शैक्षिक सरोकार: भारत की शिक्षा-व्यवस्था और आदिवासी/गोपाल कुमार

    चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
  वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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भारत की शिक्षा-व्यवस्था और आदिवासी/गोपाल कुमार

शिक्षा व्यवस्थित मानव-जीवन का आधार है। शिक्षा के द्वारा ही मानव अपने कर्तव्यों को समझ सकता है और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर सकता है। एक शिक्षित मनुष्य ही स्वयं को, अपने समाज और देश को भी विकास की बुलंदियों पर पहुँचाने की क्षमता रखता है। मनुष्य की प्रारम्भिक शिक्षा के दो मूल स्रोत हैं। एक, परिवार और समाज; दूसरा, विद्यालय और विश्वविद्यालय। मानव अपनी जीवन-शैली और संस्कार अपने परिवार और अपने समाज से सीखता है और उसकी वैचारिक शक्ति का विकास विद्यालय एवं विश्वविद्यालय में प्राप्त की जाने वाली शिक्षा से होता है।भारत में आदिवासी आदि-काल से ही अपनी परम्परागत जीवन-शैली के लिए जाने जाते हैं। इन्हें गिरिजन, वनवासी, जनजाति, अनुसूचित जनजाति आदि नामों से भी पहचाना जाता है। इनके निवास-स्थान प्रायः मूल आबादी से दूर हैं। ये या तो जंगलों में रहते हैं या घुमन्तू जीवन व्यतीत करते हैं। बहुत से आदिवासी आज खेती करने लगे हैं तो कई आज भी घुमक्कड़ जीवन व्यतीत कर खेल-तमाशे दिखाकर या व्यापार कर अपना जीवन-यापन करते हैं। कई आदिवासी आज भी आदिम जीवन जी रहे हैं। उदाहरण के तौर पर अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के आदिवासियों को देखा जा सकता है।

आज भी आदिवासियों के निवास-स्थान समाज की मुख्य धारा से अलग-थलग पड़े हैं। इनके इलाके जंगलों के अलावा खनिज-सम्पदा से भी भरे पड़े हैं। इनके इलाकों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों एवं सरकारी विभागों के द्वारा भारी मात्रा में खनन कार्य करवाया जाता है जहाँ इन आदिवासियों को मजदूर के रूप में रखा जाता है। आज के इस तथाकथित भूमंडलीकरण के युग में इन आदिवासियों को चौतरफा मार झेलनी पड़ रही है।

जहाँ तक आदिवासियों की पारम्परिक शिक्षा का प्रश्न है, यह तय है कि आदिवासी बेहद मुश्किल परिस्थितियों के अनुरूप खुद को ढाल पाने में सक्षम रहे हैं। आदिम युग से ही बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद स्वयं के अस्तित्व को बचाए रखना इतना आसान नहीं था। आदिवासी प्रकृति के बेहद निकट रहे हैं और इसके संरक्षक भी। बदलते मौसम, जंगल में पाई जाने वाली जड़ी-बूटियों, जंगली जानवरों एवं पक्षियों आदि के संबंध में इनकी ज्ञान-राशि अप्रतिम रही है। इनकी शिकार-कला, इनके नृत्य, इनकी समूह-भावना, स्त्री-पुरुष समानता आदि इनकी विरासतें रही हैं। इनके आतिथ्य-सत्कार की भावना, ईमानदारी, विश्वसनीयता आदि ऐसे गुण हैं जो इन्हें इनके परिवार और समाज से विरासत में मिले हैं।

