आधी दुनिया:पंत के गद्य साहित्य में नारी चित्रण/डॉ.चंद्रकान्त तिवारी

    चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
  वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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           आधी दुनिया:पंत के गद्य साहित्य में नारी चित्रण/डॉ.चंद्रकान्त तिवारी

कविवर सुमित्रानंदन पंत के गद्य साहित्य में नारी की विविध भाव भंगिमा, क्रिया-प्रतिक्रिया, रूप-रंग, भाव-मुद्रा, चिंतनशीलता व प्रेम की सशक्त पीड़ा व विरह की कसमसाहट के दर्शन होते हैं। इन्होंने महिलाओं के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक पक्ष को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। नारी के सभी संदर्भों को इन्होंने बड़ी बारीकी से चित्रित किया है। पंत जी के गद्य साहित्य में नारी पात्र आंचलिकता से लेकर महानगरीय जीवन संदर्भो पर आधारित हैं। नारी के जीवन के विविध पक्षों को चित्रित करते वक्त पंत जी उन्हें वास्तविक धरातल प्रदान कराते हैं साथ ही उन्होंने यर्थाथता का चित्रण अत्याधिक सूक्ष्मता के साथ किया है। पंत जी ने नारी के विविध रूपों का चित्रण किया है, जैसे माँ, पत्नी, प्रेयसी, बालसखा, सहपाठी, कामिनी, बालिका आदि।

नारी के कई रूप हैं उनमें पत्नी का प्रमुख स्थान है। पत्नी ही पुरुष की अर्धांगिनी बन गृहस्थ जीवन को सफल बनाती है। पंत जी के हारउपन्यास में पत्नी की अहम भूमिका है।पति-पत्नी के रिश्तों की आधारशिला प्रेम शब्द में समाहित है अगर जीवन में प्रेम ही न रहा तो कोई भी संबंध शेष नहीं रह जाते। उपन्यास हारमें तीन पुरुष पात्र जिनमें भविष्य, निमेष और पुजारी तथा स्त्री पात्रों में चार पात्र जिनमें आशा, विजया, सुफला तथा बूढ़ी सास हैं। कथा के नायक भविष्य तथा नायिका आशा का प्रेम होना तथा प्रेम की चरम परिणती विवाह का न हो पाना अर्थात प्रेम रूपी हार (माला) का एक दूसरे के गले में न पड़ना जिससे नायक की प्रेम में हार हो गई। यही इस उपन्यास का मूल है।
कथा में विजया निमेष की पत्नी है निमेष विजया को दुत्कार देता है और सुफला के प्रेम पाश में बंध जाता है। इसी कारण विजया दिन-रात परेशान रहती है। वह यह तक नहीं जानती कि उसका अपराध क्या है? जिस प्रकार निमेष पत्नी के होते हुए भी परायी स्त्री के मोह से वशीभूत है उसी प्रकार विजया निमेष के पति परायण धर्म से द्रविभूत है। विजया की मनोदशा इस प्रकार है - ‘‘विजया को इसी प्रकार प्रलाप करते-करते रात्रि बीत गयी। उसे आज चार मास से नींद नहीं आती थी। जबसे निमेष अपने हृदय को सुफला के हाथों का खिलौना बना चुके थे, जब से वे अपना मानस सरोवरके तट में खो आये थे तब से वे विजया के कमरे में एक बार झाँकने भी नहीं गये थे। बेचारी विजया इस बात का कुछ भी कारण नहीं जानती थी। वह इसमें अपना ही अपराध समझती थी। वह दिन-प्रतिदिन क्षीण होती जाती थी। उसके देह की सब कांति उड़ गयी थी। हाथ-पाँव सूखकर काँटे से हो गये थे। विजया कई बार अपने स्वामी से क्षमा माँग चुकी थी किंतु निमेष उसे धत्कार बताते थे। अपने पास तक न फटकने देते थे।’’1

विजया को लेखक ने एक आदर्श पत्नी के रूप में प्रस्तुत किया है, क्योंकि विजया अपने पति निमेष के प्रति पूर्णरूप से समर्पित है, वह न केवल उसे पति ही मानती है अपितु वह उस पर पूर्ण रूप से तन-मन न्यौछावर भी कर देती है। परंतु निमेष सुफला से प्रेम करता है और सुफला निमेष को प्रेम नहीं करती। निमेष की मनोदशा का एक चित्र इस प्रकार है-‘‘हाय! किसी ने ठीक कह रक्खा है- ‘‘कान्ते कथं घटितवानुपलेन चेतः।’’ मैं उसे इतना प्यार करता हूँ, उसे अपना सब कुछ दे चुका हूँ उसके विरह में सूखकर काटाँ हो गया हूँ। अपनी स्त्री तक को त्याग चुका हूँ। किन्तु हाय! वह मुझे प्यार नहीं करती। मेरी प्रार्थना तक स्वीकार नहीं करती। मेरी वेदना प्रतिदिन वृद्धि पाती है। हृदय चंचल होता जाता है। उसे पाने की इच्छा प्रबल होती जाती है। किंतु हाय! वह मुझे नहीं मिलती। क्या वह मेरी दशा से अपरिचित है ? क्या वह मेरी व्याकुलता को नहीं जानती?’’2

