साक्षात्कार:आलोचक चौथीराम यादव जी से दिनेश पाल और दीपक कुमार की बातचीत

अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-19,दलित-आदिवासी विशेषांक (सित.-नव. 2015)
साक्षात्कार
आलोचक चौथीराम यादव जी से दिनेश पाल और दीपक कुमार की बातचीत 

हाशिए के समाज की अवधारणा क्या है ?
चित्रांकन-मुकेश बिजोले(मो-09826635625)
हाशिए के समाज से प्राय तात्पर्य दलित समाज है ,पिछड़ा समाज है ,आदिवासी समाज है ,किसान ,मजदूर यही सब तो है .हाशिए का समाज मुझे लगता है कि जिन्हें हाशिए का समाज कहा जाता है वे बहुसंख्यक समाज है और आबादी के हिसाब से बहुसंख्यक समाज होने के नाते मुख्यधारा का समाज है .लेकिन तमाम आर्थिक संसाधनों और शिक्षा से वंचित करके इन्हें हाशिए पर ढकेल दिया गया है .और जो हाशिए के लोग है कम आबादी वाले लोग है .वे वर्चस्व बनाए हुए है .और वही मुख्यधारा के केंद्र में है .जिसे आज हाशिए का समाज कहा जाता है उसे हाशिए का समाज नही कहा जाना चाहिए .यह मुख्यधारा का समाज है .क्योंकि बहुसंख्यक समाज है और उसकी आबादी भी बहुत ज्यादा है देश की बहुसंख्यक आबादी को हाशिए का समाज नहीं कहा जा सकता लेकिन स्थिति यह है कि बहुत दिनों से जो शिक्षा है, आर्थिक संसाधन है उससे वंचित करके उन्हें एक प्रकार से हाशिए पर ढकेल दिया गया है .उसपर पढ़े लिखे वर्चस्वशाली लोग आधिपत्य जमा चुके है .तो हाशिए के समाज को नए ढंग से सोचने की जरूरत है .

साहित्य में दलित साहित्य और उसकी चेतना आयातित है या हिंदी की मौलिक परम्परा का ही एक रूप है ?
चौथीराम यादव जी 
आयातित तो ये विरोधियों का आरोप है दलित साहित्य की चेतना जो है या एक आन्दोलन जो है या दलित विमर्श जो है यह हमारे सामाजिक ,आर्थिक अंतर्विरोधों का परिणाम है .यह जो हमारी पुरानी जातिव्यवस्था है, जातिव्यवस्था के जो परिवर्तनकारी आन्दोलन हुए उसी का यह अगला विकास है .इसे आयातित मानने वाले या इसे अश्वेत आन्दोलन का नकल कहने वाले ,या नारी आन्दोलन को यूरोप का फैशनपरस्ती मानने वाले ये वही परम्परा वादी विरोधी है जो रक्तबोध की शुद्धता से लेकर भाषा ,शब्द ,साहित्य और संस्कृति तक में शुद्धता की तलाश करते है .ये शुद्धता वादी रूढ़ परम्परावादी है .ये उनके विरोध का एक भौंडा तरीका है .क्योंकि गौतम बुद्ध का जो जातिव्यवस्था विरोधी आन्दोलन है भक्ति आन्दोलन है .भक्ति आन्दोलन जो जातिव्यवस्था विरोधी आन्दोलन हुआ .उसी प्रकार उत्तर सदी में दलित आन्दोलन भी उठ खड़ा हुआ .यह प्रतिरोध की संस्कृति का निर्माण करने वाला जो परिवर्तनकारी आन्दोलन है .जैसे मैं मानता हूँ कि हमारे देश की सबसे बड़ी सामाजिक क्रांति एक तो बुद्ध की सामाजिक क्रांति दूसरे भक्ति आन्दोलन की सामाजिक क्रांति और तीसरे दलित आन्दोलन की सामाजिक क्रांति ,और तीनों परिवर्तनगामी आन्दोलन है .और तीनों का एक स्वर है जातिव्यवस्था का विरोध करना ,वर्णव्यवस्था पर आधारित जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था है .उस वर्ण व्यवस्था का विरोध करना एवं समता मूलक समाज का निर्माण करना .ये बुद्ध आन्दोलन से लेकर दलित आन्दोलन तक प्रक्रिया चलती रहती है ,तो यह हमारा ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य है .ऐसा कहकर हम ऐतिहासिक प्रस्थान बिन्दुओं से काटना चाहते है .कुछ भी परिवर्तनगामी आन्दोलन हो, तो उसे बाहरी कहकर काटना चाहते है .लेकिन यह जो जातिव्यवस्था विरोधी वाले आन्दोलन है वह बाहरी नहीं है .बल्कि हमारे यहाँ एक द्वंदात्मक प्रक्रिया में ये सत्ता व्यवस्था के विरोध में हमेशा परिवर्तनगामी आन्दोलन होते रहे है .इसलिए इसका सम्बन्ध भारतीय संदर्भ में है .इसका पृष्ठभूमि ऐतिहासिक है इसलिए यह बाहरी नहीं है .