आदिवासियों की अपनी एक सामाजिक व्यवस्था रही है। ये कई वर्षों तक समाज की मुख्य धारा से अलग-थलग रहे हैं। इनकी शिक्षा-व्यवस्था भी इनकी सामाजिक व्यवस्था का एक अंग रही है। आदिवासियों की पारम्परिक जीवन-शैली में उनके पारम्परिक शिक्षा-केन्द्रों की अविस्मरणीय भूमिका रही है। इन पारम्परिक शिक्षा-केन्द्रों में घोटुलभी एक है। डॉ. श्यामराव राठोड़ के शब्दों में, “भारतीय आदिवासी समाज में युवाओं में अनुशासन और सामाजिक शिक्षा प्रदान करने वाली संस्थाओं में घोटुलसंस्था एक है। यह एक प्रकार का शयनागारया युवागृहहोता है जहाँ आदिवासी समुदाय के युवक-युवतियाँ अपने गाँव, समाज, परिवार के बीच रहकर अपने बड़ों से जीवन के विविध क्षेत्रों के संबंध में शिक्षा ग्रहण करते हैं। यहीं रहकर युवक-युवतियाँ गीत, संगीत, अस्त्र-शस्त्र इत्यादि का शिक्षण-प्रशिक्षण भी पाते हैं।”1  इन युवागृहोंको भारत के विभिन्न प्रांतों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। जैसे – “ ‘मुंडातथा होजनजातियों में युवागृह गितिओराकहलाता है। जबकि उराँवजनजाति में धमखुरियाँ’, ‘बोड़ोजनजाति में सोलानीडिगो’, ‘भोटियाजनजाति में रंग-बंग’, ‘नागाजनजाति में मोरुंग’, ‘गारोजनजाति नोकपाते’, ‘भुइयाजनजाति में धनगरवासा’, ‘सेमीनागायुवतियों के लिए इलोइचीतथा युवकों के लिए इखूइचीतथा मध्य प्रदेश की गोंडजनजाति में गोटुलया घोटुलनामों का प्रचलन है।”2  आज तथाकथित भूमंडलीकरण के युग में इनके पारम्परिक शिक्षा-केन्द्र समाप्ति के कगार पर हैं। सुनील मिंज के शब्दों में, “इनके मुख्यधारा समाज के नजदीक आने से पहले उनके जो शिक्षा के पारम्परिक केन्द्र अखड़ा, धुमकुड़िया, पेलो एड़पा, घोटुल, गिती ओड़ा आदि हुआ करते थे, जिनका संचालन गाँव के बुजुर्ग व्यक्ति करते थे, जहाँ खेती के औजार बनाने, ग्राम रक्षा करने, अखड़ा में नाचने से लेकर जिंदगी के हर अध्याय की मौखिक परंपरा में पढ़ाई होती थी, उनका नामोनिशान मिट गया।”3