पुरुष दूसरी स्त्री के प्रेम में वशीभूत होकर अपनी स्त्री को त्याग देता है। ठीक यही दशा निमेष की भी है; वह सुफला के प्रेम में इस कदर पागल है कि उसे पत्नी के प्रति अपनी, जिम्मेदारियाँ भी याद नहीं।परंतु दिन बदलते देर नहीं लगती। दुख के बाद सुख आता है, अंधेरे को चीरती हुई एक प्रकाश किरण जैसे प्रसन्नता लिये हुये आती है। ठीक उसी प्रकार विजया के जीवन में भी हुआ। विजया के प्रेम में शक्ति थी जिससे उसने निमेष को पुनः प्राप्त कर लिया। विजया ने अपना पत्नी धर्म निभाते हुए अपने सतीत्व की रक्षा भी की।

लेखक ने भारतीय संस्कृति एवं भारतीय नारी आदर्शो की पूर्ण स्थापना की है। विजया एक आदर्श पत्नी है। वह पतिपरायणता, सेवात्याग की मूर्ति, सास-ससुर की सेवा करने वाली तथा पतिव्रत्य धर्म की साकार प्रतिमूर्ति है। पति को पत्नी से और पत्नी को पति से विमुख होकर गृहस्थ जीवन से परे, अन्यत्र सुख-शांति एवं सच्चा प्यार नहीं मिल सकता और निरंतर भटकना ही पड़ता है। वैवाहिक जीवन केवल सामाजिक बंधन मात्र होकर वास्तविक प्रेम संबंधों पर आधारित होकर ही सुख शांति का केंद्र बन सकता है। विजया के त्याग एवं समर्पण से निमेष को जीवन की वास्तविकता का भान होता है और वह अपने कुकृत्यों पर पश्चाताप कर, अपने पापों का प्रायश्चित करता है-

                ‘‘हाय! मैं बड़ा हत्यारा हूँ! महापापी हूँ! दुष्ट आततायी हूँ! मैंने दूसरी स्त्री पर मोहित होकर अपना सर्वनाश किया! अपना सब कुछ खोया ! अपनी स्त्री को उतना कष्ट दिया ! विजया, मुझे क्षमा करो प्रेयसि! मैंने तुम्हें बहुत कष्ट दिया ! हाय! मेरे पापों का फल मुझे मिल चुका है ! धन्य! विजया, आज तुम सचमुच विजया हुई।’’3

                इस प्रकार प्रेम का पालन मर्यादा में ही रहकर करना चाहिए। अमर्यादित प्रेम संबंध का परिणाम गलत ही होता है। प्रो0 शेर सिंह बिष्ट के शब्दों में -‘‘लेखक की दृष्टि में वैवाहिक जीवन से इतर काम-संबंध नैतिक एवं सामाजिक दृष्टि-से अनुचित है। इससे वैवाहिक संबंधों में भी तनाव उत्पन्न होता है और जीवन में अनियंत्रित वासनाओं से वास्तविक सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। लेखक ने इतर प्रेम संबंधों के दुष्परिणामों के घटना-चक्र को प्रस्तुत कर, चचेरी सास की मृत्यु-प्रकरण की सर्वजना द्वारा निमेष को जीवन की वास्तविकता का बोध कराकर, गार्हस्थ्य-जीवन के महत्व एवं पत्नी के प्रति प्रेम एवं आदर भाव की पुनर्स्थापना की है।’’4

                पत्नी का एक आदर्श रूप पंत जी की दम्पतिकहानी में देखने को मिलता है। इस कहानी में पार्वती अपने पति की पत्नी से कहीं अधिक प्रेयसी के रूप में प्रकट हुई है। उसका पति उस पर पूर्ण रूप से आसक्त रहता है। पार्वती अपने पति का प्यार पाकर अपने को विश्व की सबसे भाग्यशाली नारी समझती है। भले ही उनकी आर्थिक स्थिति उतनी अच्छी नहीं है फिर भी वह प्रसंनचित्त मुद्रा में रहती है। पति-पत्नी दोनों ही एक-दूसरे के प्रेम में वशीभूत हैं। ‘‘पार्वती के प्रेम में समानता के भाव से अधिक आदर ही का भाव था। पति से अधिक प्रेम के कारण उसकी श्रृंगार और भोग की लालसायें सीमित हो गयीं। इस दम्पति के बीच कुछ अधिक बातें या रसालाप नहीं होता था। दोनों एक दूसरे की उपस्थिति के प्यासे थे।’’5

                पति-पत्नी के रिश्तों को समय और भी प्रगाढ़ बना देता है। यही स्थिति पार्वती और उसके पति के प्रेम की है। वृद्धावस्था में जब पति बीमार हो जाता है तो वह उसकी तन-मन से सेवा करती है और पति धर्म का सफल निर्वाह करती है। वह उसके बिना खाना भी नहीं खाती आज भी पार्वती का पति के प्रति वही प्रेम वही आदर है जो युवावस्था में था। ‘‘पार्वती ने जिस लगन, साहस और दिन-रात के अथक परिश्रम से उनकी सेवा-सुश्रुषा की। वह अवर्णनीय है। काल से लड़कर जैसे उसने अपने स्वामी को फिर से लौटा लिया।’’6

