लोकरंग:चित्तौड़गढ़ का समकालीन कला परिदृश्य - मुकेश कुमार शर्मा

त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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लोकरंग:चित्तौड़गढ़ का समकालीन कला परिदृश्य - मुकेश कुमार शर्मा 

चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे 
चित्तौड़गढ़ राजस्थान की धरती पर चाहे प्रकृति ने अपनी हरितमा का सुनहरा हस्ताक्षर न किया हो परन्तु यहां की विविध कला और संस्कृति ने इतिहास का निर्माण अवश्य किया है। इसी इतिहास में मेवाड़ का प्रसिद्द नगर जो भारत के इतिहास में चित्रकूट दुर्ग या चित्तौड़गढ़ के नाम से जाना जाता है। 7वीं से 16वीं शताब्दी तक सत्ता का एक महत्व पूर्ण केंद्र माना गया है। अपने प्राचीन वैभव को समेटे माध्यमिका जो आज नगरी कहलाती है भी कभी कला-संस्कृति का केंद्र रही है। चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर सैकड़ों वर्षो से शासकों ने भव्य एवं कलात्मक महलों का निर्माण करवाया है। 16वीं से 19वीं शताब्दी तक राजपूत कला काफी फली-फूली और समृद्ध हुई। राजस्थान की मेवाड़ शैली का प्रारंभिक चित्र "श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णी" है। जो 1260 ईस्वी में महाराणा "तेजसिंह "के काल में चित्रकार "कमलचंद्र" ने चित्रित किया। महाराणा अमर सिंह के काल में मेवाड़ शैली का रूप निर्धारण होकर विकसित होता गया था। इस समय अनेक विषयों पर चित्र बनाये गए, चित्रों में अपनी मौलिक विशेषता व रंगों का प्रभाव देखने को मिलता है। उस समय के चित्रकारों में साहिबदीन, मनोहर, गंगाराम, कृपारामोर, जगन्नाथ प्रमुख रहे हैं।मूर्तिशिल्प का उत्कृष्ट उदाहरण चित्तौड़गढ़ की कला में विजय स्तम्भ के रूप देखने को मिलता है जो 1440 ईस्वी में महाराणा कुम्भा ने बनवाया था।

राजूपत कला के साथ मुगल साम्राज्य के पतन तथा प्राचीन एवं मध्ययुगीन कला समाप्ति के बाद भारत अंग्रेजों के राज के साथ समकालीन भारतीय कला का समय प्रारम्भ हुआ। भारतीय कलाकारों ने देश के विभिन्न क्षेत्रो में समकालीन कला की अलख जगाई। इस युग के भारतीय कलाकार सर्वसंग्रहाक रहे। राजस्थान की समकालीन कला के विकास में प्रमुख रूप से कारण रहे यहाँ के कलाकारों का मौलिक सृजन और यहाँ की विविध कला संस्कृति। समकालीन कला-प्रवृत्तियों को चित्रित करते हुए ऐसे कलाकार भी हुए जिन्होंने लोक जीवन, परम्परागत ,प्रभाववादी और यहाँ की विभिन्न कला शैलियां एक उल्लेखनीय विशेषता है। राजस्थान के समकालीन कलाकारों में कुछ कलाकारों की कला में मेवाड़ शैली का रूपांतरण देखने को मिल जाता है। इन कलाकारों की कला शैली में वही परम्परागत कलम ऐतिहासिक भवनों, शिल्प निर्माण और पात्रों को उकेरा गया है। जहां राजस्थान के प्रसिद्ध चित्रकार स्वर्गीय मोहन शर्मा की कार्यशैली 16वीं शताब्दी के चामुंडा देवी के मंदिर बासोली की शिल्पकृति के अधिक निकट थी वही चित्रकार सुरेश शर्मा के चित्रों में मूर्तिशिल्प और ग्राफिक उनकी कला यात्रा में अनेक माध्यम करने का परिचायक है। उनकी कला राजस्थान में रह रहे समकालीन कलाकारों से अपने अर्थ और प्रभाव में भिन्न है।

