शोध:राग दरबारी-स्त्री अस्मिता की उपकरणमूलक एवं उपभोगमूलक निर्मिति/आशुतोष शुक्ल

                 साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका           
    'अपनी माटी'
         (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
    वर्ष-2 ,अंक-14 ,अप्रैल-जून,2014

चित्रांकन :शिरीष देशपांडे,बेलगाँव 
‘राग-दरबारी’ एक ऐसा उपन्यास है जो स्त्री के प्रति समाज के दृष्टिकोण को पूरी सच्चाई से उजागर करता है। स्त्री की असीम संभावनाओं को नकारते हुए उसे केवल उपभोग की वस्तु में तब्दील करने की पितृसत्ता की मंशा को इस उपन्यास में आद्यान्त देखा जा सकता है।स्त्री का वस्तु रूप में एवं उपभोग्या रूप में सर्वाधिक शोषण हुआ है। राग दरबारी में वहाँ लैंगिक पक्षपात दिखलाई पड़ता है जहाँ स्त्रियों का वस्तु के रूप में प्रयोग किया जाता है। जैसे-“वहीं एक ट्रक खड़ा था। उसे देखते ही यकीन हो जाता था, इसका जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है।”

स्त्री का बलात्कार किसी भी सभ्य समाज के लिए अशोभनीय घटना होती है। बलात्कार को स्त्री की अस्मिता व अस्तित्व के लिए प्रश्नचिह्न के रूप में देखा जाता है। इसमें स्त्री को उपकरण के रूप में उपयोग में लाया जाता है। इस उपन्यास में ‘बलात्कार’ शब्द का प्रयोग स्त्री-पुरुष के बीच के सम्बन्धों को व्याख्यायित करने के स्थान पर ट्रक और सड़क के बीच के सम्बन्ध् को दिखाने के लिए किया गया है। इन दोनों के बीच बलात्कार का सम्बन्ध बतलाया गया है, जो गहरे स्तर पर स्त्री को सड़क के साथ व पुरुष को ट्रक के साथ जोड़ता है।

यह वाक्य सामाजिक मनोग्रन्थियों को परिलक्षित करता है। समूचा वाक्य जिस प्रभावान्विति को उजागर करता है उसकी तह में पुरुष का स्त्री पर वर्चस्व दिखलाई पड़ता है। ट्रक का जन्म होता है और केवल सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए। इस वाक्य की अर्थछाया नारी के व्यक्तित्व को खण्डित कर देती है, उसके उपकरणमूलक स्वरूप को दिखलाती है।1

लेखक आगे लिखता है कि- “थोड़ी देर में ही धुँधलके में सड़क की पटरी पर दोनों ओर कुछ गठरियाँ सी रखी हुई नजर आई। ये औरतें थी, जो कतार बाँध्कर बैठी हुई थीं।”लेखक को स्त्रिायाँ यहाँ गठरियों के रूप में आभासित होती है। कहना न होगा कि जैसे गठरियों का कोई व्यक्तित्व नहीं होता, वे वस्तु रूप में होती है, वैसे ही यहाँ स्त्रिायों को वस्तु रूप में देखने का प्रयास किया गया है।2

