सात कविताएँ:ओम नागर

त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)वर्ष-2, अंक-16, अक्टूबर-दिसंबर, 2014
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छायाकार:ज़ैनुल आबेदीन

पिता की वर्णमाला

पिता के लिए
काला अक्षर भैंस बराबर।

पिता नहीं गए कभी स्कूल
जो सीख पाते दुनिया की वर्णमाला
पिता ने कभी नहीं किया
काली स्लेट पर
जोड़-बाकी, गुणा-भाग
पिता आज भी नहीं उलझना चाहते
किसी भी गणितीय आंकड़े में।

किसी भी वर्णमाला का कोई अक्षर कभी
घर बैठे परेशान करने नहीं आया
पिता को।

पिता 
बचपन से बोते आ रहे हैं
हल चलाते हुए
स्याह धरती की कोख में शब्द बीज
जीवन में कई बार देखी है पिता ने
खेत में उगती हुई पंक्तिबद्ध वर्णमाला।

पिता की बारखड़ी 
आषाढ़ के आगमन से होती है शुरू
चैत्र के चुकतारे के बाद
चंद बोरियों या बंडे में भरी पड़ी रहती है
शेष बची हुई वर्णमाला
साल भर इसी वर्णमाला के शब्दबीज
भरते आ रहे है हमारा पेट।

पिता ने कभी नहीं बोई गणित
वरना हर साल यूं ही
आखा-तीज के आस-पास
साहूकार की बही पर अंगूठा चस्पा कर
अनमने से कभी घर नहीं लौटते पिता।


आज भी पिता के लिए
काला अक्षर भैंस बराबर ही है
मेरी सारी कविताओं के शब्दयुग्म
नहीं बांध सकतें पिता की सादगी।

पिता आज भी बो रहे है शब्दबीज
पिता आज भी काट रहे है वर्णमाला
बारखड़ी आज भी खड़ी है
हाथ बांधे 
पिता के समक्ष।
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भूख का अधिनियम: तीन कविताएं
                             (एक)

शायद किसी भी भाषा के शब्द कोश में
अपनी पूरी भयावहता के साथ 
मौजूद रहने वाला शब्द है भूख
जीवन में कई-कई बार 
पूर्ण विराम की तलाश में
कौमाओं के अवरोध नही फलांग पाती भूख।

पूरे विस्मय के साथ 
समय के कंठ में 
अर्द्धचन्द्राकार झूलती रहती है
कभी न उतारे जा सकने वाले गहनों की तरह।

छोटी-बड़ी मात्राओं से उकताई 
भूख की बारहखड़ी
हर पल गढ़ती है जीवन का व्याकरण।

आखिरी सांस तक फड़फड़ातें है 
भूख के पंख
कठफोड़े की लहूलुहान सख्त चांेच 
अनथक टीचती रहती है
समय का काठ।

भूख के पंजों में जकड़ी यह पृथ्वी
अपनी ही परिधि में
सरकती हुई 
लौट आती है आरंभ पर
जहां भूख की बदौलत
बह रही होती है 
एक नदी।

(दो)

एक दिन
भूख के भूकंप से 
थरथरा उठेंगी धरा
इस थरथराहट में 
तुम्हारी कंपकंपाहट का 
कितना योगदान
यह शायद तुम भी नहीं जानते
तनें के वजूद को कायम रखने के लिए
पत्त्तियों की मौजूदगी की 
दरकार का रहस्य
जंगलों ने भरा है अग्नि का पेट।

भूख ने हमेशा से बनायें रखा 
पेट और पीठ के दरमियां 
एक फासला
पेट के लिए पीठ ने ढोया 
दुनिया भर का बोझा
पेट की तलवार का हर वार सहा 
पीठ की ढाल ने।

भूख के विलोम की तलाश में निकले लोग
आज तलक नही तलाश सकें 
प्रर्याय के भंवर में डूबती रही 
भूख का समाधान।


(तीन)

इन दिनों 
जितनी लंबी फेहरिस्त है
भूख को 
भूखों मारने वालों की
उससे कई गुना भूखे पेट 
फुटपाथ पर बदल रहें होते है करवटें।