राजस्थान के कई समकालीन कलाकार लोक जीवन और लोक संस्कृति से अपने आपको अलग नही रख पाये और ओने चित्र और रेखांकनों को ग्राम्य-संसार से चित्रित किया है। चित्तौड़गढ़ की कला का विकास क्रम प्रारंभिक स्वरूपों का उल्लेख 8वीं सदी में हृभद्रसूरी द्वारा रचित 'समराइच्च कहा' जैसे प्राकृत ग्रन्थों से प्राप्त कला सन्दर्भो में  मिला है।समकालीन कला में चित्रण की कई तकनीकों को आधार बनाते हुए मेवाड़ के कलाकारों ने चित्रण की भावना को अभिव्यक्त किया है और इस तरह से अपने मौलिक विचारों एवं गुणों को बांधा है।समकालीन कला के साथ ही यहाँ के चित्र संयोजन में आत्मिक सात्विकता, परम्परागत के साथ रागरागनियां, चित्र संयोजन, मूल आकार में सरलता, रंगों का प्रयोग प्रतीकात्मक रंग, रेखाओं के स्वरूप, रसो का चित्रण के साथ मानवीय अभिव्यक्तियों को बड़ी स्वाभिकता के साथ चित्रांकन करना यहाँ के कलाकारों का ध्येय रहा है।

सामाजिक चित्रण व्यक्तिवादी और सामाजिक प्रक्रियाओं में भावना की अभिव्यक्ति यहाँ के कला और साहित्य दोनों में अनुभव होती रही है।चित्तौड़गढ़ अपनी समृद्ध विरासत के साथ-साथ लोक कला शैलियों और अपनी विशिष्ठ कला शैलियों के लिए भी जाना जाता है।  रामायण में जिन 64 कलाओं का उल्लेख है उनमें वर्णित थेवाई कला ही आज की थेवा कला है। परंपरागत चित्रों का अंकन थेवा कला की पहचान है। इसका चित्रकला से गहरा नाता है। ये कलाकार परम्परागत और समसामयिक विषयों के ऊपर कलाकृति का आधार बनाते है। परम्परागत कला में एक नाम और जुड़ा है जिसे आकोला दाबु-बन्धेज हस्तकला के नाम से जाना जाता इसी कार्य शैली की यह सांस्कृति का केंद्र राष्ट्रीय पहचान बना है। आकोला में वस्त्र रंगाई छपाई का कार्य परम्परागत तरीके से हो रहा है। इसमें समसामयिक कला शैली का मिश्रण करके नये प्रयोग किये जा सकते। चित्तौड़गढ़ में फड़ कलाकारों के द्वारा यहा इस समृद्ध कला परम्परा के रंग से काफी जुड़ाव है। यहा के जोशी परिवार ने इस ऐतिहासिक धरोहर को वर्षों से विकसित किया है। यह कलाकार भीलवाड़ा-शाहपुरा के फड़ कलाकारों से सम्बन्ध रखते हैं। इस कला में समकालीन कुछ विषयों को छोड़ नये विषय पर चित्रण नही हुआ है। चित्तौड़गढ़ के युवा कलाकार इस दिशा में अग्रसर है जहां इस कला शैली में कुछ अभिनव प्रयोग कर फड़ कला को और नया आयाम दिया जाएगा ऐसी आशा है। चित्तौड़गढ़ की काष्ठ कला जो 400 वर्ष से भी अधिक पुरानी है। इस पारम्परिक कला  ने अनुपम छाप छोड़ी है। यहाँ के शिल्पकार लकड़ी के बेवाण, गणगौर , मंदिर जो जन आस्था का प्रतीक है।

