शोध:मुक्ति के पथ पर ले जाती भवानी प्रसाद मिश्र की कविता /प्रवीन्द कुमार,वर्द्धमान

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati )             फरवरी -2014 


चित्रांकन:इरा टाक,जयपुर 
भवानी प्रसाद मिश्र, ‘कविता की स्वतंत्र राह को स्वंय निर्मित’ करते हैं, और इस राह को तय करने में वे किसी भी तरह की देषी-विदेषी काव्य प्रवृतियों के अनुकरण से सदैव दूर रहे। दूसरे षब्दों में कहें तो इनकी कविता श्रम और कर्म के महत्व पर जोर देती है,और यह उनके कविता का मूल उत्स भी रहा है। इस आधुनिक संत कवि को सत्य कहने और लिखने में ही जीवन की सार्थकता व आनंद का अनुभव होता है। यही कारण है कि उनकी काव्य अभिव्यक्ति में किसी भी साहित्यिकवाद का कोई भी स्वर गुंजता दिखाई नहीं देता। सच कहा जाये तो उन्हें किसी तरह की पराधीनता ही स्वीकार न थी - न वाद की, न अंग्रेज की, न परायी भशा की, न अभिव्यक्ति की और न ही किसी पद सत्ता की। जो मूर्त और प्रत्यक्ष मानव है वही उनके सृजन का लक्ष्य रहा।बाकौल मिश्र- ’’कुछ लोग होते है जो कविता न भी करे तो जी सकते हैं। वे ऐसी मछलियॉं हैं जो पानी के बाहर भी जी लेता है, सरकारी पोखरे में। अपन तो पानीदार मछली हैं। जीवन का जल चाहिए।’’1

उनके कवि मन के निर्माण में जहॉं बाल्मीकि,कालिदास,कबीर और सूर का प्रभाव है वहीं भारतेंदु, रामनरेश त्रिपाठी, माखन लाल चतुर्वेदी की स्वच्छंदता प्रिय दृष्टि ने भी प्रभावित किया। इसके साथ ही राष्ट्रीय जागरण ने उनकी सर्जनात्मकता में देश प्रेम के संस्कारों को बलिष्ट बनाया और मध्यप्रदेश की प्रकृति ने उनमें नया अनुराग पैदा किया। वे एक प्रकार से नर्मदा की तप- त्याग धारा के परशुराम तेज वाले संत कवि हैं। मिश्र की रचना संस्कार पर प्रकाश डालते हुए लक्ष्मण केडिया लिखते हैं-’’ मिश्र की रचना यात्रा भारतीय समाज और परिस्थितियों के कई दौर से गुजरती है। प्रारंभिक दौर में एक ओर राष्ट्रीय स्वतंत्रता का संघर्ष चंल रहा था जिसमें गॉंधी के नेतृत्व में हिंसा की जगह अहिंसा, नफरत की जगह प्यार और नैतिक आदर्शों को संपूर्ण आंदोलन का केंद्रीय तत्व बनाने का आग्रह था, वहीं दूसरी ओर कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा पूरे माहौल को निज हित में साधित करने की कुत्सित चेष्टा भी चल रही थी। वे अपने इरादों में इस कदर डूबे थे कि स्वार्थ साधन के लिए हर तरह का कुकृत्य करने पर उतारु थे। भवानी प्रसाद मिश्र के भीतर का रचनाकार इन स्थितियों से न केवल क्षुब्ध होता है ,बल्कि रचना और व्यावहारिक दोनों स्तरों पर पूरी सक्रियता के साथ जुझता भी है।’’2

