शोध:नारी शोषण तथा नारी उद्धार का स्वर –सरोज बैरड़

    चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
  वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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नारी शोषण तथा नारी उद्धार का स्वर सरोज बैरड़
(नरेन्द्र कोहली कृत 'दीक्षा' के विशेष सन्दर्भ में) 
                                                                                                                   
       
नरेन्द्र कोहली द्वारा रचित “दीक्षाउपन्यास यद्यपि राम की पौराणिक कथा पर आधारित उपन्यास है, किन्तु उस रामकथा को लेखक ने सर्वथा नवीन सन्दर्भों में अभिव्यक्ति दी है | लेखक को अपने समाज और राजनीति में बहुत सी ऐसी विसंगतियां दिखाई दी जो तत्कालीन समाज में भी मौजूद थीं | इसलिए राम की यह पुराकथा लेखक के लिए अपने समय के विविध सन्दर्भों को अभिव्यक्ति देने का माध्यम बन गई |

        “दीक्षाउपन्यास में लेखक नरेन्द्र कोहली ने नारी के शोषण और उसके उद्धार के वर्णन को प्रमुखता दी है | नारी धरती पर भगवान की प्रतिनिधि है, जननी है, शक्ति है, ममता का भाव है, जिम्मेदारियों की वाहक है, जीवन का रस है तथा मानव जाति का सम्मान व समाज की धुरी है | किन्तु सदियों से मनुष्य नारी को एक भोग की वस्तु ही मानता रहा है, चाहे वह कितनी भी श्रेष्ठ संस्कृति का ही काल क्यों ना रहा हो | उपन्यास में सेनापति बहुलाश्व के पुत्रों द्वारा जिस प्रकार गहन जो कि सम्राट दशरथ के राज्य की सीमा के भीतर एक ग्राम में रहता है, जाति का निषाद है तथा नौकाएं चलाने का काम  करता है - के घर की स्त्रियों का बलात्कार किया जाता है वह उस महान संस्कृति का निकृष्ट रूप है, जो अपनी शक्तियों का प्रयोग अपनी जनता का उद्धार करने के लिए नहीं बल्कि उनका शोषण करने के लिए करती है |

        राक्षसों के संहार के पश्चात् राम जब वन में राक्षस शिविरों की ओर बढ़ते हैं तो वहां उन्हें राक्षसों द्वारा अपहृत अनेकानेक बंदी स्त्रियाँ दिखाई देती हैं | नरेन्द्र कोहली ने उन पीड़ित स्त्रियों का अत्यंत कारुणिक चित्र प्रस्तुत किया है – “वे सभी प्रायः युवतियाँ थीं | उनके शरीरों पर अत्यंत संक्षिप्त वस्त्र थे | मुख मुरझाए हुए मानो वर्षों से रोगिणी हों | पीड़ित-यातना की प्रतिमुर्तियाँ |”1 लेखक ने राम के द्वारा इन अपहृत कन्याओं का उद्धार दिखाया है, जिससे कि मानव समाज उनसे प्रेरणा लेकर ऐसी ही अन्य पीड़ित व शोषित कन्याओं का उद्धार कर सके |

