कविताएँ::डॉ.कर्मानंद आर्य

अपनी माटी             (ISSN 2322-0724 Apni Maati)              वर्ष-2, अंक-18,                   अप्रैल-जून, 2015

वसंतसेना 


नायकों की एक विशाल पंक्ति
बाहर खड़ी है
आज के दिन भी तुम उदास हो वसंतसेना

कितने बिस्मिल्लाह खड़े हैं
अपनी शहनाइयों के साथ
कितने तानसेन गा रहे हैं
सधे सुरों का गीत

अपने सधे क़दमों से
नृत्य की मुद्रा में आज है
‘दाखनिता कुल’

उल्लास का मद अहा
चोर, गणिका, गरीब, ब्राह्मण, दासी, नाई
हर आदमी आज है नायक

चारुदत्त आये हैं वसंतसेना
फिर भी हो तुम उदास

वसंतसेना निर्व्याज नही जायेगा तुम्हारा प्रेम
प्रकृति उत्तम है

उदास क्यों होती हो ?
क्या गणिकाओं का विवाह नहीं होता वसंतसेना?

हिरण्यमयी

इन दिनों छेड़ रहा हूँ कली दर कली
पत्ता दर पत्ता छू रहा हूँ
तुम्हारे अभंग
नयनों की तलहटी में
तुममें ही ढूँढ रहा हूँ तुम्हारा आयतन

गोल, वृत्ताकार, आयत
कितने ढंग से दिखती है धरती
कितने रंगों की होती है मिट्टी
ढूँढ रहा हूँ तुम्हारी मिट्टी का रंग

किसी गहरे कुएँ में तुम
न ज्यादा बड़ी न छोटी
न अनुभवहीन न अनुभववाली
न कोमल न पत्थर
डूब रहा है एक गागर
गुडुप......गुडुप........गुडुप

तुम्हें संभाल रहा हूँ
जैसे कूदती है अनुभवहीन की अनुभूति
वैसे कूद रही है भीतर की मछली

ओ मेरी हिरण्यमयी धरती

सिनीवाली
अझेल युद्दों के बीच
ढूंढ़ लेता हूँ तुमसे प्रेम करने का बहाना
तुम्हारा हाथ पकड़ लेता हूँ और निकल पड़ता हूँ
तराई का मैदान
तुमसे मिलकर हो जाता है खुशनुमा

उन दिनों सीढ़ीदार खेतों से उतरते हुए
तुमने ही तो कहा था
इन राहों पर उतरना धीरे धीरे

उतरता रहा एक सदी तक एक सूरज
इन्हीं सीढ़ीनुमा खेतों से
इन्हीं खेतों से उतरती रही एक सर्द हवा
सदियों तक
फिर सदियों सदियों तक
उसने इसी क्रम को दुहराया
अझेल युद्धों के बीच

तुमने ही तो कहा था
‘कोई दुश्मन नहीं’
दुश्मन होना हमारे हारने की निशानी है
कोई हारता रहा, हारता रहा, हारता रहा
तीनपत्ती का खेल
‘कोई दुश्मन नहीं’

तुम्हारा बल हर युद्ध जीतता रहा
ओज बनकर उतरता रहा
धान की हरी बालियों में
सीढ़ीनुमा खेत गुलजार होते रहे सदियों तक

इन्हीं अझेल युद्धों के बीच
बिनाअपनों की कोई परवाह किये
निकल पड़ता हूँ तुम्हारा हाथ पकड़कर
मृत्यु को जीतने

आज भी सीढ़ीनुमा खेत मुझे जीवन देते हैं


वासवदत्ता

बहुत दिन गुजर गए
वासवदत्ता आज भी प्रतीक्षा करती है
वर्षों का इन्तजार है
उसकी सूखी पुतलियों पर

उसने सम्राट देखे हैं
पंक्तिबद्ध सम्राट
नवयुवकों, धनिकों, राजकुमारों के दल
एक अपार झुण्ड