1934-35 में माखनलाल चतुर्वेदी से भेंट जीवन के अद्भूत क्षणों में गिनते हैं। उनके द्वारा कही गयी बात को गॉंठ बॉंध ली कि ’’ तुम्हारा आसान लिखना छुट न जाए, इसकी सावधानी रखना। किंतु यह भी ध्यान रखना कि आसान लिखना ध्येय नहीं है। ध्येय है लिखना ,मन की बात ,भीतर की बात ,भीतर से भीतर की बात और वह इस तरह कि वह न तो सूत्रबद्ध हो न भाष्य जो मन में न समा सके ,उसे वाणी तक लाओ। किंतु जुवांदराजी मत करों। कलम को जीभ मत बनने देना।’’3

मिश्र जी के संबंध में ऐसा कहा जा सकता है कि नयी कविता में वे एक मात्र ऐसे कवि हैं जिनकी काव्यानुभूति में किसान, मजदूर, बच्चे और नारी इन सभी की समस्याओं का दर्द मूल संवेदना में जज्ब होकर सहजता से बोलता है। ’’मैंने अपनी कविता में प्रायः वही लिखा है जो मेरी ठीक पकड.  में आ गया है। दूर की कौड़ी लाने की महत्वाकांक्षा मैंने कभी नहीं की।’’4 अपनी अलग राह और अलग काव्य- खोज ,भावचेतना के कारण ही मिश्र जी समकालीन कवियों में एकदम विशिष्ट है। वही लिखा जो उनके काव्यानुभव का विशय रहा। झूठी काव्य गप्प से सदैव दूर रहे। ’’संकल्प यही रहा कि दर्शन में अद्वैत ,वाद में गॉंधी और टैकनीक में सहज ही लक्ष्य मेरे बन जायें ,यही कोशिश है।’’5

बहुत मामूली रोजमर्रा के सुख -दुख मैंने इनमें कहे हैं जिनका एक भी शब्द किसी को समझाना नहीं पड.ता है- ’शब्द टप. टप टपकते है फूल से ,/ सही हो जाते है मेरी भूल से।’ यहाँ कविता रची नहीं गयी है ,बल्कि साधी गयी है। स्वंय को गला तपा कर ,अपने जीवन को होम कर ,अपनी अनथकी साधना से कवि ने जो तत्व निकाला ,उसी से उनकी कविता बनी। सहज ही शमशेर बहादुर सिंह की वह वानगी ताजी हो जाती है जिसमें वे यह स्वयं मानते हैं कि कविता से इतर न तो कवि का कोई सार्थक वक्तव्य हो सकता है ,और न उसका जीवन ही- 
           ’’बात बोलेगी हम नहीं। भेद खोलेगी बात ही।’’6

दरअसल ,लोक जीवन की खरी संवेदना ही उनकी काव्य. वस्तु का मूलाधार रहा है। अपनी वैयक्तिक पीड़ा एवं वेदना को विश्व की वेदना में ,अपनी संवेदना को विश्व की संवेदना से एकात्म कर उन्होंने विश्व शांति की चर्चा की। उनके अप्रकाशित कविता ’फर्क’ में इस अद्वैत को खोलते हुए कहते हैं-

       ’’मेरा और तुम्हारा / सारा फर्क ,/ इतने में है /कि तुम लिखते हो / मैं बोलता हूँ और कितना फर्क हो जाता है इससे/ तुम ढंकते हो मैं खोलता हूँ.’’7

      कि ईमानदारी एवं साफगोई से कहना उन्हें आधुनिक संत कबीर के रुप में प्रस्तुत करती हैं। ’मठ,मंदिर मन से छोटे हैं / स्नेह सही है सब खोटे है ।’ प्रेम की यह नयी परिभाषा, जिसमें कहा गया है ,प्रेम पाना ईश्वर को पाना है। उक्त कथन उन्हें आधुनिक संत के रुप में स्थान देने के लिये काफी है।

