शोध:हरियाणवी लोकगीतों में नारीवादी चेतना /डॉ. संबोध गोस्वामी,चित्तौड़गढ़

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati )               फरवरी -2014 


चित्रांकन:इरा टाक,जयपुर 
किसी समाज की सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवम मूल्यवान धरोहर होती है उसका लोक साहित्य। समाज की अनेक पीढ़ियों का संचित ज्ञान/ अनुभव, परम्परागत मूल्य, आदतें, विचार, आषायें, आकाँक्षाये जितनी सहजता से लोक साहित्य में अभिव्यक्त होती हैं,  उतने सहज, सरल, सुबोध रूप से अन्यत्र नहीं होती।  ‘लोक साहित्य‘ शब्द अंग्रेजी के  ‘फोक लिटरेचर‘ का पर्याय है । ‘फोक‘ शब्द से अभिप्राय मूलतः परम्परागत समाज के सभी सदस्य हैं, किन्तु प्रस्तुत संदर्भ में अंग्रेजी साहित्य में यह शब्द उन लोगों के लिये प्रयुक्त होता  है, जो नागरिक संस्कृति तथा सविधि षिक्षा के प्रवाहों से मुख्यतः परे हों, जो अनपढ़ हों  या थोड़े बहुत पढे हों, या ग्रामीण हों। किंतु ‘फोक‘ शब्द का अर्थ मात्र इतना ही निकालना एक भूल होगी। दरअसल इस शब्द से अभिप्राय मानव समाज के उस वर्ग से है जो अभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना तथा पांडित्य के अहंकार से शून्य है, जो उनके कृत्रिम मूल्यों की कैद से स्वतंत्र है और एक परम्परा के प्रवाह से जीवित रहता है। 

भारतीय जनता का अधिकतम भाग ग्रामों में निवास करता है और जिसे ‘लोक‘ की संज्ञा दी जाती है, वह वस्तुतः यहाँ का ग्रामीण लोक समाज ही है। ग्रामीण लोक समाज जिन शब्दों में अपने ह्दय के उद्गार प्रकट करता है, साधारण जनता जिन शब्दों में गाती है, रोती है, हँसती है, खेलती है, उन सबको ‘लोक साहित्य‘ की संज्ञा दी जाती है। लोक साहित्य बहुधा अनाम होता है। किसी लोकगीत या लोक कथा का रचयिता कौन है, यह बहुत कम ज्ञात हो पाता है। यह बहुत संभव है कि किसी लोकगीत या कथा की रचना किसी एक व्यक्ति ने ही की हो और आगे चलकर अनेक पीढ़ियों के लोगों द्वारा उसमें परिवर्तन होता रहा हो। किंतु न तो स्वयं प्रस्तुतकर्ता और न अन्य लोग ही यह स्मरण रखने की चिंता करते हैं कि कौनसा अंश किसके द्वारा रचा गया। 
लोक साहित्य हमारी संस्कृति का प्रमुख अंग है, जिसे पाँच भागों में सामान्यतः विभक्त किया जा सकता है- लोकगीत, लोकगाथा, लोक नाट्य, लोक कथा व लोक सुभाषित/प्रकीर्ण साहित्य। कुछेक सामाजिक विद्वानों ने लोक साहित्य के छटे भाग के रूप में जादूटोने, तंत्र मंत्र तथा अंधविष्वासों से संबंधित सामग्री को वर्गीकृत करने की चेष्टा की है।1 लोक साहित्य, लोक जीवन के धार्मिक, आर्थिक एवम सामाजिक पक्ष से घनिष्टता के साथ जुड़ा हुआ है। विविध संस्कारों के अनुसार लोकगीतों की रचनाएँ हुई हैं, मुख्यतया जन्म और विवाह संस्कार पर सर्वाधिक लोकगीत मिलते हैं। व्रत, उपवास, पर्व, पूजा सभी लोकगीतों और कथाओं के साथ संपन्न होती हैं। अनेक  ऋतुओं के आधार पर भी लोकगीतों का सृजन हुआ है। बुआई, रोपाई तथा कटाई के अवसरों पर अनेक प्रकार के क्रिया गीत गाये जाते हैं। रोग बीमारियों, अन्य प्रकार के शारीरिक कष्टों, भूत प्रेतों आदि को दूर भगाने के लिये, शकुन, अपषकुन, कृषि, वर्षा तथा जातिगत स्वभावों/विशेषताओं को वर्णित करने वाले मुहावरों, लोकोक्तियों तथा कहावतों के द्वारा लोक साहित्य समृद्ध हुआ है। 