मदमस्त हाथी
कतिकाया कुत्ता
समुद्र का अपार तनाव
किसी डूबती नौका का दृश्य

आज कैसे बदल रहे हैं ख्वाब
क्या हो गया है उसे
संसार में कहीं नहीं है ऐसा अपार द्वंद्व

उसे क्या चाहिए
वासना में आकंठ डूबी
एक और सुबह  

उसने सम्राट देखे हैं
पंक्तिबद्ध सम्राट
नवयुवकों, धनिकों, राजकुमारों के दल
एक अपार झुण्ड

क्या कहा था सन्यासी ने
अँधेरे में डूबी एक गणिका से

रूप नष्ट हो जायेगा
तब बचोगी तुम
सिर्फ तुम

तुम लौटाओगी
सिपाही को जंग के मैदान से
सुदूर किसी देश से
सन्यासी को
अपने उसी अलिप्त रूप से

बहुत दिन गुजर गए
वह आज भी प्रतीक्षा करती है
अपनी उदास पुतलियों में
बुद्ध के वे कोरे वचन

क्या उसके शारीरिक वैभव पर लौटेगा उपगुप्त

तुमसे मिलने के बाद 

तुमसे मिलने के बाद
निश्चित तौर पर मैं बदल गया
जैसे एक अणु जुड़ता है दूसरे अणु से
सृष्टि के आरम्भ में
वैसे जुड़े हैं कुछ अवयव अभी अभी

संतूर पर छिड़ी एक महीन धुन सा
सोच एकान्तिक हो गई है
अब मैं एक को ही जानना चाहता हूँ
एक को ही पाना चाहता हूँ
एक को जान लेने के बाद
बचता नहीं कुछ

एक को साध लेना
सब साध लेने के बराबर है
मिलने वाले पलों में

कुछ रंगों, कुछ आकारों, वृत्तों का
सुनो कात्यायिनी !
एक गीत सुनो
जो आजकल बज रहा है मेरे भीतर

सुनो चारुशीला 

मैं तुम्हें तुम्हारी गंध से नहीं पहचान सकता
न तुम्हारे आम्रकुचों से जान सकता हूँ
तुम्हारे मन की अमराई
हाँ तुम्हें छूता हूँ तो इस बात से बेखबर
कि तुम एक देह हो
मद और पसीने से लथपथ

तुम्हारा स्वाद कितना खट्टा है
यह विषय बहुत गूढ़ है
कितना नमक बचा है तुम्हारी नाभि में
यह भी जानना कठिन है
कितना मीठा,तीखा, कसैला एवं कड़वा है
तुम्हारी इस रंग का स्वाद
कह नहीं सकता

मैं यह स्वीकारता हूँ
तुम्हारी अमूल्य प्रतिभा ने किया है प्रभावित
तुम्हारी कविताओं किताबों ने जादू बिखेरा है
तुम्हारी छवियों से होता हूँ प्रभावित
तुम्हें मंचों पर देखकर खुश होता हूँ
पर यह भी स्वीकारता हूँ
तुम्हारा लावण्य भी खींचता है उससे तेज

दुनिया की कोई किताब
मेंहदी की कुछ पंखुरियां जो छोड़ जाती है लाल निशान
वही रंग है आज मेरे मन का
मेरा मन लाल है
तुम चाहो तो छू सकती हो अपनी देह से
मेरे मन के लाल आन्तरांग

किताब में नहीं है
गुलाब में नहीं है
चम्पा,बेला, जूही, रोज़ी, लिली,
यासमीन, सुंबुल, नर्गिस
कहीं नहीं है इस मन की भावना

जो है सो देह में है
तुम भी देह में हो
तुम्हारा मन भी देह में है
देह में ही है सब सुनो

तुम्हें तुम्हारे ही हाथों ने छुआ होगा बार बार
तुम्हें कई और हाथों ने सहलाया होगा कई बार
इस बात से अनजान कि तुम सिर्फ देह हो
सिर्फ मिट्टी