इसी दरमियां 
भूख से बेकल एक कुतिया
निगल चुकी होती है अपनी ही संतानें
घीसू बेच चुका होता है कफन
काल कोठरी से निकल आती है बूढ़ी काकी
इरोम शर्मिला चानू पूरा कर चुकी होती है
भूख का एक दशक।

यहां हजारों लोग भूख काटकर
देह की ज्यामिति को साधने में जुटें रहते हैं अठोपहर
वहां लाखों लोग पेट काटकर
नीड़ों में सहमें चूजों के हलक में 
डाल रहे होते है दाना।

एक दिन भूख का बवंडर उड़ा ले जायेगा अपने साथ
तुम्हारें चमचमातें नीड़
अट्टालिकाओं पर फड़फड़ाती झंडियाँ
हो जायेगी लीर-लीर
फिर भूख स्वयं गढ़ेगी अपना अधिनियम।
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जमीन और जमनालाल: तीन कविताएं

    (एक)

आजकल आठों पहर यंू
खेत की मेड़ पर उदास क्यों बैठे रहते हो जमनालाल

क्या तुम नहीं जानते जमनालाल
कि तुम्हारें इसी खेत की मेड़ को चीरते हुए
निकलने को बेताब खडा है राजमार्ग
क्या तुम बिसर गये हो जमनालाल
‘‘बेटी बाप की और धरती राज की होती है
और राज को भा गये है तुम्हारे खेत

इसलिए एक बार फिर सोच लो जमनालाल
राज के काज में टांग अड़ाओंगे तो 
छलनी कर दिए जाओगें गोलियों से
शेष बचे रह गये जंगलों की ओर
भागना पड़ेगा तुम्हें और तुम्हारे परिवार को

सुनो! जमनालाल बहुत उगा ली तुमने
गन्ने की मिठास
बहुत कात लिया अपने हिस्से का कपास
बहुत नखरे दिखा लिये तुम्हारे खेत के कांदों ने
अब राज खड़ा करना चाहता है
तुम्हारे खेत के आस-पास कंकरीट के जंगल

जो दे रहें है उसे बख्शीस समझकर रख लो
जमनालाल
वरना तुम्हारी कौम आत्महत्याओं के अलावा
कर भी क्या रही है आजकल/
लो जमनालाल गिन लो रूपये
खेत की मेड़ पर ही
लक्ष्मी के ठोकर मारना ठीक नहीं है जमनालाल।

(दो)

उठो! जमनालाल
अब यूं उदास खेत की मेड़ पर 
बैठे रहने से
कोई फायदा नहीं होने वाला।

तुम्हें और तुम्हारी आने वाली पीढियों को
एक न एक दिन तो समझना ही था
जमीन की व्याकरण में
अपने और राज के मुहावरों का अंतर।

तुम्हारी जमीन क्या छिनी जमनालाल
सारे जनता के हिमायती सफेदपोशों ने
डाल दिया है डेरा गांव की हथाई पर
बुलंद हो रहे है नारे-
‘‘हाथी घोड़ा पालकी, जमीन जमनालाल की’’

जरा कान तो लगाओं जमनालाल
गांव की दिशा में
जितने बल्ब नहीं टंगे अब तक घरों में
दीवार के सहारे 
उससे कई गुना लाल-नीली बत्तियों की
जगमगाहट पसर गई है
गली-मौहल्लों के मुहानों पर।

और गांव की औरते घूंघट की ओट में
तलाश रही है,
उम्मीद का नया चेहरा।

(तीन)

तमाम कोशिशों के बावजूद 
जमनालाल
खेत की मेड़ से नहीं हुआ टस से मस
सिक्कों की खनक से नहीं खुले
उसके जूने जहन के दरीचे।

दूर से आ रही 
बंदूकों की आवाजों में खो गई
उसकी आखिरी चीख
पैरों को दोनों हाथों से बांधे हुए
रह गया दुहरा का दुहरा।

एक दिन लाल-नीली बत्तियों का 
हुजूम भी लौट गया एक के बाद एक
राजधानी की ओर
दीवारों के सहारे टंगे बल्ब हो गये फ्यूज।

इधर राजमार्ग पर दौड़ते 
वाहनों की चिल्ल-पो
चकाचौंध में गुम हो जाने को तैयार खडे थे
भट्टा-पारसौल, टप्पन, नंदी ग्राम, सींगूर।