लोक साहित्य की महत्ता को देखते हुये सारे संसार में लोक साहित्य को संगृहित करके प्रकाषित किया जा रहा है। इस कार्य के अंतर्गत लोकगीतों, लोककथाओं, मुहावरों, पहेलियों, लोक नृत्य, लोक संगीत, लोक कला, रीति रिवाजों, पूजा पद्धतियों एवम साधनाओं, विश्वासों और विचारों को संकलित करना शामिल है। और ये संकलन भाषाविज्ञान, दर्शन , समाज, विज्ञान, धर्मविज्ञान, नर विज्ञान, चिकित्सा, ज्योतिष, सभ्यता, संस्कृति आदि अनेक विषयों के विद्धानों एवम शास्त्रियों के गंभीर अध्ययन के विषय बने हुये हैं। हरियाणा की लोकभाषा के कई रूप हैं। इनमें से मुख्य एवम केन्द्रीय बोली बांगरू है। इसके अतिरिक्त मोटे तौर पर हिसार जिले के पष्चिमी भाग में बागड़ी, गुड़गाँव जिले के पलवल में ब्रज तथा फिरोजपुर-झिरका में मेवाती, रेवाड़ी तथा महेन्द्रगढ़ में अहीरवाटी तथा अंबाला के इलाके में कौरवी या हिन्दुस्तानी बोलियाँ भी बोली जाती हैं।2 

हरियाणवी लोकगीतों में नारीवादी चेतना:हरियाणा के अनेक गीतों में कन्या जन्म पर, घर में छा जाने वाले मातम और माता  पिता एवम अन्य निकट रिष्तेदारों की निराषा का मर्मस्पर्षी वर्णन किया गया है। साथ ही साथ जच्चा (नव प्रसूता) के प्रति बरती जाने वाली उपेक्षा एवम उदासीनता का चित्रण किया गया है। अनेक दिये जले होने के बाद भी, परिवारजनों को घर में ‘‘गहन अंधेर‘‘ की अनुभूति होती है। वहीं दूसरी ओर, पुत्र जन्म पर घर का वातावरण, जच्चा  के प्रति व्यवहार, एवम  माता-पिता की मनोस्थिति पूरी तरह बदल जाने का चित्रण भी निम्नलिखित गीत 3 में किया गया हैं, जो संपूर्ण समाज की मानसिकता का प्रतीक है।

‘‘जिद दिन लाडो तेरा जन्म हुआ, हुई है बजर की रात 
पहरे वाले, लाडो सो गये, लग गये चार किवाड़ 
टूटे खटोले तेरी अम्मा वी पौढे (लेटे), बाबल गहर गंभीर 
गुड़ की पात तेरी अम्मा वो ही पीवै, टका भी खरचा न जाय।। 
सौ सठ दिवले (दिये) बाल धरे हैं (जलाये हुये हैं) तो भी गहन अंधेर 
जिस दिन लल्ला तेरा जन्म हुआ है, हुई है स्वर्ण की रात 
सूतों के पलंग लल्ला अम्मा वी पौढे, सुरभि का धृत मंगाय 
बूरे की पात तेरी अम्मा तो पीवै, बाबल लुटावै दाम।।‘‘ 

तत्कालीन समाज में बेमेल या अनमेल विवाह भी बहुत होते थे। अनेक गरीब माता पिता, वर पक्ष के धन की चमक से अथवा समाज में वर पक्ष के मान सम्मान से प्रभावित होकर, अपनी कन्या का विवाह उन धनी मानी घरानों/व्यक्तियों से कर दिया करते थे। कई बार इस तरह के बेमेल विवाहों में, वर की आयु अत्यधिक होती थी, जो कन्या अथवा वधू के लिये मानसिक संताप का कारण बनती थी। ऐसी स्थिति में, अपनी पीड़ा घर में किसी से भी ना कह सकने के कारण, माता पिता उसे ‘‘अन्यायी‘‘ एवं अपना वयोवृद्ध पति उसे ‘‘बूढ़ा बाबा बंदर‘‘ प्रतीत होता था।  निम्नलिखित गीत 4, हरियाणवी समाज में व्याप्त बेमेल विवाह एवम युवा स्त्री के मनोभावों को व्यक्त करता है।