दलित साहित्य का वैचारिक आधार क्या है ?इसके प्रेरणास्रोत कौन कौन है ?
 दलित साहित्य का मूल आधार तो अम्बेडकर का चिन्तन है ,अब सवाल यह है कि अम्बेडकर के चिन्तन का आधार क्या है ?उनका वह चिन्तन है कहीं से तो प्रेरणा लेता है .जाहिर है कि अम्बेडकर बुद्ध के पास जाते है ,अम्बेडकर कबीर के पास जाते है ,अम्बेडकर ज्योतिबा फूले के पास जाते है .तो ये जो अम्बेडकर से पहले सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलन चल रहे थे .उनसे प्रेरणा लेकर अम्बेडकर अपने विचारधारा को बड़े व्यवस्थित रूप में प्रतिस्थापित करते है .इसलिए वे अपने तीन गुरु मानते है बुद्ध ,कबीर और ज्योतिबा फूले को .ज्योतिबा फूले तो उनके मार्गदर्शक ही है तो जैसे मैं कहा कि बुद्ध की सामाजिक क्रांति ,भक्ति आन्दोलन की सामाजिक क्रांति और दलित आन्दोलन की सामाजिक क्रांतियह तीनों है . अम्बेडकर के पहले बुद्ध ने जातिव्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी .बहुत कुछ तोड़ा था .कबीर तथा रैदास ने भक्ति आन्दोलन में बहुत कुछ करने की कोशिश की और उसको बहुत व्यवस्थित ढंग से आज के संदर्भ में अम्बेडकर ने उसे आगे बढ़ाया .तो उसके आगे जो प्रेरणा है वह ज्योतिबा फूले की और बुद्ध की मुख्यरूप से है .तो अम्बेडकर मार्क्सवाद से भी प्रेरणा लेते है ,पूंजीवाद का विरोध करने के लिए तो मार्क्स के साथ खड़े दिखाई पड़ते है और ब्राह्मणवाद यानी जातिवाद का विरोध करने के लिए बुद्ध के साथ खड़े होते है .तो अम्बेडकर के चिन्तन परम्परा से नहीं बल्कि आधुनिक चिन्तन की विभिन्न परम्परा से होता हुआ आया है .जो उनके साथ पूंजीवाद का विरोध होना था तो पूंजीवाद के विरोध में खड़े है लेकिन जातिवाद के खिलाफ संघर्ष को मुख्य मानते है .उस समय जो मार्क्स वादी थे उनमे और अम्बेडकर में इसी बात को लेकर मतभेद था .अन्यथा उनका एजेंडा भी एक प्रकार से मार्क्सवादी एजेंडा था .कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो जैसा है .वर्गविहीन तथा शोषित समाज की बात करता है मार्क्सवाद .तो वर्गविहीन ,वर्णविहीन ,शोषणविहिन समाज की बात तो अम्बेडकर भी करते है .दोनों सहमत है .उनका यह कहना था कि वो आर्थिक कारण को मुख्य मानते है .अम्बेडकर आर्थिक और सामाजिक दोनों कारणों को मानते है .