और न जाने कितने गांवों के जमनालालों को
रह जाना है अभी
खेतों की मेड़ों पर दुहरा का दुहरा।

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गांव, इन दिनों
गंाव इन दिनों
दस बीघा लहुसन को जिंदा रखने के लिए
हजार फीट गहरे खुदवा रहा है ट्यूवैल
निचोड़ लेना चाहता है
धरती के पंेदे में बचा रह गया 
शेष अमृत
क्योंकि मनुष्य के बचे रहने के लिए
जरूरी हो गया है
फसलों का बचे रहना।

फसल जिसे बमुश्किल 
पहुंचाया जा रहा है रसायनिक खाद के बूते
घुटनों तक 
धरती भी भूलती जा रही है शनैः-शनैः
असल तासीर
और हमने भी बिसरा दिया है
गोबर-कूड़ा-करकट का समुच्चय।


गांव, इन दिनों
किसी न किसी बैंक की क्रेडिट पर है
बैंक में खातों के साथ
चस्पा कर दी गई है खेतों की नकलें
बहुत आसान हो गया है अब
गिरवी होना।

शायद, इसलिये गांव इन दिनों
ओढ़े बैठा है मरघट सी खामोशी
और जिंदगी से थक चुके किसान की गर्म राख
हवा के झौंके के साथ
उड़ी जा रही है
राजधानी की ओर.....।
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जिनकी छिन गई जमीन
पिछले एक दशक में
जिनकी छिन गई जमीन 
वे धरा के हजारों जोतारी हार गये जिन्दगी की जंग
कुछ हत्या पर उतारु
कई बैठे है आत्महत्या को बेचैन 
बंजड़ खेतों की मेड पर उदास, चिंतामग्न

जिनकी छिन गई जमीन 
जिनके उजड़ गये खेत-खलिहान
जिनके यहां राहत की जगह
आफत की रेलगाड़ी पहंुची हमेशा
जहां धड़ाधड़ काट दिये गये हो जंगल
जहां फटाफट पाट दिये गये हो खेत
धुआं उगलती चिमनियों ने
जंगल को बना दिया दमे का मरीज
और सरकार ने जारी कर दिया बयान
कि हत्या पर उतारु तमाम अधनंगे-भिखमंगे लोग
बनते जा रहे है
लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा

जिनकी देह कर्ज के बोझ हो गई दुहरी
बत्तियों की चमक से रत्तीभर भी ज्यादा नहीं होती
आपदाओं की सरकारी टोह
जिनके यहां जवानी से पहले दस्तक देता हो बूढ़ापा
जिनकी जीवन रेखा घटती-बढ़ती हो
सरकार की मर्जी से
जिनके लिए जी लेने से अधिक सहज हो गया हो
मर लेना

जिसने गिरवी रखे अपने ही खेत की मिट्टी खोदते-खोदते
चुन ली आत्महत्या की राह
इधर आज भी किसी न किसी गांव में
जुटे होंगे सरकारी अफसर
मौत को हत्या-आत्महत्या के बीच की 
अबूझ पहेली बनाने में

शुक्र है इन दस सालों में
लाखों बेचैनिया मुड़ गई आत्महत्या की ओर
जिन दिन सब की सब बेचैनिया तब्दील हो जायेगी 
आक्रोश की शक्ल में
जिनकी छिन गई जमीन वो हो जायंेगे हत्या पर उतारु
उस दिन देश के गृहमंत्री को बदलने पड़ेंगे
ग्रीन हंट के मायने।

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समय के साथ
कुछ चीजें नही रहती समय के साथ
बदल लेती है अपनी सूरत और स्वभाव।

जैसे किसी भी किसान के हाथों में
नहीं नजर आती अब अलसुबह से शाम तक
बंजर खेत की जुताई के दौरान
कील लगी बांस की लकड़ी/परानिया
और ना ही कमजोर बैल के पुट्ठों पर
बचा है अब इतना मांस
जो अनदेखी कर दे दर्द की पराकाष्ठा
बढ़ाता चला जाएं अपनी रफ्तार