उनकी कविता का प्रधान मूल्य है मानव की मुक्ति ,शोषण मुक्त समाज ,गंबई संवेदना का खरापन , संत भाव की करुणा और गॉंधी विचार दृष्टि की मूल्य चेतना। इन जीवन मूल्यों को उन्होंने जुझकर कमाया है। किंतु समाज में तेजी से गिरते जीवन मूल्यों को लेकर प्रश्नानुकुलता उनके मन में भी है। जन के संबोधन और संशय की स्थिति का चित्रण इनके यहॉं बहुतेरे हैं और यह इस बात का प्रमाण है कि वे समाजिकता की व्यापक भूमि पर कविता को रचते हैं। उन्होंने बार- बार दुहराया है-

         ’’सच कहो कवि आत्मा से पूछकर /सच कहो कवि मन किसी का भय करो। ’’8

भवानी प्रसाद मिश्र जी 
ध्यातव्य रहे कि भारतीय दर्शन का यह शब्द ’आत्मा ’ यहॉं अंतर्मन के अर्थ में आया है ,आत्मा के दार्शनिक चिंतन को लेकर नहीं । उन्होंने कविता को आम आदमी का संवाद बनाया ,इसके लिए अपनी नैसर्गिक प्रतीभा के तहत चीजों को सहज- स्वच्छ रुप में लिया। यही कारण है कि उसमें बोली की लय का संगीतात्मक राग बजता है। उनके कहने की अदा एकदम मौलिक ,अद्वितीय और सहज  स्फूर्त है। उनके ’अंदाजे बयां’ में व्यंग्य और कथन भंगिमा की विचित्रता का विशेष महत्व है, और उनकी काव्य शैली नितांत उनकी है जिसे इन पंक्ति में देखा जा सकता है-

       ’’नये ठाठ से नई राह पर कदम धर दिया है/खाहमख्वाह टहलना हमने बंद कर दिया है।’’9 सन्नाटा ,गिरगिट ,सॉंप ,खण्डहर ,पहाड. ,मैदान सभी का अंतरंग स्पर्श वे कर सकते हैं। वे ’सन्नाटा ’ और ’खण्डहर ’पर भी मजे से कविता लिखते  हैं-

         ’मैं सन्नाटा हूँ फिर भी बोल रहा हूँ /मैं शांत बहुत हूँ  फिर भी डोल रहा हूँ ।’ 

उन्हें छोटे.छोटे भाव गीत लिखने में भी सफलता मिली है। इनका मन गायन में भी खुब रमा है , स्पष्ट हो  कि ऐसे छोटे गीतों में भी गॉंव की गरीबी और खेतिहर किसान की  पीड़ा  है। फिर भी कहा यही है-

         ’’ सहो / और बेहतर बातों के लिए / रहो।’’11

यहॉं कवि आम जन कहे जाने वाले लोगों से सीधे बात करते दीखते हैं। भक्तिकाल और छायावादी युग की तरह रहस्यवादी रुप में नहीं। मिश्र जी का ’मूल्यहीनता का सुख ’इस संदर्भ में उल्लेखनीय है-

           ’’वे मजे में है जिनका मन / मर गया है / घर मगर / भर गया है जिनका 
            चीज़ों से / अगर मन का कोई /चेहरा होता / तो पहरा होता उस पर /चीजों का। ’’12

नैतिकता का हा्रस एवं व्यवस्था और सत्ता की विसंगतियों पर व्यंग्य की यह विडंबना यहीं थमती नजर नहीं आती ,बल्कि वह तो उस बच्चे की दरिद्रता तक पहूँचती है जो इस दरिद्रावस्था में मर रहे हैं और उनका बचपन सिसक रहा है- ’’ हाय रे बचपन तलक सुख से न बीता / वाह रे ,दरिद्र तुने खूब लूटा।’’13 ऐसी तन्मय ,समर्पित और विनय भाव से कविता में रत रहने वाले कवि मिश्र के बारे में प्रभाकर श्रोत्रिय का उक्त कथन प्राणवायु का काम करता है- ’’ नसें तो नसें ,जिसे हड्डियों में भी अपना दिल धड.कता लगता है ,जो किसी बौद्धिक तर्क के सहारे कविता नहीं रचता ,बल्कि जो कविता लिखता ही नहीं ,कविता उसे लिखती है।’’14