                नारी का एक रूप वह भी है जब उसके पति की मृत्यु हो जाती है तो वह स्वयं अपने बच्चों के लिए माता और पिता की भूमिका निभाती है। पंत जी की बन्नूकहानी में एक पत्नी कामना अपने पति के स्वर्गवास के बाद अपनी दो वर्षीय पुत्री कला को किस प्रकार बड़ा करती है और अन्ततः उसका प्रेम विवाह किन परिस्थितियों में बन्नू नामक युवक से होता है, आदि क्रिया कलाप एक कामना ही निभाती है और उसके उस कार्य में सहयोगी रहे उसके जेठ दीनानाथ।

                पत्नी के चरित्र को उजागर करती पंत जी की एक और कहानी अवगुण्ठनहै। इस कहानी में व्यक्ति के संस्कारों, जर्जर सामाजिक रूढ़ियों, व्यवहार शून्य सैद्धांतिक मान्यताओं एवं नारी के स्वतंत्र आत्म-प्रबुद्ध व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला गया है। इस कहानी में सरला का पति रामकुमार अपनी पत्नी को अपने आदर्शों की प्रतिमा बना देना चाहता है परंतु सरला अपने संस्कारों के कारण रामकुमार की अपेक्षा के अनुरूप स्वयं को मुक्त नहीं कर पाती, जिससे रामकुमार मन ही मन कुछ खिन्न रहता है।

                सरला एक शिक्षित व सभ्य तथा संस्कारों से युक्त नारी है। वह घर-परिवार, मित्र-मण्डली, रिश्ते-नाते आदि से चिर परिचित है। वह मर्यादा का पालन करना जानती है। एक दिन रामकुमार का मित्र सतीश सरला के जन्मदिन के अवसर पर सरला के सिर पर से साड़ी को सरका कर, उसकी चोटी में लाल गुलाब का फूल खोंस देता है। सरला सतीश के इस अमर्यादित व्यवहार से खिन्न होकर गुलाब के फूल को चोटी से निकालकर मेज में रख देती है। रामकुमार यह सब देख-देख कर मन ही मन प्रसन्न होता है और अपनी पत्नी का समर्थन करता है। लेखक सरला की मनःस्थिति पर प्रकाश डालते हुए लिखता है - ‘‘उसने अपनी मधुर संस्कृति से फूल को के कवल धीरे से मेज पर रख दिया था। सरला को केवल अपनी पत्नी होने की मर्यादा की रक्षा करनी थी। स्त्री के और भी कई काम होते हैं, पर उसके जीवन का मुख्य काम जहाँ पर उसे अपने स्त्रीत्व का सबसे अधिक अनुभव होता है - अपने अंतःकरण में लबालब भरे हुए स्नेह को ठीक-ठीक यथारीति से बाँटना है, इसमें वह सबसे निपुण होती है। वह अपने प्रति किये गये समस्त उपकारों को स्नेह ही से पुरस्कृत करती है। पर उसके स्नेह में मात्राओं का भेद होता है। वह साथ ही कई आदमियों को अपना स्नेह दे सकती है। पर किसी को कम, किसी को अधिक। उसका मानदण्ड, उसका नापने का गिलास कैसा होता है, इसे कोई नहीं कह सकता।’’7
                पत्नी के रूप में नारी के कई चेहरे हैं। उनमें से एक चेहरा पंत जी की एकांकी छायाकी स्त्री पात्र सुनीता में प्रकट होती है। सुनीता के पिता सुनीतिकुमार ने सुनीता का विवाह उसकी मर्जी के बगैर प्रमोद से करवा दिया परंतु सुनीता सतीश से प्रेम करती है। सुनीता का एक पुत्र भी हो गया, फिर भी उसके मन में सतीश के प्रति प्रेम की भावना कम न हुई, क्योंकि दोनों बचपन के मित्र थे, और दोनों एक दूसरे को चाहते भी थे परंतु माता-पिता शायद बच्चों के प्रति अधिक चिंतित होते हैं, तभी तो वह उनके सुख-दुख का ख्याल हर-पल करते हैं और यह भूल जाते है कि लड़की कोई कठपुतली या मशीन का पुर्जा नहीं है, जो उनके इशारे पर ही संचालित हो सके। परिणामतः लड़की का जीवन भयानक घुटन, तनाव, पीड़ा और संत्रास से भीतर ही भीतर घुटता रहता है। सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि वह उसे व्यक्त भी नहीं कर पाती। सुनीता का जीवन भी मंझधार में अटक सा गया। विवाह प्रमोद से और मन में सतीश का प्यार। लेखक सतीश को स्वर देते हुए कहता है - ‘‘अहा, यह तुम्हारी और प्रमोद की शादी का चित्र है। सुनीता का चेहरा कुछ कठोर पड़ जाता है। वह जल्दी ही मुँह फेर लेती है। तुम्हे याद है प्रमोद से मैंने ही तुम्हें पहले मिलाया था। उसे टेनिस खेलने का बडा शौक था गेंद की तरह वह जीवन से भी खेला है (एकाएक) और तुम्हें भी तो उसने खेल ही खेल में जीत लिया।’’8