वैसे भी कितने कुछ रह गये है अब बैल
धरती को आहिस्ता-आहिस्ता जोतने के लिए
गडारों की धूल से उकतायें
खंडित बैलगाड़ी के पहियें
कबाड़ की शक्ल में पड़े है
गांव के बाहर पगडंडी के समीप
जो कभी-कभार याद दिला देते हो शायद
कुरूक्षेत्र मेें लड़े किसी विकट योद्धा की।

और तो और थान के थान दिखने वाले खेत
समय के साथ तब्दील हो गये है
छोटें-छोटें रूमालों की शक्ल मेें
कुछ बीघा-बिसवों में
पटवारी के बस्ते में बंद खेतों की नकलंे
बढ़ा रही है किसी न किसी बैंक का ग्राफ
सही है कुछ चीजें नही रहती समय के साथ
बदल लेती है अपनी उपयोगिता व स्थान।

जैसे बीते बैसाख के अंधड़ ने
बूंढ़े बरगद की वो डाली भी ला पटकी जमीन पर
जिस डाली पर गुजरी सदी के प्रारंभ में
सत्ता-मद में चूर एक राजा ने
मुक्ति के आकांक्षी एक बागी को
लटकवा दिया था सबके समक्ष
फांसी के फंदे पर।

अब तो वो बरगद भी नहीं रहा
गांव के बीचों-बीच
हालांकिे वो राजा, वो हुकुमत भी नहीं रही अब
जिसके अट्ठाहस में दबी रह गई
कईयों की सिसकियां/रूदन/किलकारियां

आज उस जगह खड़ा हो रहा है पंचायत भवन
और बरगद की परछाई तक लगी है
महानरेगा की मस्टरोल में नाम तलाशतें
युवाओं की लंबी कतार। 
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फेसबुक पर
फेसबुक पर रोज नये-नये चेहरों के साथ 
प्रकट होते हो तुम
कल तुम्हारे जिस चेहरे को ‘लाइक’ किया था मैनें
आज नये चेहरे पर ताजा टिप्पणी की दरकार है तुम्हें
कितना संभव हो रोज बदल जाने वाले तुम्हारे
मुखौटों की तरह 
तुम्हारा प्रोफाइल भी बनावटी है।

फेसबुक पर बड़ी आसानी से लम्बी हो जाती है 
चाहे अनचाहे दोस्त की फेहरिस्त
जैसे-जैसे संख्या में होता है इजाफा 
वैसे-वैसे बढ़ता प्रतीत होता है अपने असर का दायरा
कभी-कभार इस दायरे की चादर में
उभर आये अनचाही सलवटे
तो एक क्लिक में किया जा सकता है अनफ्रेंड
सबके लिये भेजी जा सकती है फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट
सबको देखते हुए खुद किया जा सकता है अनदेखा।

फेसबुक पर सबको देखा जा सकता है
तथागत की तरह निर्लिप्त/
या देवताओं की तरह मंथन की मुद्रा में
मौसम के अनुरूप चल रही होती है अविराम बहसें
बधाई और शुभकामनाओं की आवाजाही 
आम बात है फेसबुक पर।

रोज-रोज बदल जाने वाले मुखौटों में से
किसी एक को एक्सेप्ट कर लेने के वास्ते /
कहीं बार याद रख लेने की कोशिशों के बीच
हर बार भूलता रहा तुम्हारा जन्मदिवस
फेसबुक ने ये झंझट तो खत्म ही कर दिया 
कि जिनका जन्मदिवस होता है 
अपने-आप उभर आता है उनका नाम और प्रोफाइल फोटो
चटक रंगों के साथ

मेरी फेसबुक के कोने पर।

चेहरों की किताब के पृष्ठों पर 
बिखरी पड़ी रहती है हंसी
असली या बनावटी-जैसी भी हो
रिश्तो का रोज नया समुच्च बनता है यहां
असली या बनावटी-जैसा भी हो
संवेदनाओं से भरी होती है लोगों की वॉल
असली या बनावटी-जैसी भी हो।
लोगों की टिप्पणियां देती है हौसलों को आसमान
असली या बनावटी-जैसा भी हो
‘‘फेसबुक’’ भी रचती है सपनों का संसार
असली या बनावटी-जैसा भी हो
कौन कहता है
‘‘वर्चुअल’’ दुनिया ‘‘रियल’’ नहीं होती सायबर संसार में

  

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