लेखक का कहना है कि इस देश के निवासी परम्परा से कवि हैं। चीज को समझने से पहले वे उस पर मुग्ध होकर कविता करते हैं। “आपरेशन-टेबल पर पड़ी हुई युवती को देखकर वे मतिराम-बिहारी की कविताएँ दुहराने लगते हैं।”यहाँ दो स्तरों पर लैंगिक भेदभाव दिखलाई पड़ता है। सर्वप्रथम तो आपरेशन-टेबल पर लेटी हुई युवती को, आपरेशन टेबल पर पड़ी हुई युवती कहा गया है। जैसे कोई भी निर्जीव वस्तु इधर-उधर पड़ी रहती है, वैसे ही सजीव युवती के लिए  भी ‘पड़ी हुई’ शब्द का दुराग्रहपूर्ण प्रयोग किया गया है।स्त्री को उपभोग्या रूप में देखने की आदत, मध्यकालीन मनोवृत्ति, जिसे हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘जबदी हुई प्रवृत्ति’ कहा है, की द्योतक है। लेखक का कहना है कि आपरेशन टेबल पर पड़ी हुई युवती को देखकर वे ;देश के निवासी, जो डॉक्टर बन जाते हैं- “मतिराम-बिहारी की कविताएँ दुहराने लगते हैं। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि इस युवती को देखकर ‘झाँसी की रानी’ या ‘वह तोड़ती पत्थर’ आदि कविताएँ भी दोहराई जा सकती है किन्तु मतिराम-बिहारी की सौन्दर्यकेन्द्रित  शृंगारमयी कविताएँ ही दोहराई जाती हैं।इस प्रकार स्त्री के समग्रतामूलक रूप को अपदस्थ करते हुए उसको केवल सुकोमल अंगों की परिधि में ही घेरने का संकल्प, स्त्री के व्यक्तित्व को विखण्डित कर देता है।सौन्दर्य जीवन का मूल है। आकर्षण की अवधारणा सौन्दर्य के रास्ते से ही गुजरती है। उसी सौन्दर्य के अनिवार्य तत्वों में शामिल ‘उरोज’ के लिए ‘फड़फड़ाना’ जैसे नकारात्मक शब्दों का प्रयोग भाषिक पक्षपात को उजागर कर देते हैं। जैसे-प्रिंसिपल साहब ने पहले लड़के की कुर्सी से एक पत्रिका उठा ली। यह सिनेमा का साहित्य था। एक पन्ना खोलकर उन्होंने हवा में घुमाया। “लड़कों ने देखा, किसी विलायती औरत के उरोज तस्वीर में फड़फड़ा रहे हैं।”

नारीवादी इस बात को चिन्हित करते हैं कि समसामयिक अश्लील साहित्य न केवल महिलाओं को यौन वस्तु के रूप में चिन्हित करता है बल्कि वह महिलाओं की वेदना, अपमान, यंत्रणा और यहाँ तब कि उनकी हत्या को कामोद्दीपन में बदल देता है। इसके चलते कैथरीन बैरी “अश्लील साहित्य को सांस्कृतिक परपीड़न की विचारधारा” के रूप में परिभाषित करती है। रॉबिन मॉर्गन अश्लील साहित्य को महिलाओं के बलात्कार को मिलने वाले तर्काधर के रूप में देखती हैं।3

कार्ल मिलेट ने “सेक्सुअल पालिटिक्स” में यौन क्रीड़ाओं के, पुरुष द्वारा वर्णन में समाहित सत्ता सम्बन्धों को बखूबी दिखाया है।4 रंगनाथ में यह विचार पफलीभूत होता हुआ दिखाई देता है-

“उसने ;रंगनाथ ने एक बार पूरी कोशिश से सायरा बानू को धड़ से पकड़कर घसीटना चाहा, पर वह हाथ से बाहर फिसल गई।”

रात में सोते समय फिल्मी अभिनेत्रियों आदि का ध्यान करना और सपने में ही उन्हें पकड़कर घसीटना पुरुष का स्त्री पर वर्चस्व एवं उसके जिस्म पर अधिकार की चेष्टा की पुष्टि करता है। समाज में ऐसी भावना स्त्रियों को दोयम स्थिति के रूप में स्थापित कर देती है।यह भावना प्रिंसिपल साहब में इस कलैण्डर के माध्यम से अभिव्यक्त हुई है। “शिक्षा सम्बन्धी सामानों की सप्लाई करने वाली किसी दुकान का एक कलैण्डर ठीक उनकी नाक के सामने दीवार पर टँगा हुआ था जिसमें नंगे बदन पर लगभग एक पारदर्शक साड़ी लपेटे हुए कोई फिल्म एक्ट्रैस एक आदमी की ओर लड्डू जैसा बढ़ा रही थी।”