                इस प्रकार छाया एकांकी में लोक कल्याणोन्मुख सामूहिक जीवन एवं बंधन-मुक्त प्रीति की व्यंजा है।  किसी भी वस्तु को प्यार करना मानवीय प्रकृति की एक मधुर आवश्यकता है। नारी का प्रेयसी रूप वस्तुतः उसके प्रेम और श्रृंगार की सजग-ढीली भावनाओं का प्रतिरूप होता है। कहीं वह प्यार करती है कहीं अपने व्यापक सौंदर्य से व्यक्ति को प्रेमोन्मुख बना देती।

प्रेयसी अर्थात प्रेमिका के दर्शन सर्वप्रथम पंत जी के उपन्यास हारमें होते हैं। उपन्यास का नायक भविष्य तथा नायिका आशा को प्रेम रूपी हार (माला) पहनाने में असफल रह जाता है। प्रेमी और प्रेमिका के मूल में प्रेम शब्द विद्यमान है। हारउपन्यास भी प्रेम पर आधारित है। यह एक ऐसी प्रेम कहानी है जिसमें दो समानांतर प्रेम कथाएँ प्रेम की त्रिकोणात्मक स्थिति उपत्न्न करती है। परंतु प्रेम की रीति भी अनोखी है, यहाँ विडंबना यह है कि जिसे युवक चाहता है उसे युवती नहीं चाहती और जिसे युवती चाहती है, उसे युवक नहीं चाहता। निमेष सुफला को प्यार करता है, सुफला उसे प्यार नहीं करती। विजया निमेष की पत्नी है और उसे प्यार करती हैं, निमेष उसे प्यार नहीं करता। भविष्य आशा को प्यार करता हे आशा उसे प्यार नहीं करती अपितु निमेष को प्यार करती है।  
 
इस कथा में भविष्य जिसे अपनी प्रेयसी मानता है वह उसे अपना प्रेमी नहीं मानतीं। इस प्रकार यह भविष्य का एक तरफा प्रेम होता है जिसकी परिणति यह होती है कि भविष्य योगी बन जाता है।हारउपन्यास में नारी के प्रेयसी रूप की विचित्र मनोदशा का वर्णन देखने को मिलता है, क्योंकि इसमें हर कोई एक दूसरे में प्रेम तलाश कर रहा होता है। भविष्य अपनी प्रेयसी के ही ध्यान में मग्न रहता है अब उसका यह वियोग असहनीय हो गया है। वह सर्वत्र प्रेयसी के ही दर्शन देखता है।। भविष्य की मनोदशा को लेखक इस प्रकार बताता है- भविष्य को आशा का वियोग असहनीय हो गया उसके विश्लेष का दुःख दुर्दान्त हो गया। वे अपने को किसी प्रकार न सँभाल सकें। आशा की मूर्ति चेष्टा करने पर भी अपने हृदय से न हटा सके। इच्छा करने पर भी उसे नही भूल सके। आशा के प्रेम ने उन्हें बांध लिया था वे यह बन्धन लाख उपाय करने पर भी न काट सकें। प्रेम का यह अदृश्य गुण टुटने पर भी न टूटा। भाविष्य की दशा उन्मत्त मनुष्यों की सी हो गयी, उनका मन किसी काम मे नहीं लगता था उनकी आँखों की निद्रा चली गयी उनकी रात्रि आशा के ही ध्यान में बीतती थी।9

इसी प्रकार पंत जी की कहानियाँ उस बार एवं बन्नू में प्रेयसी के दर्शन होते है उस बार कहानी मे सुबोध, सतीश, नालिन, गिरीन्द्र, विजया, सरला आदि पात्रों की प्रेम लीलाओं का वर्णन है।इसमें जीवन की विविध गतिविधियों को विद्यार्थी जीवन की रंगरेलियों एवं हास-परिहास के साथ चित्रित किया गया है। प्रेम की वेदनाएं हर हृदय में एक होने पर भी उसकी अभिव्यक्ति भिन्न भिन्न होती हैं। सुबोध की प्रेयसी सरला का व्यक्तित्व सबसे प्रेम पाने का आकाक्षी है। सुबोध और सरला की प्रेम कहानी के प्रति लेखक विशेष आग्रहशील लगता है तथा इसी प्रसंग में पतं जी का प्रेम संबंधी दृष्टिकोण भी उभरकर सामने आ जाता है - ‘‘सरला सबको प्यार करना सबसे प्यार पाना चाहती थी। वह एक विशद सामाजिक सामूहिक व्यक्तित्व का उपभोग करना चाहती थी, जिसके लिए उसको चारों ओर से घिरा हुआ समाज अभी तैयार नहीं था वह सबकी साथिन और सुबोध की प्रेमिका थी।‘‘10