उनका कहना था था कि सामाजिक मुक्ति किए बिना ,जातिमुक्ति किए बिना हम वर्ग संघर्ष नहीं कर सकते ,तो वर्ण संघर्ष तक पहुचने के लिए वर्ण संघर्ष करना जरुरी है .जब तक जाति या वर्ण संघर्ष से मुक्त नहीं हो जाते तब तक वर्ग संघर्ष तक नहीं पहुच सकते .हमारा अंतिम लक्ष्य है वर्ग संघर्ष यानी मानव मुक्ति .लेकिन दलित मुक्ति ,स्त्री मुक्ति के बाद ही इसकी मुक्ति कर सकते है .सामाजिक मुक्तिं बनाम आर्थिक मुक्ति दोनों के बीच मतभेद है .उनका कहना था कि पूंजीवाद का विकास हो भी जाए मान लीजिये और जातियां टूट भी जाए ,लेकिन टूटना बड़ा मुश्किल है ,जातियां टूट कर वर्गो में बन जाए आमिर वर्ग बन जाए गरीब वर्ग बन जाए .जब दो वर्ग बन गए तो जातियां टूट गई .गरीब वर्ग में हर जातियों के लोग और गरीब वर्ग में हर जातियों के लोग है .लेकिन गरीब वर्ग में कोई ब्राह्मण है तो पूजा जाएगा और आमिर वर्ग में कोई गरीब है तो इतना धनाढ्य होकर भी अपमानित ही होगा. तो जाति का जो अन्तर्विरोध है .अम्बेडकर के अनुसार पीछा नहीं छोड़ता .इसलिए वर्ग विभाजित हो जाने के बावजूद वर्ण बना रहेगा इसलिए वर्ण से लड़ना बहुत जरुरी है .

साहित्य बनाम दलित साहित्य का जो बहस और विभाजन है ,इसे आप किस रूप में देखते है ?
यह भी विरोधियों का ही एक तरीका है .यह कहते है कि साहित्य तो साहित्य है क्या दलित साहित्य है क्या अभिजात्य साहित्य ?महिला या नारीवादी लेखन के बारे में भी यही कहते है कि लेखन तो लेखन होता है .क्या पुरुष लेखन? क्या स्त्री लेखन ?पर यह सवाल क्यों उठ खड़े हुए .महिला लेखन या दलित लेखन इस प्रकार से उठे है .पर उनके सवालों को ,हमने उनकी अस्मिता को ,उनके अधिकारों को ,उनके मान-सम्मान को लेकर हमने प्रश्न उठाए हुए होते तो आज इन्हें अलग से लिखने की क्या जरूरत थी .वह एक समय की मांग है ,एक ज़माने की आवाज है .जिन्हें बराबर दबाया गया कुचला गया .जैसे एक बार भक्ति आन्दोलन में दबाया गया था कुचला गया था .वे उठ खड़े हुए थे कबीर ,रैदास वगैरह .उसी के ठीक बाद दबे ,कुचले या पिछड़े समाज के जो लोग थे उनमें वे चेतना पैदा हुई और अम्बेडकर की विचारधारा उनमें जाग्रति पैदा कर दी है तो उनका जागरण एक आन्दोलन है.

क्या आपको लगता है कि दलित विमर्श साहित्य पर एकाधिकार और वर्चस्व को चुनौती देने में सफल हुआ है ?
दलित साहित्य अपने जीवन का अनुभव लेकर आया है .दलित साहित्य मनुष्य केन्द्रीत साहित्य है .दलित साहित्य जीवनवादी साहित्य है .अब तक जो हमारा लिखा हुआ साहित्य है .वह कलावादी साहित्य है .अभिजन वाद का साहित्य है .उसके मुल्यांकन के आधार कलावादी दर्शन के शास्त्र है .जो काव्यशास्त्र है वह कलावादी है. तो जो कलावादी सौन्दर्यशास्त्र से दलित साहित्य का मूल्यांकन करेगा तो निराश होना पड़ेगा .जैसे भक्ति आन्दोलन में कबीर और रैदास का मूल्यांकन पौराणिक मनुवाद के आधार पर करेंगे .जो तुलसी का साहित्य है ,रामचन्द्र शुक्ल ने सारे औजार लिए तुलसी के रामचरित मानस से ,लोकमंगल का सिद्धांत है या भावुकता का सिद्धांत है .जो भी लिया है वह तुलसीदास के पौराणिक मनुवाद के आधार पर लिया है .तो जो पौराणिक मनुवाद या साहित्य विरोधी शास्त्र है उसका मूल्यांकन करने के लिए आपको उनके साहित्य से बटखरा तैयार करना चाहिए न की तुलसी दास के साहित्य से उनका मूल्यांकन करना चाहिए .उसी तरह से आज जो हमारा दलित साहित्य इसके भीतर से आपको सौन्दर्यशास्त्र लेना होगा .और आप अपने पुराने काव्यशास्त्रीय आधार पर उसका मूल्यांकन करेंगे तो निराशा लगेगी ,एक रस लगेगा ,और कला विहिन लगेगा ,रस ,छंद ,अलंकर विहिन लगेगा .