‘‘देस बिराणा, बालम पुराणा, बूढ़ा बाबा बंदर 
कभी धमकावें कभी दे घुड़की, मेरे प्रेम के अंदर 
मरियो मात पिता अन्यायी, बिन मिलती जोट मिलाई। 
दलिया खावै, नाड़ हिलावै भर भर उंगली चाटे
मैं जाणूं तू और लवैगा, नाड़ हलै जणे नाटे 
मरियो मात पिता अन्यायी, बिन मिलती जोट मिलाई।  
ऐसी बहनों का सुन दुख, रहता चित उदास 
जो कोई ब्याह दे बूढ़े के संग हो जावै सत्यानास 
मरियो मात पिता अन्यायी बिन मिलती जोट मिलाई ।।‘‘
  
साथ ही साथ, वे सभी स्त्रियॉं इस तरह के बेमेल विवाहों का शाब्दिक विरोध भी करती थीं और इस बात पर अपना रोष प्रगट करती थीं कि ‘‘जेवर की झंकार ने, हरियाणा को डोब दिया‘‘ अर्थात बरबाद कर दिया 5। 

‘‘जेवर की झंकार नै डोब (बरबाद) दिया हरियाणा 
सगा सगी तै कहण लाग्या, मैं तेरी छोरी ब्याह के ले ज्यांगा
वा बोले तू मेरी छोरी ना ब्याह सकदा 
तेरे पास टूम, घणी घालण नै कोन्या 
इतनी सुण कै सगा बोल्या, इतना के मेरा घाट्टा सै 
बीस तीस के गूदड़ गामे, तीस बीस की खाट सै 
तीन सौ की झोटी (रूपयों की थैली) धरा, करै तो अरडाट सै 
मैं तेरी छोरी ब्याह ब्याह कै ले ज्यांगा 
चाहै कितना कर लिये धिकताणा 
जेवर की झंकार नै डोब दिया हरियाणा।।‘‘


युवा स्त्री के लिये एकमात्र जगह, जहाँ वो अपने मन की बात कहकर, अपने दिल का भार कम कर सकती थी, गांव का पनघट थी। और हमउम्र लड़कियाँ, जो पनघट पर नित्य मिला करती थीं, उसकी पीड़ा को सुनकर उसे सांत्वना दिया करती थीं। लेकिन इन बातों का निष्कर्ष यही होता था कि ‘‘ ये हमारे भाग्य में लिखा था, इसमें किसी का दोष नहीं है।‘‘ 6

‘‘चारों सखी चारों ही पनियां को जायें
 कुएं पर चढ़के चारों करें विचार 
 अरी सखी तुझे कैसे मिले भरतार
 एरी! पतले कुँवर कन्हैया हम पाये भरतार 
 सखी! बीस बरस के हैं वे सचमुच राजकुमार  ।
 सखी! फूटा पर भाग्य हमारा 
 अस्सी बरस के हमें मिले भरतार 
 वे ज्यों ही उठते गड़गड़ हिलती नाड़
 सूनी अटरिया बिछी सेजरिया हमें बुलावें पास 
 सखी! बाबा सी लागै री हमें सेज लगे उदास 
 सखी! ताऊ सा लागै री हमें दिया शरम ने मार 
 भाग्य में लिखा हमारे था अरी नहीं किसी का दोष।‘
बेमेल विवाहों में केवल कन्या ही छोटी नहीं होती थी, बल्कि कई बार ऐसा भी होता था कि स्त्री का पति, उसकी तुलना में बहुत छोटा होता था। स्त्री के लिये ये स्थिति भी हास्यास्पद एवम अपमानजनक होती थी। ऐसे विवाहों का उद्देष्य घर की संपत्ति, ‘‘घर में ही रखने का विचार‘‘, अथवा अपनी कन्या का विवाह संपन्न परिवार में करने की आकांक्षा ही मुख्य रूप से होता था। लेकिन ऐसे प्रसंगों में पत्नी के घर के अन्य पुरूष सदस्यों द्वारा दैहिक शोषण की संभावना (खासकर तब जब देवर, जेठ, ससुर आदि विधुर हों) भी रहती थी 7। प्रस्तुत गीत युवा स्त्रियों की इसी त्रासदी को अभिव्यक्त करता है, जिसमें ‘‘याणा बालम‘‘ (अर्थात बच्चा पति) के बालसुलभ व्यवहार के कारण होने वाली परेशानी और इस कारण पत्नी को होने वाली शर्मिन्दगी को बताया गया है।8 

