बाल साहित्य विशेषांक - Bal Saahitya Visheshank@ Apni Maati

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चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी स्थापना के 11वें वर्ष में प्रवेश
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
UGC Care Listed ( Under List 'Multi Disciplinary' Sr. Nu. 03 )
(ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-.... अक्टूबर 2024

बाल साहित्य विशेषांक 

अतिथि संपादक

डॉ. दीना नाथ मौर्य

असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग,इलाहाबाद विश्वविद्यालय,प्रयागराज

सम्पर्क : 9999108490, dnmaurya@allduniv.ac.in 


संपादन सहयोग

चन्द्रकांत यादव

 शोधार्थीहिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभागइलाहाबाद विश्वविद्यालयप्रयागराज

सम्पर्क : Chandrakantyadav7878@gmail.com 

आरती

शोधार्थीहिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभागइलाहाबाद विश्वविद्यालयप्रयागराज

सम्पर्क : artikaithal2520@gmail.com 

आलेख स्वीकारने की अंतिम तिथि : 31 अगस्त, 2024

आलेख भेजने का पता  baalsahitya15@gmail.com 

 प्रस्तावना : बचपन के साथ हमारी जिम्मेदारी कितनी महत्त्वपूर्ण होती है इसे मुंशी प्रेमचंद ने रेखांकित किया है कि “जिन्दगी की वह उम्र जब इंसान को मुहब्बत की सबसे ज्यादा जरूरत होती हैबचपन है। उस वक्त पौधे को तरी मिल जाय तो जिन्दगी भर के लिए उसकी जड़ें मजबूत हो जाती हैं। उस वक्त खुराक न पाकर उसकी जिन्दगी खुश्क हो जाती है। मेरी माँ का उसी ज़माने में देहान्त हुआ और तब से मेरी रूह को खुराक नहीं मिली। वही भूख मेरी जिन्दगी है। कर्मभूमि उपन्यास के अमरकांत का यह कथन प्रेमचंद के उस नजरिये को बयां करता है जिसमें वे बचपन को उसके सहज रूप में देखने की बात करते हैं। ईदगाहगुल्ली-डंडाबड़े भाई साहबदूध का दाम आदि अनेक कहानियों में बचपन का जो सन्दर्भ आता है वह हमारी उन अवधारणाओं को तोड़ने वाला है जिसमें हम बच्चे की अस्मिता को स्वीकार ही नहीं करते। प्रेमचन्द के साहित्य की तरह रवींद्र नाथ टैगोर के साहित्य में भी यह प्रवृत्ति दिखती है। इन दोनों साहित्यकारों में बचपन की जिस अस्मिता के दर्शन होते हैं वह मूलतः बच्चे के सहज स्वभाव को समझने की दृष्टी पैदा करते हैं। 


साहित्य से अलग अगर हम भारतीय समाज को देंखें तो यह साफतौर पर पता चलता है कि भारतीय समाज में बचपन की अस्मिता को स्वीकारने की अवधारणा लंबे समय तक बन ही नहीं पायी। बचपन की जगह यहाँ शिशु की अवधारणा है या फिर वयस्क की। बचपन को यहाँ पर वयस्क होने की कल्पना के साथ जोड़कर देखे जाने की परम्परा रही है। जो अभी भी कमोवेश दिखाई पड़ती है। अगर लोक में हम इसकी तलाश करें तो पाते हैं कि वहां गाये जाने वाले गीतों में ज्यादातर या तो विरह के गीत हैं या विभिन्न संस्कारों के अवसर पर गाये जाने वाले गीत हैं। उत्तर भारतीय समाज में गाया जाने वाला सोहर भी इसी तरह का एक सामूहिक गीत है। इन गीतों में लोक की तमाम विशेषताओं के बावजूद बचपन की बजाय ‘शिशु’ और ‘वयस्क’ की चर्चा ही ज्यादा है। 


