समीक्षा:तुम्हारी उदासी मेरी कविता की पराजय है / कालूलाल कुलमी

           साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            
'अपनी माटी' 
(ISSN 2322-0724 Apni Maati
इस अप्रैल-2014 अंक से दूसरे वर्ष में प्रवेश
                                समीक्षा:हम बचे रहेंगे-विमलेश त्रिपाठी/ कालूलाल कुलमी 
         
         
चित्रांकन:रोहित रूसिया,छिन्दवाड़ा
समकालीन कविता को अभी तक कोई नाम नहीं दिया गया है। उसे समकालीन कविता ही कहा जाता है। नब्बे के दशक से आज तक जो कविता लिखी जा रही है वह समकालीन कविता है। चाहे युवा कवि लिखे या वरिष्ठ कवि। यह समकाल का प्रभाव है या दबाव, इसकी पड़ताल की जानी है। यह सुखद है कि एक साथ तीन-तीन नस्ले लिख रही हैं। सोच रही है, संवाद कर रही हैं। उसमें कईं अंतरविरोध उभरकर आ रहे हैं। समकाल की पड़ताल करती विमलेश त्रिपाठी की कविताएं मनुष्य के बचे रहने की संभावना के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करती है। केदारनाथ सिंह विमलेश त्रिपाठी की कविताओं के बारे में कहते हैं कि ‘अपने आस-पास की छोटी-छोटी छूटी हुई चीजों को अपने साथ लिये-दिये चलने वाली और उनके भीतर के मर्म को निहायत अनाटकीय ढंग से पकड़ने वाली ये कविताएॅं हमें रोकती-टोकती हैं और एक जानती-पहचानती भाषा में हमसे बोलती-बतियाती हैं। यही इस युवा कवि कि विशेषता है जो उसके भविष्य के प्रति हमें आश्वस्त करती है।‘(फ्लैप से) आज की फास्टफुड लाइफ में छोटी चीजे विस्मृत होती जा रही हैं। उनके बारे में सोचने का समय कम हो रहा है। जैसे पैसेंजर हर स्टेशन पर रुक-रुक कर भागे जा रहे लोगों को ठहरने की हिदायत देती हैं वैसे ही विमलेश की कविताएं रोकती है और फिर टोकती हैं। बहुत धीमी गति से जीवनराग को बजाती हैं। लौटने में कितनी उम्मीद और लय है.

‘मंदिर की घंटियों की आवाज के साथ/रात के चौथे पहर
जैसे पंछियों की नींद को चेतना आती है।/हर रात सपने में
मृत्यु का एक मिथक जब टूटता है/और पत्नी के झुराए होठों से छनकर
हर सुबह/जीवन में जीवन आता है पुनः जैसे
कई उदास दिनों के/फांके क्षणों के बाद
बासन की खड़खड़ाहट के साथ /जैसे अॅतड़ी की घाटियों में
अन्न की सोंधी भाप आती है/वैसे ही आऊॅगा मैं।

जीवन की अपनी लय होती है। जहां से मनुष्य आगे बढ़ता है। मनुष्य प्रकृति के राग के साथ अपना तादात्म्य स्थापित करते हुए श्रम करता है और उससे सौंदर्य की सृष्टि। यह लौटना बचे रहना है। जीवन सौंदर्य की लय के साथ बचे रहना है। अपने आसपास के साथ बने रहना है, उसे बचाये रखना है। अन्न की सोंधी भाप को बचाना है। जहां जीवन की लय नहीं होगी वहां जीवन पर जड़ता हावी होती जाती है। जहां गति होती है वहां जीवन बचता है। विमलेश के यहां जीवन और जीवन की लय दोनों साथ है। कविता विचारों का ब्यौरा नहीं होती। कविता भावों का भाषा में कायांतरण होती है। जहां कविता में किसी एक का पलड़ा भारी हुआ कविता कमजोर होती है। दोनों में संतुलन कविता को कविता में रुपांतरित करता है। अपने कायांतरण में कविता बहुत कुछ को समेटती है। अपने आसपास के जीवन की विदू्रपताओं की और संकेत करती है। जहां एक सामान्य आदमी की निगाह नहीं जाती वहां कवि की निगाह जाती है। वह उसको कविता के माध्यम से पाठको के सामने रखता है। कविता का जादू कम हो रहा है, जीवन भरसक कठिन होता जा रहा है। मनुष्य की चमड़ी मोटी हो रही है तब कवि कहता है.