आदिवासियों के पारम्परिक ज्ञान की तथाकथित मुख्य धारा के समाज द्वारा घोर उपेक्षा भी की जाती है। यह तथाकथित मुख्य धारा का समाज आज के युग को विज्ञान का युग मानता है और आदिवासियों के पारम्परिक ज्ञान-विज्ञान एवं कलाओं को हेय दृष्टि से देखता है। इस संबंध में रामायण का एक प्रसंग उल्लेखनीय है। राम-रावण युद्ध के दौरान राम के अनुज लक्ष्मण पर रावण के पुत्र मेघनाद द्वारा शक्ति-वाण से प्रहार किया जाता है जिससे लक्ष्मण मूर्छित हो जाते हैं। राम द्वारा सुषेण वैद्य की सलाह पर हनुमान को संजीवनी बूटी लाने का कार्य सौंपा जाता है। हनुमान संजीवनी बूटी को पहचान नहीं पाते और पूरा पहाड़ ही उठाकर ले आते हैं। इसी से संबंधित एक दूसरा प्रसंग प्रेमचंद द्वारा रचित उपन्यास गोदानमें आता है। मेहता, मालती, खन्ना आदि शिकार पर जाते हैं। वहाँ मालती को सिर में जोरों का दर्द हो रहा है। हालाँकि वह खुद एक डॉक्टर है लेकिन जंगल में एलोपैथी दवाइयाँ कहाँ से मिलेंगी? वहाँ एक आदिवासी युवती बेहद कड़ी धूप में पहाड़ पर जाकर दवाई लेकर आती है। उस आदिवासी युवती का संवाद ध्यान देने योग्य है, “मैं अभी दौड़के एक दवा लाती हूँ। घिसकर लगाते ही अच्छा हो जाएगा।”4   वह युवती वेग से एक ओर जाकर पहाड़ियों में छिप गई। कोई आधा घंटा बाद मेहता ने उसे ऊँची पहाड़ी पर चढ़ते देखा। दूर से बिलकुल गुड़िया-सी लग रही थी। मन में सोचा इस जंगली छोकरी में सेवा का कितना भाव और कितना व्यावहारिक ज्ञान है। लू और धूप में आसमान पर चढ़ी चली जा रही है।”5  थोड़ी ही देर बाद वह दौड़ती-हाँफती चली आ रही थी। वही कलूटी युवती, हाथ में एक झाड़ लिए हुए। समीप आकर मेहता को कहीं जाने को तैयार देखकर बोली मैं वह जड़ी खोज लाई। अभी घिसकर लगाती हूँ, लेकिन तुम कहाँ जा रहे हो? मांस तो पक गया होगा, मैं रोटियाँ सेंक देती हूँ। दो-एक खा लेना। बाई दूध पी लेगी। ठंडा हो जाए, तो चले जाना।”6  लेकिन इसके बाद ही मालती का संवाद तथाकथित मुख्य धारा के समाज की सोच को प्रतिबिम्बित करता है, “अपनी दवाई रहने हो। नदी के किनारे, बरगद के नीचे हमारी मोटरकार खड़ी है। वहाँ और लोग होंगे। उनसे कहना, कार यहाँ लाएँ। दौड़ी हुई जा।”7  मालती के इस संवाद के बाद प्रेमचंद द्वारा की गई टिप्पणी अत्यंत मार्मिक है, “युवती ने दीन नेत्रों से मेहता को देखा। इतनी मेहनत से बूटी लाई, उसका यह अनादर! इस गँवारिन की दवा इन्हें नहीं जँची, तो न सही, उसका मन रखने को ही जरा-सी लगवा लेतीं, तो क्या होता।”8  गौरतलब है कि जो काम रामायणमें हनुमान नहीं कर सके, वह काम गोदानमें एक आदिवासी युवती ने कर दिखाया। लेकिन उसकी इस खासियत को कितना सम्मान मिला, यह स्वयं ही द्रष्टव्य है। आज भी तथाकथित मुख्य धारा की दुनिया प्रयोगशालाओं में दवाएँ बनाकर चूहों और मेढ़कों पर उन दवाओं के परीक्षण किये जा रही है लेकिन आदिवासियों के पास मौजूद साइड-इफेक्ट्ससे रहित दवाओं के ज्ञान से लाभ उठाने के बजाय उन्हें हेय और अविश्वसनीयता की दृष्टि से देखती है।
आज आदिवासियों को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से जोड़ने का उद्देश्य लेकर सरकार ने आदिवासी इलाकों में अनेक विद्यालयों की स्थापना की है। कई एन.जी.ओ. भी आदिवासी इलाकों में शिक्षा-व्यवस्था में कथित तौर पर अपना योगदान दे रही हैं। लेकिन आदिवासियों की विद्यालयी शिक्षा के मार्ग में अनेक बाधाएँ हैं। इन बाधाओं में भाषा की समस्या प्रमुख है। 

आदिवासियों की भाषाएँ भारत की मानक भाषाओं से भिन्न होती हैं। आदिवासियों को उनकी मातृभाषा में विद्यालयी शिक्षा नहीं मिल पाती। इन विद्यालयों में पढ़ाने वाले शिक्षक प्रायः गैर-आदिवासी होते हैं जो आदिवासियों की भाषाओं से अनभिज्ञ होते हैं। इससे कई आदिवासी बच्चे विद्यालयी शिक्षा को पूर्णरूपेण आत्मसात कर पाने में असफल रहते हैं। आदिवासियों की आर्थिक समस्या भी उनकी विद्यालयी शिक्षा के मार्ग में आड़े आती है। वे चाहते हैं कि उनके बच्चे पढ़ाई करने के बजाय उनकी खेती-बाड़ी और काम-काज में हाथ बँटाएँ। इतना ही नहीं, आदिवासी इलाके के विद्यालयों में आदिवासी बच्चों के साथ शिक्षकों का व्यवहार भी सौहार्दपूर्ण नहीं होता। ऐसे में शिक्षक एवं विद्यार्थियों के बीच दूरी बढ़ जाती है और अधिकतर आदिवासी विद्यार्थी विद्यालयी शिक्षा का त्याग करने में ही अपना हित समझते हैं।