दूसरी बात यह कि दलित सहित्य में रस ,छंद ,अलंकार महत्वपूर्ण नही है बल्कि दलित साहित्य में मुख्य है आशय ,सामाजिक सरोकार ,उसका उद्देश्य ,वह कहना क्या चाहता है .वह अपने सामाजिक अनुभव पर बल देता है .तो इस तरह पुराने सौन्दर्य शास्त्र के कसौटी पर इसे नहीं कस सकते ,यदि कसते है तो निराश होना पड़ेगा .दूसरे दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र दलित रचनाकारों ने रचा है यानी चालीस पैतालीस साल में ,फिर से दलित साहित्य लिखा गया है .इसके बीच तीन चार दलित साहित्य के सौन्दर्य शास्त्र लिखे गए है .शरण कुमार लिम्बाले का दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र ,ओमप्रकाश बाल्मीकि का दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र आदि है .जो दलित साहित्य लिखा जा रहा है उसके मूल्यांकन के लिए दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र भी है .उस आधार पर दलित साहित्य का मूल्यांकन करना चाहिए . जब आप उस पर नहीं करते है तो .दूसरे हिंदी का मौलिक सौंदर्यशास्त्र कोई है ही नहीं .हिंदी का मौलिक सौंदर्यशास्त्र क्या है ?जो संस्कृत का सौंदर्यशास्त्र है और पश्चिम का जो सौंदर्यशास्त्र है .दोनों को मिलाकर हिंदी आलोचना किया जाता है .यदि हिंदी में आलोचना के लिए अपना मौलिक सौंदर्यशास्त्र होता तो मुक्तिबोध को साहित्य का नया सौन्दर्यशास्त्र क्यों लिखना पड़ता.तो इसलिए दोनों में फर्क होता है .विचारधारात्मक फर्क जहाँ तक है लेकिन मैं उसे मुख्यधारा का ही साहित्य मानता हूँ .और जो भारतीय नवजागरण था .हिंदी नवजागरण हुए यदि उसमें दलित प्रश्न तथा स्त्री प्रश्न को सही से उठाया गया होता तो आज इन्हें अलग से उठ खड़े होने की जरूरत नहीं होती .इसलिए हमारा जो भारतीय नवजागरण या हिंदी नवजागरण है वह आधा अधूरा है .उस आधे अधूरे नवजागरण को पूर्णता प्रदान करते हुए दलित साहित्य या स्त्री सहित्य आगे बढ़ रहा है.

दलित साहित्य को अस्मिता मूलक लेखन भी कहते है .जो पाठक में एक सामाजिक चेतना भी पैदा करता है .किन्तु क्या आप अपने लम्बे अनुभवों से बता सकते है कि यह चेतना समाज में किस रूप में फैली है ?