’शिक्षा  की भारतीयता’ ,1939 में लिखे एक लेख में उन्होंने पूर्व और पश्चिम से घनिष्ठ संपर्क होने के बावजूद यह संपर्क पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकी। यह अब भी एक.दूसरे में विश्वास कायम नहीं कर सकी इसकी बेचैनी इस लेख में दिखाई देती है- ’’ मनुश्य के इतिहास के आरंभ में उसका पहला सामाजिक उद्देश्य एक जाति ,एक कौम निर्धारित करना था। उस प्राचीन काल में व्यक्ति भौगोलिक सीमारेखाओं के द्वारा घिरकर काम किया करता था। किंतु आज का युग में आवागमन की सुविधाओं ने इन सीमारेखाओं को मिटा दिया है।.......अब हमारे सामने किसी एक जाति , प्रांत या देष का प्रश्न नहीं है। अब हमारे सामने हिंदू या मुस्लमान ,मध्यप्रांत या ब्रह्मदेश ,हिन्दुस्तान या ग्रेट ब्रिटेन का प्रश्न नहीं है। अब तो हमारी जाति मनुष्य और देश संसार है। व्यक्ति का स्थान अब जातियों ने ले लिया है। इन जातियों को स्वतंत्र होकर अपना व्यक्तित्व प्रकट करना है। ’’15

इस तरह हम पाते हैं कि मिश्र जी सर्वभौम की सत्यता को एक आयाम देते हुए मानव और मानवता को सुनिष्चित हेतु ’संसार के साथ हमारा संबंध ,एकीकरण का संबंध है ’ को स्थापित करते है और यह भी की हमारी षिक्षा ’ सर्वमेव विशन्ति ’ का रहा है।

इस अस्थिर संसार में सारे गतिवान ईश्वर से अवतरित है। इन्हें छोड.कर आनंद का संग्रह कर ,संग्रह के लोभ से आनंद लेने का प्रयत्न न कर। तात्पर्य ,जब हम वस्तु बाहुल्य को ही एकमात्र अंतिम सत्य समझ लेते हैं तब हम उनकी पार्थिव प्राप्ति में ही अपने को लगा देते हैं।किंतु यदि हम अनंत आत्मा को अंतिम सत्य मानें तब  उसके साथ एकीकरण में हमें आत्मानंद मिलता है।

दरअसल ,उनके गॉंधी दर्शन की काव्यानुभूति में हर सत्य को निर्ममता से कहने की गजब की ताकत ह्रै ,तभी तो वे ’ हिंदी कविता की चुनौति ’पर टिप्पणी देते हुए कहते है। ’’सच्ची कविता वह है जो देश और काल से निरपेक्ष होती है ,इस बात में मुझे कोई बड़ा अर्थ नहीं दीखता। मैं अपने जमाने ,अपने देश और अपनी भाषा की परंपरा को संभालकर लिखी गई कविता को ही ठीक कविता मानता हूँ और उसमें शाश्वत तत्व नहीं होते ,ऐसा भी नहीं मानता। वैदिककालीन कविता आज भी गरिमापूर्ण लगती है।किंतु वह अपने काल से बंधी हुई कविता है।....उसकी शक्ति और दुर्बलता ,दोनों उसके अपने काल के प्रति सच्चे होने की शक्ति और दुर्बलता है।’’16

निस्संदेह ,उनकी काव्यानुभूति में प्रकृति की लय है। बावजूद इसके भारतीय जीवन की संत- लय उनकी कविताओं में यदा - कदा  स्थान अवश्य पाता हुआ दिखाया देता है और वह भी पूरी तरह से मस्ती और फक्कड़पन अंदाज में- ’और न जाने क्या- क्या बोला / पिछले साल भवानी बोला।’ अन्य कई स्थानों पर इस तरह के असरदार बोल दीख ही जाते हैं। जिस तरह की साफगोई और ईमानदारी कबीर की मुक्तक में दीखता है । कुछ वैसा ही याद ताजा कर जाते हैं मिश्र जी की यह उक्ति -’’ आप सभ्य हैं क्योंकि धान से भरी आपकी कोठी / आप सभ्य है क्योंकि वक्त पर कटवा देते बोटी।’’17