‘मैं समय का सबसे कम जादुई कवि हॅू/मेरे  पास शब्दों की जगह
एक किसान पिता की भूखी ऑत है /बहन की सूनी मांग है
छोटे भाई की कम्पनी से छूट गई नौकरी है/राख की ढेर से कुछ गरमी उधेड़ती
मां की सूजी हुई ऑखें हैं/मैं जहां बैठकर लिखता हॅू कविताएॅ
वहां तक अन्न की सुरीली गंध नहीं पहॅुचती‘

हम बचे रहेंगे
विमलेश त्रिपाठी (कविता संग्रह)
नयी किताब प्रकाशन,दिल्ली
प्रथम संस्करण: 2011
मूल्य: 200 रुपये
अन्न से गंध विस्थापित होती जा रही है। एक तरफ झूठन का अंबार लगा हो और दूसरी तरफ भूखों का। जहां भूख है वहां अन्न और गंध दोनों नहीं है, जहां भूख नहीं है वहां अन्न ही अन्न है कि उससे झूठन बढ़ती ही जा रही है। ऐसे में कवि की कविता का जादू क्षीण हो रहा है। वह जितने समय में एक कविता लिखता है उतने समय में ‘बहन ‘औरत से धर्मशाला‘ में तब्दील हो जाती है‘। औरत का धर्मशाला में बदलना! उसके सपनों का अंत है। विमर्श के दौर में स्त्री अपने लिए समाज में समकक्ष जगह बना रही है। जिसकी वह हकदार है। वह सिर्फ देह नहीं है। न ही वह वर्जनाओं का पुतला। ऐसे में वह समाज के निर्माण में समानांतर निर्णायक और नियमक होने की निर्णायक स्वयं है। वहां वह किसी भी रुप में समाज के लिए धर्मशाला नहीं है। न औरत के रुप में न श्रम करनेवाली कोई मशीन। उसका अपना स्वतंत्र वजूद है। उसकी अपनी सोच है।

‘उदास मत हो मेरे भाई/तुम्हारी उदासी मेरी कविता की पराजय है
नहीं मेरे पास तुम्हारे लिए जमीन का कोई टुकड़ा/जहॉ ऊग सकें तुम्हारे मासूम सपने
न कोई आकाश/जहॉ रोटी की नयी और निजी परिभाषा तुम लिख सको
वह समय भी नहीं/कि दुनियादारी से दूर हम निकल जाएॅ
खरगोशों का पीछा करते गंगा की कछार तक
लौटें तो मां के आंचल में ढेर हो जाएॅ‘ 

मनुष्य की उदासी कविता की पराजय है। कविता मनुष्य की जय यात्रा की सबसे सघन साथी है। उसने मनुष्य की उदासी के बीच से संभावना की लौ जलायी है। मनुष्य के श्रम से रोटी की परिभाषा को रचा है। अपने भाई की उदासी को कवि इसी वजह से कविता में समेट लेना चाहता है। समय के साथ जहां सबकुछ बदल रहा है वहां अपने भाई की बचपन की स्मृति को बचाये रखते हुए प्रगाढ़ता का अनुभव भी कराना चाहता है। इसी में वह सब के बचने की उम्मीद लगाये हुए हैं।

‘सब कुछ के रीत जाने के बाद भी
मॉ की ऑखों में इन्तजार का दर्शन बचा रहेगा
अटका रहेगा पिता के मन में
अपना एक घर बना लेने का विश्वास
ढह रही पुरखों की हवेली के धरन की तरह‘

सब कुछ के रीत जाने के बाद भी उम्मीद का बचा रहना, अनन्त संभावनाओं का बचा रहना है। एक पिता का अपना घर बना लेने का विश्वास अपने और अपनी आनेवाली नस्लों के सपनों की बुनियाद रखना है। उनके लिए जमीन तैयार करना है। सभ्यता का विकास संबद्धता में ही संभव है। जहां किसी तरह का कोई अंतरविरोध ही नहीं है वहां परिवर्तन कैसे संभव होगा। परिवर्तन विध्वंस करता है। चली आ रही लीक को तोड़ता-मरोड़ता है। उसको लांघता है। नये रास्ते खोजता भी है और निर्मित भी करता है। वहां किसी भी तरह का पूर्वाग्रह दुराग्रह नहीं होता। वहां सीमाओं के पार जाने का दुस्साहस होता है। झंझावातों को पार करने का पागलपन होता है। जहां सपने होते हैं वहां संघर्ष होता है। वहां भविष्य होता है। 