देह से उपजता है प्रेम
देह से उपजती है गंध
देह से उपजता है एक नरक
जो जीवन देता है
तुम वही नरक हो सुनो चारुशीला

मुझे नरक अच्छा लगता है
तुम्हारी देह भी
और वह मुझे उसी तरह पसंद है
जैसे जीवन
मैं तुम्हें तुम्हारी गंध से नहीं पहचान सकता
न तुम्हारे आम्रकुचों से जान सकता हूँ
तुम्हारे मन की अमराई
हाँ तुम्हें छूता हूँ तो इस बात से बेखबर
कि तुम एक देह हो
मद और पसीने से लथपथ

सुनो कात्यायनी
सुनो! रखता हूँ सब तीर, धनुष, गांडीव
कवच कुंडल
सब तुम्हारे निमित्त था
वन प्रांतर, साम्राज्य की इच्छा
सत्ता के लोलुप दोस्त
सब छोड़ता हूँ अब

ये घोड़ो की टापें नहीं चाहिए  
यह पीठ पर लदी जीन भी
सब कुछ तुम्हारे निमित्त रहा
हजारो किलोमीटर का भटकाव
तुम्हारी यादों के साथ
अब नहीं चाहिए कुछ  

कह दो राजाओं ने छोड़ दिया सिंहासन की  इच्छा
कुछ खास करने का लोभ त्याग दिया
अब वे नीले आसमान के तले
कुछ न पाने की कसम खायेंगे

जो कुछ था वह तुम्हारे निमित्त था
घन गरजता था
बारिस की बूंदें उठती थीं
वन प्रांतर महकता था
सब कुछ तुमसे संदर्भित था

तुम नहीं तो विराग की यह रात किस काम की


अवंतिसुंदरी

वर्षा जाने को है
इस अर्धरात्रि में कोई तेज सुर में गा रहा है

मैं अप्रतिहत
सुन रहा हूँ तुम्हारा मादल
अविधावक्र, सूची, उत्तानवंचित, हंसपक्ष
कितना अदभुत है
हजार हजार पुष्पों से सजा तुम्हारा
जोगी नृत्य

अचानक बदल रहे हैं सुर
आवाज भारी हो रही है तुम्हारी
आज कोई बनावट भी नहीं तुम्हारी मुद्रा में

अदभुत है
यह कैसा मिलन है अवन्ति
कविता तुम्हारे अंग अंग पर
अठखेलियाँ कर रही है
शनैः-शनैः द्राक्षारस टपक रहा है
इस अर्धनिमीलित रात्रि में भी

कपाट बंद हैं
खुले हुए सीने पर लोट रहे हैं
जाने कितने प्रहरी

अब हम सो नहीं सकेंगे
अवन्ति
प्रेम ने आज ही तो मुझे जगाया है



कादम्बरी 
बर्फीली सर्दी की पहली रात
एक ही बिस्तर पर लेटे हैं
अतीत और वर्तमान

कभी अतीत करवट बदलता है
कभी वर्तमान

नदियों में पानी आता है
डूब जाते हैं गाँव के गाँव
फिर धरती हरियाती है

नर्म बिस्तर
जब ठंडा हो जाता है
तुम इसे सुखा लेती हो

कई बरसों की यह कथा है
आज ही
क्यों पूछ रही हो कादंबरी?



कर्मनाशा
(कर्मनाशा विंध्याचल के पहाड़ों से निकल कर काफ़ी दूर तक उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा उकेरने वाली एक अपवित्र छुटकी-सी नदी जो अंततरू गंगा में मिल जाती है)

कर्मनाशा 
यह शगुन मांगने का वक्त नहीं है
विपत्ति और दुर्भिक्ष में
टूट जाते हैं सारे नियम

ब्रह्माण्ड फैल जाता है
दुनिया और विस्तृत हो जाती है
ओखली में रक्खा हुआ धान
आकांक्षा बन टूटता है
चावल जैसे टूटते हैं विभ्रम

लोभ और मोह
दावानल में कश्ती बन डूब जाते हैं
सच कहता हूँ
यह वक्त कोई और वक्त है
यह शगुन मांगने का वक्त नहीं