शिक्षा सम्बन्धी सामानों की सप्लाई करने वाली दुकान का कलैण्डर फिल्म एक्ट्रैस केन्द्रित है जो नंगे बदन पर पारदर्शक साड़ी लपेटे है। इससे पता चलता है कि नारी की देह विज्ञापन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त वस्तु है। देह को केन्द्र में रखने वाले ऐसे विज्ञापन एक विशेष मानसिकता का निर्माण करते हैं जिसमें नारी के भोग्या रूप को उजागर किया जाता है। नारी को उपभोग की वस्तु के रूप में व्याख्यायित करने से उसके वैचारिक पक्ष एवं मानवीय रूप की अवहेलना हो जाती है। ऐसे विज्ञापन नारी की न केवल अधूरी तस्वीर पेश करते हैं अपितु नारी की इमेज को ध्ूमिल भी करते हैं। यही कारण है कि रेडिकल नारीवादी विचारक पितृसत्ता के सभी प्रतीकों को समाप्त करना चाहते हैं।5

इस प्रकार पितृसत्ता से जिस भोगवादी मानसिकता का निर्माण होता है वह जीवन के हर क्रियाकलाप में दिखलाई पड़ती है। यहाँ तक कि शोधार्थी भी इससे उबर नहीं पाते। इस उपन्यास में इसकी एक झलक देखी जा सकती है-“पुरातत्व के विद्यार्थियों को गले के नीचे ही दो ऊँचे-ऊँचे पहाड़ देखने की आदत पड़ जाती है। कुछ और नीचे जाते ही पहाड़ पलटकर दूसरी ओर पहुँच जाते हैं।.... फिर वह ;पुरातत्व के विद्यार्थी बौद्ध विहारों को गोपुरम् और गोपुरम् को स्तूप समझने की गलती भले ही कर बैठे, नारीमूर्ति को पुरुष मूर्ति मानने की भूल नहीं कर सकता।”

जिस शब्दावली का यहाँ प्रयोग किया गया है, वह पूरी तरह नकारात्मक प्रभाव लिए हुए है। ‘उरोजों’ के लिए ‘पहाड़’ शब्द का प्रयोग और इन पहाड़ों को देखने की आदत पड़ जाना वस्तुतः नारी को केवल देह के रूप में ही देखने की जिद का ही परिचायक है। पुरातत्व का विद्यार्थी बौद्धविहार, गोपुरम और स्तूप को संभव है सही तरह से न समझ पाए किन्तु नारी मूर्ति और पुरुष मूर्ति को पहचानने में भूल नहीं कर सकता क्योंकि कि उसे तो गले के नीचे पहाड़ देखने की आदत पड़ी हुई है। और यही स्त्री-पुरुष के भेद को स्पष्ट कर देता है।इस दैहिक अन्तर को ही सबसे अधिक वरीयता देकर विभेद के लिए अन्य किसी आधार की आवश्यकता महसूस न करना स्त्री के प्रति भोगवादी मानसिकता को दिखलाता है।6

समाज में जो भी व्यंग्य तैरते रहते हैं उनमें औरतों को केन्द्रीय विषय के रूप में लिया जाता है। और इस केन्द्रीय विषय में भी औरतों के शरीर और उसकी शुचिता पर ही प्रहार किए जाते हैं।प्रिंसिपल ने जब बलराम सिंह से कहा कि- “शांति से काम लीजिए।” तो उनका जवाब था कि- “सब शान्ती ही है। यहाँ पचास-पचास शान्ती जाँघ के नीचे पड़ी है।”इसी तरह छोटे पहलवान जब न्याय-पंचायत के सामने उपस्थित होते हैं तो उनका वक्तव्य है कि- “चौदह लड़कों को हमने पैदा किया और हमीं को ये सिखाते हैं कि औरत क्या चीज़ है।” इस प्रकार इस उपन्यास के पात्रों का मनोविज्ञान यह बतलाता है कि औरत होने की परिभाषा केवल प्रजनन प्रक्रिया से गुजरती है। औरत को समझने के लिए इनकी नजर में चौदह लड़कों को पैदा करना ही पर्याप्त है। नारी की छवि को इन्होंने सिर्फ ‘काम-वासना’ के स्तर तक ही सीमित कर दिया है। बलराम सिंह की जाँघ के नीचे पचास-पचास शान्ती पड़ी है। इस पर इन्हें नाज़ है। यह पुरुष की पुंसवादी मानसिकता का परिचायक है। नारी के दमन का यह उदाहरण बतलाता है कि वह केवल दैनिक क्रिया-कलापों में ही शोषण का शिकार नहीं होती अपितु बेडरूम में भी ठगी जाती है।

रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार प्रेम में प्रेमी और प्रेमिका के अतिरिक्त तीसरे के लिए कोई स्थान नहीं होता। किन्तु समाज प्रेम-प्रसंगों को एकान्त प्रदान नहीं करता और उससे सम्बन्धित अफवाहों को फैलाकर प्रेम-प्रकरण को सार्वजनिक बहस का मुद्दा बना लेता है। बेला को जो प्रेम पत्र लिखा गया था उससे सम्बन्धित कई खबरें फैली। “तीसरी खबर, जो सबसे ज्यादा प्रसिद्ध हुई, यह थी कि बेला एक बदचलन लड़की है।” यही है समाज की जटिल संरचना। रंगनाथ ने बेला के जिस रूप को अपने कल्पना-संसार में साकार करना चाहा है, वह ताजा एवं स्तनों, नितम्बों से युक्त लाजवाब है, जिसकी अन्तिम परिणति हस्तमैथुन है। रंगनाथ इस उपन्यास का शिक्षित पात्र है जो शोध कार्य में संलग्न है और निकट भविष्य में कालेज में शिक्षक बनकर बुद्धिजीवियों की पंक्ति से जुड़ने वाला है।

यदि बेला के बारे में ऐसी कल्पना रुप्पन बाबू या बद्री पहलवान करते तो एक बार अशिक्षा एवं ग्रामीण सामन्ती परिवेश पर जिम्मेदारी डाली जा सकती थी किन्तु यहाँ तो रंगनाथ जैसा पढ़ा-लिखा युवक बेला के बारे में ऐसा सोच रहा है। यह दिखलाता है कि लैंगिक पक्षपात की जड़े समाज में कितने गहरे तक समायी हुई है।रंगनाथ की मानसिक बुनावट का पता उस रात में, उसकी आत्मग्लानि से चलता है, जब रात को एक लड़की भ्रमवश उसकी चारपाई के पास आकर, सच्चाई जानने के बाद लौट जाती है। उस समय इन्होंने जो निष्कर्ष निकाले, उनमें पहला था- “पुरातत्व के बारे में और भारतीय कला के ऊपर जितना पढ़ा है, सब अधूरा और वाहियात है और भारतीय कला में डाक्टरेट लेने के बजाय सुर-सुन्दरी पोज़वाले दो जीवन्त स्तनों का सहारा पा लेना अपने आप में एक महान उपलब्धि है।” दूसरी बात असली बात- जो उसे मथती रही, वह यह थी, “श्रीमन् आप चुगद् हैं। आपको बोलने की क्या जरूरत थी? आपने उसे कुछ और करने का मौका क्यों नहीं दिया।”

रंगनाथ “कौन है वह? इस विषय पर ज्यादा नहीं सोच सका, क्योंकि सोचने के रास्ते में दो पहाड़ खड़े हुए थे।”इस प्रकार जब इस समूचे प्रसंग का पटाक्षेप होता है तो रंगनाथ की कलई खुल जाती है। रंगनाथ का तथाकथित शिक्षित, संयमित एवं गंभीर मुखौटा किसी काम नहीं आता है और उसके चरित्र की लम्पटता साफ जाहिर हो जाती है। उसकी आत्मग्लानि ही लैंगिक पक्षपात का जीवन्त उदाहरण बन जाती है।सबसे ज्यादा रोचक तथ्य तो यह है कि इस मानसिकता से केवल रंगनाथ बाबू ही नहीं ग्रसित है अपितु भावी प्रधान सनीचर भी अपने अण्डरवियर को जब बड़ी आतुरता से उतारते हैं तो उन्हें लगता है कि- “जैसे कोई विश्वसुन्दरी उसे अपने बिस्तर पर बुला रही हो।”