बचपन की अस्मिता को स्वीकारने के बजाय उसे वयस्क होने की तैयारी के रूप में देखा जाता रहा है। आज भी बच्चे को बचपन में घर के बड़ों द्वारा यह तय कर दिया जाता है कि वह बड़ा होकर क्या बनेगा। इसी का असर है कि कहीं-कहीं तो नामकरण भी पद के अनुसार हुआ करता है। जैसे- कलेक्टरडाक्टरसाहेबदरोगा आदि। घर से लेकर बाहर तक जो लोग यह कहते हैं कि ‘हम बच्चों को बच्चा बनकर ही समझ सकते हैं’या फिर ‘बच्चों से जुड़ने के लिए बच्चे की तरह गतिविधियाँ करनी चाहिए। आप चाहकर भी न तो बच्चा बन सकते हैं और न ही कोई बच्चा इस तरह आपको अपनी दुनिया का सहयात्री मानने को तैयार ही होगा। बालमनोविज्ञान में अब गुंजाइश इस बात कि बचती है कि सबसे पहले हम जो हैं (उमर में भी और अनुभव में भी) अपने को वही मान लें और उसी के अनुसार बच्चों के साथ अपने व्यवहार को तय करें। सच्चाई तो यह है कि आप नहीं भी मानेगें तो भी बच्चे जानते हैं कि आप कौन हैंऔर उन्हें आपके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिएबाल साहित्य का लेखन इस रूप में एक बेहद जिम्मेदारी और जवाबदेही भरा कार्य होता है। जिसके जरिये उनके अंदर कल्पनाओं की समूची दुनिया खोल दी जाती है। बच्चे के जीवन में भाषा और समाज की तमाम अवधारणाओं को आकार देने में इस तरह के साहित्य का बेहतरीन प्रयोग किया जा सकता है। आज के व्यस्त जीवन में जब लोग खुद अपने घर में बच्चे की कोई बात नहीं सुनना चाहतेजरा सोचिये वह व्यक्ति कैसा होगाजिसकी लिखी चीजों से बच्चे खुद को सहजता से जोड़ पाते होंगें। उसकी रचनाएँ बच्चों की जुबान पर चढ़ जाती हैं। वे उसे गाते हैं। गुनगुनाते हैं। यह कहना गलत न होगा कि उस साहित्य की और उस साहित्यकार की उम्र अपेक्षाकृत ज्यादा होती है जो बच्चों की दुनिया और उनके मनोविज्ञान को साधकर अपनी कहानी और कविताओं को गुनते-बुनते हैं। 