मिश्र की कविता साधारण से साक्षात्कार की कविता है। अपने कवि वक्तव्य 11 अक्तूबर ,1973 में वे लिखते हैं-’’ मैं कविता नहीं लिखता ,कविता मुझको लिखती है ,ये पक्का है। मैंने दो ही काम सीखे ,किये हैं ,कविता और रोटी- सब्जी।’’18 अपने लेखकीय वक्तव्य क्रम को जारी रखते हुए काव्य की आत्मा 12 अक्तू0 ,73 पर प्रकाश डालते हैं-’’मेरी समझ में सोच- विचार का कविता से संबंध नहीं। संबंध भावना से है। विचार जब भावना हो जाये ,तब लिखना चाहिए। विचार जब रच- पच जाये ,तब फूटे तो अच्छा। नई कविता ,पुरानी कविता क्या अर्थ है इन सबका। कोई अर्थ नहीं है और अर्थ है। क्या ’मानस’ को पढकर उसे पुरानी कविता कहेंगे और उसे नयी कविता क्या कहें जिसे कवि खुद नहीं समझ रहा है। कविता नीति से रस खींचती है। जड़ें समाजनीति में है। समाजनीति अमरबेल नहीं है। गाड.ना पड.ता है ,तब रस निकल पाता है।’’19 तात्पर्य कविता सिर्फ विचारों और अनुभवों से नहीं गढ़ा जा सकता अपितु इन कर्मों को श्रम की कसौटी पर कसकर साथ ही भावना का समावेष कर ही कोई रचनाकार काव्य- आत्मा तक पहुँच पाता है। प्रसिद्ध विचारक एंजिल्स ने लिखा है-’फर्स्ट केम लेबर आफटर इट एंड साइड बाई साइड विद इट(केम) आर्टिकुलेट स्पीच।’ अर्थात् आदमी का षब्द श्रम में से फूटा है।

एक अन्य व्याख्यान ’कविता और विज्ञान’ में कृष्णचंद नायर के एक सवाल ,विज्ञान और कविता में ज्यादा विश्वसनीय कौन है? का समाधान प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं-’’ विज्ञान ने तमाम बातें ऐसी बतायी जिसे हम नहीं जानते थे और कविता ऐसी तमाम बातें बताती है ,जिन्हें हम अभी भी नहीं जानते।’’20 अपनी बात को और खोलते हुए उन्होंने दृष्टांत के रुप में चैतन्य और जड. वस्तु में लिया। पत्थर फेंककर मार दीजिए तो किसी का मूंह टूट जाता है जबकि पत्थर जड. हैं। कविता में भी जड. और चैतन्य स्थाई रुप से मौजुद है। ये दोनों तत्व जब इकट्ठा होते हैं और जब रगड. खाते हैं, जैसा तुलसीदास ने कहा है-’अतिषय रगड. करै जो कोई / अनल प्रकट चंदन ते होई।’

भवानी प्रसाद मिश्र के लिए कविता सिर्फ किसी सत्य को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर नहीं है ,वह सत्य को जानने का एक उपकरण भी रहा है। इसी सत्य तक पहूंचने के लिए निराला ने छंद के बंधन से मुक्ति दिलाई। मिश्र जी ने उस’ मुक्त छंद’ को ’बातचीत के छंद’ में बदलकर दूसरी चुनौती दी। उन्होंने ’बुनी हुई रस्सी’ की भूमिका में लिखा था ,’’मैं जो लिखता हूँ  ,उसे जब बोलकर देखता हूँ और बोली उसमें बजती नहीं है तो मैं पंक्तियों को हिलाता- डुलाता हूँ ।’’ या जैसा उन्होंने अपनी कविता में कहा था ,’जिस तरह हम बोलते हैं ,उस तरह तू लिख ,और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।’