बिन मिलती जोट मिलाई मरियो मात पिता अन्यायी, बिन मिलती जोट मिलाई
देस बिराणा (पराया), बालम याणा (बच्चा), जाणें ना सार हमारी 
ऊंट के गले में बूट बांध दिया, खारी खारी खारी। 
मरियो मात पिता अन्यायी बिन मिलती जोट मिलाई। 
साबत रोटी के बुड़क भरै था, खेल रह्या गलियारे 
रोटी खोंसी किसी पिल्ले ने, खड़िया खड़िया (खड़ खड़) किलकारे 
मरियो मात पिता अन्यायी बिन मिलती जोट मिलाई। 
खाट पै सोवै मूत के भे (भिगो) दे, रोने लगै अकड़ के
माँ-माँ करके रोटी मांगे, उठता ही तड़कै 
मरियो मात पिता अन्यायी, बिन मिलती जोट मिलाई।।‘‘

तत्कालीन समाज में बाँझ होना एक अभिषाप था, और मातृत्व के सुख से वंचित स्त्रियाँ, समाज के तानों एवम छींटाकषी से परेषान होकर, बहुधा डूब कर मरने अथवा अन्य तरीकों से अपनी जीवन-लीला समाप्त करने के बारे में सोचा करती थीं। यह विचारणीय है कि बाँझ होने का संपूर्ण दोष, स्त्री पर ही मढ़ा जाता था और पुरूषों को इस आधार पर बहुविवाह करने का अधिकार मिल जाता था। निम्नलिखित दो गीत, बाँझ स्त्रियों की इसी मनोव्यथा को दर्षाते हैं और उनके जीवन की तथाकथित ‘निष्फलता‘ एवम ‘निस्सारता‘  को अभिव्यक्त करते हैं। 9

‘‘राजे गंगा किनारे एक तिरिया (स्त्री) सू ठाड़ी (खड़ी) अरज करे 
गंगे एक लहर हमें देऊ कि जा में डूब जाइयों 
कै दुख री तोहे सासुरी ससुर को, कै तेरे पिया परदेस
कै दुख री तेरे मात पिता को, के मा जाये वीर 
काहे दुख डूबियो 
ना दुख री मोहे सासुरी सुसर, कऊ ना मेरे पिया परदेस
ना दुख री मोहे मात पिता को, ना मा जाये बीर 
सासु बहू कहि नाए बोले, ननद भाभी ना कहे 
ना हो राजे वे मोहे बाँझ कहीं, टरै (पुकारते हैं) सो कोटो गई।‘‘ 

‘‘के दुख री तन्नै सास का, के तेेरे पिया परदेस 
ना दुख री मन्नै सास का, कोए ना मेरे पिया परदेस 
इक दुख री मन्नै कोख का, कोए या मेरे मारै से मान। 
तेरे री बाहण कै सात पुत्तर, कोए एक उधारा  जै लेय। 
सुन्नै री चाँदी मिलैंसे उधारे, कोए लाल उधारे ना देय। 
गेहूँ चावल मिलैंसें उधारे, कोए लाल उधारे ना देय। 
मेरे पिछोकड़े खाती का, कोए ल्याऊं छुरीअ घड़वाय। 
चीरूं ऐ फोड़ूं या कोख नै, या कोए मेरे मारै से मान। 
खाल कढ़ा के भूस भराऊं, कोए भूस में दिला द्यूंगी आग।‘‘ 

