कविताएँ:नवनीत नीरव

           साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            
'अपनी माटी' 
(ISSN 2322-0724 Apni Maati
इस अप्रैल-2014 अंक से दूसरे वर्ष में प्रवेश
चित्रांकन:रोहित रूसिया,छिन्दवाड़ा


  
बंद आँखों का प्यार

एक गुजरती हुई डीप ग्रेसड़क,
सह्याद्री हिल्स रेंज की तलहटी से,
वादियों में पसरा हुआ रूमानी मौसम,
भूरे-सफ़ेद रेशे वाले भेड़ों के झुण्ड,
चोटी पर अटके हुए बादल का एक टुकड़ा,
और अरसे बाद हम-तुम एक साथ.

कुछ है हमारे-तुम्हारे दरम्यां,
जो रुक-रुक कर बरसता है,
चटख कर जाता है हरेक बौछार में,
गुजरते हुए मौसम का हरापन,
अपनी हथेलियों का मद्धम गुलाबीपन,
और दिल का कत्थईपन .

एक जिद मेरी ताजा तस्वीर की,
मालूम नहीं क्या करती हो तुम,
संजोने भर से यादें बासी हो जाती हैं”,
शौक पल-भर से ज्यादा नहीं टिकता,
मस्तिष्क फ़िजूल बातें याद नहीं रखता,
तो सांसारिक कैमरे की क्या बिसात.

मुझे मालूम है बातें नाराज़ करती हैं,
फिर भी अक्सर कह जाता हूँ,
प्यार करने वाले शायद ऐसा नहीं कहते !
खैर, पोज देता हूँ तुम्हारी मुस्कुराहट पर,
खुद को थोड़ा संयमित करते हुए,
और देते हुए तुम्हें कुछ क्षणिक अधिकार.  

तुमको तस्वीर खिंचाने भी नहीं आती,
हर बार ये आँखें क्यों मुंद जाती हैं?,
दुबारा खुद को तैयार करता हूँ ये सुनते हुए,
एक अहसास जिसे तुम समझ नहीं पायी,
बंद आँखों से ही महसूस होती हो तुम,
और चेहरे पर उभरते हैं भाव तुम्हारे प्यार वाले. 

=============================================
वैज्ञानिक मनोवृत्ति और समाज


बाबू ! तू मिट्टी खाता है,

पत्थर, पेन्सिल, सिक्के,
सबको मुंह में डालता है,
गन्दा है ये सब,
ऐसा नहीं करते हैं.
(छीनते हुए हाथों से)


मुन्नी! कल जो दिया था तुम्हें,

चाबी वाला खिलौना,
अरे! तुमने तो पुर्जे-पुर्जे खोल दिए,
तोड़ दिया न तुमने इसे,
आज से कुछ भी नहीं मिलेगा तुम्हें.
(घूरती हुई दो बड़ी-बड़ी आँखें) 


भरी दुपहरी में चैन नहीं है!

रात में छत पर क्या कर रहे हो ?
बारिश में भींग ही गए न तुम,
सब कांटते-छाँटते क्यों रहते हो,
गिरा दी न मेरे कैंची की धार.
(कपड़े काटने और मूंछ छांटने की कैंची दिखाते हुए)


कहीं पिकनिक पर जाने की जरूरत नहीं,

एग्जाम सिर पर हैं पढ़ो,
दोस्तों के संग ज्यादा आवारागर्दी मत करो,
फ़लाने बाबू का लड़का कितना सभ्य है.
फर्स्ट आये तो दुपहिया दिला दूंगा.
(छोटे-छोटे लक्ष्य मीटर के टेप से नाप कर तय करते हुए)


कुछ तयशुदा काम,

घिसे-पिटे पूर्व नियोजित तरीके,
एक आत्मघाती दस्ते की तरह घेरे रहना,
मुल्लमें की तरह चढ़ना सोच का नई सोच पर,
जैसे जमना पत्थर के फर्श पर काई का.
(जाने-अनजाने कुंद होती वैज्ञानिक मनोवृतियाँ इस समाज की)
=============================================

पिया तोरी बंसवरिया

घर के पश्चिम, सिरहाने पिया,
तूने जो लगवाई बंसवरिया,
ये चरर-मरर बाजे,
आठों पहर, दुपहरिया पिया,
ये चरर-मरर बाजे…

झर-झर बाजे इसके,
हरे-हरे पात,
इतराती-इठलाती रहे,
सँवर-सँवर दिन-रात,
बन गई बैरन, बिरहिनिया पिया,
ये चरर-मरर बाजे…

काम-क़ाज न फ़िक्र है कोई ,
बेदागी- सी भरमाये,
आँचल, चुनरी लहरा-लहरा,
हवाओं संग पेंग लगाये,
अबके सावन भेजो मोहे नैहर पिया,
ये चरर-मरर बाजे…

कल ही बिहाने बढ़ई बुलाउंगी,
बंसवरिया  कटवाउंगी,
तब पाऊँगी चैन,
पूस, जेठ, भादो अन्हरिया,
क्या कहूँगी जो पूछे कोई,
क्यों तू कटवाये बँसवरिया.
जो चरर-मरर बाजे… 
=============================================

नवनीत नीरव
भोजपुर (बिहार) में जन्म,ग्रामीण प्रबंधन में स्नातकोत्तर (कीट यूनिवर्सिटी, भुवनेश्वर),विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित,एक कविता संग्रह “मन गीला नहीं होता”, हिन्द युग्म प्रकाशन, नई दिल्ली से 2013 में प्रकाशित,सम्प्रति- अजीम प्रेमजी फाउंडेशन, सिरोही (राजस्थान) में कार्यरत. संपर्क-बसंतकुंज,श्रम विभाग के नजदीक,भाटकड़ा चौराहा, सिरोही, राजस्थान, संपर्क- 09571887733 ई-मेल :navnitnirav@gmail.comPrint Friendly and PDF

Post a Comment

और नया पुराने