आज के दौर में सरकार पूँजीवाद को ज्यादा समर्थन दे रही है। यही वजह है कि एक ओर सरकारी विद्यालयों में हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर पूँजीपतियों के लाभ के लिए सरकार निजी विद्यालयों को भी प्रोत्साहित करने में लगी है। आज शिक्षा एक व्यवसाय का रूप ले चुकी है। एक तो सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों के बहुत सारे पद रिक्त पड़े हैं, वहीं दूसरी ओर सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों को पल्स पोलियो टीकाकरण अभियान, जनगणना, मतदान आदि गैर-शैक्षणिक कार्यों में भी लगा दिया जाता है। आदिवासी इलाकों में सरकारी विद्यालयों में स्थिति और भी गम्भीर है। वहाँ गैर-आदिवासी ही नहीं, बल्कि जो थोड़े-बहुत आदिवासी पढ़-लिख गए हैं, वे भी काम करना नहीं चाहते। निजी विद्यालयों और सरकारी विद्यालयों के बीच अनंत काल तक बनी रहने वाली दीवार खिंच गई है। निजी विद्यालयों में नेताओं और नौकरशाहों के बच्चे पढ़ते हैं और ये लोग कभी नहीं चाहते कि ग्रामीण और आदिवासी बच्चे उनके बच्चों की बराबरी करें। यही कारण है कि सरकारी विद्यालयों के संबंध में बहुत बड़े बजट के बावजूद स्थिति जस की तस है।

यह भी गौरतलब है कि विद्यालयी और विश्वविद्यालयी शिक्षा प्राप्त करने के बाद आदिवासी समुदाय के लोगों में अपनी संस्कृति और जीवन-मूल्यों के प्रति भी उदासीनता का भाव आ जाता है। विद्यालयी शिक्षा के पाठ्यक्रम का परिवेश आदिवासियों की जीवन-शैली से नितांत भिन्न होता है जिस कारण आदिवासी विद्यार्थी विद्यालयी पाठ्यक्रम के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पाते। वीर भारत तलवार सुझाव देते हैं कि ऐसी पाठ्य-पुस्तकों की परिकल्पना की जाए जो आदिवासियों के समाज की स्वाभाविक उपज हो और उसे उसके स्वाभाविक विकास की ओर ले जाता हो।”9

 आज आदिवासी समाज शिक्षा के मामले में कई तरह की परेशानियों से एक साथ जूझ रहा है। सरकारी विद्यालयों में मातृभाषा में शिक्षा का अभाव, योग्य शिक्षकों का अभाव, पाठ्यक्रम का आदिवासी जीवन-शैली से मेल न खाना आदि समस्याएँ तो हैं ही, साथ ही आदिवासियों के परम्परागत शिक्षा-केन्द्रों का ह्रास, भूमंडलीकरण एवं बाहरी दुनिया का भारी हस्तक्षेप, विभिन्न धर्मों का आदिवासी जीवन-शैली में हस्तक्षेप आदि के कारण भी आदिवासियों की शिक्षा-प्राप्ति के मार्ग में बड़ी बाधाएँ उपस्थित हुई हैं। आज आदिवासियों को रोजगारोन्मुखी शिक्षा की आवश्यकता है जिससे वे अपने जीवन को आधुनिक काल की चुनौतियों से डटकर मुकाबला कर सकें।

    संदर्भ-सूची
  1. डॉ.श्यामराव राठोड़,साठोत्तरी हिन्दी उपन्यासों में आदिवासी जन-जीवन,मिलिंद प्रकाशन, हैदराबाद;2010, पृ.सं.208-209
  2. डॉ.श्यामराव राठोड़,साठोत्तरी हिन्दी उपन्यासों में आदिवासी जन-जीवन, मिलिंद प्रकाशन, हैदराबाद; 2010, पृ.सं.209
  3. सुनील मिंज, आदिवासी समाज और शिक्षा; कथा-क्रम (पत्रिका), अक्टूबर-दिसम्बर, 2011, पृ. सं. 95
  4. प्रेमचंद, गोदान, मारुति प्रकाशन, मेरठ; पृ. सं. 67
  5. वही
  6. प्रेमचंद, गोदान, मारुति प्रकाशन, मेरठ; पृ. सं. 68
  7. वही
  8. वही
  9. सौरभ कुमार, शिक्षा व्यवस्था और आदिवासी; युद्धरत आम आदमी (पत्रिका), दिसम्बर 2013 (वर्ष 2, अंक

  • गोपाल कुमारशोधार्थी (हिन्दी), हिन्दी विभाग, अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद-500 007, संपर्क-7893736097, gopal.eflu@gmail.com

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