हमें बच्चों के बारे में कोई राय बनाने से पहले यह समझ लेना चाहिए कि बच्चे मिट्टी का लोदा नहीं होते हैं कि हम जैसा चाहें वैसा उनको बना सकें। अपनी बनी हुई इस परम्परागत धारणा में हमें बदलाव लाना होगा और इस बात में यकीन रखना होगा कि बच्चे अपनी उम्र के लिहाज से उतने ही समझदार होते हैं जितने कि अपनी उम्र के हिसाब से बड़े लोग होते हैं। इसलिए बच्चे भी उतने ही सम्मान के हकदार हैं जितना कि बड़े किसी से भी अपेक्षा करते हैं। जिन्हें हम बच्चों के खेल कहते हैं वह दरअसल उनकी श्रम जनित क्रियाएँ हैं जिनके जरिए वे शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों में मशक्कत कर रहे होते हैं। वे खेल में गीत-संगीतसुरलय सब निर्मित करते हैं और कलाओं की ये संयुक्त क्रियाएं उनकी गतिविधियों का अनिवार्य हिस्सा होती हैं। बच्चों की कल्पनाएँ हमसे कई गुना ज्यादा होती हैं यह बात दूसरी है कि हम अक्सर उनकी कल्पना जनित गतिविधियों को बदमाशियों का नाम दे देते हैं। दुनिया को जानकर ही जीना बच्चों की स्वाभाविक प्रवृत्ति है इसलिए उनकी हर गतिविधि में सवाल होते हैं। हम या तो जीना चाहते हैं या जानना। इसीलिए कभी-कभी बच्चों के सरल से सवाल हमारे लिए परेशानी पैदा करते हैं। दुनियावी चीजों के साथ बच्चों का रिश्ता हमेशा संवाद के क्रम में आगे बढ़ना चाहता है। बच्चा खूब बोलना चाहता है पर अक्सर हम उन्हें चुप रहने की सलाह देते हैं। बाद के जीवन में व्याप्त होने वाली सामूहिक सामाजिक चुप्पी का आरम्भ यहीं से ही होता है। बच्चे बहुत ही जल्दी बड़ों के मनोविज्ञान को पकड़ लेते हैं जबकि बड़े इस मामले में उनसे बहुत पीछे होते हैं। उन्हें बच्चे देर से समझ में आते हैंऔर जब समझ में आते हैं तो बच्चे बड़े और बड़ेबूढ़े हो चुके होते हैं। जीवन के शुरूआती वषों से ही बच्चे जानते हैं कि कौन सी बात किस वक्त किससे कही जा सकती है। इस मनोविज्ञान को हम अपने परिवार और समाज के बीच व्यवहारित होते हुए देख सकते हैं। इसी तरह पारिवारिक संबंधों के स्तरीकरण को बच्चे बखूबी जानते हैं और उसी के अनुसार बड़ों को अपनी दुनिया के साथ जोड़ते हैं। सामूहिकता का गुण बच्चों में नैसर्गिक ही होता है यही कारण है कि उनको सामूहिक गतिविधियों से ज्यादा लगाव होता है। वह समूह में सहज रहता हैसबसे आगे रहने का भाव उसका स्वाभाविक गुण नहीं होता समाजीकरण के दौरान यह विकसित होता है। जब समाज बच्चों को अपनी खीचीं गयी लकीर से सामाजिक बनाता है तो समूह की सहजता उसे अटपटी लगने लगती है। धीरे-धीरे बड़ों को देखकर वह व्यक्तिपरकता की ओर बढ़ता है। समाज की वह आम धारणा जो अक्सर हम आम बातचीत में सुनते भर ही नहीं बल्कि उस पर जाने-अनजाने अमल भी करते है कि लड़कों को बन्दूक और लड़कियों को गुड़िया जैसे खिलौने पसंद होते हैं। बाल मनोविज्ञान इस तरह के किसी भी लैंगिक विभाजन को ख़ारिज करता है। अब हमें यह मान लेना चाहिए के यह बातें मिथ से ज्यादा कुछ भी नहीं है। मानव विकास का ऐतिहासिक अध्ययन इस बात की गवाही देता है कि रंग और रेखाओं का भी अपना समाजशास्त्र होता है। इसके देशकाल से प्रभावित होकर ही हम बच्चों की दुनिया को प्रभावित करते हैं। आदर्श की कल्पना बुरी चीज नहीं है पर बच्चों के संदर्भ में इस बात को ध्यान में रखना जरूरी होगा कि हम अपने आदर्शों को अनावश्यक और अवैज्ञानिक तरीके से बच्चों में आरोपित न करें। सच बात तो यह है कि आदर्श का जीवन बच्चे कहने से नहीं सीखते बल्कि सामने घटित होती हुई घटनाओं के जरिये सीखते हैं। कहने से बच्चे सिर्फ कहना सीखते हैं। जैसे कि बड़े लोगों ने अपनी पिछली पीढ़ी से कहना ही सीखा है। घर में पिताजी सुबह शाम यह कहते रहें कि झूठ नहीं बोलना चाहिए और किसी का फ़ोन आने पर बच्चे के सामने ही घर से ही यह बताएं कि मैं बाजार में हूँ तो फिर झूठ नहीं बोलना चाहिए के आदर्श वाक्य की ताकत वहीं दम तोड़ देती है और बच्चा इस आदर्श की सीमा घर में ही समझ लेता है। 


बच्चे अपने परिवेश में अपनी दुनिया तलाशते हैं और विडंबना है कि हम उनका ऐसा परिवेश रचते हैं जिसमें उनकी अपनीं दुनिया ही नहीं होती। समाज हमेशा एक आदर्श बच्चों के सामने रखता है और उसी आदर्श के इर्द-गिर्द नैतिक शिक्षाओं का ताना-बाना बुनता है । समाज में बचपन के प्रति इसी नजरिये का परिणाम होता है कि हमारे घरों में घर में पालतू के लिए तो उसके अनुसार सुविधाएँ जुटा दी जाती हैं पर बच्चों के लिए करने और कहने को अभी भी सिर्फ नसीहतें होती हैं। बात जब बच्चों की अस्मिता की हो तो हम केवल उनका दाखिला तथाकथित अच्छे स्कूलों में कराकर अपने उस दायित्व से मुक्त नहीं हो सकते जिसमें एक सम्पूर्ण नागरिक की संभावनाओं की पूरी गुंजाइश होती है। मसलन हम बच्चों से यह तो कहते रहते हैं कि कपड़े इधर-उधर न फैलाओ पर घर में हैंगर की ऊँचाई 5 फिट पर रखेंगें। हम कहेंगें कि पानी इधर-उधर न गिराओ पर बेशिन अपनी लम्बाई के अनुसार लगायेंगें । यही बातें टायलेट के कमोड के साइज से लेकर आलमारी के ताखों की ऊँचाई तक सही है। इतना ही नहीं हम नजरिये को एक मानकता का रूप देते हुए हर चीज को एक तथाकथित स्टैण्डर्ड से जोड़कर रख देते हैंफिर सबसे उम्मीद करते हैं कि उस स्टैण्डर्ड में फिट हो जाए। जाहिर है बच्चा हमारे इस निर्मित स्टैण्डर्ड से बाहर होता है और हमारी कोशिश हमेशा उसे अपने दायरे में लाने की होती है। बच्चा दिन प्रतिदिन इस तरह की स्टैण्डर्ड के लिए अपने को तैयार करने के क्रम में खुद को भूल जाता है। लब्बोलुआब यह कि घर में बच्चा तो रहता है पर बचपन गायब हो जाता है। यही कारण है कि अपने जीवन के शुरूआती कुछ ही वर्षों में ज्यादातर बच्चे ‘मोनो एक्ट’ की ओर बढ़ जाते हैं। अपने जीवन के शुरूआती वर्षों में वे यह लगभग मान चुके होते हैं कि घर या समाज का पूरा माहौल उन्हें बड़ा बना देने को आमादा है। एक बच्चे के स्वाभाविक विकास को देखना दरअसल मानव सभ्यता के विकास को भी देखना भी है। इसे चाहे शारीरिक विकास के रूप में देखें या फिर भाषिक- सांस्कृतिक विकास के रूप में। पर इतना तो है कि बच्चों की इस सरल सी लगती दुनिया कि जटिलता को समझना इतना भी आसान नहीं है। 


