरी हुई
पीली-पीली पत्तियां
खौफ से थर्राये हैं
हमारे भूमिगत शब्द
और डरी हुईं हैं
हमारी अतृप्त प्रेम भावनायें
क्योंकि इसी पेड़ से लट्का कर
एक प्रेमी युगल को
दी गयी थी फांसी
जब कि उनका धर्म एक था
सिर्फ जाति अलग थी
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माँ
बहुत दिनों बाद
कोई हँसी मेरे
अन्तर में उतर गयी
बहुत दिनों बाद
खुरदरे हांथों के
कोमल स्पर्श ने
मेरे मन के अन्तस को छुआ.
बहुत दिनों बाद
सूखी आखों ने
साकार सपना देखा
बहुत दिनों बाद
दुआओं कि गुनगुनी धूप ने
मेरे ठंडे बदन को छुआ
बहुत दिनों बाद
जीवन से जीवन मिला
और एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी से
बहुत दिनों बाद
किसी की कोख को
उसके दर्द का सुख मिला
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पतझड़
पतझड़ ने पेड़ से कहा
कि तुम अपने पत्ते
धरती को दे दो
मैं तुम्हें नयी कोपलें दूंगा
और पेड़ ने वैसा ही किया
पुरानी पीढ़ी नयी पीढ़ी को
कोपलों की उम्मीद देकर
हमसे जुदा हो जाती है
और उस उम्मीद के सहारे
वक़्त तय करता है़
अपना आगे का सफ़र
हमारे पुरखे
समृद्ध विरासत के साथ
कुछ अनसुलझे सवाल
छोड़ कर भी गये हैं
जिनसे हमें टकराते रहना है
पीढ़ी दर पीढ़ी
राजेन्द्र यादव, के0पी0 सक्सेना
परमानन्द श्रीवास्तव या उनके पहले
तमाम जैसे शिवकुमार मिश्र, श्रीलाल शुक्ल आदि आदि...
एक एक कर हमें छोड़ कर चले गये
यह सोच कर कि बच्चे बड़े हो गये हैं
संभाल लें गे सब कुछ
जाते जाते
वे हमसे कह गये
कि पालने के सिरहाने
गायी जाने वाली लोरी लेकर
इलैक्ट्रानिक चैनल के समाचारों तक
हर जगह छिपे हुए
असत्य के खिलाफ लड़ते रहना
और यह भी समझने की कोशिश करना
कि समय के कदम किधर जा रहे हैं
और भविष्य में क्या आने वाला है ?
तमाम शंकाओं ,प्रश्न चिन्हों से मुक्त होकर
संघर्ष के इस महासमर में
अनवरत आगे बढ़ते रहना
इस उम्मीद और उल्लास के साथ
कि पतझड़ के बाद
बसन्त का आना
सौ फीसदी तय है
और पेड़ में पत्तों के गिरने के बाद
कोपलों का आना भी
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समय की आवाज
(रमाशंकर यादव विद्रोही के प्रति )
अराजक सा दिखने वाला वह शख्स
चलता-फिरता बम है
जिस दिन फटेगा
पूरी दुनियां दहल जायेगी
कितना यूरेनियम भरा है उसके भीत
शायाद उसे खुद भी नहीं पता
उसके पत्थर जैसे कठोर हाथ
छेनी-हथौड़े की तरह
दिन-रात चलते रह्ते हैं
बेहतर कल की तामीर के वास्ते
उसके चेहरे पर उग आया है
अपने समय का एक बीहड़ बियावान
अनवरत चलते रहने वाले
फटी बिवाइंयों वाले उसके पाँव
किसी देवता से अधिक पवित्र हैं
वह बीच चौराहे पर
सरेआम व्यवस्था को ललकारता है
पर व्यवस्था उसका कुछ नहीं
बिगाड़ पाती
तभी तो वह सोचता है
कि वह कितना टेरिबुल हो गया है
और वह पूरे आत्मविश्वास के साथ कहता है
कि मसीहाई में उसका
कोई यकीन ही नहीं है
और ना ही वह मानता है
कि कोई उससे बड़ा है
वह ऊर्जा का भरापूरा पावर हाउस है
जिससे ऊर्जीकृत है पूरी एक पीढी
बच्चों जैसी उसकी मासूम आखों में
संवेदनाओं का पूरा समन्दर इठलाता है
जब वह हुंकारता है
तो समय भी ठहर कर सुनता है उसे
दोस्तो, वह अपने समय की आवाज ही नहीं
भविष्य का आगाज भी है