हाँ ,अस्मिता मूलक साहित्य तो कहा ही जाता है .इसे अस्मिताओं का आन्दोलन कहते है .क्योंकि हजारों सालों जो से उनकी खोई हुई अस्मिता थी .उस अस्मिता की खोज का आन्दोलन है .हम कौन है ?हमारा अस्तित्व क्या है ?तो अपने बारे में जानने की जो जागरूकता पैदा हुई .या अस्मिताबोध हुई ,इस तरह जो पढ़े लिखे लोग है उनके भीतर तो अस्मिता बोध पैदा हुआ और अपने अधिकार के लिए जागरूक हुए एवं उसके लिए संघर्ष कर रहे है .लेकिन समाज की बात जहाँ तक होगी, तो आज जो बहुसंख्यक समाज शिक्षा तथा अज्ञानता के अन्धकार में जी रही थी उसमें तो अस्मिता का जागरण हुआ है .और जागरण धीरे धीरे हो रहा है .लेकिन उसके अधिकार क्या है ?वह किसके लिए संघर्ष कर रहा है?इसका एहसास उस रूप में नहीं हुआ है .जैसे समाज में शिक्षा का विकास होता जाएगा वैसे -वैसे लोगों को अपनी अस्मिताओं का बोध भी होता जाएगा और यह आन्दोलन आगे बढ़ता जाएगा . चाहे स्त्री हो या दलित सभी अपने अस्मिता और अधिकारों के लिए संघर्षरत है .क्योंकि पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों को दबाया गया था .तमाम वर्जनाओं में घेरा गया था .यौन शुचिता के नाम पर ,और लिंग के आधार पर सामाजिक विषमता को देखा जाय तो तो इसके दो मूल कारण है एक तो लिंग दूसरे जाति .जाति में जो है एक आदमी को दूसरे आदमी से श्रेष्ठ घोषित किया गया है और लिंग में स्त्री पुरुष के बीच भेद है पुरुष को श्रेष्ठ और स्त्री को दोयम दर्जे का माना जाता है .ये जाति तथा लिंग सम्बन्धी विभेद है . समाज में विषमता पैदा करते है .उस बिषमता को दूर करने के लिए आज नारीवादी आन्दोलन और दलित आन्दोलन प्रयत्नशील है .हमारी अस्मिता समतामूलक की है ,बराबरी है .न स्त्री किसी पुरुष से हीन है न दलित किसी ब्राह्मण से हीन है.जो हीनता का बोध पैदा किया गया वह धीरे धीरे खत्म हो रहा है.अपनी अस्मिता का बोध हो रहा है .तो इस तरह इसे अस्मिता मूलक साहित्य का अस्मिता मूलक विमर्श कह सकते है.

आप एक बड़े विश्वविद्यालय में अध्यापन कर चुके है.वहाँ के पाठ्यक्रम में अब भी दलित अस्मिता मूलक साहित्य पर विशेष ध्यान नहीं है. जबकि वहाँ इस सामाजिक वर्ग के छात्र भारी संख्या में पढाई कर रहे है ,इस पर आपकी क्या राय है ?

 हाँ ,बिलकुल सही बात है .देखो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय है या जो भी विश्वविद्यालय है .उसमें वर्चस्व किसका है ? जो अध्यापक होंगे ,जो पाठ्क्रम बनायेंगे ,पाठ्यक्रम स्वीकार करेंगे.तो जाहिर है कि उसमें ब्राह्मण वर्चस्व कायम रहेगा .जो बना हुआ है वह उनके गले के नीचे नहीं उतरेगा .जैसे होता है न की आरक्षण दिया जाए ,एडमिशन में दिया जाए .तो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में नहीं दिया गया था .एस सी ,एस टी का तो हुआ लेकिन ओ. बी. सी. का तो हुआ ही नहीं था . तो इतने दिनों तक ऐसे रहा .जबकि केंद्र सरकार की नीति है .आरक्षण के आधार पर शिक्षक की नियुक्ति होनी है .बहुत दिनों तक टालते रहे है .मुझे जहाँ तक लगता है केंद्र सरकार ने सिम्हान्द्री या गौतम ( दोनों लोग बी. एच. यू. के कुलपति थे ) के समय बार बार वहां से आता था कि खाली पदों को भरा जाए .जब बीसों बार रिमाइंडर आया तब धीरे धीरे कर के खाली पद भरा गया .तो जहाँ ब्राह्मणवादी वर्चस्व है वहाँ बराबर बना हुआ है जो आरक्षण के विरोधी है .उन्हें लगता है कि हम हजारों साल से अघोषित आरक्षण का लाभ उठाते आ रहे है तो हमारे उस आरक्षण में ये सेंध लगा रहे है .सामाजिक दबाव और नैतिक दबाव बनेगा तो चीजे धीरे धीरे आएँगी .इसलिए पाठ्क्रमों में धीरे धीरे प्रवेश होने लगा है .जहाँ ज्यादा ब्राह्मणवाद जकड़ा हुआ है वहाँ बिलम्ब हो रहा है अन्यथा और जगहों पर लगाया जा रहा है .इसको कोई रोक नहीं सकता .

