नई सदी के हिंदी उपन्यास और किसान आत्महत्याएँ/डॉ. सचिन गपाट

त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
                नई सदी के हिंदी उपन्यास और किसान आत्महत्याएँ/डॉ. सचिन गपाट
                     
भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार कृषि और किसान है।  किसानों की उन्नति से ही देश की उन्नति संभव है। किसान पूरे देश का अन्नदाता है।  वैश्वीकरण के दौर में उसकी भी स्थिति में सुधार होगा ऐसा लगा था।  लेकिन आज के बाजारवादी दौर में वह हाशिए पर चला गया है।  उसकी फ़सल सामाजिक समस्या बन गयी है।  उसे अपनी फ़सल का उचित मूल्य नहीं मिल रहा है।  कर्ज की समस्या से वह घिरा हुआ है।  खाद, बिजली और पानी की समस्याएँ उसे परेशान कर रही हैं।  उसका कई आयामों पर शोषण हो रहा है।  आजादी के पहले शोषकों को किसान समझ सकता था।  लेकिन आज उसका चालाकी से शोषण किया जा रहा है।  इससे शोषकों को पहचानना भी मुश्किल हुआ है।

             आजादी के इतने साल बीत जाने पर भी किसानों को न्याय नहीं मिल पा रहा है।  वह समस्याओं के मकड़ जाल में घिरा हुआ है।  कभी प्राकृतिक आपदाएं तो कभी सरकारी नीतियों से वह परेशान हो रहा है।  उसकी फ़सल को उचित मूल्य न मिलना भी आज एक गंभीर समस्या हो चुकी है।  अच्छे बीजों की उपलब्धता और वितरण की असमानता की समस्या ने भी किसानों का जीना मुश्किल किया है।  किसानों के लिए सारे हालात ऐसे हैं कि जिंदा कैसे रहा जाए ?” इस स्थिति में वह फांसी के फंदे को अपनाकर आत्महत्या कर रहा है।  अब तक तीन लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्याएं की हैं।  किसान आत्महत्या आज चिंता का विषय बना है और वह भी विशेषकर कृषिप्रधान देश में !

              ‘भारत एक कृषि प्रधान देश हैयह उक्ति इतनी ज्यादा चलन में आ गयी की खेती, किसान और उससे जुड़े लोग सरकार की नीतियों में कहीं जगह नहीं पा सके।  किसानों के संबंध में सरकार की घोषणाएँ या तो फाइलों में बंद हो जाती हैं या बिचौलियों तक ही सिमट कर रह जाती हैं।  किसानों के संबंध में सरकार की योजनाएं वैसे भी कारगर नहीं रही हैं फिर भी जो योजनाएं बनाई गई उसका क्रियान्वयन सही ढंग से नहीं हो पाया।  परिणामस्वरूप खेती की नई-नई विधियों की जानकारी के आभाव में एवं दिन-प्रतिदिन खाद एवं बिजली के मूल्यों में बढ़ोत्तरी होने के कारण किसान खेती से लागत का मूल्य भी नहीं निकाल पाता हैं।  आज किसानों के समक्ष अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी एवं आत्महत्या जैसी अनेक समस्याएँ मुँह बाये खड़ी हैं।  देश की लगभग आधी फीसदी से ज्यादा आबादी सरकार और समाज दोनों के यहाँ हशिएँ पर है।  अगर साहित्य की बात करें तो स्वतंत्रता के बाद किसान जीवन की समस्याओं को लेकर उस लेखन के कलेवर का अभाव है जो प्रेमचंद के यहाँ दिखता है।  प्रेमचंद के बाद अनेक रचनाकारों ने किसानों की समस्याओं को लेकर उपन्यास लिखे हैं, उनमें समकालीन कथाकार शिवमूर्ति के उपन्यास आख़िरी छलांग’, संजीव का फांसतथा पंकज सुबीर का उपन्यास अकाल में उत्सवउल्लेखनीय हैं।

