काव्य-लहरी:रामनिवास बांयला की कविताएँ

    चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
  वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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काव्य-लहरी:रामनिवास बांयला की कविताएँ



वो काम करता है

वो
काम  करता  है
नाम करता है |
उसका हर काम
हाकिम का करम
निजाम की नजर |
वो
यों ही नहीं
ईनाम लाता ?
इकराम पाता ?
कल ही की बात लें -
गलियारे के
दो बूंद पानी को
अधिपति तक फैलाया
राम लाल से सुंतवाया |
तभी तो
वो काम करता है |
नाम करता  है

वहीँ बे–मुनादी
खाली पेट,बेहाल
सुबह से काम में जुता 
दर्दी रामलाल
नाज़िम–ए-नजर
निकम्मा है
तो
रामलाल काम नहीं करता
हाँ
रामलाल काम नहीं करता |
  

कब मिला

आसक्त आँखें
कहाँ देख पाती हैं
मूक-मन की पीड़
सिर्फ देखती 
घड़ियाली आँसू 
मुखौटों की भीड़ |

कब मिल पाया
नीरव रोदन को
संज्ञान–सहयोग
महिमा-मंडन ही
पा रहा संबल 
सांत्वना भोग |


तुरंग

वो
साधता है
तेरी चाल / दिशा
चाबुक / लगाम से

हित मानिंद
डालता है
चना-चूरी

पुट्ठे ठोंक
पुकारता है अश्वराज !
तो
हे तुरंग !
तुम
कितना इतराते हो
नियति पर ?

मगर
कभी सोचा
तेरी पीठ चढ़
तिफ्ल भी
सिकंदर हो गए |

अब सोच !
जिस दिन
तू साध लेगा
तेरी पीठ
तेरे लिए 
उस दिन
बिन ताड़न
मन माफिक मिलेंगे
बिरवे (अंकुरित चने)
और
तेरी चाल तेरी होगी
तेरी दिशा तेरी होगी
तेरी दशा तेरी होगी |


किसकी जय

मैं
बोलूँगा जय !
जय भी 
जिंदाबाद भी |
 
मैं बोलूँगा
इसकी जय !
उसकी जय !
तेरी - जय !
सबकी जय !
सब -  जिंदाबाद !
 
मैं
सदियों से
बोलता तो आया हूँ जय !
कभी भंडारे की जय !
कभी लंगर की जय !
दाता की जय !
दबंग की जय !
कभी जंतर जिंदाबाद !
कभी मंतर जिंदाबाद !
रोटी पाने को जय !
सोटी ना खाने को - – जय !

मैं
लड़ाका नहीं
बिचौलिया नहीं
ना ही छलिया 
कि
छीन लूँ 
फँसा लूँ
जंतर में 
मंतर में
दूसरे की रोटी |
 
ना ही
मैं
वो बहादुर
कि लड़ सकूँ
लड़ा सकूँ
इंसान को इंसान से |
 
या
कि
लड़ सकूँ भूख से |
 
इसलिए
बोलनी पड़ेगी जय !
तेरी - जय !
रोटी की - जय !
सोटी की - जय !
दाता की जय !
दबंग की जय !
बेचारगी में जय !
लाचारी में जय !
 
कुछ लोग बोलते हैं -
पराक्रम की जय !
करते हैं
शौर्य / बलिदान की बात
 
उनसे कह दो
कुछ दिन बिताएँ
मेरे तंग / तम गलियारों में,
पाँचदस दिन
रह देखें निराहार,
अपने बच्चों को देखें
भूख से तड़पता
वृद्धों को देखे छांव को तरसता
और अपनी मादाओं को देखें
दबंग रसियों द्वारा भोगा जाना
फिर 
फिर, मुझसे आँख मिला कर
मेरे साथ बोलना जय 
बहादुरी की जय !
 
मैं तो
हर पल लड़ता हूँ
तुझ से भी
तेरों से भी
रोटी से भी 
सोटी से भी 
सब से  |
 
अमरबेल सरीखे पलकर
जौहर दिखाने वालो 
जग में
कौन है मुझ से बहादुर ?
जो लड़े
खुद से भी
तुझ से भी
परारब्ध से भी |
 
अब बोल
किसकी जय ?


काँधों की लाश 

व्यवस्था ने 
बेटे को 
कांधे पर ही 
बना दिया लाश
हे याने !
काश !
छोड़ कर 
ईमान की पूंछ
की होती 
पहुंचवानों की /
सयानों की चंपी
कांधे उठाया होता 
अगुआओं का परचम 
या बंदूक
तो तुझे
नहीं लादनी पड़ती 
अपने ही कंधे 
अपने काँधों की लाश |

  

रोशनी

हालाँकि
रोशनी आवश्यक है 
सभी के लिए
सब कुछ
साफ-साफ देखते हुए 
आगे बढ़ने को |
मगर
रोशनी –
अपने आप में कुछ भी नहीं |
रोशनी -
जादूगरों का जादू नहीं
कि छड़ी घुमाई - जहां रोशन |
रोशनी -
किसी की दुआ नहीं
कि कह दिया जाए – आमीन !
रोशनी -
कोई ऐलान नहीं
कि पिटवा दें – ढिंढोरा |
रोशनी-
कोई खैरात नहीं
कि बँटवा दें - हुक्म से |
रोशनी है -
अपने को मिटाना / मिट्टी बनाना
मिट्टी से दीपक बनना 
और
कोमल कपास का जलना है - घी के साथ |
वरना 
रोशनी - कुछ भी नहीं |
वास्तव में कुछ नहीं |

ग्राम : सोहन पुरा, पोस्ट : पाटन, जिला : सीकर, राजस्थान
केन्द्रीय विद्यालय मे वरिष्ठ शिक्षक,बोनसाई (कविता संग्रह),,हिमायत (लघु कथा संग्रह)
सम्पर्क:09413152703

1 टिप्पणियाँ

  1. आखिरी कविता 'रोशनी' की कुछ पंक्तियाँ छूट गई जो इस प्रकार हैं ------------------ और
    कोमल कपास का जलना है - घी के साथ |
    वरना
    रोशनी - कुछ भी नहीं |
    वास्तव में कुछ नहीं |

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