लखनऊ विश्वविद्यालय में तुलसीराम की आत्मकथा मुर्दहियाको पाठ्यक्रम में लगाने पर यह कहकर विरोध किया गया कि इससे छात्रों में विद्वेष की भावना पैदा होगी .यह आप कहाँ तक मानते है ?

एक तो लखनऊ विश्वविद्यालय वाले एकदम जड़ है .काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ब्राह्मणवादी वर्चस्व है लेकिन जो पढ़े लिखे ब्राह्मण है उनमें उतनी जड़ता नहीं है .पर लखनऊ में तो सब जड़ ही है.वहाँ एक प्रकार से हिन्दुत्ववादी माहौल है .तो वे चाहे किसी की भी होती चाहे मुर्दहियाहोती या शौराज सिंह बेचैन की मेरा जीवन मेरे कंधे पर’  होता अर्थात जो भी आप लगाओगे उसका विरोध करेंगे .यदि कोई भी पढ़ा लिखा आदमी होगा तो उसका मजाक उड़ाएगा .यानी उसके विरोध करने का भौंडा तरीका है .चाहे वह लखनऊ विश्वविद्यालय हो चाहे कहीं भी हो वह स्वीकार नहीं कर पा रहा है .क्योंकि कहीं भी दलित वर्ग के अध्यापक एक दो होंगे ज्यादातर संख्या सवर्णों की होगी .आप पाठ्यक्रम में लगायेंगे तो वे गलत कहेंगे जब आप कुलपति यहाँ जायेंगे तो कुलपति कहेगा जब सारा अध्यापक विरोध में है तो इसका मतलब गलत है .गलत बात होगी लेकिन उसे कोई पढ़कर या समझकर तो बता नहीं रहा है तो इन सारे संघर्षों से गुजरना पड़ेगा .धीरे धीरे एक दिन लखनऊ विश्वविद्यालय क्या बल्कि सभी विश्वविद्यालय में लगाना पड़ेगा.

कुछ आलोचक कहते है कि दलित विमर्श में अब भटकाव आ गया है.यह कहाँ तक सही है ?
दलित साहित्य में अब कोई भटकाव नहीं .देखो कोई भी दलित विमर्श हो या स्त्री विमर्श भटकाव शुरूआती दौर में होता है .जैसे जैसे वह परिपक्व होता जाता है भटकाव खत्म हो जाता है .तो शुरूआती दौर में भटकाव हो सकता है ,जैसे शुरू में बात हो रही थी न कि स्वानभूति और सहानभूति यह भी विरोधियों की ही देन थी . हाँ इस अर्थ में जरुर देखेंगे जैसे महाराष्ट्र का दलित आन्दोलन जो पूरी तरह परिपक्व हो चूका है ,सहानभूति और स्वानभूति की वहाँ बात कभी नहीं होती .यह गए ज़माने की बात है .दलित को भी बड़े व्यापक संदर्भ में लेते है .जो भूमिहीन है घुमन्तु जातियाँ है शुद्र है .इस प्रकार से सबको उसमें समेटते है .दया पवार है ,शरण कुमार लिम्बाले है .ये जितने भी महाराष्ट्र के दलित चिंतक है .वे घुमंतू जातियां ,शुद्र सबको उसमें समेटते है .तो इसलिए हिंदी पट्टी में एक बात जरुर है कि अतिरेकी रूप दिखाई पड़ता है .एक अतिवादी जो है वो ब्राह्मणवाद के विरोध के नाम पर ,जातिवाद के विरोध के नाम पर पूरे हिंदी साहित्य को नकारने की प्रवृति रही है .प्रेमचन्द को नकारने की बात यह अतिवादी है .जबकि महाराष्ट्र में जो है जैसे दया पवार ने एक बार कहा था ,मराठी को प्रेमचन्द जैसा लेखक मिल गया होता तो महाराष्ट्र या मराठी में दलित साहित्य का विस्फोट ही नहीं होता. क्या मतलब है इसका ?यानी प्रेमचन्द में जो दलित चेतना है उसे रेखांकित कर रहे है कि अगर मराठी में प्रेमचन्द जैसा लेखक मिल गया होता तो दलित साहित्य के विस्फोट की जरूरत ही नहीं थी .यानी प्रेमचन्द उसे कभी का पूरा कर रहे थे .रंगभूमि की प्रतियाँ जलाएंगे ,कफन कहानी पर विवाद खड़ा करेंगे तो यह एक तरफा हो जाता है .लेकिन उसका एक दूसरा पहलू भी मैं मानता हूँ कि प्रेमचन्द पर सवाल उठाना या प्रेमचन्द से असहमत होना यह प्रेमचन्द का विरोध नहीं है .