तत्कालीन समाज में  कन्या के विवाह के अवसर पर, घरवाले ही उसका रिश्ता तय कर दिया करते थे। एवम इसमें उसकी सहमति अथवा असहमति (आज की तरह) अक्सर उससे नहीं पूछी जाती थी। दूसरी जगह जाने की पीड़ा, अपने सगे संबंधियों से बिछड़ने का दर्द, विवाह पूर्व भावी सास ननद के आक्रामक स्वभाव की कल्पना एवम उनके द्वारा दहेज की असीमित माँग, उन्हें निरंतर परेषान करती रहती थी। प्रस्तुत गीत हरियाणवी स्त्री के इन्हीं मनोभावों को बताता है, जिसमें स्त्री होने एवम इस कारण घर छोड़ने की विवषता, सोना रुपया दहेज में दिये जाने के बावजूद, सास ननद द्वारा दिये जाने वाले तानों के कारण होने वाली पीड़ा को प्रदर्शित किया गया है। इसी पीड़ा के कारण स्त्रियाँ स्वयं को ‘‘मुंडेरे की चिड़ियाँ‘‘ अथवा ‘‘चोणे (चारागाह) की गउ‘‘ कहकर पुकारती हैं, जिन्हें कहीं भी, कभी भी हाँक दिया जाता है। 10

‘‘ले रे बाबुल आपना, मैं चली हूँ  सजन के देस रे
भाइयां ने दिये महल दुमहले, हमें दिया परदेस रे 
काहे को ब्याही विदेस रे,लक्खी बाबुल मेरे। 
हम हैं रे बाबुल, मुन्डेरे की चिड़ियाँ
कंकरी मारे उड़ जायें रे,लक्खी बाबुल मेरे। 
हम हैं रे बाबुल चोणे (चरागाह) की गउएं
जिधर हाँकों हंक जायें रे, लक्खी बाबुल मेरे। 
सोना भी दिया बाबुल रूपा (रूपया) भी दिया 
एक न दीन्ही मेरे सिर की कड्.गी 
सास ननद बोले बोल रे, लक्खी बाबुल मेरे।।‘‘

घर में पौ फटने से पहले उठकर चौका चूल्हा अथवा गृहकार्य में लग जाना भारतीय स्त्री की विशेषता रही है। भारतीय संस्कृति में ऐसी स्त्रियों को आदर्श माना गया है, जो मुस्कुराते हुये घर के सभी कार्य संपन्न करें। सभी लोगों के खा चुकने के बाद, अंत में स्वयं बचाखचा खाना अनेक स्त्रियों की विवषता रही है। लेकिन इन हालातों के बाद भी, उसे अनेक अवसरों पर सास-ननद की जलीकटी सुननी पड़ती है, जो उसे भीतर तक तोड़ देती है। प्रस्तुत गीत इन्हीं परेशानियां एवम हालातों को बयान करता है। 11

‘‘मैं तो माड़ी ( पागल ) हो गई राम, धंधा करके इस घर का  
बसते उठ के पीसणा पीसूँ, सदा पहर का तड़का 
चूल्हे में आग बालगी, छोरे ने दिया धक्का 
बासी कूसी टुकड़े खागी, घी कोन्या घर का 
सास-ननद निगोड़ी यँू कहें- तन्ने फेरा क्यूं ना चरखा।‘‘ 

तत्कालीन समाज में विधवाओं की स्थिति सम्मानजनक नहीं थी। अनेक प्रतिबंध उनके ऊपर लगा दिये जाते थे। उन्हें श्रंगार करने, आभूषण धारण करने, हरी सब्जी खाने, सार्वजनिक रूप से आने एवं पारिवारिक उत्सवों में भी भाग लेने की अनुमति नहीं थी। और ये स्थिति ‘‘कुछ एक दिनों की नहीं थी, बल्कि, उन्हें तो सारे जनम के लिये‘‘ रोने पर मजबूर होना पड़ता था। प्रस्तुत गीत 12 स्त्रियों की इसी पीड़ा, समाज के उनके प्रति अपमानजनक व्यवहार को दर्शाते हैं, जो सुनने वालों के मन में इस स्थिति के खिलाफ क्षोभ उत्पन्न करते हैं। 