बिस्तर के भूगोल की परिधि के भीतर चलने वाले ये सभी क्रिया-कलाप सेक्स के प्रति पुरुष की मनोग्रन्थियों को उजागर करते हैं। चाहे रंगनाथ के लिए फ्दो मजबूत स्तनों का गर्मागर्म स्पर्श” हो या सनीचर के लिए “विश्वसुन्दरी” का आह्नान, इस उपन्यास के प्रायः सभी पात्र इसी प्रकार की भावना अपने मन में औरतों के लिए रखते हैं।‘नेवादा’ नामक गाँव में ‘प्रधान’ पद का ब्राह्मण उम्मीदवार एक बाबाजी से जीतने का आशीर्वाद लेने गया तो बाबाजी ने उसे आश्वस्त करते हुए समझाया कि “अगर तुम्हें स्वप्नदोष की बीमारी है या शीघ्रपतन होता है या बचपन की कुटेव के कारण तुममें नपुंसकता व्याप्त हो गई है तो यकीन रखो, मेरे नुस्खे का एक बार प्रयोग करके तुम एक हजार स्त्रियों का मान-मर्दन कर सकोगे।” समाज में जितने भी ऐसे तथाकथित बाबाजी चमत्कार दिखाने के लिए प्रसिद्ध होते हैं, वह पुरुषों की स्त्री सम्बन्धी समस्याएँ भी समाप्त करने में सिद्धहस्त होते हैं। ये बाबाजी भी एक ऐसा नुस्खा रखते हैं जिससे शीघ्रपतन व स्वप्नदोष की बीमारी तो दूर हो जाती है। साथ ही ताकत भी अर्जित की जा सकती है जिससे ‘एक हजार स्त्रियों’ का मानमर्दन किया जा सके।यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि पुरुषों के लिए ताकत के अर्जित करने का उद्देश्य क्या है और साथ ही उस ताकत का मानदण्ड क्या है?

‘बाबा जी का नुस्खा’ पूरी तरह से शक्तिकेन्द्रित है और उस शक्ति का प्रयोग स्त्रिायों के मानमर्दन के लिए किया जाना है। समाज में जो पुरुषों की मानसिकता है उसी के अनुरूप बाबाजी ने अपनी विद्या का परिष्कार व ज्ञान का विशेषीकरण किया है। बाबाजी के मानसिक तन्तुओं की निर्माण प्रक्रिया भी यहाँ देखी जा सकती है।‘मानमर्दन’ शब्द का प्रयोग भी विशेष उल्लेखनीय है। यहाँ यह प्रतिध्वनित होता है कि स्त्रियों के मानमर्दन द्वारा ही पुरुषों का मानवर्धन किया जा सकता है।स्त्रियों का मानमर्दन भी बिस्तर पर उन्हें ले जाकर किया जा सकता है। बिस्तर से जुड़ा हुआ यह व्याकरण पूरी तरह से लैंगिक भेदभाव को स्थापित करता है। इसी विचार की अभिव्यक्ति युद्धों में दिखलाई पड़ती है जब सैनिकों द्वारा विजित प्रदेशों की स्त्रियों के साथ बलात्कार किया जाता है। ‘रेप कैंप’ की अवधारणा इसी को दिखलाती है। सांप्रदायिक दंगों में भी स्त्रियों का ही मानमर्दन करके अर्थात् बलात्कार करके विरोधी सम्प्रदाय को नीचा दिखाया जाता है। स्त्रियों के मानमर्दन में समूचे खानदान या सम्प्रदाय की बेइज्ज़ती समाहित रहती है।

इस प्रकार ‘एक हजार स्त्रियों के मानमर्दन’ की संकल्पना स्त्री पर पुरुष वर्चस्व को साबित करती है एवं स्त्रियों को यौन वस्तु में तब्दील कर देती हैं।चाहे ‘सायरा बानू के साथ सोने का अरमान हों’ या “चेहरे के नीचे निगाह डालने पर भरा-पूरा मैदान’ देखने का भाव हो या फिर “अंधेरे में पाए गए दो मजबूत स्तनों का गर्मागर्म स्पर्श”, ये सभी भाव मिलकर जिस स्थायी भाव की रचना करते हैं उसके केन्द्र में है- नारी की मांसल देह और उसे अपने-अपने लिए आरक्षित कर लेने की जिद। इस समूचे परिवेश में नारी की अनुमति, सहमति या असहमति के लिए कोई स्थान नहीं है। इसके साथ ही वह यह अपवाद सुनने के लिए बाध्य है कि ”गयादीन लड़की का विवाह किए बिना ही सात-आठ महीने बाद नाना बनने वाले हैं और रुप्पन बाबू को उपहार के रूप में एक भतीजा मिलने वाला है।”