बच्चों के बचपन में सीखने-पढ़ने की औपचारिक शुरुआत तो बाद में होती है पर किस्से कहानियों के जरिये उनके अन्दर दुनियावी चीजों की अवधारणाओं के निर्माण की प्रक्रिया स्कूल से काफी पहले ही शुरू हो जाती है। स्कूल से पहले के इन दिनों में बच्चे एक अच्छे श्रोता होते हैं और अच्छे वक्ता भी। इस समय जहाँ उनके भीतर हर एक चीज को बारीकी के साथ जान लेने की तलब होती है वहीं अपने को व्यक्त करने की बलवती इच्छा भी। बड़े जब उन्हें नहीं सुनते तो अपने दोस्तों के बीच में वे अपनी तार्किकता की खूब आजमाइश करते हैं। समूह में खेलते हुए बच्चों को कभी गौर से देखिए और इसे महसूस करिए। जीवन के इस महत्त्वपूर्ण काल में उन्हें ‘कुछ भी’ सुनाया और बताया नहीं जाना चाहिए बल्कि इसमें एक चयन का भाव होना चाहिए। संवेदनशीलतासहयोग और मित्रता जैसे सामाजिक नागरिक होने के गुणों के बीजारोपण का यह काल होता है अतः समाज के लिए यह जिम्मेदारी पूर्ण समय होता है कि वह इस समय अपने आने वाली पीढ़ी को क्या देता है। सभ्यता के विकास में यह कोई नई बात नहीं है। हर समय और समाज इसके लिए अपने को तैयार रखता है। बालमनोविज्ञान के अनुसन्धान इस बात के साक्षी हैं कि जिस समाज और परिवेश में किस्सागोई की लोकप्रियता ज्यादा होती है वहां के बच्चे अपेक्षाकृत ज्यादा कल्पनाशील और भाषाई रूप से ज्यादा रचनात्मक और समृद्ध हुआ करते हैं। 