                  शिवमूर्ति का आख़िरी छलांगकिसान जीवन पर केन्द्रित उपन्यास है।  जो प्रेमचंद की परंपरा की ही एक कड़ी दिखती है।  आख़िरी छलांगउपन्यास का कथानक परस्पर उलझी हुई किसान जीवन की अनेक समस्याओं का जंजाल है।  कथानक का आधार पूर्वी उत्तर प्रदेश का ग्रामांचल है।  इसका नायक पहलवान एक किसान है।  उसके सामने विरासत में मिली तथा नयी विकास नीतियों के कारण निर्मित अनेक समस्याएँ हैं।  वह अपनी सायानी बेटी के लिए दो साल से वर खोज रहा है , बेटे की इंजीनियरिंग की फीस का जुगाड़ नहीं हो रहा है, तीन साल से गन्ने का बकाया नहीं मिल रहा है, सोसायटी से खाद के लिए लिया गया कर्ज चुकता नहीं हुआ है।  हर दूसरे महीने में ट्यूबवेल के बिल की तलवार सिर पर लटक जाती है।  ऐसी कई समस्याओं को पहलवान किसान के माध्यम से कथाकार ने अपने उपन्यास में उठाया है।  शिवमूर्ति ग्रामीण रचनाकार हैं।  उन्होंने किसानों की समस्याओं  को समझा तथा उनकी समस्याओं को महसूस किया है।  पहलवान महसूस करता है कि जैसे नहर के पेट भीतर सिल्ट भर जाती है उसी तरह किसान की तकदीर में भी साल दर साल सिल्ट भरती जा रही है।  अपनी किसान जीवन की समस्याओं से तंग आकर वह इस व्यवस्था से प्रश्न करता है कि सरे हालत तो मर जाने के हैं।  जिंदा कैसे रहा जाए। ”1

                ज़मीदार के ज़माने में किसानों का शोषण किया जाता था, उसको जेठ की धुप में मुर्गा बनाया जाता था, कोड़े से पिटवाया जाता था।  वह जमीदारों का जमाना था।  किन्तु आज इतने दिन बाद भी किसान की जिंदगी में बहुत कुछ नहीं बदला।  उसका शोषण हो रहा है।  पैसे वसूलने के लिए कानून का सिर्फ किसानों, मजदूरों के लिए इस्तमाल हो रहा है।  किसानों के नये सिरे से होने वाले शोषण को अब तो पहचानना भी मुश्किल हो रहा है।  इन परिस्थितियों के कारण किसानों के मन में घिरा अँधेरा बाहर के अँधेरे से भी ज्यादा घना हो रहा है।  इससे तंग आकर किसान पहलवान कहता है कि किसान के घर में जन्म लेकर न पहले कोई सुखी रहा है न आगे कोई रहेगा।  इन्हीं परिस्थितियों में जिंदगी की नाव खेना है। ”2

                   किसानों की समस्याओं को अभिव्यक्त करते हुए शिवमूर्ति जी ने इतिहास और वर्त्तमान को सामने रखा है।  उपन्यास मुख्य रूप से किसान जीवन की पेचीदगियों के प्रति सजग करता है।  इसमे किसान जीवन से जुड़ें सांस्कृतिक और धार्मिक संदर्भ भी मिलते हैं।  इसका आकार भले ही लघु हो लेकिन यह उपन्यास किसान जीवन की समस्याओं को व्यापकता के साथ प्रस्तुत करता है।  यह केवल अवध की धरती पर ही नहीं बल्कि समूचे भारत में चेतना लाना चाहता है।   
                 कथाकार संजीव ने अपने उपन्यास फांसमें किसान जीवन की विभिन्न समस्याओं को उकेरा है। उन्होंने किसानों की मूलभूत समस्या खाद, पानी, बीज, बिजली की समस्या, प्राकृतिक समस्या, फसल का उचित मूल्य न मिलने की समस्या, कर्ज की समस्या तथा आत्महत्या के कारणों को बड़े ही बेबाकी के साथ अपने उपन्यास में दिखाया है।  उपन्यासकार ने कर्ज की समस्या को अपने उपन्यास में इस तरह व्यक्त किया है- अगले महीने बैंक का २५ हजार का कर्ज अदा करना है।  आज गुढ़ी पाडवा है-मराठी नववर्ष। ...... फर्स्ट क्लास डिनर है आई। ”.... “ये जो भात है न आई, इसमें स्टार्च है, इसका माड न फेंको तो चावल की सारी ताकत बची रहती है, फिर मावा ! मेवा है मेवा ! ताकत ही ताकत ! मजबूती ही मजबूती !”....... “इसके सामने नासिक का किसमिश फेल, रत्नगिरि का हापुस फेल और कलमी के साग में आयरन ही आयरन।  और स्वाद ? ....... शुभा सामने आकर खड़ी हो गयीं तो झेप गया पूरा परिवार ! शुभा ने तरस खाती जुबान से कहा –“आज नववर्ष है।  आज तो कुछ कायदे की चीज बना लेती ! चलो मैं देती पूरण पोली !नहीं वहिणी कोई तो दिन आएगा, हम भी पूरण पोली और ढेर सारा पकवान बनाएँगे।  आज रहने दो।