समाज में जो पुरुष वर्चस्व है, उसमें विशेष बात यह है कि इन पुरुषों के मन में जैसा भाव देसी औरत के लिए है, बिल्कुल वैसा ही भाव ‘विलायती औरत’ के लिए भी है। विलायती औरत को भी ये लोग सेक्स के चश्मे से ही देखना पसन्द करते हैं। इनकी यौन-इच्छाओं का शमन ऐसे पोस्टरों को देखकर होता है- ”एक अँग्रेजी सिनेमा के पोस्टर पर एक विलायती औरत लगभग नंगी-एक तख्ते पर अधलेटी पड़ी हुई चूमी जा रही थी।”सबसे खास बात यह है कि यहाँ भी औरत ”चूमी जा रही थी।” इस पोस्टर में भी वह दूसरे की इच्छापूर्ति का साधन मात्र बन कर उभरी है। पोस्टर तक में वह ‘चूमी जा रही है’ न कि वह स्वयं किसी को चूम रही है।ऐसे पोस्टर पुरुष के उन आदिम संस्कारों का खुलासा करते हैं जिसके अन्तर्गत औरत उन्हें उस पानी की तरह दिखलाई पड़ती है जो किसी भी पात्र में पड़कर उसी का आकर ग्रहण कर लेता है। औरत की अपनी इच्छाओं, अपने सपनों एवं अपने आवेगों के लिए उनके पास कोई जगह नहीं हैं।इस उपन्यास में शिक्षक समूह भी नारी के प्रति पितृसत्तात्मक सोच रखता है। चाहें प्रिंसिपल साहब हो या खन्ना मास्टर नारी को देहमूलक दृष्टिकोण से ही देखते हैं।

खन्ना मास्टर के मकान का जो वर्णन किया गया है, उसके अन्तर्गत उनकी अलमारी में बूट पॉलिश की डिबिया, पुराने ब्रुश आदि के साथ ही “साधना नाम की फिल्म ऐक्ट्रैस की एक मढ़ी हुई तस्वीर मौजूद थी जिसमें वह बहुत थोड़े कपड़े पहने हुए, विलायती अभिनेत्रियों के पास जो है, वह मेरे पास भी है, जैसी बात का ऐलान सा करती हुई बड़े हिम्मतवर तरीके से खड़ी थी।”खन्ना मास्टर, शिक्षित होकर जिस प्रकार की आकांक्षा रखते हैं, यह तस्वीर उसकी बानगी प्रस्तुत करती है। ये वही खन्ना मास्टर है जिनकी क्लास में प्रिंसिपल साहब ने चेकिंग के दौरान एक लड़के से एक पत्रिका जब्त की थी जो सिनेमा जगत की थी एवं जब उसका एक पन्ना खोलकर उन्होंने हवा में घुमाया तो लड़कों ने देखा “किसी विलायती औरत के उरोज तस्वीर में फड़फड़ा रहे हैं।”

राग-दरबारी में स्त्री को मूलतः उसके उपकरणमूलक एवं उपभोगमूलक स्वरूप में ही देखा गया है। इस दृष्टि के पीछे पितृसत्तात्मक संरचना ही काम करती है। समाज ने ऐसे नियम बना दिए जिसके अनुसार स्त्रियों को अपना जीवन व्यतीत करना पड़ता है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था को कई तत्वों ने मिलकर मजबूत बनाया है।7 इस प्रकार पितृसत्तात्मक संरचना विभिन्न तरीकों से स्त्री को कमजोर बना देती है और फिर पुरुष उस पर अपना वर्चस्व कायम कर लेता है। 

सन्दर्भ:

1. “स्त्री को पण्य/उपभोक्ता वस्तु नहीं बनाया गया वरन् उसकी योनि तथा प्रजनन क्षमता को व्यवस्था ने क्रय-विक्रय की सामग्री बना दिया। अपनी योनि, जो उसके शरीर का एक हिस्सा है, पर बाहरी नियंत्रण होने के कारण, स्त्री पर मनोवैज्ञानिक दबाव बना। वस्तुतः स्त्रियों के लिए, पहली लिंग आधरित भूमिका, विवाह सन्तानोत्पत्ति हेतु विनिमय थी। इस विनिमय में उसका कोई हस्तक्षेप नहीं होता था। स्त्री के लिए गुलामी की प्रथा के आरम्भ से ही वर्ग-शोषण का अर्थ यौन-शोषण भी रहा है। आदिकाल से ही, गुलाम स्त्री को अपने मालिक के लिए किसानी मजदूरी करने के साथ-साथ यौन सेवाएँ भी देनी होती थीं।” - भारत में स्त्री असमानताः डॉ॰ गोपा जोशी, हिन्दी माध्यम क्रियान्वयन निदेशालय, 2006, दिल्ली, पृ॰ 11