‘एक उठे हुए हाथ का सपना/मरा नहीं है
जिंदा है आदमी/अब भी थोड़ा सा चिड़ियों के मन में
बस ये दो कारण/काफी हैं
परिवर्तन की कविता के लिए।‘

कविता, भाषा,मूल्य,मनुष्य मनुष्य के भीतर के ताप को बचाने के लिए कवि शब्दों के स्थापत्य को तराशता है। भाषा मनुष्य की सबसे श्रेष्ठ खोज है। उसमें ताप रहेगा तो मनुष्य के अंदर भी ताप रहेगा। जहां भाषा गंदलाएगी वहां मनुष्य की संवेदना भी गंदलाएगी। उसके भीतर का ताप बर्फ बनता जाएगा। इसी कारण अवधूत की तरह कवि भाषा को तराश रहा है.

‘शब्दों के स्थापत्य के पार/कहीं एक अवधूत कोशिश है
आदमी के भीतर डूबते ताप को बचाने की/और एक लम्बी कविता है
युद्ध के शपथ और हथियार से लैस/मेरे जन्म के साथ चलती हुई
निरंतर और अथक।‘

‘यह दुख ही ले जाएगा
खुशियों के मुहाने तक
यही बचाएगा हर फरेब से
होठों पे हॅसी आने तक‘

विमलेश त्रिपाठी 
आदमी के ताप को खत्म करने के लिए व्यवस्था ने हर युग में नये-नये तरीके ईजाद किये। मनुष्य जहां अन्याय और शोषण के लिखाफ खड़ा होता है, उसके मनोबल को तोड़ने के लिए तमाम तरह के दुष्प्रचार और शक्ति प्रदर्शन किये जाते हैं। उसको बहुत तरह से सताया जाता है। इस सब के बावजूद मनुष्य का मनोबल अपने ताप को बचाये रखता है और लड़ता रहता है। उसका यह संघर्ष मनुष्य और मनुष्य की रची हुई धरती की सुंदरता को बचाये रखने के लिए हैं। जहां सब और लूट ही लूट मची हुई हैं। वहां उसका संघर्ष मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते को समानांतर चलाये रखना है। न कि प्रकृति को मनुष्य के अधीन कर उसको नष्ट करना है। यह चलता रहा तो सब बचे रहेंगे, और आगे के लिए भी कुछ करते रहेंगे। लाल रंग के साथ हरा और सफेद दोनों ही बचे रहेंगे। सिर्फ लाल रंग के रहने से काम नहीं चलेगा। प्रकृति और मनुष्य का भविष्य एक साथ है। प्रकृति मनुष्य की अग्रज ह,ै तो सहचर भी है। सहधर्मिणी भी है, सहकर्मी भी है। ऐसे में एक के बगैर दूसरे की कल्पना कैसे संभव होगी?

मनुष्य बनने की प्रक्रिया मनुष्य के श्रम से ही संभव हुई। चंद्रकांत देवताले अपनी एक कविता में कहते हैं कि ‘जो नहीं होते धरती पर/अन्न उगाने-पत्थर तोड़ने वाले अपने/तो मेरी क्या बिसात जो मैं बन जाता आदमी/आखेट और खेती-बाड़ी करते पुरखों ने/जो आग के भीतर नहीं पकाई होती अपनी जबान/तो वे नहीं दे पाते चीजों को एक के बाद एक/उनकी पहचान।‘

विमलेश की कविता श्रमधर्मी परम्परा का ही उतरोत्तर विकास हैं। बाबा नागार्जुन के यहां दुधिया वात्सल्य है तो विमलेश के यहां दुधिया हॅसी है। जो धरती के इस छोर से उस छोर तक है। विमलेेश की कविता को पढ़ते हुए कभी निराला याद आते हैं तो कभी मुक्तिबोध। निराला के यहां वह पत्थर तोड़ती है यहां वह घर का काम करती है। वहां वह मार खा रोई नहीं है। यहां वह ‘हॅसती कभी कि कोई मार खाई हॅसती हो।‘