मगर क्यों ?”
वो सुनील काका ने कहा है न कि जब तक कर्ज न उतार लो....।
समझी।  अरे तुम मियां बीवी ! तुम्हें तपस्या करनी हो, शौक से करो, मगर मुलगियों को तो बख्श दो। ”3
                 भारत का किसान जीवन भर ब्याज भरता रहता है तथा अपना कर्ज पुत्र को विरासत में दे देता है।  किसानों का दोहन अनवरत जरी रहे इस हेतु अंग्रेजों ने मालगुजारी जैसे तमाम अधिनियमों को क़ानूनी तौर पर वैधता प्रदान की।  सरकार की आर्थिक नीतियाँ, भू-राजस्व की नई प्रणाली और प्रशासनिक व न्यायिक व्यवस्था ने किसानों की कमर तोड़ दी।  प्रेमचंद के यहाँ जो कर्ज की समस्या थी प्रायः वही समस्या आज भी मौजूद है लेकिन उसका स्वरूप बदल गया है। पहले जमींदार, साहूकारों के माध्यम से उनका शोषण होता था आज सरकारी दफ्तरों और बैंको के माध्यम से।    
             सबका पेट भरने और ढकने वाले देश के लाखों किसानों और उनके परिवारों को जिनकी हत्या या आत्महत्या को रोक नहीं पा रहे हैं।  फांससंजीव द्वारा किसान आत्महत्या पर केन्द्रित अनेक वर्षों के शोध का परिणाम है।  फांस खतरे की चिंगारी भी है और आत्महत्या के विरुद्ध  दृढ़ आत्मबल प्रदान करने वाली चेतना भी।   
         
            किसान जीवन को ही केंद्र में रखकर पंकज सुबीर ने अकाल में उत्सवउपन्यास की रचना की है।  इस उपन्यास में ग्रामीण जीवन और विशेषत: किसानों की जिंदगी पर बहुत करीने से रोशनी डाली गई है।  किसान की सारी आर्थिक गतिविधियाँ कैसे उसकी छोटी जोत की फसल के चारों ओर केन्द्रित रहती हैं और किन उम्मीदों के सहारे वे अपने आप को जीवित रखते हैं, यह उपन्यास का कथानक है।  रामप्रसादके माध्यम से पंकज सुबीर बताते हैं कि आम किसान आज भी मौसम की मेहरबानी पर किस हद तक निर्भर है।  मौसम के उतार- चढाव के साथ ही किसानों की उम्मीदों का ग्राफ भी ऊपर-निचे होता रहता है।  किसान इन उतार-चढ़ाव के बीच अपने आप को कोसता रहता है।  मैंने नहीं जाना जेठ की लू कैसी होती है और माघ की वर्षा कैसी होती है।  इस देह को चीर कर देखो, इसमें कितना प्राण रह गया है, कितना जख्मों से चूर, कितना ठोकरों से कुचला हुआ।  उससे पूछो, कभी तूने विश्राम के दर्शन किये, कभी तू छांह में बैठा। उस पर यह अपमान और वह अब भी जीता है, कायर, लोभी, अधम।  उसका सारा विश्वास जो अगाध होकर स्थूल और अँधा हो गया था, मानो टूक-टूक उड़ गया है।  अकाल में उत्सवउपन्यास को समझने के लिए रामप्रसाद की देह को चिर कर देखना होगा कि उसकी लालसाएं क्या हैं, कि उसके संघर्ष क्या हैं, कि वह अपनी जीवन-यात्रा के आखिरी पड़ाव पर किन अनुभवों और विश्वासों के साथ उनका हो जाता है।  रामप्रसाद एक छोटा आदमी है, किसान है, उसकी लालसा भी छोटी है।