         पितृसत्तात्मक शासन व्यवस्था में नारी का अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है | उसका बचपन पिता की, यौवन पति की तथा वृद्धावस्था पुत्र की शरण में व्यतीत होता है | उसका अपना कोई अलग अस्तित्व नहीं होता | वर्तमान समाज व्यवस्था पर ध्यान दिया जाए तो कई बड़े-बड़े शहरों में ऐसी अनेक स्त्रियाँ मिल जाएँगी जिनका सम्पूर्ण जीवन देह व्यापार की भेंट चढ़ जाता है | समाज उनको हीन  दृष्टि से देखता है, उनको पुनः समाज में स्थान नहीं देता | “दीक्षाउपन्यास में कौशल्या नारी की ऐसी ही परवशता पर कहती है कि – “...मानव-वंश में नारी पूर्णतः पति के अधीन है | उसका कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं है | यह वंश समाज में पितृ-सत्ता को उसकी पराकाष्ठा तक ले गया था | कौशल्या ने अपने मायके में भी यही देखा था और ससुराल में भी यही देख रही थीं | वह व्यक्ति नहीं थीं, वह उस वंश की पुत्र-वधु थीं और उन्हें वहीं रहना था | परिवार के लिए, उसकी सुख-सुविधा के लिए उन्हें अपने व्यक्तित्व का बलिदान करना था |”2 आज भी समाज में स्त्रियों की यही दशा है, उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है | कहने को तो हमारा देश इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुका है लेकिन स्त्रियों के विषय में वह आज भी वही सोच रखता है जो सदियों पहले रखता था | शिक्षा के बढ़ते विकास ने स्त्रियों की स्थिति को सुधारने में अहम् भूमिका का निर्वाह किया है लेकिन फिर भी समाज उन स्त्रियों को सम्मान की नजर से नहीं देखता जो अपने जीवन के फैसले स्वयं लेती हैं | समाज के लिए स्त्री त्याग की एक प्रतिमूर्ति है जिसका सम्पूर्ण जीवन दूसरों की सेवा करने में ही व्यतीत होता है | समाज नारी को बाहरी तौर पर तो जीवनदायिनी, घर की लक्ष्मी, त्याग की प्रतिमूर्ति, बलिदान की देवी, ममता की मूर्त जैसी देवी तुल्य उपाधियों से मंडित करता है लेकिन भीतर ही भीतर उसका शोषण करता रहता है |

        “दीक्षाउपन्यास का सबसे अधिक जीवंत प्रसंग अहल्या का उद्धार है | यहाँ लेखक ने पौराणिक आख्यान को तर्क-सम्मत रूप में जहां अहल्या का शिलाखण्ड में परिणत होने का प्रसंग है, उसी प्रसंग को वैज्ञानिक तर्क के रूप में प्रस्तुत किया है | अहल्या एक शापग्रस्त पीड़ित नारी है जो स्वयं निरपराध होने पर भी शाप-दग्ध हो संत्रास और व्यथा झेलकर दुराचारी पुरुष के बलात्कार का फल भोगती है |

        अहल्या का पौराणिक आख्यानों में राम ने जैसा उद्धार किया था उससे कहीं श्रेष्ठ दीक्षामें दिखाया गया है | वह अपने पति गौतम के उत्कर्ष के लिए एकांतवास करती है; राम को अन्याय के प्रतिकार का अवसर देती है | वह समाज व्यवस्था को उजागर करने वाली तेजोदीप्त नारी है जो कष्ट और संकट झेलकर भी पतिपरायण बनी रहती है | यौवन, ऐश्वर्य, सम्पत्ति और प्रभुता का लांछन इन्द्र झेलता है | अहल्या सामाजिक अभिशाप की आंच में तपकर कुंदन बनती है | समाज में ऐसी अनेक स्त्रियाँ हैं जो पुरुषों के अत्याचार के कारण निरपराध होने पर भी समाज से बहिष्कृत जीवन जीती हैं | नरेन्द्र कोहली ऐसी समाज व्यवस्था के सम्मुख प्रश्न करते हैं कि – “शक्ति और सत्ता के मद में क्या सब लोग एक ही जैसे नहीं हो जाते... चाहे राक्षस हों चाहे देव ?”3