मैंने लिखा-खेत/और मैंने पाया/
कि मेरी कलम से शब्दों की जगह
गोल-गोल दाने झर रहे हैं
मैंने लिखा-अन्न/और मैंने महसूस किया
कि मेरी धमनियों में/ लहू की जगह रोटियों की गंध रेंग रही है
मैंने लिखा-आदमी/और मैंने सुना
कि चीख-चीख कर कई आवाजें
सहायता के लिए मुझे पुकार रही हैं
मैंने लिखा-ईश्वर/ और मैं डर गया
कि कमरे के साथ मेज और कलम
सभी किसी अज्ञात भय से थरथरा रहे हैं।

कवि शब्दों के पीछे की दुनिया को शिद्धत से महसूस करता है। उसके लिए शब्द गंध की तरह होते हैं। जिनसे वह धरती की गंध को महसूस करता है। मनुष्य के भीतर के मनुष्य को महसूस करता है। बसंत प्रकृति का यौवन है। बसंत के आने पर प्रकृति खिल उठती है। जीवन को नया राग प्रदान करती है। एक लड़की के जीवन में बसंत के बहुत मायने होते हैं। हर लड़की अपने बसंत को जमाने से चुराना चाहती है। अपने लिए।

एक लड़की/अपनी मां की नजरों से छुपाकर
मुठ्ठी में करीने से रखा हुआ बसंत/सौंपती है
कक्षा के सबसे पिछले बेंच पर बैठने वाले
एक गुमसुम
और उदास लड़के को।

डॉ.कालूलाल कुलमी
युवा समीक्षक
ई-मेल:paati.kalu@gmail.com
लोहा और आदमी दोनों में क्या फर्क है? दोनों एक ही है। आदमी ने लोहा खोदा और सृजन किया। उसी से आदमी ने युद्ध लड़े।

वह पिघलता है/और ढलता है चाकू में
तलवार में बंदूक में सुई में/ और छेनी-हथौड़े में भी
उसी से कुछ लोग लड़ते हैं भूख से
भूखे लोगों के खिलाफ
खूनी लड़ाईयॉ भी उसी से लड़ी जाती हैं
कई बार फर्क करना मुश्किल होता है
लोहे और आदमी में!

यह विमलेश का पहला कविता संग्रह है। इस संग्रह की एक भी कविता को नजरअंदाज करना बेमानी है। प्रत्येक कविता इस संग्रह को पूर्ण करने में अपना योग देती है। कविताएं अनोखी हैं। भाषा को लेकर सहजता है। कहीं भी वैचारिक दबाव या आरोपण नहीं है। कविताएं सहजता के साथ सम्प्रेषित होती हैं। परत दर परत खुलती जाती है। यह कविता संग्रह भाषा और भाव दोनों ही तरह से अपनी पहचान कराता है। कविता के लिए किसी तरह की बनावटी भाषा से काम नहीं चलता, कविता की अपनी भाषा होती है। खरगोश के रोंओ की तरह। भावों में खदबदाती भाषा। जैसे लोहा गर्म होने के बाद आकार लेता है वैसे ही कविता की रचना प्रक्रिया है। अन्न की गंध को कविता में रुपांतरित करता कवि अन्न के माध्यम से अपने समय के यथार्थ को व्यक्त करने में किसी तरह की कोई लापरवाही नहीं करता। आज की जिंदगी में कहीं न कही गंध मनुष्य के जीवन से विस्थापित हो रही है। ऐसे में इसका यह सघन अहसास हमें ठहर कर विचार करने को मजबूर करता है। कुछ लोग और सब लोग के बीच में सब लोग अन्न और अन्न की गंध दोनों से महरुम है। ऐसे में सब के बचे रहने पर ही कुछ लोग अपने बचे रहने की कल्पना कर सकते हैं। अन्न की गंध उन लोगों के लिए है जो श्रम तो करते हैं पर फिर भी खाली पेट रहते हैं। उनके लिए सबसे बड़ी चिंता अन्न की है। उसके बाद है बचा रहना, सपने देखना, आगे बढ़ना। वे जिस समाज में रहते हैं वहां ऐसी मनुष्य बाहर से भर रहा है और भीतर से रीत रहा है, सभ्यता विशालकाय डायनासोर की तरह होती जा रही है। ऐसे में कवि की उम्मीद करता है.

‘जमीन सोनल धूप में उबल रही है
आहिस्ता-आहिस्ता पृथ्वी के बचे रहने की गंध में
पूरा इलाका मदहोश है‘

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