                 ‘अकाल में उत्सवमें किसान जीवन की छोटी- छोटी समस्याओं को भी कथाकार ने जगह दी है।  किसानों की मूलभूत समस्या के.सी.सी. समस्या, प्राकृतिक समस्या तथा सरकारी मुआवजा जैसी समस्याओं को कथाकार ने बड़े ही गहराई के साथ चित्रित किया है।  किसानों की फसल नष्ट होने पर मुआवजा न मिलने की समस्या को सुबीर जी ने अपने उपन्यास में बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है - लेकिन सर किसान तो सरकार के ही भरोसे है न ? अगर सरकार उसको मदद नहीं करेगी तो कौन करेगा ? खेतों में खड़ी फ़सल अगर बरबाद हो गई, तो किसान क्या करे, क्या मर जाए ?” आगे सरकारी अफसरों के माध्यम से किसानों के प्रति सरकार का घिनौना चेहरा भी इस उपन्यास में प्रस्तुत होता दिखाई पड़ता है-तो मर जाए ? सरकार के भरोसे बैठा है क्या ? दुनिया में सब अपने-अपने भरोसे बैठे हैं।  आपको किसने कहा है खेती करो ? मत करो अगर नुकसान का इतना ही डर है तो।  जब कहा ही जाता है कि खेती तो मौसम के भरोसे खेला जाने वाला जुआ है, तो क्यों खेलते हो इस जुए को ? किसी ने कहा है क्या आपसे ? मत करो खेती कोई दूसरा काम करो।”4
                  ‘अकाल में उत्सवमें निरंतर समृद्धशील, सुविधासंपन्न, अत्याधुनिक हो रहे सभ्य मानवीय समाज में पशुओं से बदतर हताशा से भरा जीवन जीने को विवश किसान और मजदूरों के लिए बार-बार उठने वाले सवाल को प्रखरता से उठाया गया है।  वह हमें हमारे बदबूदार गिरेबानों में झांकने को विवश करता है।  यही रचना की ताकत है कि जब हम मूल मुद्दों से आँख मूंद लेते हैं तो वह अपने शंखनाद द्वारा हमें सजग कराती है।         
             किसान संघर्ष की गाथा को ये उपन्यास किसान के जीवन की विभिन्न समस्याओं को रेखांकित करते नजर आते हैं।  वर्त्तमान में उनकी सबसे बड़ी समस्या आत्महत्या की समस्या है जिसे उपन्यास में बड़े ही मार्मिक ढंग से दिखाया गया है बिज्जू की आत्महत्या को फांस में इस प्रकार व्यक्त किया गया है आत्महत्या का कारण ....?” “जन्मने और मरने के अलग-अलग कारण नहीं हुआ करते।  वही फसल का नष्ट होना, वही ऋण, वही भावुकता....। ”5

               इस प्रकार कह सकते हैं कि 21 वीं सदी के हिंदी उपन्यासों में किसान आत्महत्या का जो रूप दिखाई पड़ता है वह वास्तव में उसका एक प्रतिरुप मात्र है।   असल जिंदगी किसानों की इससे भी बदतर दिखाई पड़ती है, परन्तु उपन्यासों में उनके जीवन की  कुछ झलक दिखाई पड़ जाती  है जो संवेदनाओं को झकझोरकर किसान जीवन पर सोचने के लिए मजबूर करती  है। किसान  आत्महत्या को उकसाने वाली पृष्ठभूमि को सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य ये उपन्यास करते हैं।  उपन्यासों में खेती की समस्या, कर्ज, दहेज़, बाजारवाद, सरकारी नीतियाँ, महगाई, शोषण आदि किसान जीवन से जुडी समस्याओं का चित्रण हुआ है। 21 वीं सदी के उपन्यासकारों ने केवल यथार्थ को अभिव्यक्ति नहीं दी, बल्कि आशावाद को भी प्रकट किया है। किसानों को आत्महत्या की ओर ले जाने वाली स्थितिओं के विरोध में लड़ने के लिए ये उपन्यास सामाजिक संगठन पर बल देते हैं। इनमें किसान जीवन को सुधारने के लिए अनेक अंतरराष्ट्रीय संदर्भ भी दिए हैं।  किसानों को अपने ऊपर मडराते खतरे की आहट भी इन उपन्यासों में मिलती है।  कुल मिलाकर भारतीय किसानों की आज की दशा और आत्महत्या के संदर्भ इन उपन्यासों में चित्रित हुए हैं। किसानों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार तत्व और किसान आत्महत्याओं की जमीनी सच्चाई नई सदी के इन उपन्यासों में यथार्थ रूप में प्रकट हुई है।  

संदर्भ 
1.            शिवमूर्ति, आख़री छलांग, उपन्यास, पृष्ठ सं.- 79
2.            वही, पृष्ठ सं.- 83
3.            संजीव, फांस, उपन्यास, पृष्ठ सं.-61-62
4.            पंकज सुबीर, अकाल में उत्सव, उपन्यास, पृष्ठ सं.-170
5.            संजीव, फांस, पृष्ठ सं.-150
6.            वीर भारत तलवार - किसान, राष्ट्रीय आंदोलन और प्रेमचंद : 1918-1922
              
डॉ. सचिन गपाट
सहायक आचार्य, हिंदी विभाग,मुंबई विश्विद्यालय
ई-मेल :sachin.hindi@mu.ac.in मो. 9423641663

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