असहमत जब तक नहीं होंगे, विरोध दर्ज नहीं करेंगे तब तक उनकी परम्परा का आप विकास नहीं कर सकते है .तो जो असहमति जाहिर कर रहे है ,या कफन कहानी पर सवाल उठा रहे है वो प्रेमचन्द की उस विरासत का विकास कर रहे है .कोई भी लेखक ऐसा नहीं होता .जिसे आप पत्थर की लकीर मान ले की जो लिख दिया सो लिख दिया ,उसके आगे नहीं लिखा जा सकता .तब तो हमें सोचने की जरूरत ही नहीं है .तुलसी दास महान है उनके आगे सोचने की जरूरत ही नहीं है .तो कोई भी लेखक या चिंतक जो है या अम्बेडकर के चिन्तन को ही ले ले ,वह क्या पत्थर की लकीर हो गई है .तब तो इसका मतलब की हम कुछ सोच ही नहीं पाए .सवाल यह उठता है कि हम उसका विकास कैसे करे ?उनकी विचारधारा या विरासत का विकास करने का मतलब की हम आगे कर क्या रहे है .अगर हम कुछ जोड़ रहे है तो अच्छी बात है .तो प्रेमचन्द पर दोनों बाते है .जैसे वेदों पर बहस नहीं हो सकती प्रेमचन्द का साहित्य वेद नहीं है कि आप उसपर सवाल नहीं उठा सकते ,धार्मिक ग्रन्थ नहीं है ,यह बहस का विषय बनेगा ही .हाँ ,भौड़े तरीके से सवाल नहीं उठाया जाए .जैसे रंगभूमि की प्रतियाँ जलाना .तो ये जो चीजे हैं उसे उस रूप में देखा जाना चाहिए.

आपकी नजर में दलित साहित्य का भविष्य क्या है ?
  देखो जब तक हिन्दू धर्म रहेगा तब तक जातिवाद रहेगा  और जब तक जातिवाद रहेगा तब तक दलित साहित्य का भविष्य रहेगा .और हिन्दू धर्म की जातियाँ इतनी जल्दी टूटने वाली नहीं है .तो ये चीजे जब तक वर्तमान समाज में विद्यमान रहेगी ,तब तक चिन्तन की प्रक्रिया जारी रहेगी .चाहे दलित चिन्तन के रूप में आए या नारीवादी आन्दोलन के रूप में आए ,या प्रगतिशील आन्दोलन के रूप में आए .ये परिवर्तनगामी आन्दोलन की जो प्रक्रिया है वह बराबर चलेगी .भविष्य भी उसी का होगा.

दलित साहित्य को लेकर आपकी कोई योजना है ?
योजना क्या है ?मैं बहुत योजनाबद्ध तरीके से काम नहीं करता हूँ .दलित चेतना तथा स्त्री को लेकर तो लिख ही रहा हूँ .दलित विमर्श और स्त्री विमर्श जो हाशिए का समाज है ,शताब्दियों से जिसका शोषण हुआ है और दमन किया गया है .उनको समाज के मुख्यधारा के केंद्र में लाना और उनका जो साहित्य है जिसकी उपेक्षा की गई है .उस उपेक्षित साहित्य को मुख्यधारा में लाना .दूसरे जो हिंदी साहित्य सवर्ण चेतना से आलोचना लिखी गई है मैं उसे बराबर दलित दृष्टि से देखने की कोशिश कर रहा हूँ कि यदि इस दृष्टि से देखा जाएगा तो आपके पैमाने उल्टे होंगे ,तो मैं इस दृष्टि से दलित साहित्य के लिए कार्य कर रहा हूँ.


(चौथीराम यादव जी,पूर्व विभागाध्यक्ष,काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,बनारस)
(दिनेश पाल,शोधार्थी,काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,बनारस,संपर्क सूत्र:08090650156)
(दीपक कुमार,शोधार्थी,काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,बनारस,संपर्क सूत्र:09559891130)

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