प्रेम एक ईश्वरीय शक्ति है यह किसी विषय वस्तु का परिचायक नहीं। प्रेम के दो पात्र होते हैं प्रेमी और प्रेमिका। इन्हीं पात्रों में कभी सच्चा प्रेम होता है तो कभी  प्रेम के नाम पर यौन इच्छाएँ प्रबल हो उठती हैं। यहाँ सुबोध और सरला के प्रेम में गहराई एवं भावात्मक स्थायित्व के दर्शन होते हैं जबकि सतीश, नलिन और गिरीन्द का प्रेम ऊपरी आकर्षण एवं यौवन सुलभ भावुकता पर आधारित होने से अस्थिर एवं अनिश्चयात्मक है। लेखक ने युवकों के विचारों को प्रेयसी के अनुरूप दशार्ते हुए प्रेमी प्रेमिका की व्यैक्तिक दिनचर्या का सफल चित्रण किया है।

आलोच्य कहानी में पुरुष एवं महिला पात्रों के विभिन्न गुण दोषों की अच्छाइयों, बुराईयों तथा चारित्रिक विशिष्टताओं एवं कमियों का भी वर्णन मिलता है। लेखक ने इस सामाजिक कहानी के परिवेश एवं वातावरण में भविष्य के लिए समय परिवर्तन की आकांक्षा रखी है भ्रामक स्थितियाँ जो प्रेम प्रसंगों में स्वाभाविक है कथानक (छोटी कथा) मुख्यतः स्पष्टवादी और प्रीतिमूलक है। पंत के प्रीतिमूलक सिद्धांतों के संबंध में सैद्धांतिक टिप्पणी से संबंधित अनुपात सहज ही आ गये हैं यथा ‘‘प्रेम तत्वतः एक होते हुए भी विभिन्न स्वभावों में भिन्न रूपों में कार्य करता है।’’11 सतीश का प्रेयसी के प्रति प्रेम एक फ्रायड का रूप है तो दूसरा प्लेटों का रूप है, एक प्रेमी है तो दूसरा कामी। इसी प्रकार प्रेयसी का एक रूप बन्नूकहानी में आया है कामना की पुत्री कला है जो बन्नू की प्रेयसी है कला का बन्नू से मिलन भी आकस्मिक होता है; बन्नू की निर्भीकता उसकी स्वस्थ बलिष्ठ देह एवं कांतिमान मुखमण्डल ने कला के मन में उसके प्रति अदभुत आकर्षण उत्पन्न कर दिया। बन्नू भी कला के सौंदर्य से आत्मविभोर हो उठा। दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति अनुराग पैदा हो गया। अंततः दोनों की प्रेम कहानी में बन्नू को उसकी प्रेयसी मिल गई और दोनों का विवाह सुख शांति से संपन्न हो गया। बन्नू तथा कला के विवाह के अवसर पर दोनों को आशीर्वाद देते हुए दीनानाथ कहते हैं, ‘‘एक दिन यह सारा वन हरे भरें लहलहे फल फूलों से लदे हुए बाग में बदल जाये, मनुष्य के बाहुओं का श्रम और प्रकृति वर वधु की तरह मिलकर संसार के पारिवारिक सुख और शान्ति के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहें।’’12

प्रेयसी का एक विवशतापूर्ण चित्रण पंत जी की एकांकी छायामें प्रकट होता है। सुनीता सतीश की प्रेयसी है परंतु सुनीता के पिता को सतीश का घर में आना जाना पसंद नहीं और वह शीघ्रता दिखाते हुऐ सुनीता का विवाह प्रमोद नामक युवक से कर देते हैं सुनीता अब भी सतीशा को मन ही मन प्यार करती है परंतु समाज के डर से विवश है; वह इस विवाह से खुश नही है पिता ने सुनीता के सपनों को चूर कर दिया। सतीश सुनीता से कहता है कि आज भी समाज में महिलाओ की स्थिती दयनीय है। उनके पास सब अधिकार होते हुए भी उन्हें निर्णय लेने में असमर्थता होती है, तुम भी इसी तरह कोई निर्णय न ले सकी । लेखक सतीश के द्वारा कहता है- ‘‘सुनीता ! लेकिन मैं जानता हूँ। तुम्हारा मुँह बंद था तुम हमारे समाज में नारी के मूक दयनीय जीवन का एक करूण उदाहरण भर हो। जिसके हदय की प्रत्येक धड़कन में युग-युग से नारी की निःशब्द व्यथा धटपटाती रही है। हम दांपत्य प्रेम तथा घरों में विभक्त पारिवारिक जीवन को जरूरत से ज्यादा महत्व देते हैं; मैं तुम्हें प्यार करता हूँ सुनीता, और चाहता हूँ कि तुम लोक निर्माण के इस महान कार्य को अपना सको। सुनीता उसे प्रेम करती थी यह उनके वादों में साफ रूप से देखने को मिलता है इन्हें इस बात का बेहद दुख है कि ये एकसूत्र में न बँध सकें। विविध अनुभाव, मानों जैसे सुनीता के गहरे रूप को व्यंजित करते हैं, ‘‘सुनीता मानों क्षण भर के लिए अपने को भूलकर अपना सिर सतीश की गोद में एलबम के ऊपर चिपकायें अनिमेष दृष्टि से उसकी ओर देखती है उसके ओठ काँप रहे हैं। सतीश सुनीता के आवेश से घबड़ाकर कुर्सी पर से उठना चाहता हैं किंतु सुनीता उसे दबाये हुए हैं।’’13 इस प्रकार पंत के विचारों में एक निरंतरता अनवरत रूप से बनी हुई है; वह कहानी, उपन्यास, एकांकी सभी में कहीं न कहीं प्रकट होती है। उनका गद्य साहित्य अधिकांशतः प्रेम एवं सामाजिक विषमता को उद्घाटित करता है।