स्पष्टतया , मिश्र जी ने अपने देश और काल की इस चेतना को बातचीत की लय से पकड़ा है। बातचीत की लय का यह आत्मीय संवाद ही उनकी अभिव्यक्ति का खोज भी रहा है। इस खोज की ताकत से ही उनकी भाशा-गठन व प्रतीक योजना , हर अमूर्त भावों को मूर्त रुप देने में सफल है-’याने मैं और मेरे षब्द, अलग-अलग नहीं है, एक हैं। मैं सिर्फ उन्हें बरतूं नहीं, उन्हें जिऊँ ’ लोक जीवन की लोक लय जैसे छंद के वे स्वंय निर्माता है। अतः ’राही नहीं राहों के अन्वेशी’ जैसे शब्द उनके लिए बेधड.क प्रयोग किया जा सकता है। यही वो कला है जो उनकी कविताओं में लयात्मक सहजता , भावात्मक तीव्रता व काव्यात्मक प्रखरता को दर्शाती है। यह उनकी अपनी विशिष्टता भी रही है, जिससे आज भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

          ठीक-  ’’ ना, निरापद कोई नहीं है,ठीक आदमकद कोई नहीं है।’’

फिर भी इतना तो अवश्य ही कहा जा सकता है कि वह कवि और व्यक्ति दोनों रुपों में पूरे आदमकद था.उनका सबकुछ, वेश , वर्ण और वाणी दूध से धुला न सही दूध जैसा शुभ्र और मधुर अवश्य था।
 
प्रवीन्द कुमार
शोध छात्र,
वर्द्धमान विश्वविद्यालय, वर्द्धमान
मो- 9614747856
ई-मेल:thepravindkumar12@Gmail.com
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संदर्भ:
1.समकालीन सृजन ,अंक-16, 1995, सं॰ षंभुनाथ, पृ॰. 116
2. वही , पृ॰.04
3. इ॰गा॰रा॰मु॰वि॰ ,ई॰एच॰डी॰-2 , पृ॰ .66
4. वही , पृ॰. 67
5. वही , पृ॰. 66
6. संकल्प. 7 ,षोध पत्रिका ,कलकत्ता विष्वविद्यालय ,2001-02 ,सं॰ षंभुनाथ ,पृ.44
7.समकालीन सृजन , अंक-16 , 1995 ,सं॰ षंभुनाथ ,पृ॰.10
8. ई॰एच॰डी॰-2 , इ॰गा॰रा॰मु॰वि॰ , पृ॰.68
9. ई॰एच॰डी॰-2 , इ॰गा॰रा॰मु॰वि॰ ,पृ॰.72
10.. ई॰एच॰डी॰-2 , इ॰गा॰रा॰मु॰वि॰ ,पृ॰.72
11. ई॰एच॰डी॰-2 , इ॰गा॰रा॰मु॰वि॰ ,पृ॰.73
12. समकालीन सृजन ,अंक-16, 1995, सं॰ षंभुनाथ, पृ॰. 
13.. इ॰गा॰रा॰मु॰वि॰ ,ई॰एच॰डी॰-2 , पृ॰ .68
14. संवाद ,नयी कविता,आलोचना और प्रतिक्रिया ,डा.प्रभाकर श्रोत्रिय, 1982 ,पृ॰.59
15.. समकालीन सृजन ,अंक-16, 1995, सं॰ षंभुनाथ, पृ॰.22
16. . वही , पृ॰. 27.28
17. ई॰एच॰डी॰-2 , इ॰गा॰रा॰मु॰वि॰ , पृ॰.68
18... समकालीन सृजन ,अंक-16, 1995, सं॰ षंभुनाथ, पृ॰.45
19 वही
20 वही ,पृ॰.46
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