        समाज का तथाकथित उच्च वर्ग भी ऐसे जघन्य अपराधों में पीछे नहीं रहता | और ये उपेक्षित नारियां समाज से अपने उद्धार के लिए प्रतीक्षारत हैं, सर्वथा एकाकी, जड़वत्, शिलावत् और जब राम ऐसी ही शिलावत् अहल्या का उद्धार करने पहुंचे तो समाज उसका विरोध नहीं कर सका क्योंकि कहीं न कहीं समाज का एक अंग भी यही चाहता था लेकिन उन्हें राम जैसे युग पुरुष की प्रतीक्षा है | इसलिए अहल्या कहती है कि – “मैं अकेली जड़ नहीं हो गयी थी, सम्पूर्ण आर्यावर्त जड़ हो चुका है | वे सब तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं |... तुम उनमें उसी प्रकार प्राण फूंको, जिस प्रकार मुझमें प्राण फूंके हैं | तुम सम्पूर्ण दलित वर्ग को सम्मान दो, प्रतिष्ठा दो | सामाजिक रुढियों में बंधा यह समाज न्याय-अन्याय नैतिकता-अनैतिकता आदि के विचार और प्रश्नों के सन्दर्भ में पूर्णतः जड़-पत्थर हो चुका है |”4 राम ने एक समाज से तिरष्कृत नारी का उद्धार कर समाज के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत किया है, लेकिन आज भी मानव समाज उस आदर्श को ग्रहण नहीं कर पाया है | उसकी सदियों से जड़ हो चुकी मानसिकता अन्दर ही अन्दर सड़ रही है | वह आज भी शोषित नारी को अपनाने में हिचकिचाता है |

        राम ने रुढियों को तोड़कर समाज के सम्मुख यह आदर्श रखा कि नारी पुरुषों के कुकृत्यों का शिकार होकर तिरष्कृत नहीं हो सकती | उसे भी दूसरों के ही समान समाज में अपना सर उठा के जीने का अधिकार है | राम का यह कदम भी अन्याय के विरुद्ध उनके संघर्ष का हिस्सा था |

       “लेखक ने अहल्या की कथा के साथ सामाजिक रुढ़ियों की बात जोड़कर भारतीय समाज में स्त्री के प्रति हो रहे अत्याचार की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है | समाज में पीड़ित और तिरस्कृत वर्ग के उद्धार के लिए एक सशक्त नेतृत्व की आवश्यकता, धैर्य और साहस की आवश्यकता लेखक ने रेखांकित की है |”5

        नरेंद्र कोहली ने राम के माध्यम से अज्ञातकुलशीला सीता का भी उद्धार दिखाया है | वह भूमिपुत्री थीं | सीरध्वज को खेत में मिलि थीं | उनके कुल-गौत्र के विषय में सभी अनजान थे | वैदेह पुत्रहीन सीरध्वज के लिए सीता पुत्री के समान थी | लेकिन जाति-पाँति, कुल-गौत्र और ऊँच-नीच की भावनाओं से जकड़े समाज में सीता का विवाह जटिल समस्या थी | कोई योग्य राजकुमार उससे विवाह करने के लिए प्रस्तुत नहीं था | राम समाज की इस विडम्बना के प्रति चिंता प्रकट करते हुए कहते हैं कि – “एक असाधारण रूपवती राजकुमारी से विवाह के लिए कोई आर्य राजकुमार प्रस्तुत नहीं | यदि वह अज्ञातकुलशीला है तो उसमें उस कन्या का क्या दोष ? हमारा समाज कैसा जड़ है,... वनजा बिना अपने किसी दुष्कर्म के पीड़ित है, अहल्या बिना अपराध के दण्डित है, सीता बिना दोष के अपमानित है | ऐसा क्यों है ...”6

        समाज में नारी को बिना किसी अपराध के दंड का भागीदार बनना पड़ता है | सीता के लिए आर्येत्तर जातियों से विवाह प्रस्ताव आते हैं, जिन्हें जनक पसंद नहीं करते | और आर्य कुलों से जो प्रस्ताव आये थे वे जनक को स्वीकार्य नहीं थे क्योंकि वे या तो बूढ़े थे या उनके पहले से ही सौ-पचास रानियाँ थीं | उसी और संकेत करते हुए लेखक ने लिखा है की – “सीरध्वज ने यह नहीं सोचा था जब वह कन्या युवती होगी, तो जाति-पाँति, कुल-गौत्र और ऊँच-नीच की भावनाओं में जकड़े इस समाज में उसके विवाह की समस्या कितनी जटिल होगी ;... उसके जन्म और कुल-शील को लेकर प्रश्न, संदेह और लांछन थे | ... कोई नहीं मानता था कि वह सीरध्वज की पुत्री होने के कारण, मिथिला नरेशों के प्रसिद्ध कुल की राजकुमारी है | विभिन्न राजपरिवारों ने, सम्राट द्वारा सीता के दहेज में अपना सम्पूर्ण वैभव दे देने का अधिकार तो स्वीकार किया था, अपना कुल-गौत्र देने का नहीं |”7
        