समय के साथ यहाँ की काष्ठ कला काफी निखरी है। देश में कई जगह पर कला प्रदर्शनी के माध्यम से ये कला जानी-पहचानी गयी है। समकालीन कला के तौर पर इस कला को कला पाठ्यक्रम के अंर्तगत  पढ़ाया जाय ताकि आने वाली पीढ़ी इस पारम्परिक कला को समझ सके ऐसा मेरा मानना है। इस पारम्परिक कला के कारण यहाँ के कलाकारों को राष्ट्रीय पुरस्कार मिले है और सफलता के सौपान तय किए है। विगत कुछ वर्षों से चित्तौड़गढ़ में कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य हुए है जिनमे यहाँ कार्यरत कला संस्थाएं प्रमुख रूप से है। सूची बनाएं तो पाएंगे कि जिला उद्योग केंद्र, संस्कृति संस्थान और चित्तौड़गढ़ आर्ट सोसायटी कुछ नाम हैं। समसामयिक कला के क्षेत्र में आज चित्तौड़गढ़ में 'चित्तौड़गढ़ आर्ट सोसायटी' का नाम प्रमुख है। यहा संस्था राजकीय मान्यता प्राप्त और प्रमाणित है। गत चार वर्षों में इस सोसायटी ने विभिन्न कला महोत्सव का सफल सम्पादन किया है। चित्तौड़गढ़ आर्ट सोयायटी का प्रमुख उद्देश्य कला के क्षेत्र में अध्ययन शोध को बढ़ावा देना ,मुख्यतः ललित कला, चित्रकला आधुनिक  दृश्य कला, नृत्य, संगीत एवं लोककला के क्षेत्र में काम किया है। सोसायटी ने समान उद्देश्य वाली संस्थाओं के साथ मिलकर कार्य करके भारतीय व राजस्थानी कला एवं संस्कृति के विभिन्न आयामों के साथ वृद्धि की है। अब तक कला के क्षेत्र में अभिवृद्धि हेतु कला कार्यशाला, सेमिनार, कला उत्सव, गोष्ठियों का सफल सम्पादन कर विचारों का आदान-प्रदान किया है।, स्थानीय व आसपास के क्षेत्रों के युवा कलाकारों को मंच प्रदान करते हुए उनके विकास और प्रोत्साहन के कई काम हुए हैं। कला और सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाने के लिए नई पीढ़ी को शामिल कर कला का संवर्धन कर कार्यक्रमों का क्रियान्वयन और निष्पादन किया गया है। सामाजिक समरसता वाले कार्यक्रम भी सोसायटी द्वारा किए जाते रहे हैं। आर्ट सोसायटी द्वारा चित्तौड़गढ़ आर्ट फेस्टिवल, मानसून फेस्टिवल, दीपोत्सव, कृष्णचरित प्रथम और द्वितीय, चित्तौड़गढ़ फोर्ट फेस्टिवल जैसे कई राष्ट्रीय एवं इंटरनेशनल आयोजन का सफल संपादन किया गया है।

चित्तौड़गढ़ समकालीन कला परिदृश्य में चाक्षुक कलाओं को कुछ हद तक मान्यता व प्रोत्साहन मिला जरूर है। कला के क्षेत्र में जागरूकता बढ़ी है मगर जरूरत है कला महाविद्यालय की जिससे आने वाले समय में विभिन्न विद्यार्थी कला वर्ग की अकादमिक योग्यता हासिल कर सकें व कलाकारों का भविष्य बन सके।वे अपना भविष्य सुरक्षित महसूस कर सकें। पिछले 50 वर्षों में यहाँ के कलाकारों, हस्तशिल्पियों की कला लुप्त होती जा रही है। घर-घर में होने वाली रंगाई छपाई और स्त्रियों द्वारा नग बांधने का कार्य अब कम हुआ है। राशमी के पास आरणी गांव के चाकू, चित्तौड़गढ़ की ही मेहँदी, गोसुण्डा गांव के दस्तकारी कागज, बहियां और रोजनामचे के काम यहाँ होते रहे हैं। ये अब यहाँ के पाषाण, खंडहरों व महलों की तरह गौरव के अतीत बनकर रह गया है। चित्तौड़गढ़ में समकालीन कला परिदृश्य में हमने उस इतिहास को खोजने का प्रयास किया जिसके फलस्वरूप कला में समसामयिकता अथवा आधुनिकता की चेतना फलीभूत हो सके और इस क्षेत्र में सृजनात्मकता के लिहाज से कुछ सार्थक क्या किसा जा सके की पड़ताल की है।


मुकेश कुमार शर्मा
व्याख्याता,चित्रकला,सैनिक स्कूल,चित्तौड़गढ़
सम्पर्क:msmukeshart81@gmail.com,9460609478

1 टिप्पणियाँ

  1. अच्छा आलेख,लेकिन तेज सिंहजी की उपाधि रावल की थी,महाराणा उपाधि उनके 50वर्ष बाद प्रचलित हुई,सुंदर पत्र

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