‘‘अरे मेरे करम के खारे जल गये, अरू मोमी दूदाभ (अर्थात रेशमी वस्त्र) 
अरे मेरे करम के सुनरा (सुनार) मरे गये, रूठ गये मनिहार 
बहूरी मेरी मत रोवै, मुझे लगा री लाल का दाग 
माँ अरी धौले-धौले (सफेद सफेद) पहर कपड़े, रांडा भेष भरावै 
अरी चले सुनरा के मेरी नथ उतरवावे 
अरी देही जले, जैसे काँच की भट्टी पकावे 
अरी बिच्छू ने मारा डंक, लहर क्यूं ना आवे 
अपना मन समझावन लागी, दो नैनों में भर गया पानी 
अरी सासू जब धँसूं (जाऊं) महल में, दरी बिछौना सूना 
कुछ एक दिनां की ना है, मुझे सारे जनम का रोना।‘‘ 

युवा स्त्री के लिये वैधव्य का भय रात के एक डरावने स्वप्न की की तरह होता था, जिसकी कल्पना मात्र भी भयावह थी। संपूर्ण जीवन कैसे कटेगा, किसके सहारे कटेगा  ये चिंता विधवाओं को निरन्तर सालती रहती थी। देवर जेठ के बच्चों को संभालने,   अथवा पूजा अर्चना में ही उनका अधिकांष समय व्यतीत होता था। विधवाओं (चाहे बाल  विधवा ही क्यों ना हो ) के पुनर्विवाह की कल्पना भी रूढ़िवादी परिवारों में असहनीय थी। प्रस्तुत गीत इसी पीड़ा को प्रदर्षित करता है।13

‘‘चलत पिरान (प्राण), कैसे रोयेउ पिरिया (अर्थात प्यारी) 
तुमको न रोयहूं, पिरभु (प्रभु) अपने को रोयऊं
के मोरी पार लगाई है उमरिया 
देवरा जेठा के लरिका (लड़के) खिलायेउ 
उन्हूं में दिन बिसरायेऊ पिरिया। 
देवरा जेठा कोउ काम न अइहैं
हम हूं को चनना (अर्चना पूजा पाठ) लगायेउ पिरिया। 

डॉ. संबोध गोस्वामी 
फैलो, रॉयल एषियटिक सोसाइटी,
लंदन,
व्याख्याता इतिहास विभाग ,
महाराणा प्रताप 
राजकीय स्नातकोत्तर  महाविद्यालय, 
चित्तौड़गढ़ । 

इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रांतीय एम स्थानीय गीतों में नारी विरोध एवं तत्कालीन परिस्थितियों के खिलाफ नारी विद्रोह के स्वर छिपे पड़े हैं। तकरीबन सभी प्रांतों के गीतों में, इस तरह के गीत हमें मिल जायेगें, बस आवश्यकता है तो उन्हें ढूंढ निकालने  की। उन्हें ढूंढ निकालने की कोशिश एवम उनका नई दृष्टि से अध्ययन/मनन, इतिहास लेखन ( विशषकर नारीवादी इतिहास लेखन ) को, एक नई दिशा  प्रदान करेगा।
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संदर्भ

1. त्रिपाठी, सुरेश चंद्र, कनउजी लोक साहित्य में समाज का प्रतिबिम्ब, रूपायन प्रकाशन, दिल्ली, 1977, पृ. 87। 
2. शारदा ,साधु राम (संपा ), हरियाणा के लोकगीत ,भाषा विभाग हरियाणा ,1970 ।
3. वही , पृ. 46।
4. वही , पृ. 314।
5. वही , पृ. 318।
6. वही , पृ. 191।
7. बाल और बेमेल विवाह के इस घिनौने स्वरूप का वर्णन 1880 के दशक में  प्रख्यात् सामाजिक सुधारक बी.एम.मालाबारी ने अपने ‘‘नोट्स‘‘ में किया था। इस विषय पर अधिक जानकारी के लिए कृपया देखें लेखक की पुस्तक फीमेल इन्फैंटिसाइड एण्ड चाइल्ड मैरिज, रावत प्रकाशन, जयपुर, 2007। 
 8. शारदा ,साधु राम (संपा ), हरियाणा के लोकगीत   पृ. 314।
 9. वही , पृ. 44 ,45।
10. वही , पृ. 162 ।
11. वही , पृ. 204 ।
12. वही , पृ. 178 ।
13. वही ।                                    

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