बचपन को लीला के रूप में समझना और बच्चे के मनोविज्ञान को समझना दोनों अलग बातें हैं। यही कारण है कि बाललीला वर्णन को अपनी तमाम साहित्यिकता और रूपबंध की अनेक मोहक शैलियों के बावजूद बाललीला वर्णन को बाल साहित्य का हिस्सा नहीं माना जा सकता बाकी उसे आप चाहे जो मान लें। एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में हमें यह समझना होगा कि बचपन की अपनी स्वतंत्र अस्मिता होती है और बच्चों की तमाम गतिविधियों को इस पूरी गरिमा के साथ डीकोड करना होगा। अच्छा बाल साहित्य यह कार्य करता है। बाल साहित्य की विविध विधाओं की रचनाशीलता को जानना समझना अपनी परम्परा में बचपन को देखने की दृष्टि को समझना है। आजादी के आन्दोलन के समय जो बाल कविताएँ अथवा बाल कहानियाँ लिखी जा रही थी उसका प्रभाव बच्चों के मानस पर लंबे समय तक बना रहा। हिंदी के अधिकांश लेखकों और कवियों ने बच्चों के लिए लिखा है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेनामुंशी प्रेमचंदसुभद्राकुमारी चौहानबाल साहित्य आलोचना का क्षेत्र लगभग खाली है। हिंदी की मुख्यधारा की आलोचना ने बाल साहित्य को कोई खास महत्व नहीं दिया। यही कारण है कि जीवन की स्मृतियों में सर्वाधिक टिकाऊ साहित्य हिंदी आलोचना में कहीं नहीं दिखायी पड़ता है। प्रस्तुत विशेषांक में बाल साहित्य लेखन की समृद्ध परम्परा को समझते हुए आज के परिवेश में बच्चों के लिए लिखे जाने वाले साहित्य के समक्ष आने वाली चुनौतियों को जानने समझने की कोशिश की जाएगी। सूचना क्रान्ति और टेक्नोलॉजी के इस समय में साहित्य को पढ़ने-समझने और बच्चों के बदलते मानसिक स्तर के अनुसार बाल साहित्य की रचनाशीलता पर विचार करना लक्ष्य है। बाल साहित्य के अध्ययन-अध्यापन और साहित्य के नए विमर्शों के साथ उसके बनते रिश्ते को समझने की कोशिश भी होगी। विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में बालसाहित्य के अध्ययन की प्रविधि की सम्भावना की खोज भी इस विशेषांक के शोध-आलेखों और लेखों से सफल हो सकेगी। 


इस बाल साहित्य विशेषांक को तीन भागों में बांटकर देखने की परिकल्पना की गयी है। पहले हिस्से में धरोहर के रूप में हम ऐतिहासिक रूप से महत्त्वपूर्ण कुछ रचनाओं और रचनाकारों को रख सकते हैं। दूसरे हिस्से में शोध आलेख और तीसरे भाग में वर्तमान में सक्रिय महत्त्वपूर्ण बाल साहित्यकारों के साक्षात्कार लिए जाएंगें। 


संभावित विषय

  • बाल साहित्य की अवधारणा,अर्थ एवं स्वरुप 
  • बाल साहित्य और बाल मनोविज्ञान 
  • बाल साहित्य लेखन की परम्परा और महत्व 
  • बाल साहित्य की प्रमुख विधाएं 
  • बालसाहित्य और शिशु साहित्य 
  • आजादी का आन्दोलन और बाल साहित्य 
  • बाल कविता की दुनिया 
  • हिंदी साहित्य के अंतर्गत बाल लीला वर्णन 
  • हिंदी के साहित्यकार और उनका बाल साहित्य 
  • बाल विज्ञान लेखन 
  • साहित्य की दुनिया में कार्टून 
  • कामिक्स और बच्चों की दुनिया 
  • चित्रकथा और बाल साहित्य 
  • बाल कविता का वर्तमान 
  • भारतीय भाषाओँ का बाल साहित्य 
  • बाल साहित्य में जेंडर
  • बाल उपन्यास में बचपन
  • बाल नाटक का संसार
  • तकनीकी के युग में बाल साहित्य
  • बाल पत्रकारिता और बचपन
  • इक्कीसवीं सदी का बाल साहित्य
  • वर्तमान संदर्भ में बाल साहित्य के लेखन और अध्ययन की चुनौतियाँ
  • प्रमुख समकालीन बाल साहित्यकार
  • बालसाहित्य और पढने की अभिरुचि
  • हिंदी पत्रकारिता में बचपन के संदर्भ
  • स्कूली शिक्षा और बाल साहित्य
  • भारतीय भाषाओँ में बाल साहित्य
  • आदिवासी समाज और बाल साहित्य
  • दलित समाज और बाल साहित्य
  • बाल साहित्य और विश्वविद्यालयी शिक्षा
 नोट- लेख में संदर्भों का अधोलिखित रूप से प्रयोग करें

  • लेख में अंग्रेजी या अन्य किसी भाषा के उदाहरण का उपयोग करते हुए उसका मूल फुटनोट में अवश्य दें,उदाहरण के स्थान पर उसके अनुवाद क उपयोग करें.
  • संदर्भ के लिए एम.एल.ए. शैली का उपयोग कर्णउदाहरण के लिए अपनी माटी पत्रिका के संदर्भ शैली यहाँ देंखें – https://www.apnimaati.com/p/infoapnimaati.html

(नोट : विशेषांक के बारे में केवल अतिथि संपादक से सम्पर्क : baalsahitya15@gmail.com पर ही संवाद करिएगा. )
( यह अंक अक्टूबर, 2024 में प्रकाशित किया जाएगा )

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