इन परिस्थितियों में अपनी पुत्री का विवाह न होने के सम्बन्ध में अपवादों से बचने के लिए सीरध्वज ने सीता को वीर्य-शुल्का घोषित कर दिया | शर्त यह रखी कि वर को राजमहल में रखे शिव-धनुष का संचालन करना है | और राम ने उसी शिव-धनुष को खंडित कर सीता के विवाह की समस्या को हल किया | उसके साथ-साथ शिव-धनुष के राक्षसों के हाथ में पड़ जाने की आशंका को भी समाप्त कर दिया | राम ने एक बार फिर सामाजिक न्याय की रक्षा के लिए सीता से विवाह कर लिया और विश्वामित्र के लिए इसकी सामाजिक और राजनीतिक (जनकपुरी और अयोध्या के परम्परागत वैमनस्य का अंत) आवश्यकता महत्वपूर्ण थी |

        अतः लेखक नरेंद्र कोहली ने दीक्षाउपन्यास में नारी-शोषण व नारी-उद्धार का स्वर अहल्या, सीता व अन्यान्य शोषित स्त्रियों के माध्यम से प्रस्तुत किया है | वे अहल्या की पौराणिक कथा को यहाँ बिल्कुल नवीन व तर्क युक्त रूप में प्रस्तुत कर समाज को बताना चाहते हैं कि बलात्कृत नारियां स्वयं शिला के समान जड़ व निर्जीव हो जाती हैं, ऐसी नारियों को समाज की आत्मीयता व सहानुभूति की आवश्यकता होती है न कि घृणा की | सीता के माध्यम से वे भारतीय समाज में अज्ञातकुलशील नारी के विवाह की समस्या व सम्मान का प्रश्न उठाते हैं तो, गहन (निषाद) के परिवार की स्त्रियों के साथ हुए दुर्व्यवहार से सामान्य नारी वर्ग की दुर्दशा का चित्र खींचते हैं | लेखक इन समस्त नारियों के जीवन की त्रासदी का वर्णन करने के साथ ही राम द्वारा बिना किसी भेद-भाव के किए गए उनके उद्धार का चित्रण कर वर्तमान समाज के समक्ष उदहारण प्रस्तुत करना चाहते हैं | आज भी हमारे समाज में अनेक ऐसी तिरस्कृत स्त्रियाँ हैं जिनके उद्धार की आवश्यकता है जिन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ने की आवश्यकता है
             
सन्दर्भ सूची
1.            कोहली नरेन्द्र, “अभ्युदय भाग – 1 (‘दीक्षाखंड )”, वाणी प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, पृ.सं. 82
2.            वही, पृ.सं. 29
3.            वही, पृ.सं. 147
4.            वही, पृ.सं. 152
5.            सिन्धु के.सी., “रामकथा : कालजयी चेतना”, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, पृ.सं. 37
6.         कोहली नरेन्द्र, “अभ्युदय भाग – 1 (‘दीक्षाखंड )”, वाणी प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, पृ. सं. 159
7.            सिन्धु के.सी., “रामकथा : कालजयी चेतना”, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, पृ. सं. 38


              सरोज बैरड़
              शोध छात्रा (हिंदी साहित्य), वनस्थली विद्यापीठ
              सम्पर्क:9982229919,sarojbairad@gmail.com

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