यह अस्तित्व बचाने का वक्त है
सब कुछ के नष्ट होने पर
कुछ बचा लेने का वक्त
एक चिकित्सक के कुछ बोल
दिखाई देते हैं हथेलियों पर
ह्रदय पर दीखता है
किसी डॉक्टर का गहरा रंग
इतना तो बचा है मन में कहीं

काटो तो खून नहीं होता
मांस नहीं दिखाई देता रक्तिल
पानी नहीं दीखता
पानी नहीं मिलता ऐसे समय में

कर्मनाशा अब तुम ही बताओ
तुमसे बेहतर कौन जानता है
एकमनुष्य के घर
एक नदी की नियति

बुधई

मैं कुरूप से प्रेम करता हूँ
असुंदर और वीभत्स
मेरी प्रेरणा बनकर उभरते हैं

अपने बाथरूम में
लिखे हुए वे हर्फ़ बार बार पढ़ता हूँ
मेरी प्रेरणाओं के केंद्र में
होती हैं वही अव्यक्त इच्छायें

असुंदर हैं मेरे घर
घर के पास उगी नहीं है
पार्कनुमा घास
जिस टर्फ को मेरी बकरियां चरती हैं
उसी पर बैठकर गीत गाती है
मेरी प्रियतमा

मेरी भीत पर मेरी माँ ने
लिखा है एक संसार
कुरूप और ख़ुशी से भरा हुआ

मैं एक बुधई नहीं हूँ
वह भी हूँ
जो देखा नहीं गया आजतक

असुंदर, असुंदर, असुंदर


बाघिन

बाघिन मेरा मुँह चाटती है
मुझे दुलारती है
पंजों का प्रयोग सिखाती है

बाघिन का दिल बहुत नरम है
वह कभी कभी गुनगुनाती है एक गीत
एक गीत जिसमें उसके प्रेम की कथा है

उसका निकम्मा प्रेमी
नए शिकार की तलाश में
एक दिन चला गया बहुत दूर

बाघिन ने तब उसे बहुत खोजा
भोजन की तलाश उसकी जिम्मेदारी रही
बच्चों का पालन किया दुःख उठाकर

वह रूई की तरह हलकी हुई
अपने बाघ की याद में
वह रोई नहीं
उसने जीवन का विकल्प तराशा अपने आस पास

बाघिन बहुत नरमदिल है
वह मेरा मुँह चाटती है
मुझे दुलारती है
पंजों का प्रयोग सिखाती है

मैंने महसूस किया
बाघिन के पंजे बहुत नरम हैं


विकल्प

लाओ माँ मेरे पैरों में बाँध दो पायल
मैं चलूँ तो पता चले एक लड़की का चलना
लाओ माँ एक खिलौना
जो लड़कियों के लिए बना हो केवल
लाओ माँ मेरे लिए एक प्रियतम
जो ठीक तुम्हारे पति जैसा हो

आज भी सोचती है एक बुढ़िया
किसी अँधेरे में बैठी हुई
सोचती है क्या कोई विकल्प था
आजतक उसके पास

वह जीती रही
वह जीती रही
उसने जाना बुढ़ापा एक सच है
और जिन्दगी एक दूसरा सच


पानी में डूबता है मांस का एक टुकड़ा 

पानी में डूबता है मांस का एक टुकड़ा
फिर उतराता है अचानक
फिर डूबता है
गहरे और गहरे

एक कौवे की आँखों में
छा जाती है उदासी
डूबने मात्र से

जैसे डूबता जाता हो कोई घर
एक नितांत दलदल में
डूबता जाता है आशाओं का एक पुंज

सोचता है एक कौआ
उसका भोजन डूब रहा है
एक माँ सोचती है
उसकी आँखों का एक तारा


डॉ.कर्मानंद आर्य,सहायक प्राध्यापक,भारतीय भाषा केंद्र, हिंदी,दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया,बिहार, 08863093492] 8092330929

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