2. “सभी किस्म का वस्तुकरण गुलामी की पूर्वपीठिका और उसकी एक शर्त होता है।”- नारीवादी राजनीतिः निवेदिता मेनन, साधना आर्य, जिनी लोकनीता हिन्दी माध्यम क्रियान्वयन निदेशालय, 2006, दिल्ली, पृ॰ 45

3. “अश्लील साहित्य सिद्धांत है और बलात्कार उसका व्यवहार।” - नारीवादी राजनीतिः निवेदिता मेनन, साध्ना आर्य, जिनी लोकनीता हिन्दी माध्यम क्रियान्वयन निदेशालय, 2006, दिल्ली, पृ॰ 44

4. “सेक्स दरअसल पुरुष की महिला पर शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक सत्ता की अभिव्यक्ति होता है।” - नारीवादी राजनीतिः निवेदिता मेनन, साधना आर्य, जिनी लोकनीता हिन्दी माध्यम क्रियान्वयन निदेशालय, 2006, दिल्ली, पृ॰ 40

5. “रेडिकल नारीवादी पितृसत्ता के हर प्रतीक को अपने हमले का निशाना बनाते हैं जिसमें बुरके को बेपर्द कराना ;इस्लाम की पुरुष संस्कृति पर प्रतीकात्मक हमलाद्ध, सौन्दर्य प्रतियोगिताओं पर हमला ;महिलाओं के यौन वस्तुकरण की प्रतीक, पोर्नोग्राफी ;महिलाओं के खिलाफ हिंसा का प्रतीक, अमरीका का पेंटागन ;पुरुष सैन्यवाद और साम्राज्यवाद का प्रतीक और नाभिकीय बिजलीघर ;पुरुष लोभ और पर्यावरण के साथ बलात्कार का प्रतीक आदि उपक्रमों का विरोध शामिल है।” - नारीवादी राजनीतिः निवेदिता मेनन, साध्ना आर्य, जिनी लोकनीता हिन्दी माध्यम क्रियान्वयन निदेशालय, 2006, दिल्ली, पृ॰ 46

6. “पितृसत्तात्मक संस्कृति के सन्दर्भ में देखा जाए तो कोई महिला अगर युवा है तो वह जो कुछ भी करे उसे यौन अर्थों में परिभाषित किया जाता है। इस प्रक्रिया से उसे तभी छुट्टी मिल सकती है जब कि वह बूढ़ी हो जाए और मर्दों के हिसाब से वह उतनी वांछनीय न रह जाए। वस्तुतः पुरुष विचारधारात्मक, आर्थिक, कानूनी और यहाँ तक कि शारीरिक दबाव के जरिए महिलाओं पर यौन नियंत्रण हासिल करना चाहते हैं।” - लिड्गभाव का मानव वैज्ञानिक अन्वेषणः प्रतिच्छेदी क्षेत्राऋ लीला दुबे वाणी प्रकाशन, 2004, दिल्ली, पृ ॰ 113

7."Gender is a crucial node in the creation of power, but it is not the only one. Economic and class power, religious authority, sexual norms, brute force, or a combination of all of these worked to create patriarchal systems." – Gender – V. Geetha, Stree Publication 2009, Kolkata, p. 137

आशुतोष शुक्ल 
शोधार्थी 
हिन्दी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय
ई-मेल:shuklaashutosh098@gmail.com

1 टिप्पणियाँ

  1. सुन्दर आलेख..पर क्या सिर्फ लिख देने या पढ़ लेने भर से स्त्री उपभोग की वस्तु नहीं रह जाएगी...जरूरत है सदियों पुरानी सोच को बदलने की..इस शोधपरक आलेख के लिए आशुतोष जी को आभार..

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