स्त्री और पुरुष तत्व का सम्मिलन ही सृष्टि का उन्मेष है सृष्टि का सार्वभौम समुन्नत विकास मानव सभ्यता में परिलक्षित होता है। समाज सम्मत स्त्री पुरूष के संबंध जिस दिन विवाह के रूप में परिणित हुए उसी दिन दाम्पत्य जीवन में अपनी विशिष्ट स्थिति और प्रभाव छोड़ता गया। विवाह एक अति प्राचीन सामाजिक संस्था है। पंत ने वैवाहिक जीवन से परे स्वच्छंद प्रेम को स्वीकृति प्रदान की है। परंतु यह प्रेम देह-बोध से परे, शुद्ध रूप से भावात्मक एवं आत्मिक शुद्धि पर आधारित होना चाहिए। विवाह एक सामाजिक व्यवस्था है। वैवाहिक संबंधों में असंतुलन से सामाजिक असंतुलन पैदा होगा। लेखक ने विजया को एक आदर्श पत्नी के रूप में दिखाया है। विजया ने अपना घर न टूटे इसलिए वह पति के दिये कष्टों को सहन करती है और उसमें अपना सुख तलाश करती है। लेखक विजया की मनोदशा का वर्णन करता कहता है - ‘‘विजया - किन्तु नाथ! स्वामी की अस्वस्थता में उनकी सेवा न करना क्या पाप नहीं है? आप कुछ बतलायें भी तो, ऐसी आपको कौन सी बीमारी है जिसमें यह दासी आपकी सेवा नहीं कर सकती? इस दासी की धृष्टता क्षमा करें, यह आपका विश्लेष अधिक नहीं सह सकती। आप इसे अपने चरणों से न हटावें। वह स्थान आप इसे पहिले दे चुके हैं। स्त्री-जाति का पति के सिवा संसार में अन्य नहीं है।’’14

दांपत्य जीवन के मूल में प्रेम की भावना विद्धमान रहती है। गृहस्र्थ जीवन में पति-पत्नी के प्रवेश करते ही उनको मर्यादा का पालन करना चाहिए, यह एक सामाजिक विशेषता है कि जिस समाज में जितने अच्छे नागरिक होंगे उस समाज में गृहस्थ सफल रहेगा। सुफला के निम्नलिखित कथन से गृहस्थ जीवन की पवित्रता एवं पति-पत्नी की एक-दूसरे के प्रति एकनिष्ठता तथा सामाजिक मर्यादा पालन की अनिवार्यता की व्यंजना हुई है -

सुफला - ‘‘धिक्कार है ऐसे पुरुषों को जो दूसरे की स्त्री पर दृष्टि रख कर अपनी गृहलक्ष्मी को इस प्रकार यातना दिया करते हैं। धिक्कार है इनके प्रेम को। ये प्रेम के मिस उसका गला घोंटते हैं। समाज-शत्रु इन्हीं का नाम है। यह प्रेम नहीं आसक्ति है, प्यार नहीं व्यभिचार है।’’15

पंत ने दम्पतिमें पति-पत्नी के पारस्परिक जीवन के सुधरते और विकृत हुए कतिपय दृश्य वर्णित किए हैं। इस कहानी का पात्र पार्वती का स्वामी तथा कहानी की पात्रा पार्वती स्वयं है। संपूर्ण कहानी पार्वती के बचपन से उसके यौवन-वैवाहिक जीवन, गृहस्थी तथा बुढ़ापे का सर्वांगीण वर्णन सामाजिक धरातल को दृष्टिगत रखते हुए किया है। पार्वती गाँव की विवाहिता कन्या है। उसका परिवार बड़ा है जिसमें वह अधिकांश समय भजन, पूजन, वेद, भागवत, रामायण आदि के पठन-पाठन में व्यतीत कर संतुष्टि अनुभव करती हैं। उसके पिता के घर में गरीबी का आधिक्य था; जबकि पति का घर पिता के घर से संपन्न था। ‘‘पार्वती का अहोभाग्य है कि उसे सर्वगुण संपन्न पति प्राप्त हो गया है। उनका आपसी जीवन प्रेममय क्षणों में व्यतीत होता है, उनके कथन प्रसंगों में रस की कमी नहीं है। उन दोनों को एक दूसरे को अनुपस्थिति बड़ी खलती है। पार्वती ही उनका विनोद था; वे स्थानीय डाकघर में कलर्क के पद पर कार्यरत थे। डाकघर से सीधे घर आकर नवविवहिता कन्या पार्वती के सहवास का सुखानन्द का रसास्वादन करते थे।’’16

पति के प्रेम पर पार्वती मुग्ध है परंतु पति की अतिक्रमणता और अन्य दुर्बलताओं के प्रति वह अनजान है, उसे समाज का डर है। वह सारे रीति-रिवाजों का पालन करती है। उसे लज्जाजनक बातों में लज्जा महसूस होती है, मान्यताओं को मानती है तथा बड़ों का आदर करती है एवं अपने हमउम्र तथा छोटों को स्नेह की दृष्टि से देखती है। कहानी में एक मर्यादा से पूर्ण स्त्री की पात्रता उसमें दृष्टिगत होती है। लेखक ने पार्वती एवं उसके स्वामी के बुढ़ापे तथा बुढ़ापे में रोगग्रस्त होने की स्थिति का भी वर्णन किया है- बीमारी तथा बुढ़ापे के कारण भी पार्वती के स्वामी की स्मृति बहुत ही क्षीण हो गई, स्वभावतः जो होता ही है। कभी-कभी भ्रांत भी हो जाते हैं, स्वप्न को जागृत अवस्था की घटना समझ बैठते हैं। आँखों में शक्तिहीन चमक आ गई है। मस्तिष्क की नाड़ियो का अधिकार भी खो रहे हैं।’’17

काल के प्रवाह के साथ-साथ इस दम्पति को अनेक पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए, कई परिस्थितियों से गुजरना पड़ा। जिंदगी के कई उतार-चढ़ाव के बाद आज भी इस दम्पति में आपस का प्रेमभाव कम नहीं हुआ। ‘‘दोनों अब अधेड़ हो गये, पार्वती कई लड़के-लड़कियों की माँ बन गयीं समयानुसार कई छोटे-बड़े उत्सव आये, गृहस्थी में रोना आया, हँसी आयी, कलख-किलोल, पुचकार-फटकार, सुख-दुःख सबमें अभ्युदय के ही चिंह प्रकट हुए। नये रूप, रंग, नयी इच्छा, आशायें नये-नये कलह और नयी चिन्ताएँ।’’18

इस प्रकार विवाह एवं दांपत्य जीवन में नारी का जो स्थान होना चाहिए वह पंत जी की कहानियों में प्रकट होता है। मुख्य रूप से दम्पतिविवाह एवं दांपत्य जीवन पर आधारित कहानी है। वहीं हारउपन्यास में विजया एक आदर्श स्त्री पात्र है। बन्नूकहानी में कामना एक संघर्षशील नारी पात्र है जो वैवाहिक एवं दांपत्य जीवन का सुख पूर्ण रूप से नहीं भोग पाती है। फिर भी घर-परिवार एवं अपने जेठ व बच्ची कलाको अच्छी शिक्षा देकर अंततः विवाह कराती है। वह घर की संपूर्ण जिम्मेदारियाँ संभालती है और एक नारी आदर्श स्थापित करती है।

पंत जी के गद्य साहित्य में नारी के विविध रूप देखने को मिलते हैं। माँ, पत्नी, प्रेयसी, बालसखा, सहपाठी, कामिनी, दांपत्य जीवन, सामाजिक संबंधों में एवं मनोविज्ञान आदि रूपों में नारी को सजीवता से प्रस्तुत किया गया है। पंत जी ने उपन्यास, कहानी, नाटक, एकांकी आदि साहित्य की विधाओं पर लेखनी चलायी है। पंत जी के समूचे गद्य साहित्य में उनका भावुक कवि, महान चिंतक एवं जागरूक कलाकार का रूप सर्वत्र विद्यमान है।

पंत जी ने जहां अपने उपन्यास में प्रेम को आधार बनाया तो वहीं उनका प्रेम उन्मुक्त वातावरण में स्वछंद गति से प्रवाहमान होना चाहता है। पंत की नारी प्रेम की प्यासी और अपना यथार्थ स्वयं में सिद्ध करना चाहती है परंतु विपरीत परिस्थितियों के चलते विरह की पीड़ा को भी सहती है जो उसकी नियति बन जाती है और उसके मन का प्रेम मन में ही रह जाता है तो वहीं अपनी कहानियों में पंत ने पति पत्नी के संबंधों को दर्शाया और संस्कार रूपी सामाजिक यथार्थ को दर्शाया।
कुल मिलाकर पंत जी ने गद्य लेखन में अपनी नारी को अपने विचारों से बांध दिया और सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने उसे मर्यादित आचरण से विभूषित कर दिया तो वहीं दूसरी ओर नारी प्रेम पाने को भी ललायित नजर आती है।

उपन्यास हारएक ऐसी प्रेम कहानी पर आधारित है जिसमें दो समानांतर प्रेम कथाएँ प्रेम के त्रिकोणात्मक रूप को प्रकट करती हैं। कथा के नायक भविष्य तथा नायिका आशा का प्रेम होना तथा प्रेम की चरम परिणती विवाह का न हो पाना अर्थात प्रेम रूपी हार (माला) का एक दूसरे के गले में न पड़ना जिससे नायक की प्रेम में हार हो गई। यही इस उपन्यास का मूल है।

पत्नी का आदर्श रूप पंत जी की दम्पतिकहानी में देखने को मिलता है। पत्नी के चरित्र को उजागर करती पंत जी की एक और कहानी अवगुण्ठनहै। इस कहानी में व्यक्ति के संस्कारों, जर्जर सामाजिक रूढ़ियों, व्यवहार शून्य सैद्धांतिक मान्यताओं एवं नारी के स्वतंत्र आत्म-प्रबुद्ध व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला गया है। छाया एकांकी में लोक कल्याणोन्मुख सामूहिक जीवन एवं बन्धन-मुक्त प्रीति की व्यंजना है। इस प्रकार पंत के विचारों में एक निरन्तरता बनी हुई है ; वह कहानी, उपन्यास, एकांकी सभी में कहीं न कहीं प्रकट होती है। उनका गद्य साहित्य अधिकांशतः प्रेम एवं सामाजिक विषमता को उद्घाटित करता है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि पंत जी के गद्य साहित्य में नारी के विविध रूप देखने को मिलते हैं। माँ, पत्नी, प्रेयसी, बालसखा, सहपाठी, कामिनी, दांपत्य जीवन, सामाजिक संबंधों में एवं मनोविज्ञान आदि रूपों में नारी को सजीवता से प्रस्तुत किया गया है। पंत जी ने उपन्यास, कहानी, नाटक, एकांकी आदि साहित्य की विधाओं पर लेखनी चलायी है। इस प्रकार पंत जी के समूचे गद्य साहित्य में उनका भावुक कवि, महान चिंतक एवं जागरूक कलाकार का रूप सर्वत्र विद्यमान है।
                                                     

संदर्भ ग्रंथ सूची -

1.            पंत ग्रंथावली भाग-1; पृ0 23
2.            वही; पृ0 50
3.            वही; पृ0 56-57
4.            सुमित्रानंदन पंत के साहित्य का ध्वनिवादी अध्ययन; पृ0 287
5.            पंत ग्रंथावली भाग-6; पृ0 22
6.            वही; पृ0 25
7.            वही; पृ0 46-47
8.            वही; पृ0 343
9.            पंत ग्रंथावली; पृ0 57
10.          पंत ग्रंथावली भाग-6; पृ0 15
11.          वही; पृ0 34,
12.          पंत ग्रंथावली भाग-6; पृ0 36
13.          वही; पृ0 345
14.          पंत ग्रंथावली भाग-1; पृ0 24-25
15.          वही; पृ0 42
16.          सुमित्रानंदन पंतः पाँच कहानियाँ; पृ0 54,
17.          वही; पृ0 66-67
18.          वही; पृ0 23


सहायक ग्रंथ-

  1. जोशी; शांति, सुमित्रानंदन पंत-ग्रंथावली (खंड-तीन); द्वितीय संस्करण, 1980; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  2. जोशी; शांति, सुमित्रानंदन पंत-ग्रंथावली (खंड-चार); द्वितीय संस्करण, 1980; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  3. जोशी; शांति, सुमित्रानंदन पंत-ग्रंथावली (खंड-पाँच); द्वितीय संस्करण, 1980; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  4. जोशी; शांति, सुमित्रानंदन पंत-ग्रंथावली (खंड-छह); द्वितीय संस्करण, 1980; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  5. जोशी; शांति, सुमित्रानंदन पंत-ग्रंथावली (खंड-सात); द्वितीय संस्करण, 1980; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. तिवारी; डॉ. ललित मोहन, सुमित्रानन्दन पंत का गद्य साहित्य, ज्ञानोदय प्रकाशन, सुमित्रा सदन, मल्लीताल, नैनीताल, प्रथम संस्करण, 1995
  7. तिवारी; डॉ. रामचन्द, हिंदी का गद्य-साहित्य, विश्वविद्यालय प्रकाशन, के 40/6 भैरवनाथ, वाराणसी-1
  8. दुआ; श्रीमती सरला-आधुनिक हिंदी साहित्य में नारी, साहित्य निकेतन कानपुर
  9. पाण्डेय; गंगा प्रसाद, छायावाद के आधार स्तम्भ, लिपि प्रकाशन, 5/20 कृष्णानगर, दिल्ली-51, प्रथम संस्करण, 1971
  10. पाण्डेय; सुधाकर, आधुनिक हिंदी साहित्य मूल्य और मान्यताएं, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-1979
  11. पिल्लै; एन.पी.- पंत छायावादी व्यक्तित्व और कृतित्व, प्रथम संस्करण, 1970, जयप्रकाश, लिंगम पल्ली, हैदराबाद-27
  12. पिल्लै; कुट्टन- पंत काव्य में बिंब योजना, हिंदी बुक सेन्टर, नई दिल्ली
  13. (डॉ.) नगेन्द्र; सुमित्रानंदन पंत, नवम संस्करण, सं0 2016, साहित्य रत्न भंडार, आगरा
  14. बिष्ट; डॉ. शेर सिंह, सुमित्रानंदन पंत के साहित्य का ध्वनिवादी अध्ययन, ग्रंथायन, सर्वोदय नगर, सासनी गेट, अलीगढ़
  15. वही; उत्तरांचल: भाशा एवं साहित्य का संदर्भ, इण्डियन पब्लिशर्स डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली, संस्करण-2004 

  • डॉ.चंद्रकान्त तिवारी,सहायक प्राध्यापक, हिन्दी, कानून विभाग, बीएसएआई, फरीदाबाद,संपर्क– 08586098669,damantewari@gmail.com



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